रविवार, 31 मार्च 2019

यह आचार संहिता है या लाचार संहिता


मित्रों, जब संविधान निर्माण का महान कार्य संपन्न हो रहा था तब हमारे संविधान-निर्माताओं ने सपने में भी सोंचा नहीं होगा कि एक दिन ऐसा आएगा जब गरीबों के लिए चुनाव लड़ना चाँद को छूने के समान नामुमकिन हो जाएगा.
मित्रों, जब हम बच्चे थे तो सुनते थे कि यह नेता पहले बकरी चराता था और पैदल ही बिना एक पैसा खर्च किये न सिर्फ चुनाव लड़ा थे बल्कि जीत भी हासिल की थी. बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि वर्तमान समय में कोई गरीब व्यक्ति लोकसभा तो दूर की बात रही ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत वार्ड सदस्य का चुनाव लड़ना भी पहुँच से बाहर हो चुकी है. आज पंचायत चुनावों में भी एक-एक ग्राम प्रधान उम्मीदवार एक-एक करोड़ रूपये खर्च कर रहे हैं. अब आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि जब पंचायत चुनावों में ऐसी हालत है तो विधानसभा और लोकसभा चुनावों में क्या हालत रहती होगी और किस स्तर पर धनबल का प्रयोग होता होगा आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं.
मित्रों, ऐसा भी नहीं है कि चुनाव आयोग इस समस्या से अनभिज्ञ है. उसने प्रत्येक स्तर के चुनाव के लिए खर्च की सीमा तय कर रखी है. उम्मीदवारों से खर्च का लिखित हिसाब भी लिया जाता है लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सबकुछ दिखावा होता है, औपचारिकता होती है. चुनावों के दौरान पैसे जब्त भी होते हैं लेकिन वो बहुत कम होते हैं.
मित्रों, कहने को तो चुनावों की घोषणा के साथ ही आचार-संहिता लागू हो जाती है लेकिन उनका पालन नहीं होता. कई बार उद्दण्ड उम्मीदवारों के खिलाफ आचार-संहिता उल्लंघन के मुकदमे भी दर्ज होते हैं लेकिन आज तक किसी नेता को इन मामलों में सजा मिली हो देखा नहीं गया. मैं पूछता हूँ कि आखिर क्या आवश्यकता है ऐसी आचार-संहिता की जो वास्तव में लाचार-संहिता हो? कहना न होगा कि जैसे हमारे देश में कानून बनते ही टूटने के लिए हैं.
मित्रों, भारतीय लोकतंत्र में विकसित हो चुकी एक और प्रवृत्ति भी काफी चिंता का विषय है. पिछले कुछ सालों में पार्टियाँ पैसे लेकर टिकट बेचने लगी हैं. बोली लगती है और जो जितना ज्यादा पैसा देता है उसे टिकट दे दिया जाता है. फिर जीतनेवाला एक तो टिकट खरीदने का दाम और दूसरा चुनाव लड़ने का खर्च भ्रष्टाचार द्वारा जनता से वसूलता है. टूटी सड़कें,सुख-सुविधाओं का अभाव,सांसद-निधि की लूट सबके पीछे यही कारण है. 
मित्रों, ऐसा नहीं है कि इस तरह की स्थिति के लिए हमलोग यानि आम जनता बिलकुल ही जिम्मेदार नहीं हैं. हम भी तो चुनावों के आते ही इन्तजार में होते हैं कि उम्मीदवार आएँ और हमें पैसे या कोई अन्य सामान दें. चूंकि हमारे पूर्वज हमारी तरह लालची नहीं थे इसलिए उनके ज़माने में बकरी चरानेवाले लोग भी चुनाव जीत जाते थे. हमने अपने लालच द्वारा खुद ही खुद के लिए ऐसी स्थिति पैदा कर ली है कि अब खुद हम ही चाहकर भी चुनाव लड़ नहीं सकते क्योंकि बिना पैसा खर्च किए जो चुनाव लडेगा वो आज के हालात में निश्चित रूप से हारेगा क्योंकि उसे निर्दलीय लड़ना पड़ेगा क्योंकि उसके पास टिकट खरीदने के लिए पैसे नहीं होंगे. 

