गुरुवार, 29 जनवरी 2015

किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल,एक आलोचनात्मक विश्लेषण

29 जनवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,अब दिल्ली के मतदान में कुछ ही दिन शेष रह गए हैं। दिल्ली में ऐसा पहली बार हुआ है कि यहाँ की सभी तीनों प्रमुख पार्टियों ने अपने-अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि दिल्ली पिछले 800 सालों से भारत की राजधानी है,भारत का दिल बनी हुई है ऐसे में दिल्ली पर कब्जे का मतलब सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं हो सकता।
मित्रों,लगभग सारे विश्लेषक यह मानकर चल रहे हैं कि इस बार दिल्ली में मुख्य मुकाबला भाजपा और आप पार्टी के बीच है। यह कहीं-न-कहीं आश्चर्यजनक है क्योंकि जो पार्टी दिल्ली को अपने हाल पर छोड़कर बनारस भाग गई थी वही पार्टी कैसे टक्कर में हो सकती है! फिर भी जो है सो है। ऐसा तो हमारे साथ अक्सर ही होता है कि हम जो चाहते हैं वैसा होता नहीं है। हम चौथे स्तंभ हैं और हम तो इसके साथ-साथ कि क्या हो रहा है बस यही बता सकते हैं कि क्या होना चाहिए। बस यही तो हमारे वश में है।
मित्रों,पिछले कई दिनों से जबसे किरण बेदी जी को भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है मीडिया किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल तथा भाजपा और आप पार्टी की तुलना करने में जुटी हुई है। मैं समझता हूँ कि दोनों दो तरह के मिजाज वाले लोग हैं इसलिए इन दोनों की तुलना हो ही नहीं सकती फिर भी जबकि दोनों आमने-सामने हैं तो तुलना तो करनी ही पड़ेगी।
मित्रों,पहले अरविंद केजरीवाल की कथनी,करनी और शख्सियत पर विचार करते हैं। अरविंद को भी किरण बेदी की ही तरह रमन मैग्सेसे पुरस्कार मिल चुका है। अरविंद विवाद पुरूष हैं क्योंकि उनको जानबूझकर विवादों में रहने में मजा आता है इसलिए वे लगातार विवादित बयान देते रहते हैं,अंट-शंट बकते रहते हैं। अरविंद आरोप लगाने में मास्टर हैं लेकिन आज तक अपने किसी भी आरोप को साबित नहीं कर पाए हैं। अरविंद में एक और कमी यह है कि जब उनके ऊपर आरोप लगता है तो वे चुप्पी साध जाते हैं,न तो खंडन करते हैं और न ही मंडन। झूठ बोलने में उनको मास्टरी है। किसी के बारे में भी कुछ भी बोल दिया और जब प्रमाण मांगा गया तो कह दिया कि हमने तो आरोप लगा दिए हैं अब ये सही हैं या गलत जनता समझेगी। अरविंद चंदा किंग हैं और उनको भारतमाता के कट्टर दुश्मनों से भी चंदा लेने में कोई आपत्ति नहीं है। अरविंद कभी भी अपने किसी भी पुराने कथन पर कायम नहीं रह पाए हैं। बोलते हैं कि हम तो आम आदमी हैं जी हमें वीवीआईपी ट्रीटमेंट नहीं चाहिए लेकिन साथ ही वीवीआईपी पास की भी ईच्छा रखते हैं। अरविंद सर्वेवीर हैं। उनके पास सर्वक्षकों की एक बेहतरीन टीम है जो पहले से ही सर्वेक्षण के निष्कर्ष निर्धारित कर लेते हैं और पीछे सर्वेक्षण करते हैं। जैसे-हमने पता लगाया है जी कि हमारे 49 दिनों के शासन में भ्रष्टाचार काफी कम हो गया था,हमने सर्वे करवाया है जी कि हम 55 सीटों पर चुनाव जीतने जा रहे हैं,हमने यह सर्वे करवाया है जी,वह सर्वे करवाया है जी। अरविंद जी धरातल पर चाहे काम करें या न करें सर्वे बहुत करवाते हैं। अरविंद जी ने मीडिया में भी अच्छे दोस्त बना रखे हैं जो उनके आगे-पीछे भगत सिंह की तस्वीरें लगाकर लगातार उनको क्रांतिकारी साबित करने में जुटी रहती है। उनके क्रांतिकारी मीडिया-मित्र भी लगातार सर्वे करवाते हैं और गजब के सर्वे करवाते हैं। अभी कुछ ही दिन पहले एबीपी न्यूज कह रहा था कि दिल्ली में सरकार तो भाजपा की बनेगी लेकिन दिल्ली के लोग मुख्यमंत्री के रूप में तो अरविंद को ही देखना चाहते हैं। यानि सरकार तो भाजपा की बनेगी लेकिन मुख्यमंत्री तो अरविंद केजरीवाल ही होंगे। कुल मिलाकर अरविंद केजरीवाल मीडियाप्रेमी हैं,ब्लोअर की हवा हैं,परले दर्जे के हवाबाज हैं। आजतक उन्होंने सिर्फ बोला ही है किया कुछ भी नहीं है और अभी भी वे ऐसा ही करते दिख रहे हैं। मुख्यमंत्री बनकर वे बहुतकुछ कर सकते थे लेकिन उन्होंने खुद कोई काम नहीं किया सिर्फ केंद्र सरकार या विपक्ष के खिलाफ बयान देते रहे या फिर केंद्र और संसद-संविधान के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करते रहे। उनकी पार्टी में एक-से-एक कश्मीर के स्वतंत्रता-प्रेमी और राष्ट्रविरोधी तत्त्व भरे पड़े हैं।
