शुक्रवार, 24 मार्च 2023
अयोग्य ठहराए गए अयोग्य राहुल
मित्रों, कहने को तो भारत में लोकतंत्र है लेकिन वास्तव में आज भी भारत में राजतन्त्र है. यहाँ मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री बनता है और प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री भले ही वो इन पदों के लायक हो या न हो. अब राहुल गाँधी को ही लीजिए. कल से जबसे उनको सूरत की अदालत ने अनाप-शनाप गाली बकने के मामले में दो साल कैद की सजा सुनाई है तभी से यह चर्चा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छिड़ी है कि उनको लोकसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है जैसे कि राहुल गाँधी बहुत बड़े समझदार नेता हों. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसलिए क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने भी इस मामले में अपनी नाक घुसेड़ने की कोशिश की है. कितनी तगड़ी लोबिंग है ईसाइयों की समझ में नहीं आता. राहुल गाँधी की जगह अगर कोई हिन्दुत्ववादी नेता होता तो निश्चित रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की नींद नहीं उड़ती.
मित्रों, सवाल उठता है कि कई बड़े नेताओं की बेटों की तरह क्या राहुल गाँधी भी भारत की राजनीति के लायक हैं? क्या उनमें इतनी समझ है कि उनको भारत का प्रधानमंत्री तो दूर सांसद भी बनाया जा सके? जिस व्यक्ति की जीभ पर नियंत्रण नहीं हो वो भला कैसे राजनीति करेगा? साथ ही उनका मानसिक स्तर भी वैसा नहीं है जैसा कि एक जनप्रतिनिधि का होना चाहिए. हरेक भाषण से पहले उनको चार लोग मिलकर बताते हैं कि क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है लेकिन माईक पर जाते ही वो भूल जाते हैं और कुछ-न-कुछ विवादास्पद बोल जाते हैं. न जाने आरएसएस और सावरकर जी ने उनका क्या बिगाड़ा है कि वो बराबर इनके खिलाफ बोलते रहते हैं. अभी दो-तीन दिन पहले ही उन्होंने कहा कि वो सावरकर नहीं हैं राहुल गाँधी हैं. भला उनको कौन नहीं जानता जो वो इस प्रकार से अपना परिचय देते फिरते हैं? क्या राहुल जी सावरकर जी की चरण-धूलि के भी बराबर हैं? कदापि नहीं!!! सावरकर उद्दाम देशभक्त और परम विद्वान थे अच्छे वक्ता तो थे ही. जबकि राहुल गाँधी की छवि देशभक्त की नहीं देशविरोधी की है. विद्वता का तो यह हाल है कि कभी आलू से सोना बनाते हैं तो कभी खुद कहते हैं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे संसद सदस्य हैं तो कभी कहते हैं कि उन्होंने खुद ही मार दिया है. ये लक्षण निश्चित रूप से मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति के हैं और संविधान कहता है कि कोई विक्षिप्त चुनाव नहीं लड़ ही नहीं सकता.
मित्रों, मुझे कांग्रेस और राहुल गाँधी दोनों पर दया आती है. बचपन में मैंने अमरकांत जी की कहानी पढ़ी थी जिन्दगी और जोंक. इस कहानी में एक भिखारी लम्बे समय तक जीवित रहता है जबकि उनके जीने का कोई मतलब नहीं है. जैसे जिंदगी उससे जोंक की तरह चिपकी हुई है. जब उनकी मौत होती है तब अमरकांत जी लिखते हैं कि आज जिन्दगी उस व्यक्ति से और वह व्यक्ति जिंदगी से छुटकारा पा गया. कुछ ऐसी ही हालत कांग्रेस और गाँधी परिवार की है. यह सिद्ध हो चुका है कि न तो कांग्रेस गाँधी परिवार को बचा सकती है और न ही गाँधी परिवार कांग्रेस का पुनरुद्धार कर सकने की स्थिति में है लेकिन दोनों एक-दूसरे से जिंदगी और जोंक की तरह चिपके हुए हैं. न जाने दोनों को कब एक-दूसरे से मुक्ति मिलेगी. इतनी जबरदस्त फजीहत के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि राहुल गाँधी को राजनीति से और राजनीति को राहुल गाँधी से मुक्ति मिलने वाली है.
