बुधवार, 29 अप्रैल 2020

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद

मित्रों, जब इस समय पूरी दुनिया को कोरोना से लड़ना पड़ रहा है हम भारतीयों को दुर्भाग्यवश कोरोना के साथ-साथ धर्मांध जेहादियों से भी लड़ना पड़ रहा है. जगह-जगह पूरे भारत में स्वास्थ्यकर्मियों और पुलिसकर्मियों पर हमले हो रहे हैं. जो लोग बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपनी जान दांव पर लगाकर सबकी जान बचाने में लगे हैं उनके ऊपर पुष्पवृष्टि करने के बदले पथराव किया जा रहा है.
मित्रों, अभी-अभी दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष श्री जफरुल इस्लाम खान का एक ट्विट काफी वायरल हो रहा है जिसमें उन्होंने जाकिर नाईक नामक घृणास्पद व्यक्ति को महान बताते हुए आरोप लगाया है कि तबलीगी जमातियों को छोड़ा नहीं जा रहा है अर्थात कैदी बना लिया गया है. मैं पूछता हूँ कि जब जमाती पागल कुत्ते की तरह व्यवहार कर रहे थे तब श्री खान कहाँ थे? क्या श्री खान की नज़रों में सिर्फ मुसलमान ही मानव हैं और क्या सिर्फ उनका ही मानवाधिकार होता है? क्या दिन-रात मानवता की सेवा में लगे पुलिसकर्मी और स्वास्थ्यकर्मी उनकी नज़र में मानव नहीं हैं? मैं श्री खान से पूछना चाहता हूँ कि उनके कृत्यों को देखते हुए क्या उनको खुला छोड़ना देश और समाज के लिए खतरनाक नहीं होगा? क्या इन जमातियों की मानसिक हालत ठीक है?
मित्रों, इतना ही नहीं श्री खान भारतवर्ष को अरब देशों का नाम लेकर धमकी दे रहे हैं कि जब अरब देशों तक यह समाचार पहुंचेगा कि जमातियों को कैद कर लिया गया है तब भारत में सैलाब आ जाएगा. वाह खान साहब रहना-खाना भारत में और भक्ति अरब देशों की. अरब देशों ने तो खुद ही तब्लिगियों पर पाबन्दी लगा रखी है फिर वे क्यों भारत से उलझेंगे? और अगर उलझ भी गए तो भारत का क्या बिगाड़ लेंगे? इस समय तो तेल के गिरते दाम ने खुद उनका ही दम निकाला हुआ है.
मित्रों, सवाल उठता है कि श्री खान जैसे पढ़े-लिखे लोग कैसे धर्मांध और जेहादी हो सकते हैं? सांप के तो सिर्फ एक या दो दांतों में जहर होता है इनके तो दिमाग में ही जहर है. उस पर भारत के धर्मनिरपेक्षतावादी नेता इनको लगातार तुष्टीकरण का दूध पिला रहे हैं. जबकि सच्चाई तो यह है कि पयःपानं हि भुजन्गानाम केवलं विषवर्द्धनम. तुष्टीकरण से याद आया कि जर्मनी में हिटलर ने आज से ठीक सौ साल पहले राजनीति में प्रवेश किया था. आरम्भ में हिटलर ने साम्यवादियों को कुचलना शुरू किया और तब इंग्लैण्ड और फ़्रांस ने उसकी खूब मदद की और तभी इस तुष्टीकरण का अत्यंत घृणित स्वरुप देखने को मिला. लेकिन जब हिटलर ने इंग्लैंड और फ़्रांस के मित्र देशों पर भी हमला करना और उनको अधिकृत करना शुरू कर दिया तब तुष्टीकरण करनेवाले मित्र राष्ट्रों के होश उड़ गए और अंततः द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते दुनिया और मानवता को भारी नुकसान उठाना पड़ा.