गुरुवार, 28 मार्च 2019

साँपों और कांग्रेसियों से सावधान


मित्रों, आप सोंच रहे होंगे कि लोग तो कुत्ते से सावधान का बोर्ड लगवाते हैं फिर साँपों से सावधान क्यों? वो इसलिए क्योंकि कुत्ता वफ़ादारी का प्रतीक होता है. मर भले ही जाता है कभी मालिक के प्रति धोखेबाजी नहीं करता. मतलब कि कुत्ता जिसकी रोटी खाता है जीता भी उसी के लिए है और मरता भी उसी के लिए है लेकिन यह जो कांग्रेस पार्टी है खाती तो भारत की है गाती पाकिस्तान और चीन की है. इसने तो रिकार्डतोड़ घोटालों के द्वारा न केवल भारत का खाया है वरन भारत को भी खाया है. कांग्रेस पार्टी जब सत्ता में थी तब भी पाकिस्तान और चीन के लिए जीती-मरती थी और आज जब विपक्ष में है तब भी भारत के दुश्मनों के ही लिए जी-मर रही है. इसे न तो भारत की मजबूत सेना चाहिए और न ही सेना का पराक्रम.
मित्रों, इसलिए मैंने शीर्षक में कुत्ते का नाम नहीं लिया. नाम तो मैं साँपों का भी नहीं लेना चाहता था क्योंकि वो बेचारा भी तब तक किसी को नहीं काटता जब तक उसे छेडा न जाए लेकिन एक बात में कांग्रेस और साँपों में जबरदस्त समानता है कि जहरीले दोनों ही हैं. एक सीधे-सीधे काटता है तो दूसरा लोगों में अपने जाल में उलझाकर मारता है.
मित्रों, अभी कुछ दिन पहले मैं एक चूहेदानी खरीदकर लाया और उसमें रोटी लगा दी. फिर तो चूहों का फंसना रोजाना की बात हो गई. कदाचित कांग्रेस भी हमें चूहा समझती है. नेहरु के समय से ही यह देश से गरीबी को मिटाने का वादा कर रही है लेकिन अमीर हो रहे हैं खुद कांग्रेस पार्टी के नेता. अभी कुछ ही महीने पहले कांग्रेस ने राजस्थान और मध्य प्रदेश में किसानों की कर्जमाफ़ी का वादा किया था. मगर किया क्या? प्रत्येक किसान के दो-दो लाख माफ़ करने के बदले किसी के ५० रूपये माफ़ किए गए तो किसी के १०० रूपये. ऊपर से बिजली का बिल न्यूनतम ५०० रूपया महीना बढ़ा दिया गया. बेटा मांगने गई थी और पति को भी गँवा आई. मध्य प्रदेश की सरकार बेरोजगारों को रोजगार अथवा १०००० रूपये का बेरोजगारी भत्ता देने के बदले भैंस चराने और बैंड बजाने का प्रशिक्षण दे रही है. कहना न होगा इसी तरह हम उनके दांव में पिछले ७० सालों से फंसते आ रहे हैं और वे इसी तरह हमें चराते आ रहे हैं और हमारी बैंड बजाते आ रहे हैं. अब दोनों ही राज्यों के लोग पछता रहे हैं लेकिन अब पछताए होत क्या.
मित्रों, अगर आपको भी भविष्य में पछताना है तो बेशक आप भी कांग्रेस को वोट करिए. मगर उससे पहले मैं आपको कुछ और भी याद दिलाना चाहूँगा. मैं आपको याद दिलाना चाहूँगा कि २००४ के चुनावों के समय किस तरह कांग्रेस ने ताबूत घोटाले की कहानी रचकर आपको बेवकूफ बनाया था और देशभक्त और ईमानदार अटल बिहारी वाजपेई के स्थान पर एक कठपुतली को प्रधानमंत्री बनाकर जल,थल, नभ और अंतरिक्ष सर्वत्र कैसे जमकर घोटाले किए थे. घोटालों की पूरी-की-पूरी वर्णमाला बनाकर देश को दोनों हाथों से लूटा था. मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या आप फिर से २००४ को दोहराना पसंद करेंगे? जिस तरह वाजपेई की हार के कारण भारत कई साल पीछे चला गया क्या आप चाहेंगे कि देश फिर भी रिवर्स गियर में चला जाए?
मित्रों, भारत मेहनतकशों का देश है, कर्मवीरों, श्रमवीरों का देश है लेकिन यह कांग्रेस पार्टी हमें हमेशा से भिखारी समझती है. यह हमें काम देने की बात नहीं कर रही बल्कि भीख देने के वादे कर रही जबकि हम भारतीय तो आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाते. क्या आपने कभी पढ़ा-सुना है कि पैसे बांटकर किसी देश का विकास हुआ है,चाहे तो अमेरिका हो, जापान हो या चीन या जर्मनी हो? माना कि गाँव में किसी किसान की ५ एकड़ जमीन है. अगर वो सारी जमीन बेचकर अपने ५ बेटों के बीच पैसे बाँट देता है और पाँचों बेटे उस पैसे को उड़ा देते हैं तो क्या आप इसे उस किसान और उसके बेटों की बुद्धिमानी कहेंगे? 
मित्रों, असल में कांग्रेस को लगता है कि हम उसकी गन्दी सोंच से वाकिफ ही नहीं हैं. जैसे हमें पता ही नहीं कि कांग्रेस राजस्थान और मध्य प्रदेश में क्या कर रही. जबकि सच यह है कि हम समझ रहे कि कांग्रेस सिर्फ-और-सिर्फ झूठ बोल रही है. कांग्रेस जब देश की नहीं हुई और पाकिस्तान की टीवी पर अपनी जय-जयकार करवा कर खुश हो रही है तो वो देशवासियों का क्या होगी? चूंकि कांग्रेस के सारे जहरीले सांप जल्दी ही पिंजरे में जानेवाले हैं और जमानत पर हैं इसलिए फ़िलहाल तो वे किसी भी तरह, कोई भी संभव-असंभव वादा करके जेल जाने से बचना चाहते हैं. इसलिए आप ७२००० के लालच को लालच नहीं सीधे चूहेदानी में रखा चारा समझिए जिसके लालच में आए तो हम उनका ग्रास बन जाएँगे क्योंकि वे नकली हिन्दू सह गोभक्षी हमें भी बिना पकाए जिन्दा खा जाएँगे और हमारे देश को भी.