सोमवार, 27 फ़रवरी 2023
पंजाब को बचा लो मोदी जी
मित्रों, जबसे पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार आई है तभी से पंजाब के एक बार फिर से आतंकवाद की आग में जलने का खतरा उत्पन्न हो गया है. यह तो कोई नहीं कह सकता कि आप पार्टी के साथ खालिस्तानी अलगाववादियों के साथ क्या गुप्त संधि हुई है लेकिन पिछले दिनों पंजाब में जिस तरह की हिंसक घटनाएँ हो रहीं हैं उससे शक होता है कि सरकार ने राज्य को पूरी तरह से खालिस्तानियों के हवाले कर दिया है. पहले हिन्दू नेता सुधीर सूरी की पुलिस के सामने हत्या और अब सीधे पुलिस थाने पर हमले से यही संकेत मिलते हैं कि पंजाब में आप पार्टी बेहद गन्दी राजनीति कर रही है.
मित्रों, मोहाली-चंडीगढ़ बॉर्डर पर बैठे एक अन्य गुट ने भी पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया था। ये लोग 14 साल की कैद पूरी कर चुके सिख कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे। हालांकि कई हमलावरों की पहचान की गई, लेकिन किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। अजनाला मामले में भी एफआईआर नहीं हुई है। यह पुलिस बल के मनोबल को तोड़कर रख देगा इसमें कोई संदेह नहीं.
मित्रों, अमृतपाल एक नया लड़का है जो दुबई से आया है। जो हुआ वह बहुत खुशी की बात नहीं है। अलगाववादी और हमारे पड़ोसी दुश्मन इसका फायदा उठाएंगे। उन्होंने (पुलिस और राज्य सरकार) अपना फैसला लिया। मुझे नहीं पता कि उन्होंने ऐसा फैसला क्यों लिया। पुलिस तो सरकार के इशारे पर काम करती है इसलिए उसका क्या कसूर? लेकिन कट्टरपंथियों की मांगों के आगे झुकना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है। शायद खालिस्तानियों ने आम आदमी पार्टी को अकूत पैसे दिए हों. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि लवप्रीत को छोड़ देने से अमृतपाल निश्चित रूप से जनता के लिए एक खतरनाक शख्सियत बन गया है। कुछ इसी तरह की गलती इंदिरा गाँधी ने भिंडरावाले के मामले में की थी. लम्हों ने खता की थी और कैसे सदियों ने सजा पाई हम सबने देखा है.
मित्रों, हम मानते हैं कि राजनीति होनी चाहिए, राजनीतिज्ञ राजनीति करें लेकिन ऐसी राजनीति बिल्कुल न करें जिससे देश को नुकसान हो. पिछले साल जुलाई से पंजाब में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत स्थायी डीजीपी नहीं है। अगर राज्य सरकार की ओर से नियमों का ख्याल नहीं रखा जा रहा तो केंद्र को इसका संज्ञान लेना चाहिए. भारत सरकार को पंजाब को जलता देख मुंह नहीं ताकना चाहिए बल्कि संविधानप्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए पंजाब सरकार को सख्त निर्देश देने चाहिए और फिर भी न माने तो बर्खास्त कर देना चाहिए.
लफंगों के राष्ट्रकवि कुमार विश्वास
मित्रों, तुलसी रामचरितमानस में कह गए हैं कि पंडित सोई जो गाल बजाबा. निश्चित रूप से गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसा व्यंग्यपूर्वक कहा होगा लेकिन आज के कई कवि सिर्फ गाल बजाकर महाकवि बन गए हैं और ऐसे कवियों में सबसे अग्रगण्य हैं कुमार विश्वास. इन श्रीमान ने न जाने कौन-सी महान कविता लिखी है लेकिन ये लच्छेदार बातें करने में माहिर जरूर हैं और यही इनकी एकमात्र योग्यता भी है. इसी योग्यता के कारण इनको कथित कवि सम्मेलनों में मंच संचालन का भार दिया जाता है. कभी किसी कवि का परिचय देते हुए ये कहते हैं कि इन्होंने कविता लिखते समय दिमाग नहीं लगाया है तो कभी श्रोताओं को छिछोरों की तरह खींसे निपोरते हुए कहता है कि जो लोग दूसरों की पत्नियों के साथ आए हैं.