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि तुष्टिकरण किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता अलबत्ता उसे बढ़ा जरूर सकता है. हम दिन-रात ऊं द्यौ शांति, अंतरिक्ष शांति पढ़ रहे हैं. पढना भी चाहिए लेकिन क्या सामनेवाले के मन में भी यही भाव हैं?  हमने तो नफरत करना सीखा ही नहीं और सिर्फ प्रेम के ढाई अक्षर जानते हैं लेकिन क्या सामनेवाले ने भी प्रेम का ढाई आखर पढ़ा है या उसके मन में सिर्फ नफरत का जहर है. नफरत एकतरफा हो सकती है प्रेम तो एकतरफ़ा हो ही नहीं सकता. ऐसा नहीं है कि उनमें प्रेम करनेवाले बिलकुल हुए ही न हों-दरिया साहब, रहीम, रसखान, यारी साहब, खुसरो, ताज, नज़ीर, कारे खान, करीम बख्श, इन्शा, बाजिंद, बुल्लेशाह, आदिल, मक़सूद, मौजदीन, वाहिद, दीन दरवेश, अफ़सोस, काजिम, खालस, वहजन, लतीफ़ हुसैन, मंसूर, यकरंग, कायम, फरहत, काजी अशरफ महमूद, आलम, तालिबशाह, महबूब, नफीस खलीली, सैयद कासिम अली और निजामुद्दीन औलिया जैसे अनगिनत ऐसे प्रेमी हुए हैं जो कबीर की तरह दिन-रात गाते फिरते थे
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या? 
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या? 
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते, 
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या? 
इन मुस्लिम राम-कृष्ण के भक्तों के लिए एक समय श्री भारतेंदु हरिशचंद्र जी ने कहा था कि- ‘इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्दुन वारिये.’
मित्रों, सवाल उठता है कि जिस निजामुद्दीन औलिया ने पूरी दुनिया को खालिस इश्क का सन्देश दिया आज उनकी ही दरगाह पर तबलीग का आयोजन कर नफरत की शिक्षा दी जाती है? इश्क यानि प्रेम भगवान द्वारा प्राणिमात्र को प्रदत्त सबसे अमूल्य धन है फिर हम शैतान के सबसे बड़े अवगुण नफरत को क्यों गले लगा रहे हैं? आखिर क्या मिल जाएगा खाद्य पदार्थों में थूकने से, पेशाब करने से या लैट्रिन मिला देने से? ऐसा करने वालों को लगता है कि वे ऐसा करके दूसरों का धर्म भ्रष्ट कर देंगे लेकिन धर्म तो खुद इनका भ्रष्ट हो रहा है और बदनाम भी हो रहा है। हम जानते हैं कि मुसलमान हिटलर से नफ़रत करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जो भी समाज सर्वधर्मसमभाव, सहअस्तित्व और सहिष्णुता की नीति पर नहीं चलता वो समाज हिटलरों का समाज है। क्या भारत के मुसलमान सुंदर-सुभूमि भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं जहां कोरोना जैसी विषम परिस्थिति में भी हिंदुओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है? क्या यही इस्लाम है? क्या यह धर्म है? फिर अधर्म क्या है? दूर सीरिया और पाकिस्तान को छोड़िए हमारे बगल के शहर पटना में सन्नी गुप्ता की सिर्फ इसलिए एक मुसलमान ने हत्या कर दी क्योंकि उसने कोरोनावीरों के साथ उनके द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार का विरोध किया था. इतना ही नहीं उसकी शवयात्रा पर मुस्लिमों की भीड़ द्वारा पत्थरबाजी भी की गई जबकि शवयात्रा में शामिल महिलाएँ तक हाथ जोड़कर उनसे ऐसा न करने का निवेदन कर रही थीं. बाद में सन्नी गुप्ता के परिजनों ने मुस्लिमबहुल इलाके में स्थित अपने घर पर यह मकान बिकाऊ है का बोर्ड लगा दिया. क्या यही धर्म है? विश्वास नहीं होता कि यही मुसलमान साल में पूरे एक महीने तक हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिजनों के साथ हुई क्रूरता और अत्याचार की याद में शोक मनाते हैं. तुलसी कहते हैं-परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई. फिर किसी पंथ या मजहब में परोपकार के स्थान पर परपीड़ा कैसे महान पुण्य का करणीय कार्य हो सकता है.
मित्रों, इस आलेख का अंत हम महान शायर व भारतमाता के महान बेटे मिर्ज़ा असदुल्लाह खान ग़ालिब की इन पंक्तियों से करना चाहेंगे-
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