गुरुवार, 14 मार्च 2019

कांग्रेस के तुरुप का आखिरी पत्ता प्रियंका वाड्रा

मित्रों, पिछले कई सालों से भारत की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस अजीब संक्रमण और संकट की स्थिति से गुजर रही है. राजीव गाँधी की हत्या के बाद पार्टी को जब लगा कि फिर से पार्टी की बागडोर नकली गाँधी परिवार के हाथों में सौंपे बिना पार्टी का पुनरुत्थान नहीं हो सकता तब १९९८ में वयोवृद्ध अध्यक्ष सीताराम केसरी को जबरदस्ती हटाकर सोनिया गाँधी को पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया. इसी बीच जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटता है वैसे ही २००४ के लोकसभा चुनावों के समय भारतीय जनता पार्टी द्वारा की गई अक्षम्य गलतियों के चलते कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. इसी बीच सोनिया गाँधी ने सही अवसर को भांपते हुए २००७ में अपने बेटे राहुल गाँधी को पार्टी महासचिव बना दिया. इससे पहले कई बार राहुल गाँधी की लौन्चिंग के कयास लगे लेकिन हर बार वह टालती रही. हर बार यह कहा गया कि अभी राहुल राजनीति का ककहरा सीख रहे हैं. २००७ में राहुल गाँधी के आगमन के कुछ सालों के भीतर ही ऐसा प्रतीत होने लगा कि राहुल गाँधी कतई तुरुप का पत्ता नहीं हैं बल्कि जोकर हैं और उनमें वो दम नहीं है जिसके दम पर वे कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व संभाल सकें. बाद में जब इंतज़ार की हद हो गई तब थक हार कर राहुल गाँधी को २०१७ में यानि पिछले साल पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया. इस बीच २००९ में पार्टी की जीत का श्रेय बेवजह इन्हीं राहुल गाँधी को दिया गया जबकि पार्टी जीती थी मनमोहन सरकार के कामकाज से.
मित्रों, इसी बीच मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में अभूतपूर्व घोटालों के चलते कांग्रेस बदनाम हो गयी और देश की जनता ने उसे ४४ पर समेट दिया. पार्टी इतनी बुरी तरह से हारी कि भारत के इतिहास में पहली बार उसे प्रतिपक्षी पार्टी तक का दर्जा नहीं मिला. तभी से जब भी पार्टी जीतती है तो पार्टी के लोग कहते हैं कि जीत का श्रेय सिर्फ राहुल जी को जाता है और जब भी पार्टी हारती है तो कहा जाता है कि पार्टी अपनी गलतियों या इवीएम के कारण हारी है न कि राहुल गाँधी के चलते.
मित्रों, अभी कुछ दिन पहले जब कांग्रेस यह समझने लगी कि पार्टी की नैया लोकसभा चुनावों में पार लगाना अकेले राहुल गाँधी के वश की बात नहीं है तब उनकी छोटी बहन प्रियंका गाँधी को तुरुप के आखिरी पत्ते के रूप में ७ फरवरी २०१९ को पार्टी का महासचिव बना दिया गया. एक लम्बे इंतजार और गैरहाजिरी के बाद अभी कुछ दिन पहले से प्रियंका ने पार्टी के प्रचार करना शुरू किया है. इस बीच यह दावा भी किया गया कि उनकी नाक की लन्दन में प्लास्टिक सर्जरी करवाई गई है ताकि उनकी नाक देखने में उनकी दादी इंदिरा गाँधी की तरह लगे. उनकी पुरानी तस्वीर को देखकर ऐसा लगता भी है कि शायद ऐसा करवाया गया है. लेकिन पिछले कुछ दिनों में उनके द्वारा दिए गए भाषण को देखकर ऐसा लगता नहीं है कि प्रियंका अपनी दादी की छाया मात्र भी है दादी जैसी होना तो बहुत दूर की बात रही. मुझे लगता है कि वो कदाचित राजनीति में आती भी नहीं अगर उसके पति पर संकट नहीं आता क्योंकि उसे अपनी सीमाएं पता है. वो शायद इसलिए मजबूरन राजनीति में आई है क्योंकि उसे अपने पति को जेल जाने से बचाना है वर्ना कहाँ इंदिरा गाँधी और कहाँ प्रियंका. इसमें न तो दादी वाली सूक्ष्म बुद्धि है और न ही ज्ञान. साथ ही उसमें दादी वाली सम्प्रेषण क्षमता, साहस और दृढ़ता भी नहीं है. पिछले दो-तीन दिनों में किए गए विश्लेषण के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि प्रियंका राहुल गाँधी से ज्यादा योग्य नहीं है बल्कि अगर उसे हम लेडी राहुल कहें तो किसी भी दृष्टिकोण से ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा. वैसे यह तुरुप का पत्ता नहला, दहला, दुग्गी, तिग्गी या क्या निकलती है यह तो समय बताएगा लेकिन यह पत्ता राजा या रानी नहीं है इतना तो निश्चित है क्योंकि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते है. पता नहीं अब आगे कांग्रेस क्या करेगी? वैसे हो सकता है कि वो भविष्य में रोबर्ट वाड्रा में अपने भविष्य की तलाश करे, वैसे भी वाड्रा ने राजनीति में प्रवेश की अपनी ईच्छा जता भी दी है. मुझे पता है कि कांग्रेस मेरी सलाह को मानेगी नहीं लेकिन मैं उसे सलाह देना चाहूँगा कि परिवार के बाहर भी तो देखो. पार्टी में ऐसे कई नेता हैं जो काफी योग्य हैं उनमें नेतृत्व-क्षमता कूट-कूटकर भरी है.

