बुधवार, 30 नवंबर 2011

1 अमेरिकी=22 करोड़ भारतीय

मित्रों,पिछले कुछ समय से पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति या महंगाई के ताप से जल रही है.जनता की थाली में से बारी-बारी से मांस,दाल और सब्जियों के छीने जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.हमारे परम विद्वान व कथित अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जानबूझकर अनजान बन रहे हैं मानो उन्हें पता ही नहीं हो कि देश में महंगाई क्यों बढ़ रही है.बीमारी कुछ है और ईलाज कुछ और का ही किया जा रहा है.पहले तो सप्ताह-दर-सप्ताह ब्याज दर बढ़ा-बढ़ाकर महंगाई को कम करने की बेवकूफाना कोशिश की गयी और अब जो ईलाज पेश किया जा रहा है उससे तो देश की पूरी खाद्य-सुरक्षा ही खतरे में पड़ जानेवाली है.
               मित्रों,मैं बात कर रहा हूँ भारत सरकार द्वारा देश के खुदरा व्यापार में ५१% विदेशी पूँजी निवेश करने की अनुमति देने की.हमारी अब तक की सबसे कमजोर-कामचोर जनमोहिनी-मनमोहिनी सरकार ने मानो ६ साल तक देश को शोधने के बाद महंगाई की असली जड़ का पता लगा लिया है.इस लाल बुझक्कड़ सरकार का मानना है कि किसानों अथवा उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच जो २२ करोड़ खुदरा व्यवसायी यानि बिचौलिए हैं वही महंगाई को बढ़ाते हैं.वरना महंगाई तो कब की कोसों दूर भाग चुकी होती.इसलिए हमारी सरकार ने महंगाई के चलते पतली हो चुकी हमारी हालत पर तरस खाते हुए दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अनुमति दे दी कि वे देश में आएं और अपनी दुकानें खोलें,शीतगृह स्थापित करें और किसानों से सीधे-सीधे अनाज खरीदें.मतलब यह कि २२ करोड़ छोटे व्यापारियों या बिचौलियों के बदले अब सिर्फ एक ही या कुछेक ही बिचौलिए होंगे.लेकिन बिचौलिए तो फिर भी होंगे;२२ करोड़ भुक्खड़ ब्लडी इंडियंस के बदले एक या दो-चार गोरे धनपति.इनके आने से २२ करोड़ भारतीय बेरोजगार हो जाएँ तो हो जाएँ,भूखो मरें तो मरें लेकिन देश का जीडीपी तो ऊपर चढ़ेगा.पूँजी आएगी तो शेयर बाजार का ग्राफ तो उर्ध्वगामी होगा और कुल जमा कुछेक लाख शेयरधारकों को तो भारी लाभ तो होगा.सुबह से शाम तक मुम्बई-दिल्ली की सड़कों पर अपने ठेले पर ३०० रूपए की सब्जी बेचकर ५० रूपया कमानेवाला गरीब भारतीय भले ही रोजगार खोकर भूख से मर जाए लेकिन अमेरिकन कंपनी वालमार्ट को तो अरबों-खरबों का फायदा होगा.
              मित्रों,सोंचिए कि देश के खेतों से लेकर गोदामों,शीतगृहों और विक्रय-केन्द्रों तक पर अगर एक या कुछेक विदेशी कंपनी या कंपनियों का कब्ज़ा हो जाता है तो देश की खाद्य-सुरक्षा का क्या हाल होगा?वे जब चाहे तब देश में कृत्रिम अकाल जैसी हालत पैदा कर भरपुर मुनाफा कमा सकेंगी.वैसे भी घोर पूंजीवादी देशों की इन कंपनियों का एकमात्र धर्म और कर्म ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाना ही तो है.केंद्र की वर्तमान सरकार की मूर्खताओं के चलते हमारी औद्योगिक सुरक्षा तो पहले से ही हमारे चिर शत्रु-देश चीन के हाथों गिरवी पड़ती जा रही है और अब खाद्य-सुरक्षा पर भी हमारी वही सरकार खुद ही तलवार लटकाने जा रही है.
