रविवार, 19 अगस्त 2018

सिर्फ नारों से नहीं होगी भारत की जय

मित्रों, जब भी स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस आता है हमारे भीतर देशभक्ति का सोडा वाटर जैसा जोश उमड़ने लगता है. इधर दिन गुजरा और उधर जोश गायब. इन दो दिन हम खूब नारे लगाते हैं भारत माता की जय. मानों हमारे नारे लगाने से ही भारत माता की जय हो जाएगी और हमारा देश दुनिया का सिरमौर बन जाएगा. अगर ऐसा होता तो आज हमारा देश शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, प्रति व्यक्ति आय, परिवहन आदि प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ नहीं होता. चीन और भारत की एक समय एक बराबर जीडीपी थी आज उनकी हमारी से चार गुना से भी ज्यादा है. क्योंकि चीन के लोग सिर्फ नारे नहीं लगाते बल्कि राष्ट्र और राष्ट्र निर्माण के प्रति सच्ची निष्ठा रखते हैं. हमारी तरह सिर्फ अधिकारों की बात नहीं करते बल्कि उससे कहीं ज्यादा निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं.
मित्रों, सिर्फ नारों से अगर देश का विकास होना होता तो बेशक हमारा देश सबसे आगे होता. हमारे-आपके घर के पास सड़क बनती है, स्कूल बनते हैं, शौचालय बनते है हम कभी यह देखने नहीं जाते कि निर्माण की गुणवत्ता कैसी है, इंजिनियर, ठेकेदार कोई अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता, अस्पतालों में मरीज जमीन पर पड़े-पड़े कराहते रहते हैं डॉक्टर और नर्स गायब रहते हैं, बैंकों में बिना कमिशन दिए लोन नहीं मिलता, जज घूस लेकर फैसला सुनाते हैं, शिक्षक पढ़ाते नहीं है, ट्रेनों में बेटिकट यात्रा करना वीरता मानी जाती है, अधिकारी दरिद्र को नारायण तो क्या इन्सान तक नहीं मानते. शोचनीय है कि जब हममें से कोई अपने कर्तव्यों का पालन करेगा ही नहीं तो देश चीन से कैसे टक्कर लेगा? उस पर तुर्रा यह कि हमें देश में हर चीज दुरुस्त चाहिए और मुफ्त में चाहिए. सडकों पर दुर्घटनाओं के शिकार तड़पते रहते हैं हम ध्यान तक नहीं देतेऔर लोग आते-जाते रहते हैं क्योंकि मरनेवाला हमारा सगा नहीं होता, छेड़खानी होती रहती है लेकिन हम चुप रहते हैं क्योंकि लड़की हमारी कोई नहीं होती है. तथापि अगर हमारा कोई अपना इस तरह की परिस्थितियों में फंस जाता है तो हम इंसानियत की दुहाई देने लगते हैं कि लोगों ने अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया, छेड़खानी का विरोध क्यों नहीं किया?
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि हम निहायत स्वार्थी थे, हैं और रहेंगे. संकट जब तक हमारे अपनों पर नहीं आता, जब तक हम सीधे-सीधे प्रभावित न हों हम आखें मूंदे रहते है. हम बोलेंगे नहीं मौका मिलने पर जमकर भ्रष्टाचार भी करेंगे लेकिन हमें सरकारी सेवाएँ दुरुस्त और भ्रष्टाचारमुक्त चाहिए. आज सरकार सबकुछ निजी क्षेत्र के हवाले करती जा रही है, कल शायद हमारे पास स्वच्छ पानी पीने और स्वच्छ हवा में साँस लेने की भी आजादी नहीं रहेगी, सबकुछ बड़ी-बड़ी कंपनियों के हाथों में होगा लेकिन हम बेफिक्र है और इन्टरनेट पर व्यस्त हैं. अभी ही देश की ८० फीसदी से भी ज्यादा संपत्ति १० प्रतिशत सबसे धनी लोगों के पास है और सरकार की कृपा से अमीरी-गरीबी के बीच की खाई रोजाना बढती ही जा रही है. जैसे-जैसे सरकार विभिन्न क्षेत्रों से अपना हाथ खीचेगी, सरकारी प्रतिष्ठानों के साथ spoil and sell अर्थात पहले बर्बाद करो फिर बेच दो की नीति पर चलती रहेगी हमारे जीवन से जुड़े हर पहलू पर निजी क्षेत्र का कब्ज़ा बढ़ता जाएगा. हमारी आजादी खतरे में है और हम बेखबर हैं इन्टरनेट पर पर व्यस्त हैं. हमारे पास
रात के २ बजे तक कुछ भी सोचने का समय नहीं है.
मित्रों, जब तक हम इस तरह की सोंच रखेंगे हो ली भारतमाता की जय. तब तक तो भारत नीचे से ही नंबर एक आता रहेगा, तब तक चीन और पाकिस्तान हमें आंख दिखाते रहेंगे चाहे हम कितनी भी बड़ी सेना क्यों न खडी कर लें क्योंकि देश का बल सेना नहीं होती जनता होती है जनसामान्य की देश के प्रति निष्ठा होती है. तो मित्रों, संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के साथ मौलिक कर्तव्यों को भी जानिए, उनका पालन करिए, सरकारी नीतियों के प्रति सजग रहिए और फिर लगाईए नारा-भारत माता की जय!