मित्रों,अब आते है किरण बेदी जी पर। किरण बेदी ने जब जो कहा है वही किया है। किरण जी ने कभी किसी के ऊपर भी झूठे आरोप नहीं लगाए हैं न ही किरण जी अपनी झूठी प्रशंसा ही पसंद करती हैं। तभी तो महान क्रांतिकारी पत्रकार रवीश कुमार को उन्होंने बताया कि उन्होंने कभी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की गाड़ी नहीं उठवाई थी। किरण जी कर्मठ हैं,कर्त्तव्यनिष्ठ हैं,अनुशासनप्रिय हैं और देशभक्त हैं। किरण जी के पास एक पूरा खाका है,पूरी योजना है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री बनकर वे कैसे दिल्ली के लिए काम करेंगी और दिल्ली का विकास करेंगी जो कि केजरीवाल के पास नहीं है। किरण जी ने अपने 40 साल के प्रशासनिक जीवन के द्वारा पहले ही यह साबित कर दिया है कि उनके पास अच्छा शासन व प्रशासन देने की भरपुर योग्यता है। किरण जी ने नौकरी के दौरान कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि किरण जी उस पुलिस का हिस्सा थीं जिसको हमारे देश में सर्वाधिक भ्रष्ट विभाग का खिताब अता किया जाता है और फिर भी वे निष्कलंक हैं। फिर वे जिस पार्टी का हिस्सा हैं वह घोर राष्ट्रवादी पार्टी है,राष्ट्रभक्तों की पार्टी है। हाँ,मैंने पिछले तीन-चार दिनों में गौर किया है कि किरण जी में कुछ कमियाँ भी हैं। किरण जी पत्रकारों को देखकर घबरा जाती हैं और ठीक से जवाब नहीं दे पातीं जबकि उनको ऐसा नहीं करना चाहिए। किरण जी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रेरणा लेनी चाहिए जिन्होंने लोकसभा चुनावों के दौरान अपने घोर विचारधारात्मक शत्रु चैनल एबीपी पर धमाकेदार साक्षात्कार देकर तहलका मचा दिया था। जहाँ तक दो-2 वोटर आईकार्ड होने का सवाल है तो मेरे पास भी दो-दो हैं जिनमें से एक का अब मैं कहीं भी इस्तेमाल नहीं करता। मैं भी चाहता हूँ कि एक को रद्द करवा दूँ लेकिन लालफीताशाही और दफ्तरों की बेवजह की दौड़ लगाने से भागता हूँ। अगर ऐसा करना अपराध है तो मैं भी अपराधी हूँ लेकिन क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि बीएलओ जाँच करके खुद ही एक को रद्द कर दे। फिर दिल्ली में तो कम-से-कम 22% वोटर आई कार्ड फर्जी हैं,एक ही फोटो पर 15-पन्द्रह आई कार्ड बने हुए हैं तो क्या इसमें भी उस तस्वीर वाले या वोटर की ही गलती है। मेरी 70 वर्षीय माँ की उम्र वोटर आईकार्ड में 98 साल दर्ज कर दी गई है,मेरे गाँव के कई पुरुषों के वोटर आईकार्ड में महिलाओं की और कई महिलाओं के वोटर आईकार्ड में पुरुषों की तस्वीरें दर्ज है,इसमें किसकी गलती है? हमारे हाजीपुर में लोग पिछले 20 सालों से रह रहे हैं और बार-बार मतदाता सूची में नाम दर्ज करने के लिए आवेदन देते हैं फिर भी उनका नाम दर्ज नहीं किया जाता,इसमें किसकी गलती है?
मित्रों,तो यह था अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी की कथनी,करनी और शख्सियत का आलोचनात्मक विश्लेषण। अब यह आप दिल्लीवासियों पर निर्भर करता है आप किसको चुनते हैं। झूठ और अराजकता को या सत्य और सृजनात्मकता को? विवादपुरुष को या विकासस्त्री को? रायता को या विकास को? राष्ट्रविरोधी को या राष्ट्रभक्त को? निर्णय आपके अपने हाथों में है। आप ही अपनी दिल्ली के भाग्यनिर्माता हैं। क्या आप वर्ष 2013 में अपने द्वारा की गई गलती को दोहराना चाहेंगे?