भारत को चाहिए विकास का नया मॉडल


मित्रों, भारत जब आजाद हुआ तब देश के समक्ष बड़ी महती समस्याएँ थीं. सबसे बड़ा सवाल जो भारत के नीति निर्माताओं के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था वो यह था कि भारत को कौन-सा विकास मॉडल चुनना चाहिए. उस समय दुनिया में दो तरह की अर्थव्यवस्था थी-अमेरिका वाली पूंजीवादी और सोवियत संघ वाली समाजवादी. चूंकि नेहरु भारत को गुटनिरपेक्ष दिखाना चाहते थे इसलिए उन्होंने दोनों में से थोड़े-थोड़े गुणों को समाहित करते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था का चयन किया. देखते-देखते गाँव और शहर दोनों बदलने लगे. पशुधन आधारित कृषि का तीव्र यंत्रीकरण कर दिया गया और उसको हरित क्रांति का नाम दिया गया.

मित्रों, उधर शहरों में बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना भी की जा रही थी जिनमें बड़े पैमाने पर श्रम की आवश्यकता थी. अब गाँव के मजदूरों के पास एक विकल्प उपलब्ध था जिससे गांवों से देश के पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी भागों की तरफ पलायन शुरू हुआ. कांग्रेस की किराया समानीकरण की नीति के चलते खनिज उत्पादक राज्य मुंह देखते रह गए और कालांतर में मजदूरों के आपूर्तिकर्ता मात्र बनकर रह गए. उधर गांवों में सिर्फ गेंहू और धान के उत्पादन को बढ़ावा देने से कृषि से विविधता समाप्त हो गयी और मोटे अनाजों की खेती लगभग बंद हो गयी.

मित्रों, सदियों से हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक बंद अर्थव्यवस्था थी. ग्रामीणों की जरुरत की सामग्री गांवों में ही उत्पादित की जाती थी जिससे प्रत्येक गाँव अपने-आपमें आत्मनिर्भर था. तब लोगों की जरूरतें भी कम थीं. लेकिन १९४७ के बाद गांवों की अर्थव्यवस्था को बंद से खुली अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया और वो भी जबर्दस्ती. अब गाँव के लोगों को कृषि के लिए रासायनिक खाद और कीटनाशकों की जरुरत पड़ने लगी जिनका उत्पादन बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बड़े-बड़े शहरों में करती थीं. प्रमाणित व संकर किस्म के बीजों का प्रचालन बढाया गया जिससे भोजन से स्वाद गायब हो गया साथ ही पौष्टिकता पर भी असर पड़ा.

मित्रों, १९९० में सोवियत संघ के विघटन के बाद अचानक पूरी दुनिया में पूंजीवाद और निजीकरण ने जोर पकड़ा साथ ही उपभोक्तावाद ने भी. भारत भी इससे अछूता नहीं रहा और शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय में समय के साथ कमी आती गयी. इसका असर यह हुआ कि सरकारी स्कूलों में पढाई का स्तर गिरने लगा जिससे गाँव के लोग मजबूरी में आस-पास के शहरों में बसने लगे और शहरीकरण काफी तेज हो गया.