मित्रों, इतना ही नहीं इन श्रीमान को यह भी पता नहीं है कि कबीर अकबर के समकालीन नहीं थे फिर भी टीन टप्पर ठोक पीट कर ट्रेन में चनाजोर बेचनेवालों की तरह घटिया तुकबंदी करनेवाला यह घटिया आदमी खुद को महान कबीर की परंपरा का महान कवि बताता है. कभी महादेवी वर्मा ने कहा था कि कवि सम्मलेन थकान मिटाने के साधन बनकर रह गए हैं लेकिन कुमार विश्वास जैसे बड़बोलों ने कवि सम्मेलनों का स्तर इतना ज्यादा गिरा दिया है कि कवि सम्मेलनों में ईज्जतदार लोगों ने जाना ही छोड़ दिया है. मैं नोएडा में रहने के दौरान कई बार इस व्यक्ति को मंच संचालित करते और कविता पाठ करते हुए देख चुका हूँ और इस व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी कह सकता हूँ कि यह आदमी पैसों पर नाचनेवाली रूपजीवाओं से ज्यादा कुछ भी नहीं है. इस व्यक्ति की तुलना कबीर से तो कदापि नहीं हो सकती अगर हो भी सकती है तो रीतिकाल के छिछोरे कवि बिहारी से हो सकती है.
मित्रों, कुछ दिनों के लिए यह आदमी भारत का दूसरा सबसे महान राजनेता भी बना था और अन्ना हजारे के मंच से चीख-चीख कर भारत के सबसे घटिया नेता अरविन्द केजरीवाल को एशिया का सबसे योग्य युवा बता रहा था. बाद में जब उस एशिया के कथित सबसे योग्य युवा ने राज्य सभा में भेजने से मना कर दिया तबसे ये पागलों की तरह उसको गालियां देता फिरता है. इसकी इस हरकत की तुलना मंदिर के बाहर भीख मांगनेवाली उस बुढ़िया से की जा सकती है जो भीख न मिलने पर आगंतुक को बद्दुआएं देने लगती है.
मित्रों, इस व्यक्ति को एक और लाईलाज बीमारी है और वो बीमारी है जबरदस्ती का संतुलन बनाने की. आपने देखा होगा कि कुछ लोग कहते हैं कि पीएफआई की तरह आरएसएस पर भी प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए वे लोग भी इसी बीमारी से ग्रस्त हैं. कुमार विश्वास का मानना है कि सिर्फ दानवों को बुरा-भला नहीं कह सकते बल्कि उनके साथ-साथ देवताओं में भी जबरन छिद्रान्वेषण करना होगा. इन साहिबान को आरएसएस और उसकी सेवा भावना के बारे में कुछ भी पता नहीं लेकिन इनकी सोच है कि आप सिर्फ रावण को गाली नहीं दे सकते राम को भी देना होगा या आप सिर्फ राम की बड़ाई नहीं कर सकते रावण की भी प्रशंसा करनी ही होगी. और अपनी इसी घटिया सोंच को ये बुद्धिहीन बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता का नाम देते हैं.
सोमवार, 6 फ़रवरी 2023
हिन्दू महापुरुषों का बंटवारा
मित्रों, पिछले कुछ महीनों से मैं देख रहा हूँ कि कुछ नासमझ हिन्दू दिन-रात महापुरुषों को लेकर आपस में झगड़ते रहते हैं कि ये हमारी जाति के थे तो वो हमारी जाति में पैदा हुए थे. कई बार तो महापुरुषों को छीनने या उनकी चोरी करने के आरोप भी लगाए जाते हैं जबकि सच्चाई तो यह है कि कोई भी महापुरुष किसी जाति विशेष के थे ही नहीं बल्कि सबके थे, हम सबके थे. कई बार तो हम उनको सिर्फ हिन्दू धर्म के संकीर्ण दायरे में भी नहीं बांध सकते.