मंगलवार, 12 मार्च 2019

राहुल जी के मसूद अजहर जी


मित्रों, आजकल कांग्रेस की जो छवि जनता के बीच बन रही है वह कोई अच्छी छवि नहीं है. पिछले कुछ सालों में भारत की जनता ऐसा मानने लगी है कि कांग्रेस किसी-न-किसी तरह पाकिस्तान और पाकिस्तान के बल पर पलने और आतंकी हमले करनेवाले संगठनों का समर्थन करती है. वैसे विश्वास तो नहीं होता कि यह वही कांग्रेस है जो एक समय कट्टर राष्ट्रवादी पार्टी थी और उसने देश की आजादी के लिए चलनेवाले आन्दोलन को नेतृत्व दिया था. मगर क्या करें साहब इतिहास को तो हम बदल नहीं सकते.
मित्रों, जरा कल्पना कीजिए कि आज से ठीक १०० साल पहले कांग्रेस क्या कर रही थी. तब वह रौलेट एक्ट के खिलाफ पूरे देश में आन्दोलन चला रही थी. चारों तरफ आसमान वन्दे मातरम और भारत माता की जय के नारों से गूँज रहा था. गाँधी तब कांग्रेस के सर्वमान्य नेता नहीं बने थे बल्कि बनने की प्रक्रिया में थे. और ठीक १०० साल बाद वही कांग्रेस जैसे राष्ट्रवाद से नफरत करने लगी है. जो सैनिक देश पर अपने प्राण न्योछावर कर देने में जरा-सी भी झिझक नहीं दिखाते कांग्रेस को उन पर भी भरोसा नहीं है. वो कभी सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगती है तो कभी एयर स्ट्राइक के. आखिर ऐसा क्या कारण है कि कांग्रेस को आज भारतीय सेना से ज्यादा यकीन शत्रु देश पाकिस्तान के नेताओं पर है जो एक ही दिन में कई बार अपने बयानों से पलट जाते हैं? कभी-कभी तो ऐसा लगता ही नहीं कि कांग्रेस भारत की पार्टी है बल्कि उसका रवैया देश के प्रति इतना गैरजिम्मेदाराना होता है कि वो पाकिस्तान की राजनैतिक पार्टी लगती है और ऐसा लगता है कि जैसे उसे भारत में नहीं पाकिस्तान में चुनाव लड़ना है.
मित्रों, पुलवामा हमले के बाद मुझे जब मीडिया में पढने को मिला कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी जी ने अपने बकवादी नेताओं को बयान देने से पूरी तरह से मना कर दिया है तो मुझे काफी ख़ुशी हुई. लेकिन यह क्या? एक बार जो भारत और भारतीय सेना के खिलाफ कांग्रेस के नेताओं ने बोलना शुरू किया तो जैसे उनके बीच होड़-सी मच गई. लगा जैसे इस तरह की कोई प्रतियोगिता चल रही है कि कौन भारत और भारतीय सेना के खिलाफ कितनी संख्या में और कितने घटिया बयान देता है. कोई सिद्धू नामक कथित सरदार कहने लगा कि आतंकी हमले के लिए पाकिस्तान जिम्मेदार ही नहीं है. भारत को उसके ऊपर कार्रवाई करने के बदले उसके साथ बातचीत करनी चाहिए. तो वहीँ राहुल गाँधी जी के राजनैतिक गुरु दिग्विजय सिंह ने पुलवामा हमले को सीधे-सीधे दुर्घटना बता दिया मानों वहां पर सीआरपीएफ के जवान बस के पलट जाने से मारे गए.
मित्रों, अब जब होड़ लगी ही है तो कांग्रेस के अध्यक्ष महोदय कैसे पीछे रहने वाले थे तो कल उन्होंने भी जैश सरगना मौलाना मसूद अजहर को मसूद अजहर जी कहकर अपना पेट का दर्द मिटा लिया. मौलाना मसूद अजहर जी? वो भी ऐसे जैसे मसूद अजहर जो जीता जगता दरिंदा है के लिए उनके मन में कितनी ईज्ज़त है, कितनी श्रद्धा है. आज शर्म आती है मुझे भी यह कहते हुए कि मेरे दादा जी कांग्रेसी थे और १९४२ में जेल गए थे ठीक उसी तरह जैसे बिहार कांग्रेस के प्रवक्ता विनोद शर्मा को शर्म आई और उन्होंने यह कहने हुए अपनी पार्टी और पद से इस्तीफा दे दिया कि लोग कांग्रेस को आतंकवादियों की पार्टी मानने लगे हैं.
मित्रों, आपने गौर किया होगा कि मैंने अपने पूरे आलेख में सिर्फ राहुल गाँधी जी के नाम के बाद जी लगाया है. मैं यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ऐसा मैंने इसलिए कतई नहीं किया है क्योंकि मैं उनका आदर करता हूँ बल्कि मैंने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि क्या करें मौसी अपना तो दिल ही कुछ ऐसा है.