मित्रों, इन सभी कारणों से गांवों में एक तरफ मजदूरों तो दूसरी तरफ किसानों की संख्या घटती गयी और गांवों के घरों में ताले लटकने लगे. मगर जैसे ही कोरोना महामारी के चलते देश में लॉक डाउन करना पड़ा पूरा विकास मॉडल चरमरा गया. भारी संख्या में मजदूर अपने घरों से हजारों किमी दूर फंस गए. उनकी हालत ऐसी हो गई है कि वे अपने कार्यस्थलों पर न तो रह सकते हैं और न ही अपने घर ही जा सकते हैं. अगर इन मजदूरों को अपने घरों के आस-पास ही काम मिल गया होता तो इनको अपने गांवों से बाहर निकलना ही नहीं पड़ता. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत सरकार को अब उद्योगों का भी विकेंद्रीकरण करना होगा जिससे सिर्फ क्षेत्र विशेष में उद्योगों का जमघट न हो और कोरोना महामारी जैसी परिस्थितियों में मजदूर घर से बहुत दूर फंस न जाएँ. हालाँकि अब कृषि में सौ-पचास साल पहले वाला समय नहीं लौटाया जा सकता है क्योंकि मनुष्य मूलतः सुविधाभोगी होता है लेकिन कृषि आधारित लघु और माध्यम उद्योगों को स्थापित कर गांवों को आत्मनिर्भर जरूर बनाया जा सकता है इसके लिए उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले का अनुकरण किया जा सकता है. साथ ही बढती जनसंख्या को भी रोकना होगा.

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

पालघर जहां पर खून गिरे संतन के

मित्रों, प्रसंग महाभारत से है. पांडव अज्ञातवास में थे. विराट युद्ध के पश्चात् राजा विराट के महल में सूचना आती है कि राजकुमार उत्तर ने अकेले ही देवताओं के लिए भी अपराजेय कौरव सेना को परास्त कर दिया है और राजमहल वापस आ रहे हैं. ख़ुशी के मारे राजा विराट पूरे राज्य में दिवाली मनाने का आदेश देते हैं और अंपने दरबारी कंक जो वास्तव में महाराज युधिष्ठिर हैं के साथ जुआ खेलने बैठ जाते हैं. इस दौरान एक तरफ राजा विराट बार-बार अपने पुत्र की बडाई करते हैं वहीँ दूसरी ओर कंक बार-बार बृहन्नला जो वास्तव में महारथी अर्जुन हैं की तारीफ करते हैं. जब ऐसा बार-बार होता है तब राजा विराट खीज में आकर कंक के मुंह पर जुए का पासा दे मारते हैं जिससे युधिष्ठिर के होठों से रक्तस्राव होने लगता है. यह देखकर सैरेन्ध्री अर्थात महारानी द्रौपदी स्वर्णपात्र में टपकते हुए खून को जमा करने लगती है. फिर तो राजा विराट सैरेन्ध्री पर भी नाराज हो उठते हैं और कहते हैं कि वो यह क्या कर रही है. तब सैरेन्ध्री उत्तर में कहती है कि यह खून ऐसे संत का है कि इसकी जितनी बूँदें आपके राज्य की धरती पर गिरेंगी उतने वर्षों तक राज्य में अकाल रहेगा.
मित्रों, फिर पालघर, महाराष्ट्र में तो निर्दोष संतों की हत्या हुई है. जिस इन्सान ने भी उनकी हत्या के वीडियो को देखा है मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि उनका ह्रदय इस समय रो रहा होगा. क्षमा करें मैं यहां केवल इंसानों की बात कर रहा हूं। वे निरीह बार-बार भीड़ के समक्ष हाथ जोड़ रहे थे लेकिन भीड़ उन पर ताबड़तोड़ लाठियां बरसा रही थीं जैसे वह भीड़ इंसानों की नहीं रक्तपिपासु भेड़ियों की हो. सबसे बड़ा अपराध तो उन पुलिसवालों का था जिन्होंने उनको ले जाकर स्वयं अपने हाथों से खूनी भीड़ के हवाले कर दिया. ७० साल का लाचार वृद्ध बार-बार पुलिसवाले की कमीज और हाथ पकड़ रहा था इस उम्मीद में कि वो उनको बचा लेगा लेकिन पुलिसवाला बार-बार उसके हाथों को झटक दे रहा था. क्या यही है क़ानून के लम्बे हाथ? हत्या के बाद जब पुलिसवालों ने अपने उच्चाधिकारियों को घटना के बारे में बताया तो उन्होंने इसे सड़क दुर्घटना बताकर मामले को रफा-दफा करने की पूरी तैयारी कर ली. लेकिन भीड़ मे से किसी व्यक्ति ने इस भयानक हत्याकांड का वीडियो बना लिया था जिसे उसने कल घटना के चार दिनों के बाद वायरल कर दिया. इसके बाद भी वहां की सरकार मीडिया पर ही डंडा चलाती हुई दिखी और गिरफ्तार हत्यारों के नाम तक नहीं बताए. शायद इससे उन महामानवों का मानवाधिकार संकट में आ जाता. फिर भी जो ख़बरें छन कर आ रही हैं उनके अनुसार शैतानों की भीड़ में सत्तारूढ़ एनसीपी और सीपीएम के नेता मौजूद थे और उनके ही निर्देशन में इस पूरे घटनाक्रम को अंजाम दिया गया.
मित्रों, सूचना आ रही है हत्यारों को गिरफ्तार कर लिया गया है और पुलिसवालों को निलंबित कर दिया गया है. लेकिन क्या इतनी कार्रवाई काफी है अपराध की जघन्यता को देखते हुए? फिर पुलिस ने ९ हत्यारों को नाबालिग बताते हुए सुधार गृह में भेज दिया है. सवाल उठता है कि जो हत्या जैसा
नृशंस अपराध कर सकता है वो बच्चा कैसे हो सकता है? इस घटना में शामिल सभी लोगों और पुलिसवालों को सीधे फांसी होनी चाहिए और वो भी त्वरित गति न्यायालय में मुकदमा चलाकर हफ्ते-दो-हफ्ते के भीतर.
मित्रों, आपको क्या लगता है यह किसकी हत्या है? क्या यह इंसानियत की हत्या नहीं है? क्या यह जनता के पुलिस-प्रशासन पर कायम विश्वास की हत्या नहीं है? क्या उन संतों की कार से कोई बच्चा बरामद हुआ था? फिर क्यों उनको पीट-पीट कर मार दिया गया? महाराष्ट्र की सरकार का बंटाधार होना तो तय है क्योंकि उसके शासन में संतों की हत्या हुई है लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार हत्यारों के नाम क्यों उजागर नहीं कर रही? माना कि ९ नाबालिग हैं लेकिन सबके-सब नाबालिग तो नहीं हैं? फिर यह पर्देदारी क्यों? आखिर क्या छुपाना चाह रही है सोनियासेना सरकार?
मित्रों, अंत में मैं आप सबसे विनती करना चाहूंगा कि इन संतों की हत्या की तुलना किसी गो तस्करी या गो हत्या जैसे अक्षम्य अपराध में संलिप्त राक्षस के वध से न करें। जैव वैज्ञानिक दृष्टि से मानव तो निर्भया के अपराधी भी थे।