मित्रों, हम उदाहरण के लिए अगर बिहार बाँकुड़ा बाबू कुंवर सिंह को लें तो वे सिर्फ राजपूतों के महापुरुष नहीं थे क्योंकि वे न तो सिर्फ राजपूतों के लिए लड़ रहे थे और न तो उनकी सेना में सिर्फ राजपूत ही थे बल्कि इसके उलट उनकी सेना में सभी जातियों के हिन्दू तो थे ही बड़ी संख्या में मुसलमान भी थे. इसी तरह महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी की सेना में भी सभी जातियों के लोग थे. स्वयं आल्हा-उदल की सेना में बिहार के भागलपुर के रहनेवाले भगोला नामक यादव महाबली-महावीर थे जो पेड़ों को जड़ से उखाड़ कर उससे और बड़े-बड़े पत्थरों से युद्ध करते थे और अपने आपमें एक किला थे.
मित्रों, इसी तरह जब-जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर विधार्मियों के आक्रमण हुए चाहे वो तैमूर हो, बाबर हो, अब्दाली हो या नादिरशाह हो हर बार हिन्दुओं की सर्वजातीय सेना से उनका सामना हुआ भले ही नेतृत्व राजपूतों के हाथों में रहा हो. अयोध्या के राममंदिर के लिए तो सभी जातियों के हिन्दू शहीद हुए ही सिखों ने भी अपनी क़ुरबानी दी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ के गंगू मेहतर के योगदान को भला कोई कैसे भुला सकता है? महाराणा प्रताप की सेना में बड़ी संख्या में आदिवासी शामिल थे जिन्होंने युद्धों में अपने प्राण तो दिए ही जमकर शत्रुओं का आखेट भी किया. पुंजा भील को कौन नहीं जानता? इतना ही नहीं अगर भामाशाह ने अपना सबकुछ महाराणा सौंप नहीं दिया होता तो कदाचित उसी समय मेवाड़ का नाम भारत की वीरता के मानचित्र से मिट गया होता फिर महाराणा सिर्फ राजपूतों के महापुरुष कैसे हुए?
मित्रों, इसी तरह महावीर पृथ्वीराज चौहान को लेकर राजपूत-गुज्जर बराबर लड़ते रहते हैं कि पृथ्वीराज राजपूत थे या गुज्जर? हद हो गई यार. चंदवरदाई को पढ़ लो और वो जो कहें मान लो, बात ख़त्म. फिर चाहे वह राजपूत हों या गुज्जर उनकी वीरता पूरे भारत की, पूरे हिन्दू समाज की धरोहर है. अगर महाराणा राजपूत न होकर चमार होते तो क्या इससे उनकी वीरता कम हो जाती? राजा सुहेलदेव जो पासी थे की तो कम नहीं हुई.
मित्रों, विद्वता की ही तरह वीरता भी किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं है. बल्कि जो ज्ञानी है वो विद्वान है फिर चाहे तो राजेंद्र प्रसाद हों या अम्बेडकर, पाणिनि हों या वाल्मीकि, तुलसीदास हों या रैदास या कबीरदास. उसी तरह जो संकट आने पर वीरता दिखाए वो वीर है. यहाँ मैं एक उदाहरण पेश करना चाहूँगा. १६ अगस्त, १९४६ को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने की घोषणा की थी. मुसलमान अलहे सुबह तलवार लेकर सडकों पर निकल पड़े और कलकत्ता की सडकों को हिन्दुओं की लाशों से पाटना शुरू कर दिया. तब सारे सवर्ण हिन्दू अपने-अपने घरों में दुबक गए. फिर एक नीच कसाई जाति के हिन्दुओं ने गोपाल पांडा के नेतृत्व में हिन्दुओं की तरफ से मोर्चा संभाला और मुसलमानों को खदेड़ दिया. अब सवाल उठता है कि यथार्थ क्षत्रिय कौन हैं, घरों में दुबके लोग या खटिक जाति के लोग?