               मित्रों,आजकल में एक और अजीबोगरीब घटना हुई हैं जो हमारे देश की संप्रभुता के लिए है तो बहुत-ही महत्वपूर्ण लेकिन उसकी मीडिया में उतनी चर्चा हुई नहीं जितने की वो हकदार थी.हुआ यह है कि वालमार्ट के देश अमेरिका के भारत में राजदूत ने खुदरा क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने का पुरजोर समर्थन किया है.मैं पूछता हूँ ये अंकल सैम कौन होते हैं हमारे आतंरिक मामलों में दखल देनेवाले.परन्तु करें तो क्या करें?जब अपना ही सिक्का खोटा निकल जाए तब दूसरों पर दोषारोपण करने का क्या लाभ?अपने ही देश की सरकार जब २२ करोड़ जनता के रोजगार को समाप्त कर मौत के मुंह में धकेल देने और पूरे सवा सौ करोड़ जनता की रोटी की सुरक्षा को चंद विदेशियों के हाथों गिरवी रख देने पर उतारू हो,बेच देने पर आमादा हो तो फिर हम कहाँ-किसके पास जाकर रोयें और फ़रियाद करें?
             मित्रों,सरकार कह रही है कि इससे १ करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा लेकिन वालमार्ट जैसी कम्पनियाँ तो घंटे के हिसाब से पैसा देती हैं.जितना काम उतना पैसा और काम नहीं तो पैसा भी नहीं;चाहे मरो या जियो अपनी बला से.जहाँ तक किसानों को लाभ होने की बात है तो भारत के किसान एक बार फिर से निलहा खेती के ज़माने में जानेवाले हैं.अब फिर से हमारे गोरे साहब हमें आदेश देंगे कि खेतों में क्या उपजाना है और क्या नहीं?उनको जिस फसल को बेचने से ज्यादा फायदा होगा उसको छोड़कर वे देश को क्या उपजने से लाभ होगा थोड़े ही उपजाने देंगे.तो आईये मित्रों हम सब जश्न मनाएँ कि हम फिर से गुलामी की ओर बढ़ चले हैं;फिर से देश में स्वतंत्रता आन्दोलन होगा जिससे फिर से चोर मसीहा उत्पन्न होंगे और अंततः यह सिलसिला चलता जाएगा.         

रविवार, 27 नवंबर 2011

मजीठिया वेतन आयोग को लागू करवाए सरकार

हमारे गांवों में एक कहावत है कि हर बहे से खर खाए बकरी अँचार खाए अर्थात जो बैल हल में जुते उसके हिस्से घास-भूसा और जो बकरी बैठी-बैठी में-में करती रहे उसके भोजन में स्वादिष्ट अचार.खैर,बैलों द्वारा खेती तो बंद हो गयी लेकिन इस कहावत में जो व्यंग्य छिपा हुआ था आज भी अपनी जगह सत्य है और सिर्फ गांवों ही नहीं बल्कि शहरों के लिए भी उतना ही सत्य है.अब समाचारों की दुनिया को ही लें कोल्हू के बैल की तरह;खासतौर पर निचले स्तर के मीडियाकर्मी दिन-रात खटते रहते हैं और महीने के अंत में जब पैसा हाथ में आता है तो इतना भी नहीं होता कि जिससे उनका और उनके परिवार का १० दिन का खर्च भी निकल सके.ऐसा भी नहीं है कि उनकी नियोक्ता मीडिया कम्पनियाँ ऐसा मजबूरी में करती हैं बल्कि अगर हम उनकी सालाना बैलेंस शीट को देखें तो पाएँगे कि वे तो हर साल भारी लाभ में होती हैं.हाँ,यह बात अलग है कि अकूत धन के ढेर पर बैठा उसका मालिक पूरे लाभ को अकेले ही हजम कर जाना चाहता है और चाहता क्या है वह बाजाप्ता ऐसा कर भी रहा है.इस तरह भारतीय मीडिया उद्योग में कमाएगा लंगोटीवाला और खाएगा धोतीवाला वाली कहावत बड़े ही मजे में चरितार्थ हो रही है.