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

नित नूतन सतीश नूतन की कविता


मित्रों, कभी-कभी किसी-किसी को जीवन में वो सब मिल जाता है जिसका वो हक़दार नहीं होता और कभी-कभी किसी-किसी को इसके उलट वो सब नहीं मिल पाता जिसका वो हक़दार होता है. हाजीपुर के महाकवि स्वर्गीय हरिहर प्रसाद चौधरी नूतन के सुपुत्र सतीश नूतन इसी दूसरी श्रेणी में आते हैं. सम्प्रति हाजीपुर के टाउन हाई स्कूल में क्लर्क सतीश जी उन कोमल भावनाओं के कवि हैं जो बढती प्रच्छन्नताओं के कारण हमारे जीवन से लुप्तप्राय हो चुकी हैं. उनकी कविताओं में आप बच्चों के निश्छल बचपन को महसूस करेंगे, गरीबों की मजबूरी भी देखने को मिलेगी, देशभक्ति के स्वर भी देखने को मिलेंगे और गंगा जल जैसी पवित्रता के साथ श्रृंगार रस भी. नूतन जी की कविताओं में आपको अक्सर हाजीपुर की स्थानीय भाषा बज्जिका के शब्दों का सौन्दर्य देखने को मिलेगा जैसे फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों में पूर्णिया की मिटटी की पहली बरसात की सोंधी-सोंधी खुशबू मिलती थी. तो आप मित्रगण भी आनंद लीजिए नूतन जी की सबसे नई कविता का जिसमें उन्होंने कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में परदेश से बिहार लौटे मजदूर की व्यथा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है-
क्वारंटाइन केन्द्र के एक मजदूर की व्यथा 