मित्रों, इसलिए हम अपने देश की हिन्दू जनता से निवेदन करेंगे कि कृपया नेताओं के झांसे में आकर उनका वोट बैंक न बने. नेताओं का तो काम ही है महापुरुषों के नाम पर हिन्दू समाज को बांटकर चुनाव जीतना. मुझे आश्चर्य होता है कि कोई जाति राम या सम्राट अशोक के ऊपर अपना दावा कैसे ठोक सकती है? कैसे पता चलेगा कि वे वर्तमान की किस जाति में जन्मे थे?
मंगलवार, 31 जनवरी 2023
मुलायम को ताली, तुलसी को गाली
मित्रों, पिछले कुछ दिन भारत की राजनीति में बड़े छिछालेदार रहे हैं. एक तरफ तो राम के सबसे बड़े भक्तों में से एक के पीछे लोग डंडा लेकर पड़ गए हैं तो वहीँ दूसरी तरफ सबसे बड़े रामद्रोही को भारत का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान देकर सम्मानित किया जा रहा है. पता ही नहीं चलता कि क्या सही है और क्या गलत?
मित्रों, बिहार के बैग में कारतूस लेकर चलनेवाले शिक्षा मंत्री द्वारा रामचरितमानस को लेकर उठाई गयी हवा धीरे-धीरे वबंडर का रूप लेती जा रही है. दोनों तरफ से तलवारें खिंच गई हैं. कुछ लोग कहने लगे हैं कि रामचरितमानस को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. तो कुछ लोग कह रहे हैं कि यह सम्पूर्ण हिन्दू धर्म का अपमान है इसलिए रामचरितमानस के आलोचकों की जीभ काट लेनी चाहिए. कुछ लोग जो कुछ ज्यादा ही उत्साही हैं रामचरितमानस को ही जलाने लगे हैं जैसे वह उसकी अंतिम प्रति हो.
मित्रों, मेरा मानना है कि हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे लचीला धर्म है. अगर किसी हिन्दू को किसी भी काव्य, महाकाव्य या धर्मग्रन्थ से परेशानी है तो उसे निश्चित रूप से इस पर सवाल उठाने का अधिकार है. स्वामी प्रसाद मौर्य के रामचरितमानस पर दिये गए बयान पर तल्ख़ प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं है। मौर्य ने रामचरितमानस का अपमान नहीं किया है मात्र कुछ अंशों पर आपत्ति जताई है। उन्होंने राम पर नहीं तुलसीदास पर सवाल उठाया है. उन्हें इसका अधिकार है। फिर, रामचरितमानस पर किसी जाति या वर्ग का विशेषाधिकार नहीं है।
मित्रों, निश्चित रूप से भारतीय ग्रंथों ने समाज को गहराई से प्रभावित किया है। इन ग्रंथों में जातिवाद, ऊंचनीच, छुआछूत, जातीय श्रेष्ठता, हीनता आदि को दैवीय होना स्थापित किया गया है। अत: पीड़ित व्यक्ति या समाज अपना विरोध तो व्यक्त करेगा ही। किसी को भी भारतीय ग्रंथों पर एकाधिकार नहीं जताना चाहिए। कुछ अति उत्साही उच्च जाति के हिंदू ऐसे प्रत्येक विरोध को दबाना चाहते हैं। यह वर्ग चाहता है कि कोई इनका का विरोध न करे, क्योंकि वे इसे धर्मविरोधी बताते हैं। हिंदू समाज की एकता के लिए जरूरी है कि लोगों को अपना विरोध प्रकट करने दिया जाए। हिन्दू ग्रंथ सबके हैं। यह शोषित वर्ग हिंदू समाज में ही रहना चाहता है और रहता आया है इसीलिए विरोध करता रहता है। अन्यथा इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुका होता। अतीत में धर्मांतरण इस कारण से भी हुए हैं।