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

अच्छा हुआ कि अटल तुम चले गए

मित्रों, गीता कहती है जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। अर्थात पैदा हुए की जरूर मृत्यु होती है और मरे हुए का जरूर जन्म होता है. अटल जी भी हमारी तरह जीव थे, मानव थे इसलिए उनका मरना भी तय था. यह सही है कि आज देश में शोक की जबरदस्त लहर है लेकिन मैं समझता हूँ कि वे पिछले कई सालों से जिस तरह का कष्ट भोग रहे थे और जिस तरह की बीमारी से ग्रस्त थे उनका चले जाना ही ठीक था. हमारे देहात में कहा जाता है कि चलते-फिरते मौत आ जाए तो सबसे अच्छा. फिर हमें कैसे अच्छा लगता कि हमारा प्रिय, हमारा आदर्श शारीरिक यातना भोगे. वैसे मैं समझता हूँ अटल जी की बीमारी उनके लिए वरदान भी थी क्योंकि अगर वे आज स्वस्थ होते तो आज के राजनैतिक हालात और राजनैतिक संस्कृति से उनको अपार मानसिक पीड़ा होती जिससे वे रोजाना मर रहे होते. कम-से-कम अपने शव पर फूल चढाने आए स्वामी अग्निवेश की पिटाई से उनतको मरणान्तक पीड़ा जरूर होती.
मित्रों, वैसे मेरा मानना है कि अटल फिर आएँगे, फिर से जन्म लेंगे वादा जो किया है मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?  और भारत में ही जन्म लेंगे क्योंकि यही वह धरती है जहाँ जन्म लेने को देवता भी लालायित रहते हैं इसलिए उदास नहीं होईए. वैसे सच पूछिए तो उदास तो मैं भी हूँ, मेरी ऑंखें बार-बार भर आ रही हैं, मेरी लेखनी भी रो रही है हाथ बार-बार रूक जा रहे हैं लिखते-लिखते लेकिन नियति के आगे आप-हम सब बेबस हैं. कुछ कर नहीं सकते. कोई कुछ नहीं कर सकता. विश्वास नहीं होता कि जिनका भाषण सुनने के लिए हमने कई बार मीलों रेल और बस यात्रा की. जिनका प्रत्यक्ष भाषण सुनते हुए मन कभी नहीं थका और लगातार-उत्तरोत्तर लालची होता गया कि कुछ मिनट और यह स्वर कानों में पड़ता रहे, कुछ देर और, कुछ देर और, जिनको सामने देखकर सर गर्वोन्नत हो जाता था कि हमने उनको अपनी नंगी आँखों से देखा है वह मधुर छवि वही मधुर छवि हास्यम मधुरम, वाक्यम मधुरम, दृश्यम मधुरम अब हमारे आगे से जा चुकी है, दूर बहुत दूर.