आया था ई सोच के दिल्ली
खूब कमाऊंगा
कम ही खाऊंगा
ज्यादा से ज्यादा बच पाए
जुगत लगाऊंगा
ठेकेदार, सेठ कहे तो
छुट्टी पाऊंगा
देगा जो सौगात उसे ढो
घर ले जाऊंगा
चमक-दमक दिखलाकर दिल्ली
हिरदय बीच बिठाया
रोटी, चावल, घुघनी परसा
लगा की सुख की हो गई वर्षा
आठ बजे तो
भोंपू लेकर
पहुंचे पंथ प्रधान!
किया बड़ा ऐलान-
इधर-उधर क रो ना
अपने बिल में घुस
कुछ ही दिनों में
ईहो विपदा
हो जायेगा फुस्स
सुबह हाथ में लट्ठ लिए
आया मेरा रखवाला
होकर बिल्कुल मतवाला
बोला-
जाओ अपने देस पूरबिये
जाओ अपने देस
तुम्हारा कुछ भी यहाँ न शेष
तथाकथित दिलवालों का
ई बोल सूनते भइया
याद आ गई मइया
खूंटे पे रंभाती गइया
गोर पकड़ कर
विनत भाव से पूछा-
साहब!
रुका हुआ है पहिया,
पैदल पहुँचेंगे कहिया?
ऊ स हम न जानें
अब तू हो बेगाने
भाग
भाग मजूरे भाग
आया है बड़ा व्याधि
मरोगे
आधाआधी
जिस दिल्ली को चिक्कन कीया
आफत में ऊ छीना ठीया
चकाचौंध की लाठी खाकर
दिखा गाँव का लुकझुक दीआ
खुद से ठोका नाल पांव में
उट्ठक बइठक
सोंटा खाते
पहुँचा तब जा अपन गाँव में
टाट लगाए
मुख्य सड़क सरपंच खड़ा था
पगडंडी पर कांट बिछा कर पंच खड़ा था
क्वारंनटाइन के लिए कटा चालान बाप रे!
बाबा ने समझाया
ढाढस खूब बंधाया
जब कह देंगे डागदर बाबू
तुम हो पूरे टंच
तो घर आना भगवंत
सही समय पर जांच करा ले
इस छुतहर को दूर हटा ले