मित्रों, चाहे वो रामचरितमानस हो, चाहे कई भाषाओँ में रचा गया रामायण हो या फिर वेद या पुराण हों किसी भी पुस्तक की प्रामाणिक प्रति कौन-सी है पहले यह निर्धारित करना ही कठिन है क्योंकि लम्बे समय तक इनको लिखा ही नहीं गया और सिर्फ कंठस्थ किया जाता रहा जिसके चलते इनकी विभिन्न प्रतियों में अंतर देखने को मिलता है. स्वयं रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि सारे धर्मग्रन्थ जूठे हैं अर्थात सबमें कलमकारों ने अपने हिसाब से क्षेपक जोड़े हैं. इसलिए भी दुनिया का कोई भी ग्रन्थ दैवीय या ईश्वरीय नहीं हो सकता. हो सकता है कि उपलब्ध रामचरितमानस अक्षरशः तुलसी ने ही लिखा हो तब भी तुलसी ने वही लिखा जो उस समय प्रचलन में था या ज्ञात था. चाहे बाइबिल हो या कुरान हो उस समय जो ज्ञात था रचनाकार ने वही लिखा और अपने ज्ञान को ईश्वर पर थोप दिया. ठीक वही बात तुलसी पर भी लागू होती है. इसलिए अगर कोई आधुनिक ज्ञान के आधार पर पुरानी किताबों में बदलाव करने की मांग करता है तो बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि उन ग्रंथों में यथोचित बदलाव करना चाहिए. जिद करने से न तो धरती चपटी हो जाएगी और न ही कोई जाति नीच या ऊंच हो जाएगी.
मित्रों, तुलसी तो हमारे पूर्वज हैं ही राम और कृष्ण भी हमारे पूर्वज हैं। हम उनका अनुसरण करते हैं। हमें यह अधिकार है कि हम अपने पूर्वजों से प्रश्न करें। यह एक स्वस्थ समाज के विकास की स्वाभाविक गति है। राम और कृष्ण सहित अपने सभी पूर्वजों से उनके कई कार्यों के बारे में सदियों से आमलोग सवाल पूछते रहे हैं। यही उनकी व्यापक स्वीकार्यता का सबूत भी है इसलिए न तो किसी ग्रन्थ को जलाने की जरुरत है और न ही जीभ या सर काटने की बल्कि वर्तमान काल और परिस्थितियों के अनुसार उनमें अपेक्षित बदलाव करने की जरुरत है।
मित्रों, समस्या राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध से नहीं है बल्कि राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध की व्याख्या करने वालों से है. राम या कृष्ण या अल्लाह खुद तो किताबें लिखने नहीं आए बल्कि इंसानों ने उनको लिखा और उतना ही लिखा जितनी उसकी बुद्धि थी इसलिए भी धार्मिक पुस्तकों में जरुरत पड़ने पर परिवर्तन किए जा सकते हैं और किए भी जाने चाहिए.
मित्रों, समस्या सिर्फ ग्रंथकारों से नहीं राजनीतिज्ञों के पल्टू दांव से भी है. पता ही नहीं चलता कि वो कब क्या कर जाएँ. अब इस साल के पद्म पुरस्कारों को ही लीजिए. इस साल भगवान राम के सबसे बड़े विरोधी मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण सम्मान देने की घोषणा की गई है. पता नहीं राम के नाम पर सत्ता में पहुंची भाजपा और मोदी ने मुलायम सिंह यादव में ऐसा कौन-सा गुण देख लिया जो यह निर्णय लिया. क्या यह रामभक्तों पर गोलियां चलवाने का ईनाम है? अभी पिछले साल ही हिन्दू ह्रदय सम्राट और राम मंदिर आन्दोलन के अगुआ बाबूजी कल्याण सिंह जी को भी पद्म विभूषण दिया गया था. तो क्या मोदी जी की नज़रों में रामभक्त और रामद्रोही दोनों एकसमान हैं? अगर ऐसा है तो हम मोदी समर्थक नाहक ही उनके और हिन्दू धर्म के विरोधियों पर दिन-रात बरसकर अपना श्रम और समय जाया करते रहते हैं. पता नहीं कब किसको मोदी सरकार पद्मविभूषण देकर विभूषित कर दे, ओवैसी या जाकिर नाईक को भी भारत रत्न दे दे.
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