मित्रों, मेरे पास उनके साथ निकाली गयी कोई तस्वीर नहीं है. मेरी उनसे कभी मुलाकात भी नहीं हुई लेकिन फिर भी हमेशा बालपन से ही मेरे मन में उनके प्रति स्वतःस्फूर्त श्रद्धा रही, प्रेम रहा, वो भी अनंत. मैं कल्पना करता कि क्या मैं उनकी शैली में भाषण कर सकता हूँ यद्यपि मैं जानता था कि उनके जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता और न ही उनकी तरह वक्तृता कर सकता है. उनके भाषणों को सुनना मेरी दीवानगी थी. हम कई दिन पहले से इंतजार करते कि आज वो बोलनेवाले हैं. उनको जुमले नहीं आते थे न ही उनको अपने ऊपर कोई अभिमान था. वे सवालों से डरते नहीं थे बल्कि उनका मजा लेते. कोई काम उनसे नहीं होता तो जनता से सीधे माफ़ी मांग लेते कि हमने नहीं हुआ, कभी बहाना नहीं बनाया, उनका शरीर क्रमशः जवान और बूढा जरूर हुआ लेकिन उनका दिल हमेशा एक बच्चे का रहा, सीधा और सच्चा. किसी की बडाई करनी है तो करनी है और किसी की आलोचना करनी है तो करनी है लेकिन मर्यादा का बिना उल्लंघन किए, मीठे शब्दों में.
मित्रों, मुझे याद है कि जब वे २००४ में चुनाव हारे थे तब हमने दो दिनों तक खाना नहीं खाया था लेकिन आज मैं खाना खाऊंगा क्योंकि वो मरा नहीं है मुक्त हुआ है एक ऐसी लाईलाज बीमारी की यातना से जिसमें आदमी जिंदा लाश बनकर रह जाता है. अभी कुछ दिन पहले महनार में जब मैं प्रसिद्ध साहित्यकार प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन से मिलने गया था जो इसी बीमारी से ग्रस्त थे और अपनी सुध-बुध खो बैठे थे तब मैंने उनके लिए भी ईश्वर से यही प्रार्थना की थी कि हे प्रभु इस महामानव को मुक्त कर दे. यद्यपि मुझे लगता है कि ईश्वर तो अटल जी को वर्षों पहले ही अपने पास बुला लेना चाहता था लेकिन यह करोड़ों देशवासियों का अटल प्यार ही था जो भगवान को भी बार-बार सोंचने पर मजबूर कर देता था और हाथ रोक लेने को बाध्य कर देता था. अटल तुम अपनी तरह के अकेले थे न कोई तेरे जैसा हुआ है न होगा, अलविदा मेरे बालकृष्ण....
मित्रों, अंत में मैं जयपुर निवासी शिव कुमार पारिक का आभार प्रकट करना चाहूँगा जिन्होंने १९५७ से अंतिम साँस तक हमारे प्रिय नेता की छाया की तरह साथ रहकर पूर्ण निस्स्वार्थ भाव से सेवा की.