                   मित्रों,हमारे पूर्वज राजनीतिज्ञों ने,जिनमें से अधिकतर कभी-न-कभी पत्रकार भी रह चुके थे;आनेवाले समय में हृदयहीन पूँजी के हाथों पत्रकारों की संभावित दुर्गति को अपनी दूरदृष्टि के माध्यम से साफ-साफ देख लिया था और इसलिए उन्होंने प्रेस अधिनियम द्वारा उनके हितों की रक्षा करने की कोशिश की.हालाँकि,आश्चर्यजनक रूप से इलेक्ट्रोनिक और वेब मीडिया कर्मी अभी भी इस सुरक्षा छतरी से बाहर हैं.क्यों बाहर हैं शायद सरकार को पता हो लेकिन जो इसके दायरे में आते हैं उन समाचारपत्र कर्मचारियों को भी दुर्भाग्यवश इस अति महत्वपूर्ण कानून का फायदा नहीं मिल पा रहा है.उन्हें इसके दायरे से बाहर करने के लिए कई तरह के सादे प्रपत्रों पर नियुक्ति के समय ही हस्ताक्षर करवा लिया जाता है और फिर मिल जाती है प्रबंधन को छूट उनकी रोटी के साथ खुलकर खेलने की.यानि सरकार जब तक पेड़ पर चढ़ने को तैयार होती है तब तक मीडिया कंपनियों के मालिक पात-पात को गिन आते हैं.भारत का ऐसा कोई भी कानून नहीं जिसमें कुछ-न-कुछ लूप होल्स नहीं हो,कमियाँ न हों फिर पूंजीपतियों के पास तो हमेशा उनके साथ नाभिनालबद्ध दुनिया के सबसे बेहतरीन दिमाग भी होते हैं;हर जोड़ का तोड़ निकालने के लिए.
              मित्रों,सभी पत्रकार व गैर पत्रकार समाचार-पत्र कर्मियों के लिए मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को आए एक साल होने को है लेकिन कोई भी समाचार-पत्र या समाचार एजेंसी प्रबंधन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही;ऊपर से वे मजीठिया की सिफारिशों का विरोध भी कर रहे हैं.उनमें से कुछ तो कथित न्याय की आशा में न्यायालय भी पहुँच गए परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें राहत देने से मना कर दिया और सब कुछ सरकार पर छोड़ दिया.
                    मित्रों,इस प्रकार इस समय जो वस्तु-स्थिति है वो यह है कि मीडिया कंपनियों के मालिक किसी भी स्थिति में अपने कर्मचारियों को मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन बढाकर अपने मुनाफे को कम करने को तैयार नहीं हैं और वे इसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं.क्या वे भारतवर्ष के सारे कानूनों से परे हैं?संविधान में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा.अभी कुछ भी दिन पहले मैंने bhadas4media पर यह समाचार देखा कि दैनिक जागरण,कानपुर ने अपने कर्मचारियों से जबरन एक प्रपत्र पर हस्ताक्षर भी करवा लिया है.उस कथित प्रपत्र पर यह लिखा हुआ है कि ''मैं जागरण की सेवाओं से संतुष्ट हूं और जागरण मेरे और मेरे परिवार के हितों की पूरी तरह सुरक्षा कर रहा है. मुझे मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप कोई वेतनमान नहीं चाहिए.''अब आप ही बताईए बेचारे दस्तखत नहीं करें तो करें क्या?ऐसा नहीं करने पर उन्हें बिना कोई कारण बताए बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाएगा और यह तो आप भी जानते हैं कि तुलसीदास के ज़माने से ही ''तुलसी बुझाई एक राम घनश्याम ही ते,आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की''.हो सकता है कि ऐसे मीडियाकर्मियों के पेट पर लात मारने का हस्ताक्षर अभियान गुप्त रूप से अन्य मीडिया कंपनियों में भी चलाया जा रहा हो.
               मित्रों,जाहिर है समाज के दबे,कुचलों और पीड़ितों को न्याय दिलानेवाले मीडियाकर्मी खुद ही अन्याय के सबसे बड़े शिकार हैं.अगर उन्होंने पूर्वोक्त प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिया तो फिर वे मजीठिया आयोग की सिफारिशों से कथित रूप से अपनी मर्जी से पूरी तरह से वंचित रह जाएँगे.अब यह भारत सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस आयोग की सिफारिशों को लागू कराने की दिशा में किस हद तक जाती है.कुछ इसी तरह की स्थिति १९८९ में भी बनी थी.तब भी मीडिया कम्पनियाँ बछावत आयोग की सिफारिशों को लागू करने में नानुकूर कर रही थीं लेकिन तब स्व.राजीव गाँधी की सरकार ने सख्ती बरतते हुए उन्हें बछावत आयोग की सभी सिफारिशों को लागू करने के लिए बाध्य कर दिया था.परन्तु आज स्थिति बिलकुल उलट है.आज केंद्र में अब तक की सबसे भ्रष्ट और कमजोर-कामचोर सरकार सत्ता में है.उस पर नीम पर करेला यह कि यह सरकार बाजार को ही भगवान मानते हुए सबकुछ बाजार के हवाले कर देने की सख्त हिमायती भी है.उस करेले पर चिरैता यह कि सरकार कथित कार्पोरेट संस्कृति की भी अंधसमर्थक है.फिर भी अगर सरकार ने सोडा वाटर के नशे (जोश) में आकर सख्ती बरती और मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो भी गईं तब भी लगभग सारे कर्मियों के पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला क्योंकि तब तक वे बिना कोई विरोध किए एकतरफा संधि-प्रपत्र या और भी स्पष्ट रूप से कहें तो आत्मसमर्पण-पत्र अथवा सुसाईडल नोट पर हस्ताक्षर कर चुके होंगे.इसलिए अगर सरकार इस वेतन-आयोग की सिफारिशों को लागू करवाना ही चाहती है और सही मायने में लागू करवाना चाहती है तो फिर उसे मीडिया कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान का तोड़ भी निकालना पड़ेगा.