(हाजीपुर टाईम्स पर प्रकाशित)

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

डी फॉर डॉक्टर,डॉक्टर मीन्स डाकू

23 जनवरी,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,एक समय था जब डॉक्टरों को धरती का भगवान कहा जाता था। तब डॉक्टरी पैसा कमाने का गंदा धंधा नहीं थी बल्कि मानव-सेवा का सबसे उत्तम माध्यम थी। लेकिन आज जैसा कि कल मैंने महसूस किया डॉक्टरों से ज्यादा उदार और दयावान तो कसाई होते हैं।
मित्रों,हुआ यह कि इसी 16 जनवरी की रात में मेरी पत्नी के पेट में असहनीय दर्द होने लगा। मैं उसके साथ-साथ रातभर परेशान रहा। सुबह गैस की दवा दी। कुछ देर तक तो दर्द बंद रहा लेकिन दोपहर में फिर से दर्द होने लगा। मैं दौड़ा-दौड़ा हाजीपुर के ही सुभाष चौक पर क्लिनिक चलानेवाली डॉ. अंजु सिंह के पास गया और दो सौ रुपया देकर नंबर लगा दिया। फिर घर आया और 12 बजे आनन-फानन में क्लिनिक ले गया। परन्तु यह क्या डॉक्टर तो अपने कक्ष में थी ही नहीं। वे कथित रूप से ऑपरेशन थिएटर में चली गई थीं। फिर शुरू हुआ इंतजार का सिलसिला। पूरी बिल्डिंग में सीसीटीवी कैमरा लगा हुआ था और कंपाउंडर किसी भी चना-चबेना बेचनेवाले को फटकने नहीं दे रहा था। ईधर मेरी पत्नी का दर्द के मारे बुरा हाल था। उसके साथ-साथ मैं भी सुबह से भूखा-प्यासा अपनी बारी का इंतजार कर रहा था।
मित्रों,इस बीच मैंने कई बार कंपाउंडर से जल्दी दिखवाने का निवेदन किया लेकिन सब बेकार। मेरे साथ-साथ अन्य मरीज और उनके परिजन भी बेहाल थे। मैंने पूरे जीवन में इतनी सुस्ती से मरीज का परीक्षण करनेवाला डॉक्टर नहीं देखा था। फिर राम-राम करते-करते और पत्नी को दर्द से बेहाल देखते हुए शाम के पाँच बजे कंपाउंडर ने नाम पुकारा। लेकिन जब पत्नी दिखाकर बाहर आई तो पुर्जा पर कोई दवा नहीं लिखी गई थी बल्कि अल्ट्रासाउंड और कई तरह की जाँच लिखी हुई थी। मैंने पत्नी से पूछा कि क्या तुमने दवा लिखने को नहीं कहा। तब उसने बताया कि डॉक्टर ने कहा कि बिना अल्ट्रासाउंड औरजाँच की रिपोर्ट देखे वह दवा नहीं लिखेगी भले ही मेरी मौत ही क्यों न हो जाए।
मित्रों,फिर तो मारे गुस्से के मेरा बुरा हाल था। मैं सोंच रहा था कि डॉक्टर का मतलब क्या डाकू होता है? हद है कि डॉक्टरी ने किस तरह डकैती का स्वरूप ग्रहण कर लिया है! मरीज को ईलाज कराने के दौरान पग-पग पर लूटा जाता है और बेचारा प्रतिवाद भी नहीं कर पाता। 17 जनवरी को मेरी पत्नी की जो हालत थी उसको देखकर शायद जल्लाद भी रो पड़ता लेकिन एक डॉक्टर को तनिक भी दया नहीं आई! कहाँ है हिप्पोक्रेटिज की शपथ?
मित्रों,केंद्र सरकार ने जबसे गरीबों के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू की है तबसे इन डाकू डॉक्टरों की आमदनी कई गुना बढ़ गई है। मैंने सुना है कि भारत में डॉक्टरों को रेग्यूलेट करने के लिए एमसीआई नाम की कोई संस्था है। फिर एमसीआई या केंद्र सरकार क्यों प्रत्येक जिले या राज्य की राजधानी में मरीजों के लिए हेल्पलाईन नंबर जारी नहीं करती या ऐसी कोई वेबसाईट क्यों नहीं बनाती जहाँ फोन करके या ईमेल करके लोग डॉक्टर नामधारी डाकुओं की शिकायत कर सकें।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 18 जनवरी 2015

