4 जनवरी,2015,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,जबसे राजू हिरानी की फिल्म पीके आई है पूरे देश में कुछ लोगों ने हड़कंप मचाया हुआ है। उनको लगता है जैसे हिन्दू धर्म लाजवंती का पौधा है जो छूते ही मुरझा जाएगा और उसके ऊपर इस एक फिल्म के चलते संकट पैदा हो गया है। जबकि तलवारों और तोपों के बल पर हिन्दू धर्म को हजारों ISIS सदृश आक्रान्ता नहीं मिटा सके तो सिर्फ शब्दों और तर्कों के कारण हिन्दू धर्म को कैसे खतरा पैदा हो सकता है? फिर हिन्दू धर्म में तो हजारों सालों से बहस और शास्त्रार्थ की परंपरा रही है फिर आज क्यों हमें आलोचनाओं के द्वारों को बंद कर देना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि दूसरे धर्म वाले अपने मामले में ऐसा करने की ईजाजत नहीं देते? अगर हम ऐसा करते हैं तो फिर हममें और उनमें क्या फर्क रह जाएगा? क्या तब हम भी लकीर के फकीर नहीं कहे जाएंगे? क्या हम भी मध्ययुगीन जानवर बनकर नहीं रह जाएंगे?
मित्रों, अभी कल ही भारत के प्रधानमंत्री ने भारत के लोगों से अपील की कि लोगों को आलोचना करनी चाहिए न कि आरोप लगाने चाहिए। इस बयान के संदर्भ में आज हम इस बात पर विचार करेंगे कि फिल्म PK में हिन्दू धर्म पर आरोप लगाए गए हैं या उसकी आलोचना मात्र की गई है? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि PK में हिन्दू धर्म में कायम पाखंडवाद पर करारा प्रहार किया गया है न कि हिन्दू धर्म पर। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमने अपने भगवान की हत्या कर दी है और पैसे को ही भगवान बना दिया है और फिल्म पीके में हमारे इसी पतन को रेखांकित किया गया है जो किसी भी तरह से गलत नहीं है। PK के निर्माता-निर्देशक ने बस एक ही गलती की है कि उसने सिर्फ हिन्दू धर्म में बढ़ते पाखंडवाद को ही निशाने पर रखा है जबकि उसको अन्य धर्मों में फलते-फूलते पाखंडवाद पर भी बराबर की चोट करनी चाहिए थी। कुछ इसी तरह की फिल्म ओ माई गॉड भी थी लेकिन उसमें सारे धर्मों की एक साथ आलोचना की गई थी। अगर PK के निर्माता-निर्देशक भी इतनी सावधानी रखते तो आज उनको हिन्दुओं का इतना सख्त विरोध नहीं झेलना पड़ता। मेरी समझ में यही एक कारण है जिससे कि कई हिन्दुओं को फिल्म में आलोचना के तत्त्व कम और आरोप के तत्त्व ज्यादा दिखाई दे।
मित्रों,इसलिए मैं नहीं समझता कि फिल्म PK को प्रतिबंधित कर देना चाहिए लेकिन मैं राजू हिरानी को यह सलाह जरूर देना चाहूंगा कि जब भी वे इस तरह के संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाएँ तो इस बात का आवश्यक रूप से ख्याल रखें कि फिल्म एकतरफा या किसी एक ही धर्म की आलोचना करती हुई नहीं हो क्योंकि पाखंड और झूठ सभी धर्मों और पंथों में है और कई धर्म और पंथ तो ऐसे हैं जिनमें सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों, अभी कल ही भारत के प्रधानमंत्री ने भारत के लोगों से अपील की कि लोगों को आलोचना करनी चाहिए न कि आरोप लगाने चाहिए। इस बयान के संदर्भ में आज हम इस बात पर विचार करेंगे कि फिल्म PK में हिन्दू धर्म पर आरोप लगाए गए हैं या उसकी आलोचना मात्र की गई है? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि PK में हिन्दू धर्म में कायम पाखंडवाद पर करारा प्रहार किया गया है न कि हिन्दू धर्म पर। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमने अपने भगवान की हत्या कर दी है और पैसे को ही भगवान बना दिया है और फिल्म पीके में हमारे इसी पतन को रेखांकित किया गया है जो किसी भी तरह से गलत नहीं है। PK के निर्माता-निर्देशक ने बस एक ही गलती की है कि उसने सिर्फ हिन्दू धर्म में बढ़ते पाखंडवाद को ही निशाने पर रखा है जबकि उसको अन्य धर्मों में फलते-फूलते पाखंडवाद पर भी बराबर की चोट करनी चाहिए थी। कुछ इसी तरह की फिल्म ओ माई गॉड भी थी लेकिन उसमें सारे धर्मों की एक साथ आलोचना की गई थी। अगर PK के निर्माता-निर्देशक भी इतनी सावधानी रखते तो आज उनको हिन्दुओं का इतना सख्त विरोध नहीं झेलना पड़ता। मेरी समझ में यही एक कारण है जिससे कि कई हिन्दुओं को फिल्म में आलोचना के तत्त्व कम और आरोप के तत्त्व ज्यादा दिखाई दे।
मित्रों,इसलिए मैं नहीं समझता कि फिल्म PK को प्रतिबंधित कर देना चाहिए लेकिन मैं राजू हिरानी को यह सलाह जरूर देना चाहूंगा कि जब भी वे इस तरह के संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाएँ तो इस बात का आवश्यक रूप से ख्याल रखें कि फिल्म एकतरफा या किसी एक ही धर्म की आलोचना करती हुई नहीं हो क्योंकि पाखंड और झूठ सभी धर्मों और पंथों में है और कई धर्म और पंथ तो ऐसे हैं जिनमें सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
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