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

अजहर रे झूठ मत बोलो

मित्रों,वर्ष १९८४ में भारतीय क्रिकेट के क्षितिज पर अपने पहले तीनों टेस्ट मैचों में लगातार तीन शतक ठोंकता हुआ उदित हुआ एक ऐसा सितारा खिलाडी जिसे पूरी दुनिया की मीडिया ने वंडर बॉय की संज्ञा दी.वह बैटिंग में तो लाजवाब था ही फील्डिंग के क्षेत्र में भी उसका कोई जोड़ा नहीं था.उसके हाथों में जब गेंद जाती तो बल्लेबाज सहम कर अपने पैर वापस क्रीज में खींच लेते.उसकी कलाई थी या घूमनेवाला दरवाजा था?गेंद चाहे कैसी भी हो,कितनी भी चतुराई से फेंकी गयी हो उसकी कलाई घूमती और दूसरे ही क्षण गेंद सीमा रेखा को चूमती हुई नजर आती.
              मित्रों,वह लगातार अद्भुत प्रदर्शन करता रहा और एक दिन ऐसा भी आया जब उसे भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बना दिया गया.अब करोड़ों भारतीयों की आसमान छूती उम्मीदों पर खरा उतरने की जिम्मेदारी उसके कन्धों पर आ गयी.कप्तानी में भी वह लाजवाब निकला और जल्दी ही उसकी गिनती भारत के सफलतम कप्तानों में होने लगी.लेकिन तभी उस पर पैसा लेकर मैच हारने के आरोप लगने लगे.इसी बीच उसने अपने परिवार की ओर से हो रहे भारी विरोध को नज़रन्दाज करते हुए फिल्म स्टार संगीता बिजलानी से शादी कर ली.ज़िन्दगी में ग्लैमर का तड़का लगने की देरी थी कि शायद उसकी जिंदगी पाँच सितारा हो गयी.ज़िन्दगी की जरूरतें बढीं तो पैसों की ज़रुरत भी बढ़ गयी.कदाचित अब उसके पास अकूत धन भी था लेकिन विवाद बढ़ने के चलते उसका क्रिकेट कैरियर ढलान पर आने से पहले ही अचानक समाप्त हो गया.
                     मित्रों,अब तक यह तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व,विवादस्पद कप्तान और सांसद अजहरूद्दीन की बात कर रहा हूँ.बाद में १९९८ में जब वाजपेयी सरकार ने रिसर्जेंट बौंड ऑफ़ इंडिया के जारी काले धन को श्वेत करने की देशविरोधी योजना पेश की तब कथित तौर पर इसने सैंकड़ों करोड़ रूपये की काली कमाई को सफ़ेद बनाया.बाद में जैसा कि हर रसूखदार से जुड़े मामले का हमारे देश में होता आया है इसके मामले में भी हुआ और यह आरोपमुक्त कर दिया गया.अब अगर अजहर नहीं बताएँगे तो फिर कौन बताएगा कि उस ज़माने में जब क्रिकेटरों की आमदनी करोड़ों तो क्या लाखों में भी नहीं थी उनके पास अगर इतना धन आया तो कहाँ से आया?क्या उनके आँगन में पैसा बरसानेवाले बादलों ने चुपके से आकर धन बरसा दिया?