भ्रष्टाचार की बाड़ी आंगनबाड़ी योजना

18 जनवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हमारे बिहार में घर के आगे-पीछे जो खाली जमीन होती है लोग उसका भी बखूबी उपयोग करते हैं। लोग उसमें सब्जी उगा लेते हैं और ऐसे ही सब्जियों के छोटे-बड़े बागीचे को हम कहते हैं बाड़ी। कुछ ऐसी ही स्थिति बिहार में आंगनबाड़ियों की है। बिहार के आंगनबाड़ियों में पोषण की नहीं बल्कि वास्तव में भ्रष्टाचार की सब्जी की खेती हो रही है और खुलेआम हो रही है,ताल ठोंककर हो रही है। जबसे यह ICDS (Integrated Child Development Services Scheme) योजना शुरू की गई है आजतक मेरी तो समझ में ही नहीं आया कि योजना को चलानेवाले अधिकारी-कर्मी धूर्त हैं या सरकार ही अंधी है? इस योजना के अंतर्गत कहीं कोई काम ही नहीं हो रहा। पूरा-का-पूरा माल जेब में। अब यह तो जाँच का विषय है कि किसकी जेब में कितना माल जाता है।

मित्रों,इस परियोजना से जुड़े भ्रष्ट अधिकारियों का मनोबल किस कदर बढ़ा हुआ है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई साल पहले जब परवीन अमानुल्लाह बिहार की महिला एवं बाल विकास मंत्री थीं तब वैशाली जिले के ही बिदुपुर में वहाँ की प्रखंड बाल विकास परियोजना पदाधिकारी ने उनके साथ धक्का-मुक्की और बदतमीजी की और मंत्री होते हुए भी अमानुल्लाह कुछ नहीं कर सकीं।

मित्रों,अभी कुछ दिन पहले ही जब वैशाली जिले के कई प्रखंडों में आंगनबाड़ियों की जाँच की गई तो पाया गया कि महुआ और देसरी में कई आंगनबाड़ियों का कहीं अता-पता ही नहीं है। राघोपुर का तो मैं खुद ही चश्मदीद गवाह हूँ और वहाँ भी धरातल पर अधिकांश आंगनबाड़ी हैं ही नहीं फिर बच्चों का कैसा पोषण और कैसा विकास। हाँ,आंगनबाड़ी सेविकाएँ जरूर प्रति सेविका प्रति माह 20 से 25 हजार रुपये का कालाधन अर्जित कर रही हैं।