सोमवार, 11 मार्च 2019

जनता का घोषणा-पत्र

मित्रों,चुनाव का डंका बज चुका है. पूरा कार्यक्रम आपने टीवी पर देख भी लिया होगा. कुछ ही दिनों में देश की सभी पार्टियाँ अपना घोषणा-पत्र जारी करना शुरू करेंगी. मैं जानता हूँ यह काफी मुश्किल काम है. और शायद उससे भी मुश्किल काम है जनता का घोषणा-पत्र तैयार करना कि जनता क्या चाहती है.
मित्रों, जहाँ तक मुझे लगता है इस बार के चुनावों में पाकिस्तान सबसे बड़ा मुद्दा रहनेवाला. पुलवामा और एयर स्ट्राइक के बाद देश की जनता जानना चाहती है कि कौन-सी पार्टी किस तरफ है? किसकी जीत से पाकिस्तान में दिवाली के पटाखे फूटेंगे और किसकी जीत पर वहां के लोग मुहर्रम मनाएंगे? कौन-सा दल पाकिस्तान का राम नाम सत करना चाहता है और कौन-सा दल मजबूत पाकिस्तान के पक्ष में है? कौन-सा दल भारतीय सेना पर गर्व करता है और कौन-सा दल भारतीय सेना को बलात्कारियों का संगठन मानता है? कौन-सा दल चीन को भारत का दीर्घकालिक शत्रु मानता है और कौन-से दल को चीन भारत से भी ज्यादा जान से प्यारा है? कहना नहीं होगा इस बार देश की जनता पाकिस्तान से आर या पार के मूड में है और चाहती है कि देश में इस तरह की सरकार बने कि २०२४ के चुनाव आते-आते पाकिस्तान दुनिया के नक़्शे से ही समाप्त हो जाए और अगर बचा भी रहे तो उसका क्षेत्रफल एक-चौथाई रह जाए. मैं समझता हूँ कि आज भी देश की जनता के लिए राष्ट्र और राष्ट्र का सम्मान सर्वोपरि है और आगे भी रहेगा.
मित्रों, देश की जनता जानती है और मानती है कि जनसँख्या-विस्फोट भारत की समस्त समस्याओं की जड़ है. जब तक देश की जनसंख्या-वृद्धि अनियंत्रित रहेगी देश असंख्य समस्याओं से जूझता रहेगा. कृषि के लिए जमीन घटती जाएगी और अंत में फिर से देश में उसी तरह के अकाल पड़ेंगे जैसे १०० साल पहले पड़ा करते थे. इसलिए देश की जनता चाहती है कि सरकार अविलम्ब ऐसी जनसँख्या नीति लाए जिससे जनसँख्या-विस्फोट पर प्रभावी लगाम लग सके. मैं समझता हूँ कि ट्राफिक जाम, अस्पतालों में भीड़, ट्रेनों में सीटों का न मिलना, बेरोजगारी आदि समस्याओं पर तभी लगाम लगाया जा सकता है जब जनसँख्या-वृद्धि को रोका जाएगा. सवाल उठता है कि जब जानवरों की संख्या बढती है तो उसपर लगाम लगाने की मांग भी उठने लगती है तो फिर आदमी की संख्या को भी क्यों नहीं  नियंत्रित किया जा रहा?