                   मित्रों,मुझे याद आ रहा है कि अजहर और कुछ अन्य भारतीय खिलाडियों पर जब निहायत गंभीर आरोप लगे तब मुझे खुद पर भी अपना कीमती वक़्त जाया करके दिन-दिन भर कमेंट्री सुनने के लिए गुस्सा आ रहा था.लग रहा था जैसे मेरे साथ गंभीर धोखा किया गया है,ठगी की गयी हैं;मेरी भावनाओं के साथ भद्दा मजाक किया गया है.मैंने कई महीनों तक क्रिकेट मैच टी.वी. पर देखना,रेडियो पर सुनना और अख़बारों में उससे जुडी ख़बरों को पढना भी बंद कर दिया था.आरोप लगने के बाद अजहर ने चुप्पी साध ली और कुछ समय के लिए पूरे परिदृश्य से गायब से हो गए.बाद में फिर से राष्ट्रीय क्षितिज पर नजर आए तो खिलाडी के रूप में नहीं एक सधे हुए राजनेता के रूप में.जैसे राजनीति में उनके ही जैसे कथित भ्रष्ट खिलाड़ी की कमी थी,एक ऐसे खिलाड़ी की जो सचमुच में बहुत बड़ा खिलाड़ी रह चुका था बहुत बड़ा परन्तु कथित रूप से भ्रष्ट खिलाड़ी.क्रिकेट जिसे भारत में धर्म का अघोषित दर्जा प्राप्त है;में रहस्यात्मक रूप से सट्टेबाजी को प्रश्रय देने वाला खिलाड़ी और इस प्रकार करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों के जज्बातों के साथ गन्दा खेल खेलनेवाला खिलाड़ी.
                          मित्रों,भारत की जनता के बारे में कहा जाता है कि इसकी याददाश्त काफी कमजोर है.यह पापियों के पापों को बहुत जल्दी भूल जाती है.कदाचित अजहर के पापों को भी भूल गयी और शायद इसलिए वे बिना किसी खास जद्दोजहद के लोकसभा के माननीय सदस्य बन बैठे.लेकिन पाप तो फिर भी पाप होता है मरते दम तक पीछा थोड़े ही छोड़ता है.देखिए न १५ साल बाद किस तरह विनोद काम्बली ने १९९६ के विश्व कप के सेमीफाइनल में भारत की रहस्यपूर्ण और शर्मनाक हार की याद ताजा कर दी.उस मैच में पहला झटका तो भारत की भोलीभाली जनता को तभी लगा जब टॉस जीत कर कप्तान अजहर ने फील्डिंग करने का फैसला किया.जबकि पिच क्यूरेटर पहले ही कह चुके थे कि उसकी समझ से टॉस जीतने के बाद पहले बल्लेबाजी करना ठीक रहेगा;फिर भी अजहर ने पहले क्षेत्ररक्षण करने का आत्मघाती निर्णय क्यों लिया;एक साथ हजारों प्रश्न खड़े करता है?बाद में श्रीलंका के २५१ रनों का पीछा करते हुए भारतीय टीम का स्कोर जब ९८ रनों पर एक विकेट था तब तक तो सबकुछ ठीक-ठाक था लेकिन जैसे ही सचिन आऊट हुए और स्कोर ९८ पर दो हुआ मानो विकेटों का पतझड़ लग गया.लगा जैसे विनोद काम्बली जिन्होंने कई दिन पहले रो-रोकर अजहर पर पैसा लेकर मैच हरने का आरोप लगाया है,को छोड़कर बाँकी सारे खिलाड़ी स्टोव पर मैगी चढ़ाकर आए थे और डर रहे थे कि उतारने में या चूल्हा बंद करने में देरी होने पर कहीं वह जल न जाए.लोग आते गए और कारवां बनता गया.आश्चर्यजनक रूप से मात्र २२ रन बनाने में ६ विकेट ढेर हो गए.कप्तान अजहर और सट्टेबाजी के एक और आरोपी अजय जडेजा शून्य रन बनाकर खेत रहे.शायद ये लोग बैंक में खाता खोल कर आए थे और वह भी पांच सौ या हजार रूपये की न्यूनतम राशि से नहीं बल्कि करोड़ों रूपये की बड़ी रकम से.संयोग से उस समय महनार में बिजली थी और मैं भी टी.वी. पर मैच देख रहा था.तब मेरी आँखों में आंसूं थे और मन अतिक्रोधित था.मुझे तब इस बात की भनक तक नहीं थी कि हो क्या रहा है या जो हो रहा है उसके पीछे क्या-क्या कारण हो सकते हैं?क्यों अजहर ने सबकुछ जानते हुए,क्यूरेटर द्वारा सचेत करने के बाद भी पहले क्षेत्ररक्षण करने का निर्णय लिया?