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

और अब कोरोना जिहाद

मित्रों, हम बचपन से सुना करते थे कि अपने दुर्गुणों से लड़ना इस्लाम में जिहाद कहलाता है. फिर हमने कश्मीर में हिन्दुओं का नरसंहार देखा-सुना तब जाना कि गैर मुस्लिमों को जड़-मूल से समाप्त कर इस्लाम का राज स्थापित करना भी जिहाद होता है. कुछ साल पहले जब आईएसआईएस, तालिबान और अल कायदा का विश्व पटल पर आगमन हुआ तब हमने यह भी जाना कि मुसलमानों के अल्लाह अलग हैं और उन्होंने सिर्फ मुसलमानों के लिए एक स्वर्ग का जिसे वे जन्नत कहते हैं निर्माण कर रखा है जहाँ केवल जिहाद में मरनेवाले केवल पुरुष मुसलमानों को रखा जाता है. फिर हमने बीबीसी हिंदी पर पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार वजातुल्लाह खान की डायरी सुनी जिसमें उन्होंने कहा था कि इस समय कई सारे कुरान हो गए हैं-अल्लाह का कुरान अलग है, मुल्ला का कुरान अलग है और बगदादी का कुरान अलग. तभी चीन से समाचार आया कि चीन की सरकार ने इस्लाम को मानसिक बीमारी मानते हुए इस पर रोक लगा दी है. वो किसी मुसलमान को न तो घर में कुरान रखने देती है, न ही रोजे रखने देती हैं और न ही नमाज अदा करने. यहाँ तक उसने कुरान पढने के जुर्म में कई मुसलमानों की आँखें तक सिल दी है.
मित्रों, जब दुनिया के रंगमंच पर ये सारी घटनाएँ घटित हो रही थीं तब हमारे देश में शाहे बेखबर मनमोहन सिंह लालकिले के प्राचीर से घोषणा कर रहे थे कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है. फिर उन्होंने सोनिया गाँधी के निर्देश पर सांप्रदायिक दंगा विरोधी विधेयक लाने का भी प्रयास किया जिसके प्रावधानों के अनुसार कहीं भी हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने की स्थिति में सिर्फ हिन्दुओं को उसके लिए दोषी मानते हुए सजा मिलनी थी. उनकी सरकार में हिन्दू आतंकवाद नामक नायाब शब्द गढ़ा गया और मुंबई हमलों को भी हिन्दू आतंकवाद साबित करने का घिनौना प्रयास किया गया. लेकिन शहीद तुकाराम ने अपनी शहादत देकर पाकिस्तानी अजमल कसाब को पकड़ लिया और यह साजिश विफल हो गयी.
मित्रों, फिर सरकार बदली और देखते-ही-देखते कई कथित धर्मनिरपेक्ष सांप अपने केंचुल से बाहर आने लगे. फिर पता चला कि न सिर्फ सिमी बल्कि केरल का पीएफआई भी भारत के मुसलमानों को एकजुट कर भारत को इस्लामिक मुल्क बनाना चाहता है. फिर केजरीवाल सरकार की सहायता से दिल्ली में हिन्दुओं के संहार का प्रयास किया गया वो भी तब जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत की यात्रा पर थे. ठीक उसी समय चीन में कोरोना वायरस से हजारों लोग मर रहे थे और यह लाईलाज बीमारी बड़ी तेजी से यूरोप और अमेरिका को अपने गिरफ्त से लेने जा रही थी. तभी भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना के मद्देनजर होली नहीं मनाने का फैसला किया. इस बीच पूरी दुनिया से यहाँ तक कि चीन से भी सारे भारतीयों को भारत लाने का काम चल रहा था और चल रहा था कोरोना का मीटर भी.  भारत सरकार ने तत्काल प्रभावी कदम उठाते हुए पहले धारा १४४ लगवाई और फिर एक दिन के जनता कर्फ्यू की घोषणा की. फिर उसके बाद पूरे भारत में २१ दिन का लॉक डाउन घोषित कर दिया गया.  