सोमवार, 13 अगस्त 2018

क्या भारत में अघोषित आपातकाल है

मित्रों, इस साल न जाने क्यों भाजपा व संघ परिवार से जुड़े लोगों ने आपातकाल पर खूब चर्चा की। चर्चा करने में कोई हर्ज भी नहीं है। चर्चा होनी चाहिए। जब चुनाव नजदीक हो तो कांग्रेस शासन की ज्यादतियों पर और भी जोर-शोर से चर्चा होनी चाहिए। तथापि विचारणीय यह भी है कि इस चर्चा का उद्देश्य क्या है.
मित्रों, वर्तमान भारत में अभिव्यक्ति की आजादी की जो स्थिति है और जिस तरह से मोदी सरकार ने विरोधी स्वरों को दबाना शुरू कर दिया है उससे तो मुझे ऐसा लगता है और ऐसा लगने में मैं कोई बुराई भी नहीं मानता कि इस सारी कवायद का उद्देश्य मानो यह दिखाना है कि हमने अब तक वैसा कुछ नहीं किया है या उस हद तक मीडिया को जलील नहीं किया है जैसा कि इंदिरा जी ने किया था. मोदी सरकार शायद कलमवीरों को यह दिलासा देना चाहती है कि हमने  आपको सिर्फ बाधित किया है जेल तो नहीं भेजा. हमने अघोषित रूप से आपातकाल लगाया है उसकी घोषणा तो नहीं की.
मित्रों, २३ अप्रैल २०१४ को एबीपी न्यूज़ को दिए इंटरव्यू  क्या आपने देखा मोदी का अब तक का सबसे कठिन ईंटरव्यू? में मोदीजी से पूछा था कि क्या आप भविष्य में हमारे साथ भी सख्ती बरतेंगे तो मोदी जी ने हँसते हुए कहा था कि यह आपके व्यवहार पर निर्भर करेगा. कदाचित मुझे लगता है कि मीडिया को दबाने की कोशिश १९७५ से पहले और १९७७ के बाद कभी बंद ही नहीं हुई. हाँ, बांकी की सरकारों ने जो परदे के पीछे से किया और कर रही है इंदिरा जी ने खुलेआम किया. हम इतिहास की किताबों में पढ़ते हैं कि वर्नाकुलर प्रेस एक्ट,१९७८ अमृत बाज़ार पत्रिका को दबाने के उद्देश्य से लाया गया था लेकिन आपको किसी ने नहीं बताया होगा कि मोदी सरकार न्यूज़ पोर्टल्स को नियमित करने के लिए जो एक्ट लाने जा रही है वो वायर न्यूज़ पोर्टल को नियंत्रण में लाने के लिए लाने जा रही है.
मित्रों, अभी पुण्य प्रसून वाजपेयी को जिस तरह से पहले मास्टर स्ट्रोक का प्रसारण बाधित करके तंग किया गया और बाद में चैनल से ही चलता कर दिया गया और वे चैनल पर जिस तरह के आरोप लगा रहे है उनको देखते हुए आप कैसे इस बात की कल्पना भी कर सकते हैं कि देश में मीडिया आजाद है? कार्यक्रम मोदी सरकार के खिलाफ भले ही हो आप उनमें न तो मोदी का नाम ही लेंगे और न ही मोदी के फूटेज ही दिखाएंगे. हद हो गयी यार. यद्यपि मैं वाजपेयी जी का कटु आलोचक रहा हूँ लेकिन फिर भी यह गौर करने वाली बात है कि जब इतने बड़े पत्रकार के साथ चैनल ऐसा कर सकता है कि नाचो मगर पांव में रस्सी बांधकर तो फिर सरकार विरोधियों का अंतिम ठिकाना न्यूज़ पोर्टल ही तो बचता है.
मित्रों, जहाँ तक हमारा और हमारे जैसे उद्दाम-निष्काम देशभक्तों का सवाल है तो हमें तो हर सरकार में दबाया गया है. एक समय हम भड़ास के दिग्गज लेखकों में से थे लेकिन २०१५ के चुनावों में नीतीश सरकार ने यशवंत जी को विज्ञापन की बोटी देकर वहां से हमें निष्कासित ही करवा दिया. आज भी विचारधारा और नीति के नाम पर मुझे कभी यहाँ तो कभी वहां लिखने से रोका जाता है. मुझे याद आता है कि प्रसिद्ध इतिहासकार लेनपुल ने दीने इलाही को अकबर की मूर्खता का स्मारक बताया था। कारण अकबर से इसके कारण एक साथ हिंदू और मुसलमान दोनों नाराज हो गए थे। हिंदू सशंकित थे कि अकबर उनका धर्म बदल रहा है तो वहीं मुसलमान इसलिए नाराज हो गए क्योंकि इस धर्म के प्रावधान इस्लाम और कुरान को नहीं मानते थे. लेकिन हम भी जिद के पक्के हैं हमें अकबर बनना तो मंजूर है लेकिन जाकिर नायक या प्रवीण तोगड़िया बनना कदापि मंजूर नहीं. अपना तो बस जिंदगी जीने का एक ही उसूल है कि चाहे कोई खुश हो चाहे गालियाँ हजार दे मस्तराम बन के जिंदगी के दिन गुजार दे. हमारे लिए कथनी और करनी दोनों में ही देश सर्वोपरि है और रहेगा. भारत माता की जय.