मित्रों,बिहार सरकार के समाज कल्याण विभाग के दस्तावेजों के मुताबिक समग्र बाल विकास सेवा (आइसीडीएस) योजना के तहत 91,688 आंगनबाड़ी संचालित किए जा रहे हैं, मगर एक सर्वे रिपोर्ट में पाया गया कि अधिकांश आंगनबाड़ी केंद्र अपने लक्ष्य और दायित्व से कोसों दूर हैं। मुश्किल से 60 फीसदी बच्चों को नियमित पोषाहार मिल पा रहा है। आइसीडीएस का पहला लक्ष्य ही बच्चों को कुपोषण से बचाना है, लेकिन कागजों में दर्ज बच्चों में बमुश्किल 60 फीसद को ही आंगनबाड़ी केंद्रों पर नियमित पोषाहार मिलता है। समाज कल्याण विभाग के संबंधित अधिकारी के मुताबिक हर आंगनबाड़ी केंद्र में आने वाले बच्चे रोजाना दोपहर डेढ़ सौ से दो सौ ग्राम खिचड़ी, अंडे, हलवा या पुलाव खाते हैं। सुबह के नाश्ते में इन्हें फल और बिस्किट मिलता है, लेकिन हकीकत में तो अधिकांश केंद्रों पर बच्चों की मौजूदा संख्या के अनुरूप भोजन पकाने की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है। कई जगहों पर विटामिन ए की खुराक तक समय पर नहीं मिल पा रही है। कहीं-कहीं जरूर कभी-कभी बच्चों को कुछेक बिस्कुट या टॉफियाँ देकर समझ लिया जाता है कि अब वे कुपोषित नहीं रह गए हैं।

मित्रों,आंगनबाड़ी सेविका के बीमार पड़ने, प्रशिक्षण पर जाने या किसी अन्य काम से जाने पर ये केंद्र नहीं खुल पाते। राजधानी पटना की कई आंगनबाड़ियों में वजन मापने की मशीन उपलब्ध तो है, मगर उसका कभी उपयोग नहीं किया गया। दवा की किट, बच्चों का शारीरिक विकास दर्ज करने की व्यवस्था, शौचालय और स्वच्छ पानी आदि की व्यवस्था तो कहीं दिखी ही नहीं। आंगनबाड़ी केंद्र पर बच्चों को दरी और स्लेट तक नहीं मिलती। ज्यादातर सेविकाओं को टीकाकरण और पोषण संबंधी सामान्य सावधानियों की जानकारी नहीं है। बच्चों को खिचड़ी, हलवा या पुलाव देने में भी सफाई नहीं बरती जाती। अधिकांश आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का कहना है कि पोषाहार के सामान से लेकर जलावन तक के लिए मिलने वाली रकम बेहद कम है। शिकायत करने पर संबंधित अधिकारी झिड़क देते हैं।

मित्रों,सवाल उठता है कि फिर इस योजना का पैसा जाता कहाँ है? ऐसा कौन-सा स्पंज है जो योजना की राशि को सोख जाता है? सवाल यह भी उठता है कि सरकार कबतक सबकुछ जानते-बूझते हुए भी इसी तरह जनता के टैक्स से आए पैसे को गड्ढ़े में बहाती रहेगी? आखिर कब इस भ्रष्टाचार की बाड़ी को समाप्त किया जाएगा या इसमें सुधार किया जाएगा? आँकड़े व समाचार-पत्र गवाह हैं कि बिहार में जितने भी अधिकारी घूस लेते रंगे हाथों पकड़े गए हैं उनमें बड़ी संख्या इस योजना से जुड़े अधिकारियों की है। फिर भी केंद्र और राज्य की सरकार क्यों इस योजना की ओवरहॉलिंग नहीं कर रही?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