देश के सारे मंदिर, चर्च और गुरूद्वारे बंद कर दिए गए लेकिन अब भी बहुत सारे मुसलमान बेपरवाह होकर मस्जिदों में सामूहिक नमाज पढ़ते रहे. कई स्थानों पर पुलिस ने उनको पीटा भी. कई स्थानों पर जब पुलिस उनको रोकने गई तो उन्होंने पुलिस पर ही पथराव कर दिया और गोलीबारी भी की. फिर पता चला कि दिल्ली के निजामुद्दीन में भारत सरकार के आदेशों को धत्ता बताते हुए २००० से ज्यादा देसी-विदेशी तबलीगी मुसलमान जमा हैं. दिल्ली पुलिस ने चेतावनी भी दी लेकिन तबलीगी जैसी कट्टरपंथी संस्था के मुसलमान सरकार की क्यों सुनते? फिर जब उनमें से कई हैदराबाद में मर गए तब रात के दो बजे किसी तरह से मस्जिद को खाली कराने का काम शुरू हुआ. इसके लिए भारत सरकार ने कमांडो ऑपरेशन तक की तैयारी कर रखी थी. ये लोग भारत और हिन्दुओं से इतना नफरत करते हैं कि इन्होंने बस की खिड़की से दिल्ली पुलिस के जवानों और डॉक्टरों पर उनको कोरोनाग्रस्त करने के ख्याल से थूकना शुरू कर दिया. अभी भी इनको जहाँ रखा गया है वहां ये बीमारी फ़ैलाने के ख्याल से बस थूके जा रहे हैं. अब यह भी पता चला है कि तबलीग का प्रधान मुसलमानों को मस्जिद में आकर कोरोना से मरने की सलाह दे रहा था और कह रहा था कि मरने के लिए मस्जिद सर्वोत्तम स्थान है. इन मानवरूपी हिंसक पशुओं के कोरोनाग्रस्त होने के चलते देश में कोरोना मरीजों की संख्या में अचानक ५०० से ज्यादा की वृद्धि हो गयी और कोरोना के देश में तीसरे चरण में पहुंचने का खतरा उत्पन्न हो गया. इनमें से बहुत सारे देश में जहाँ-तहां मस्जिदों में छिप गए हैं जिससे पता चलता है कि मस्जिदों का किस हद तक दुरुपयोग होता रहा है.
मित्रों, इस तरह इन दिनों एक और प्रकार के जिहाद का जन्म हुआ है और वो है कोरोना जिहाद. ये लोग किस हद तक जानवर बन चुके हैं कि जो प्रशासन और चिकित्सक इनकी जान बचाना चाहते हैं ये उनको ही मारना चाहते हैं. आप समझ सकते हैं कि इनके दिमाग में भारत और गैर मुसलमानों के प्रति कितना जहर भरा हुआ है. इनकी तुलना सिर्फ पागल कुत्तों से की जा सकती है. हद तो यह है कि सरकारी निर्देशों की अवज्ञा करके ये अपने घर-परिवार और मित्रों को भी खतरे में डाल रहे हैं.
मित्रों, कुल मिलाकर ये हर स्थिति में जिहाद का स्कोप ढूंढ लेते हैं. लव जिहाद, लैंड जिहाद और अब कोरोना जिहाद. ऐसा भी नहीं है कि भारत के सारे मुसलमान महामूर्ख और जेहादी हैं लेकिन वे कट्टरपंथ का विरोध भी नहीं करते यह भी सच है. इसी तबलीग के मामले को लें तो कई बुद्धिजीवी यह झूठ बोलकर तबलीगियों का बचाव करने लगे कि वैष्णो देवी में भी तो ४०० श्रद्धालु फंसे हुए हैं. जबकि सच्चाई तो यह है कि वैष्णो माता ट्रस्ट ने यात्रा को १८ मार्च को ही अर्थात लॉक डाउन से काफी पहले रोक दिया था इसलिए वहां कोई श्रद्धालु है ही नहीं. इन चिंताजनक स्थितियों में सवाल उठता है कि उपाय क्या है? इस तरह के तत्वों को, पागल कुत्तों को खुला भी तो नहीं छोड़ सकते. लेकिन मैं फिर भी यह नहीं कहता कि चीन की तरह सारे मस्जिद ढहा दिए जाएँ लेकिन उन पर नियन्त्रण निश्चित रूप से काफी जरूरी है चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े. मदरसों को बंद कर दिया जाए और उसमें पढनेवाले बच्चों को आधुनिक शिक्षा दी जाए, समान नागरिक संहिता बने, जनसँख्या नियन्त्रण  कानून बने, जो भी मस्जिद भारतविरोधी गतिविधियों में संलिप्त पाए जाएँ उनको अस्पताल में बदल दिया जाए, न्यायपालिका के पंख कतरे जाएँ जिससे वो ऐसा करने में टांग न अडा सके. भारत में सिर्फ भारत की संस्कृति रहे जो तू वसुधैव कुटुम्बकम् में विश्वास रखती है न कि ऐसी बर्बर संस्कृति जो आदमी को पागल कुत्ता बनाती हो. अंत में आप सभी को रामनवमी की बधाई और यह बताते हुए कि इस साल हाजीपुर में रामनवमी के सुअवसर पर लगने वाला रामचौड़ा मेला हिन्दुओं ने खुद ही रद्द कर दिया है घर पर ही रामनवमी मना रहे हैं.यहाँ हम आपको बता दें कि राम,लक्षमण और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने जनकपुर जाते हुए इसी हाजीपुर के रामचौड़ा घाट पर गंगा पार की थी.