बाद में जब अजहर पर सट्टेबाजों के हाथों में खेलकर करोड़ों रूपये बनाने का गंभीर आरोप लगा और उन्हें बहुत बेआबरू करके क्रिकेट के कूचे से हमेशा के लिए निकाल-बाहर कर दिया गया तब मुझे भी संदेह हुआ था कि कहीं यह मैच भी फिक्स तो नहीं था.लेकिन मुझे नहीं लगता कि दोषी होने पर भी;विनोद काम्बली की आँखों में आसुओं को दोबारा १५ साल बाद देखकर भी राजनेता बन चुके अजहर का दिल पसीज जानेवाला है और वे दिवंगत हैन्सी क्रोन्ये की अपना अपराध कबूल करते हुए माफ़ी मांग लेनेवाले हैं.आप ही बताइए नेताओं का सच्चाई से कोई दूर का रिश्ता भी होता है क्या?वैसे अगर वे ऐसा करते तो उनके लिए ही ज्यादा अच्छा होता और उनके दिल से बहुत बड़ा बोझ भी उतर जाता.साथ ही सट्टेबाजी की काली दुनिया के सफ़ेद संचालकों का चेहरा भी दुनिया के सामने बेनकाब हो जाता.लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या राजनेता अजहर सच बोलने का जोखिम उठाएंगे?क्या उस मैच का वास्तविक रहस्य कभी सामने आ पाएगा?

सोमवार, 21 नवंबर 2011

मैं सन्नी लियोन बनना चाहती हूँ.

मित्रों,कई साल पहले जब भारतीय मनोरंजन के आकाश में कलर्स चैनल का आगमन हुआ तब लगा कि यह इन्द्रधनुषी चैनल भविष्य में स्वस्थ और प्रेरक प्रसारण के क्षेत्र में अन्य चैनलों के लिए एक उदाहरण बनेगा.लगे भी क्यों नहीं चैनल की शुरुआत बालिका वधु जैसे बाल विवाह की ज्वलंत समस्या पर प्रहार करने वाले सीरियल के द्वारा जो हुई.परन्तु जैसे-जैसे समय गुजरता गया कलर्स का नकली सामाजिक सरोकार वाला रंग उतरता चला गया और अब जाकर उसका असली बदरंग चेहरा पूरी तरह से निखरकर जनता के सामने आ गया है.हम जैसे लोग निराश हैं कि पैसा कमाने की होड़ में इस चैनल ने किस कदर अपना चेहरा काला कर लिया है,खुद को गिरा लिया है.
                        मित्रों,ज्यादा-से-ज्यादा टीआरपी पाने और पैसा कमाने के लिए इस चैनल ने एक अनोखा तथाकथित रियलिटी शो शुरू किया है.शो को चलाने में कोई बुराई भी नहीं है;बुरा है शो का कंटेंट,बुरा है शो में दिखाए जानेवाले उत्तेजक दृश्य.इस शो में एक-से-एक बदनाम और बदतमीज लोग भाग लेते हैं.इसमें कैमरे के सामने बीना मल्लिक चादर-कम्बल की आड़ में अश्मित पटेल के साथ सेक्स करती है,डॉली बिंद्रा सबको बेहद गन्दी-गन्दी गालियाँ देती हैं और सारा खान झूठी शादी रचाती है.वैसे तो समाज को दिग्भ्रमित करने के लिए बिग बॉस के पुराने संस्करण ही काफी से भी ज्यादा काफी थे लेकिन बिग बॉस के वर्तमान सीजन यानि मौसम में तो हद ही हो गयी है.जब कलर्स चैनल के कर्ता-धर्ताओं ने देखा की इस बार बिग बॉस को वैसी टीआरपी रेटिंग नहीं मिल पा रही है जैसी पहले के सीजनों में मिली थी तब उन्होंने पूरे होशो-हवाश में एक ऐसे व्यक्तित्व को इस शो में इंट्री देने का फैसला किया जो पॉर्न सुपर स्टार हैं.उसका नाम है सन्नी लियोन और अगर आप उसके अंग्रेजी नाम sunny leone नाम से इंटरनेट पर सर्च करेंगे तो आपको हजारों ऐसे लिंक मिल जाएँगे जिन पर क्लिक करके आप उसकी हजारों सेक्स पिक्चर्स और वीडियो देख सकते हैं.यह महिला पिछले १० सालों से दुनिया के इस सबसे बुरे क्षेत्र में सक्रिय है और कथित तौर पर इस कलाकार ने पहली बार जब इस तरह के अश्लील दृश्य शूट करवाए तो इस पवित्र शर्त पर कि उसका सेक्स सहयोगी और कोई नहीं बल्कि उनका अपना बॉय फ्रेंड होगा.