भारतीय राजनीति में आशा की नई किरण किरण बेदी

16 जनवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं कई बार अपने आलेखों में लिख चुका हूँ कि हमारे देश की राजनीति सिर्फ बाहर से गालियाँ देने से स्वच्छ नहीं होनेवाली है बल्कि इसके लिए स्वच्छ मन,चरित्र और विचारवाले लोगों में राजनीति में आना होगा। यह हमारे लिए बड़ी ही खुशी का सबब है कि कल एक ऐसी ही शख्सियत ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया। वह एक ऐसी शख्सियत हैं जिनके बारे में हमलोग बचपन से ही पढ़ते-सुनते आ रहे हैं और उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहे हैं। वह एक ऐसी शख्सियत हैं जिनकी ईमानदारी भारत के भ्रष्टतम विभाग में काम करने के बावजूद संदेह से परे रही है।
मित्रों,वे एक ऐसी शख्सियत हैं जिनके राजनीति में आने के बाद हम निश्चिंत होकर यह कह सकते हैं कि भारत के साथ-साथ दिल्ली के भी अच्छे दिन आनेवाले हैं। आपको पता है कि मैं किनके बारे में बात कर रहा हूँ। वैसे तो वे किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं फिर भी चूँकि आलेख को आगे बढ़ाने के लिए उनका नाम लेना जरूरी है इसलिए मैं उनका नाम ले रहा हूँ और उनका नाम है-किरण बेदी। वही किरण बेदी जो भारत की पहली महिला आईपीएस थीं, वही किरण बेदी जिन्होंने नौकरी को सिर्फ नौकरी की तरह नहीं किया बल्कि देश और समाज की सेवा के हथियार के रूप में प्रयुक्त किया,वही किरण बेदी जिनके लिए देश और समाज ही हमेशा सर्वोपरि रहा,उन्हीं किरण बेदी ने कल भारतीय जनता पार्टी को ज्वाईन कर राजनीति में कदम रखा।
मित्रों,कल तक आम आदमी पार्टी नामक नौटंकिया दल गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहा था कि भाजपा के पास मुख्यमंत्री बनने लायक कौन-सा चेहरा है आज वो खामोश हो गया है क्योंकि आज भाजपा के पास मुख्यमंत्री बनने लायक एक ऐसा चेहरा है जो नौटंकी करने में नहीं बल्कि काम करने में विश्वास रखता है, जो ईमानदार होने का दिखावा नहीं करता बल्कि वास्तव में ईमानदार है। कुछ लोग किरण जी के नरेंद्र मोदी और भाजपा को लेकर पहले दिए गए बयानों को प्रमुखता से दुनिया के सामने लाने में लग गए हैं मैं उनको बताना चाहता हूँ कि एक समय था जब मैं खुद भी नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं करता था हालाँकि मैंने उनको कभी देखा-सुना नहीं था। निश्चित रूप से मेरे मन में उनकी जो छवि बनी हुई थी वह मीडिया की देन थी लेकिन जब मैंने उनको पहली बार गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भाषण करते हुए टीवी पर देखा तो मुझे लगा कि बंदे में दम है और सिर्फ यही एक आदमी माँ भारती की बिगड़ी हुई तकदीर को बदल सकता है। तभी से मैंने बिना किसी लाग-लपेट व बिना किसी शंका-संदेह के उनका समर्थन करना शुरू कर दिया।
मित्रों,हो सकता है कि किरण बेदी जी के साथ भी ऐसा ही हुआ हो क्योंकि आज हमारे देश में जो आशा व उत्साह का माहौल है क्या कोई पिछले साल आज की ही तारीख में कल्पना भी कर सकता था? मैंने तो यहाँ तक लिख दिया था कि भारत में संसदीय प्रणाली फेल साबित हो चुकी है और हमें देर-सबेर अध्यक्षीय शासन प्रणाली को अपनाना ही पड़ेगा लेकिन आज मैं यह कह सकता हूँ कि नरेंद्र मोदी ने कुछ ऐसा जादू भारत की जनता पर कर दिया है कि मुझे यकीन ही नहीं हो रहा है कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली है बल्कि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत में अमेरिका की तरह ही अध्यक्षीय शासन प्रणाली है।
मित्रों,इसलिए इस विवाद को ज्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को लेकर भूतकाल में किरण बेदी के क्या विचार थे और वर्तमान काल में हमें यह देखना चाहिए कि हम किरण जी की जीवटता और योग्यता से क्या लाभ उठा सकते हैं? हमें किरण जी के राजनीति में पदार्पण को एक अवसर के रूप में लेना चाहिए और उनको अपनी कल्पना को साकार करने का अवसर देना चाहिए। मैं मानता हूँ कि राम-राज्य एक आदर्श है और उसको शत-प्रतिशत प्राप्त करना संभव ही नहीं है फिर भी अगर कोई उस आदर्श को 50 प्रतिशत तक भी प्राप्त कर लेता है तो उसे एक अद्भुत उपलब्धि माना जाना चाहिए और मैं समझता हूँ कि किरण जी भविष्य में उसी दिशा में प्रयास करनेवाली हैं।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 11 जनवरी 2015

समाजवाद बबुआ पहिले भकुआईल रहे अब पगला गईल ह!