मित्रों, देश की जनता के लिए तीसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है शिक्षा. हम जानते हैं कि दुनिया के २०० सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों में भारत का कोई विश्वविद्यालय नहीं है जबकि आजादी मिले ७५ साल हो चुके हैं. जबसे आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ सरकारों ने शिक्षा की तरफ ध्यान ही देना बंद कर दिया. आज भी देश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षकों की आधी सीटें खाली है. प्राथमिक शिक्षा का स्तर इतना गिर गया है कि अब गरीब-से-गरीब व्यक्ति भी उनमें अपने बच्चों का नामांकन नहीं करवाना चाहते. दूर-दराज के इलाकों में भी माउंट लिटेरा, गोयनका जैसे बड़े-बड़े उद्योगपतियों के स्कूल खुल गए हैं जो वास्तव में लुटेरे हैं. जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाना है और शिक्षा के प्रचार-प्रसार से जिनका दूर-दूर तक कोई भी लेना-देना नहीं है. सवाल उठता है कि अमीरों के बच्चे तो इन स्कूलों में पढ़ लेंगे लेकिन गरीबों के बच्चों को कौन पढ़ाएगा? और अगर उनको पार्टियाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे सकती तो हटा दें संविधान से समानता शब्द को उन प्रत्येक स्थानों से जहाँ-जहाँ भी यह शब्द आया है और लिख दें कि भारत में लोकतंत्र नहीं है कुलीनतंत्र है.
मित्रों, देश की जनता के समक्ष आज भी न्याय का मिल पाना टेढ़ी खीर है. डॉक्टर, उद्योगपति, पुलिस, जज, क्लर्क, अधिकारी, जनप्रतिनिधि सभी भ्रष्ट हैं. हालाँकि वर्तमान सरकार ने सीधे लाभार्थी के खाते में पैसे डालकर इस पर लगाम लगाने की कोशिश की है लेकिन अभी तक भ्रष्टाचार और विलंबित न्याय की समस्या पर प्रभावी नियंत्रण लगता दिख नहीं रहा है. पूरा देश परेशान है कि अन्याय होने पर जाएँ तो जाएँ कहाँ और तब कहाँ जाएँ जब अन्यायी सत्ता पक्ष का बड़ा नेता हो?
मित्रों, इसके अतिरिक्त खेती-किसानी से जुड़े मुद्दे भी इस बार के चुनावों में काफी महत्वपूर्ण रहनेवाले हैं.  सांढ़ों-नीलगायों से पूरे देश के किसान परेशान हैं और खेती छोड़ना चाहते हैं. साथ ही देश पर जान न्योछावर करनेवालों अर्द्धसैनिकों को शहीद का दर्जा और पूरा पेंशन भी जनता की मांगों में शामिल रहने वाला है.
मित्रों,इसके साथ ही भारत की जनता चाहती है कि देश में प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यतानुसार पारिश्रमिक और काम मिले. आज भी देश का क्रीम विदेश पलायन कर जाता है क्योंकि अपने देश कोई उसकी क़द्र ही नहीं करता. इस समय देश में सबसे ख़राब हालात शिक्षित बेरोजगारों की है. या तो उनको काम नहीं मिल रहा और अगर मिल भी रहा है तो काफी कम वेतन पर. बैंक भी लोन नहीं दे रहे. बेचारे क्या करें और कहाँ जाएँ?
मित्रों, जहाँ तक मेरी सोंच की सीमा है मैंने अपने दिमागी घोड़े दौडाए. मैं बहुत छोटा आदमी हूँ और मेरी क्षमता काफी कम है इसलिए अगर आपको ऐसा लगता है कि मुझसे कुछ छूट गया है तो बिलकुल भी संकोच न करें और टिपण्णी द्वारा इस सूची को पूर्ण करने में सहयोग दें.