                          मित्रों,यह तो निश्चित है कि इसकी इस शो में इंट्री से इस पवित्र सामाजिक सरोकार वाले चैनल की टीआरपी काफी बढ़ जाएगी जिससे चैनल को काफी धनलाभ भी हो जाएगा लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि इसकी इस शो में इंट्री से हमारे देश और समाज को किस तरह का लाभ होनेवाला है?किसी चैनल को सरकार की तरफ से लाइसेंस क्यों दिया जाता है?क्या इसलिए कि वे पैसा कमाने की होड़ में अपने सामाजिक दायित्वों को भूल जाएँ और चैनल को पॉर्न चैनल बनाकर रख दें?मुझे तो लगता है कि इस लियोन की सफलता से (येन-केन-प्रकारेण पैसा कमाना ही अब हमारे देश में सफलता की सर्वमान्य परिभाषा बन गयी है)सीख लेकर,इसे अपना आदर्श मानकर अब तक भारत की जो लड़कियां कल्पना चावला,किरण बेदी और माधुरी दीक्षित बनना चाहती थीं उनमें से कुछ अब पॉर्न सुपर स्टार सन्नी लियोन बनने के सपने देखा करेंगी और इस तरह सीता-सावित्री के इस देश का नैतिक स्तर काफी बढ़ जाएगा.वैसे ही पहले से ही भंवरियों और मदेरणाओं जैसे लोगों ने देश और समाज के नैतिक जीवन का बेडा गर्क करके रखा है.मैं चाहता हूँ कि कलर्स चैनल इस विदेशी बेहया को बिग बॉस में शामिल करने से पहले अपने इस कदम और इसके हमारे समाज पर दीर्घकालिक प्रभाव पर पुनर्विचार करे और अगर वह ऐसा करने को तैयार नहीं होता है तो केंद्र सरकार को अपने कानूनी-चाबुक का प्रयोग करना चाहिए अन्यथा एक संभ्रांत महिला के सूचना और प्रसारण मंत्री रहने का क्या लाभ?

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

यह कैसे और कैसी क़ुरबानी?

मित्रों,वर्ष २००७.अभी ईद-उल-जोहा के आने में कई दिन बचे हुए थे.मेरे अभिन्न मित्र मुन्नू भाई और शाजी पिछले दिनों कई बार मुझे इस पावन त्योहार पर अपने घर आने के लिए आमंत्रित कर चुके थे.मैं अब तक त्योहारों के दिन कभी किसी मुसलमान के घर नहीं गया था.सोंचा चलो इस बार यह तजुर्बा भी कर लिया जाए.हम तीनों यानि मैं धर्मेन्द्र और संतोष उरांव जब कालिंदी कुञ्ज बस स्टॉप पर बस से उतरे तब वहां मुन्नू भाई और शाजी पहले से ही मोटरसाईकिल लेकर उपस्थित थे.मुन्नू भाई ने हमें पहले ही ताकीद कर दिया कि आपलोग सीधे आगे देखिएगा;अगल-बगल क्या हो रहा है देखने की कोई जरुरत नहीं है.कुछ ही देर में मोटरसाईकिलें बटाला हाऊस ईलाके से गुजर रही थीं.दोनों तरफ लगभग सारे घरों में कहीं बैलों-गायों का गला रेता जा रहा था तो कहीं उनकी खालें उतारी जा रही थीं.सडकों तक खून के पनाले.कसाई सर पर ठेहा और हाथ में चाकू लिए सडकों पर आवाज लगाता फिर रहा था कि किसी को ग़ोश्त तैयार करवाना है क्या?चारों तरफ दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध.लगा जैसे अभी सुबह का नाश्ता मुंह से बाहर आ जाएगा.मेरा मन जो एक मानव मन था वितृष्णा से भर उठा.छिः,धर्म के नाम पर दुधारू और निर्दोष पशुओं की सामूहिक हत्या!किसी तरह रफ्ता-रफ्ता नरक दर्शन करता हुआ मित्र के निवास-स्थान पर जाकिर नगर पहुंचा.बड़ी मुश्किल से दालमोट को हलक के नीचे उतारा,ठंडा पीया और टी.वी. देखने लगा.रात हुई मित्र ने मुर्गा बनवाया था जो मैं खाता नहीं हूँ इसलिए बाजार से उसने रोटी-सब्जी मंगवाई.परन्तु अब तक मेरे दिलोदिमाग पर दिन का वीभत्स मंजर तारी था.मुझे रोटियों और सब्जियों में से जैसे गोमांस जैसी दुर्गन्ध का सुबहा हो रहा था.एक-दो निबाले से ज्यादा खा नहीं पाया और भूखे ही सो गया.सुबह पौ फटते ही वापस नोएडा के लिए निकल पड़ा.गायों के खून के धब्बे अब भी सडकों पर मौजूद थे.जब-जब नजर उन पर जाती पूरे जिस्म में जैसे सिहरन-सी होने लगती.वापस नोएडा आकर मन कई दिनों बाद शांत और प्रकृतिस्थ हुआ.