11 जनवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,एक समय था जब मैं समाजवादियों की काफी कद्र करता था। मेरे चाचा जो खुद भी समाजवादी थे ने वर्षों पहले एक बार मुझे समझाया था कि समाजवाद का मतलब होता है रामजी के चिरई रामजी के खेत,खा ले रे चिरई भर-भर पेट। उनके कथनानुसार समाजवादी समाज से गैरबराबरी को समाप्त कर समरस समाज की स्थापना करना चाहते हैं। परन्तु 1990 के बाद वही चाचा कहने लगे कि समाजवाद बबुआ भकुआ गईल ह। अब बिहार,हरियाणआ और यूपी में समाजवादियों का ही शासन था। शासन क्या था दुश्शासन था। सत्ता में आने के बाद समाजवादियों ने समाज में समरसता की स्थापना के स्थान पर अपनी जाति के शासन की स्थापना कर डाली। आज भी यूपी और बिहार की माटी का कण-कण यही गाता हुआ लग रहा है कि हमें तो लूट लिया मिल के समाजवादियों ने। यूपी-बिहार के समाजवादियों ने घोटालों की झड़ी लगा दी। हरियाणा भी अपवाद नहीं रहा और वहाँ के चौटाला जी आज भी अपनी ठंडी रातें जेल में काट रहे हैं।
मित्रों,क्या विडंबना है कि जिन बातों को लेकर समाजवादी पुराने शासकों की सामंतवादी कहकर आलोचना किया करते थे शासन में आने के बाद वे खुद वही सब कहीं ज्यादा चढ़-बढ़कर करने लगे। यूपी में जब मुलायम सिंह यादव को जन्मदिन मनाना होता है तो वे इसे सादे तरीके से नहीं मनाते बल्कि वे रामपुर की सड़कों पर विक्टोरिया की फिटन पर सवार होकर निकलते हैं। जब मुलायम परिवार को नया साल मनाना होता है तो वे इसे गरीबों को ठंड से बचाने का इंतजाम करते हुए नहीं मनाते बल्कि सैफई में अरबों रुपये फूंककर महामहोत्सव का आयोजन करते हैं जिसमें मोनिका बेदी ठुमके लगाती है,ऋत्विक रौशन संगीत और नृत्य की शमाँ को रौशन करते हैं। इस साल भी पूरे भारत में ठंड लगने से सबसे ज्यादा गरीब यूपी में ही मरे हैं लेकिन समाजवाद को अब गरीबों की चिंता नहीं है बल्कि वो तो मोनिका बेदी के साथ ठुमके लगाने में मशगूल है। इसी तरह समाजवाद को बलत्कृत अबलाओं की भी चिंता नहीं है बल्कि वो तो बलात्कार को बच्चों की छोटी-मोटी शरारत मानता है। इसी तरह कभी गैरबराबरी को समाप्त करने की चिंता करनेवाले समाजवादियों को आज दलितों की कोई चिंता नहीं है क्योंकि वे इनको वोट ही नहीं देते। समाजवाद सैफई के ठुमकों पर हो-हल्ला होने पर गजब की बेशर्मी से कहता है कि इससे पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। जब हम छोटे थे तब हमारे गांव में शादियों में नर्तकियों को नचाया जाता था लेकिन इससे हमारे गांव में तो पर्यटन को बढ़ावा नहीं मिला?
मित्रों,इन दिनों हमारे देश के समाजवाद को एक नई चिंता ने ग्रसित कर लिया है और वह चिंता है भाजपा और नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोकने की। लेकिन इसके लिए सैफई में ठुमके लगाता समाजवाद ठुमकों को रोककर सुशासन की स्थापना नहीं करता बल्कि कलम-कॉपी लेकर हिसाब लगाता है कि अगर हम-तुम हाथ मिला लें तो तुम्हारा वोट-बैंक और मेरा वोट-बैंक मिलकर हमारा वोट-बैंक इतना हो जाएगा और चुनाव जीतने के बाद हमारा बैंक-बैलेंस इतना। अब समाजवाद न सिर्फ भकुआ गया है बल्कि लंपट,सत्तावादी,सामन्तवादी और भ्रष्ट हो गया है। समाजवाद पहले कहता था कि राष्ट्रपति हो या गरीबों की संतान,सबको शिक्षा मिले एक समान लेकिन आज समाजवाद को गांवों में शिक्षा के स्तर को सुधारने की चिंता नहीं है बल्कि बच्चों के बीच लैपटॉप,साईकिल और छात्रवृत्ति बाँटकर चुनाव जीतने की चिंता है। आज मुलायम सिंह यादव का बेटा-पोता गांव में गरीबों के साथ टूटे हुए बेंचों और टाट पर बैठकर पढ़ाई नहीं करता बल्कि अमेरिका-इंग्लैंड जाकर हार्वर्ड और कैंब्रिज में अध्ययन करता है। इसी तरह से कभी समाजवाद कहता था कि हम उन घरों को रौशन करने आए हैं जिनमें सदियों से अंधेरा है मगर आज समाजवाद कहता है कि हम जिसकी सरकार रहे उसी के साथ हो लेने के लिए आए हैं ताकि बराबर सत्ता की मलाई चाभने को मिलती रहे। अब नई परिभाषानुसार गाँव,गरीब और गौ की चिंता करना समाजवाद नहीं है बल्कि चुनाव जीतकर सत्ता में आना,पुराने राजाओं की तरह राज भोगना,अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को गुंडागर्दी-मनमानी करने की पूरी छूट दे देना और फिर उनके बल पर चंबल के लुटेरों की तरह लूट मचाना समाजवाद है। मेरे चाचा कहते हैं कि बबुआ समाजवाद अब भकुआईल नईखे बाकिर सत्ता के नशीला दारू पीके पगला गईल ह।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 4 जनवरी 2015