गुरुवार, 7 मार्च 2019

फाइल चोरों से सावधान

मित्रों, उस समय मैं कॉलेज में पढता था. उस समय हमारे एक सीनियर हुआ करते थे जो कॉलेज प्रशासन से नाखुश रहा करते थे. श्रीमान रोज पुस्तकालय जाते मगर किताब पढने नहीं बल्कि इस किताब चुराने. मौका मिला नहीं कि थैले में किताब रखकर निकल लिए. हद तो यह थी कि दो-चार दिन बीत जाने के बाद लाइब्रेरियन से वो वही किताब निर्गत करने के लिए कहते जो किताब वे चुरा चुके थे. स्वाभाविक था कि वो किताब तो लाइब्रेरी से चोरी हो चुकी थी इसलिए लाइब्रेरियन उसे खोजता-खोजता थक जाता तब मेरा वो सीनियर उस पर किताब घर ले जाने के आरोप लगाता, चीखता-चिल्लाता और लाइब्रेरियन को मजबूरन उसकी बकवास को सर झुकाए सुनना पड़ता.
मित्रों, कदाचित हमारी मोदी सरकार भी कुछ इसी तरह से हालात से गुजर रही है. जिन लोगों ने फाइल चोरी करवाई वही लोग अब सरकार से फाइल मांग रहे हैं. अब जब फाइल सरकार से पास है ही नहीं तो वो देगी कहाँ से? अब गलती सरकार से हुई है तो शर्मिंदा भी उसे ही होना पड़ेगा जैसे कि कभी मेरे कॉलेज के उन लाइब्रेरियन सर को होना पड़ता था.
मित्रों, अभी कुछ दिन पहले मुझे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी की प्रशंसा में इंडिया टीवी पर एक कार्यक्रम देखने का सुअवसर मिला. उसमें बताया गया था कि मोदी जी ने प्रधानमंत्री निवास और प्रधानमंत्री कार्यालय में उन्हीं कर्मचारियों-आदेशपालों और अधिकारियों को रखा है जो पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के समय वहां कार्यरत थे. उस दिन तो मैं भी प्रधानमंत्री मोदी जी की भलमनसाहत देखकर काफी खुश हुआ लेकिन जब कल-परसों फाइल चोरी का प्रकरण सामने आया तो समझा कि ज्यादा अच्छा होना भी कभी-कभी उसी तरह से नुकसानदेह होता है जैसे प्राचीन यूनानी नाटकों में होता था जब नायक अपनी अच्छाई और दयाभाव के चलते पराजित हो जाता था और मारा जाता था यकीं न हो तो जूलियस सीजर नाटक देख-पढ़ लीजिए.
मित्रों, आलेख के अंत में मैं प्रधानमंत्री मोदी जी को एक बार फिर से आदतन मुफ्त में चंद सलाह देना चाहूँगा कि वे किसी पर भी आँखे बंद कर विश्वास न करें चाहे तो अधिकारी हो या चपरासी क्योंकि यह घनघोर कलियुग है और आज के ज़माने में न अमीर और न गरीब पर विश्वास किया जा सकता है. साथ ही मोदी जी को चाहिए कि जहाँ तक हो सके विभिन्न विश्वसनीय पदों पर सिर्फ अपने लोगों को रखें और वैसे लोगों को तो कभी अपने कार्यालय में नहीं रखें जो पिछली सरकार के प्रति घनघोर वफादार रहे हों. आगे प्रधानमंत्री जी की मर्जी. वैसे भी मेरी कौन-सी बात पर उन्होंने अब तक ध्यान दिया है? करवाते रहें फाइल चोरी और होते रहें शर्मिंदा और हमें भी करवाते रहें.