PK आरोप है या आलोचना?

4 जनवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,जबसे राजू हिरानी की फिल्म पीके आई है पूरे देश में कुछ लोगों ने हड़कंप मचाया हुआ है। उनको लगता है जैसे हिन्दू धर्म लाजवंती का पौधा है जो छूते ही मुरझा जाएगा और उसके ऊपर इस एक फिल्म के चलते संकट पैदा हो गया है। जबकि तलवारों और तोपों के बल पर हिन्दू धर्म को हजारों ISIS सदृश आक्रान्ता नहीं मिटा सके तो सिर्फ शब्दों और तर्कों के कारण हिन्दू धर्म को कैसे खतरा पैदा हो सकता है? फिर हिन्दू धर्म में तो हजारों सालों से बहस और शास्त्रार्थ की परंपरा रही है फिर आज क्यों हमें आलोचनाओं के द्वारों को बंद कर देना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि दूसरे धर्म वाले अपने मामले में ऐसा करने की ईजाजत नहीं देते? अगर हम ऐसा करते हैं तो फिर हममें और उनमें क्या फर्क रह जाएगा? क्या तब हम भी लकीर के फकीर नहीं कहे जाएंगे? क्या हम भी मध्ययुगीन जानवर बनकर नहीं रह जाएंगे?
मित्रों, अभी कल ही भारत के प्रधानमंत्री ने भारत के लोगों से अपील की कि लोगों को आलोचना करनी चाहिए न कि आरोप लगाने चाहिए। इस बयान के संदर्भ में आज हम इस बात पर विचार करेंगे कि फिल्म PK में हिन्दू धर्म पर आरोप लगाए गए हैं या उसकी आलोचना मात्र की गई है? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि PK में हिन्दू धर्म में कायम पाखंडवाद पर करारा प्रहार किया गया है न कि हिन्दू धर्म पर। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमने अपने भगवान की हत्या कर दी है और पैसे को ही भगवान बना दिया है और फिल्म पीके में हमारे इसी पतन को रेखांकित किया गया है जो किसी भी तरह से गलत नहीं है। PK के निर्माता-निर्देशक ने बस एक ही गलती की है कि उसने सिर्फ हिन्दू धर्म में बढ़ते पाखंडवाद को ही निशाने पर रखा है जबकि उसको अन्य धर्मों में फलते-फूलते पाखंडवाद पर भी बराबर की चोट करनी चाहिए थी। कुछ इसी तरह की फिल्म ओ माई गॉड भी थी लेकिन उसमें सारे धर्मों की एक साथ आलोचना की गई थी। अगर PK के निर्माता-निर्देशक भी इतनी सावधानी रखते तो आज उनको हिन्दुओं का इतना सख्त विरोध नहीं झेलना पड़ता। मेरी समझ में यही एक कारण है जिससे कि कई हिन्दुओं को फिल्म में आलोचना के तत्त्व कम और आरोप के तत्त्व ज्यादा दिखाई दे।
मित्रों,इसलिए मैं नहीं समझता कि फिल्म PK को प्रतिबंधित कर देना चाहिए लेकिन मैं राजू हिरानी को यह सलाह जरूर देना चाहूंगा कि जब भी वे इस तरह के संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाएँ तो इस बात का आवश्यक रूप से ख्याल रखें कि फिल्म एकतरफा या किसी एक ही धर्म की आलोचना करती हुई नहीं हो क्योंकि पाखंड और झूठ सभी धर्मों और पंथों में है और कई धर्म और पंथ तो ऐसे हैं जिनमें सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)