रविवार, 3 मार्च 2019

शहीदों की मजारों पर मूतेंगे अब कुत्ते


मित्रों,आपलोगों को मैं कई बार बता चुका हूँ कि मेरा छोटा चचेरा भाई वीरमणि १९९८ में आतंकवादियों से लड़ता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो गया था. उसके बाद मेरे बड़े भैया और मेरी चाची को मुआवजे और पेंशन के लिए कई सालों तक जो भाग-दौड़ करनी पड़ी थी उसका मैं खुद चश्मदीद गवाह हूँ. मेरा छोटा भाई बीएसएफ में था इसलिए मैंने उसके नाम के साथ शहीद शब्द का प्रयोग नहीं किया क्योंकि भारत सरकार उनको शहीद मानती ही नहीं. २००५ के बाद अर्द्धसैनिक बल में जानेवाले को पेंशन भी नहीं मिलता जबकि मैं समझता हूँ कि उनकी नौकरी सेना के मुकाबले कहीं से भी कम जोखिमवाली नहीं है. आखिर यह भेदभाव क्यों? क्या अपने को उग्र राष्ट्रवादी कहनेवाली पार्टी और उस पार्टी के महान नेताओं के पास इसका जवाब है? कौन बताएगा कि अर्द्धसैनिक बलों के जवानों की शहादत किस तरह सेना के जवानों की शहादत के कमतर होती है?
मित्रों, आपने भी पढ़ा होगा कि उस शहीद हेमराज के परिजन मुआवजे के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं जिसके सिर को पापिस्तान द्वारा काट लिए जाने को भारतीय जनता पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनावों में बड़ा मुद्दा बना दिया था. मरनेवाला मर गया. चुनाव जीतनेवाले जीत गए मगर क्या किसी ने शहीद के परिवार की सुध ली? अगर नहीं तो क्यों? क्या यह हमारी यानि जनता की संवेदनहीनता और झूठी देशभक्ति को उजागर करनेवाली शर्मनाक घटना नहीं है? न जाने कितने ही हेमराज के परिजन अगर आज देश के विभिन्न दफ्तरों में उपेक्षा और जलालत का जहर पीकर चक्कर काटते फिर रहे हैं तो इसमें किसकी गलती है? क्या हम और आप भी इसके लिए किसी-न-किसी प्रकार से दोषी नहीं हैं?
मित्रों, आज एक और शर्मनाक घटना मेरे राज्य बिहार में घटी है. आपने अख़बारों में पढ़ा होगा कि बिहार का एक वीर नौजवान पिंटू सिंह पिछले दिनों आतंकवादियों से लोहा लेता हुआ जम्मू और कश्मीर में शहीद हो गया. आज उसका शव जब पटना पहुंचा तो बिहार के किसी भी मंत्री के पास उसके शव पर माल्यार्पण करने के लिए समय नहीं था. यहाँ तक कि सत्तारूढ़ दलों के किसी छुटभैय्ये नेता के पास भी आज शहीद के लिए वक़्त नहीं था जबकि अबसे कुछ देर बाद जब भारत के प्रधानसेवक जब पटना में जनसभा को संबोधित करने के लिए उसी पटना हवाई अड्डे पर उतरेंगे तो बिहार के सारे मंत्री उनकी अगवानी में पलक पांवड़े बिछाए एक पैर पर खड़े मिलेंगे. क्या यही सम्मान है हमारे सियासतदानों की नज़रों में शहीदों के सर्वोच्च बलिदान का? क्या यही उनका राष्ट्रवाद है?
मित्रों, पिछले दिनों एक ऐसी खबर मुझे अख़बार में पढने को मिली जिसने मुझे उद्वेलित करके रख दिया. खबर बिहार के शहर मुजफ्फरपुर से थी. आप जानते होंगे कि स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रथम शहीद खुदी राम बोस को यहाँ ११ अगस्त १९०८ को फांसी दी गई थी. तब १९ वर्षीय खुदी राम ने कहा था कि वो जल्द-से-जल्द फांसी पर चढ़ना चाहता है ताकि दोबारा जन्म लेकर दोबारा देश के लिए फांसी पर चढ़ सके. उसी खुदीराम का समाधि-स्थल आज बदहाल है और कुत्ते उस पर पेशाब कर रहे हैं. वो शहर भर के आवारा कुत्तों का विश्रामालय बन गया है.
मित्रों, जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ ने १९१६ में लिखा था कि
उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा
चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा.
मित्रों, हमने सुना है कि इन दिनों पूरी दुनिया में भारत की कामयाबी पूरे उरूज और शबाब पर है फिर क्यों शहीदों की मजारों पर मेले नहीं लग रहे बल्कि कुत्ते पेशाब कर रहे हैं? जब भी मुझे यह पढने-सुनने को मिलता है कि सैनिक की जमीन पर गाँव के दबंगों ने कब्ज़ा कर लिया और शिकायत कर पर थानेदार ने उसे अपमानित किया तो क्या बताऊँ कि मेरे दिल पर क्या गुजरती है? ऐसे सलूक तो उनके साथ अंग्रेजों के राज में भी नहीं होता था.
मित्रों, कुल मिलाकर मैं चाहता हूँ कि अर्द्धसैनिक बलों को भी पेंशन दिया जाए हमें भले ही नहीं दिया जाए, अर्द्धसैनिक बल के उन जवानों  को भी शहीद का दर्जा दिया जाए जो देश की रखवाली करते हुए हँसते-हँसते अपने प्राण उत्सर्ग करते हैं, साथ ही सैनिकों-अर्द्धसैनिकों को सामजिक सम्मान मिले, उनकी संपत्ति की समाज उसी तरह रक्षा करे जैसे वे हमारे सरहदों की करते हैं न कि राष्ट्रवाद वोट बटोरने का साधन मात्र बनकर रह जाए;राष्ट्रवाद सिर्फ एक नारा बनकर रह जाए.