                    मित्रों,इस मुद्दे पर यानि जानवरों की क़ुरबानी पर बाद में मेरी अपने उन मित्र द्वय से बहस भी हुई.बड़ा अजीब तर्क था उनका.वे यह तो मानते थे कि जानवरों को भी खुदा ने ही बनाया है लेकिन वे यह भी मानते थे कि उसने इन्हें ईन्सान के भोजन के लिए बनाया है.फिर सूअरों,कुत्तो और बिल्लियों को क्यों नहीं खाना चाहिए,पूछने पर वे चुप्पी लगा गए?ईद-उल-जोहा के दिन पशु-वध पर उनका कहना था कि चूंकि गरीब मुस्लमान ग़ोश्त नहीं खरीद सकते या क़ुरबानी नहीं दे सकते इसलिए गाय-बैलों को काटकर उनका मांस बांटा जाता है.एक बात और उन्होंने कही कि बकरों के मुकाबले गाय-बैलों का मांस ज्यादा सस्ता पड़ता है.
                   मित्रों,क़ुरबानी क्या है और क्यों दी जाती है कभी सोंचा है आपने?क़ुरबानी का मतलब है त्याग और बलिदान जो हजरत इब्राहीम ने अपने जिगर के टुकड़े पुत्र की बलि देकर दी थी.मैं पूछता हूँ रूपयों से ख़रीदे गए इन मूक और निर्दोष जानवरों से मुसलमानों का कोई भावनात्मक लगाव होता भी है?क्या ये जानवर उन्हें अपने बेटे-बेटियों जितना ही अजीज होते हैं?क्या वे हजरत इब्राहीम की तरह अपने बेटे की बलि देने का नैतिक साहस रखते हैं?क्या उनका खुदा पर उतना ही अटल विश्वास है कि जितना हजरत इब्राहीम को था?अगर हाँ तो फिर आप भी जानवरों के बदले किसी अपने की बलि क्यों नहीं देते?अगर आपकी आस्था सच्ची होगी तो आपका अजीज भी बकरे में बदल जाएगा.लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि आप ढोंगी हैं,फरेबी हैं और झूठे हैं.आपकी आस्था झूठी है,आपका विश्वास कच्चा है.आपको खुदा पर पूरा विश्वास नहीं है.आप उसको और उसकी मेहर को लेकर उतने मुतमईन नहीं हैं जितने कि बेटे की बलि देते समय हजरत इब्राहीम थे.इसलिए आप झूठी क़ुरबानी देते हैं.वास्तव में यह क़ुरबानी सिर्फ पैसों की क़ुरबानी है.जरखरीद मूक और लाचार पशुओं की हत्या है,आस्था और विश्वास की हत्या है.
                    मित्रों,मैं यह भी नहीं चाहूँगा कि कोई मुसलमान धर्म के नाम पर अपने किसी अपने का गला रेत डाले परन्तु उसे यह हक़ भी नहीं बनता है कि किसी दूसरे के बेटे या बेटियों के गले पर धर्म के नाम पर छुरा चलाए.आखिर पशु भी किसी कि औलाद हैं.उन्होंने भी उसी प्रक्रिया के तहत जन्म लिया है जिस प्रक्रिया द्वारा हम जन्में हैं.हम आज सभ्यता के विकास के द्वारा प्रभुता की स्थिति में आ गए हैं और वे बेचारे आज भी वहीं हैं जहाँ वर्षों-सदियों पहले थे.हमने उन्हें गुलाम बनाया,उन्हें हलों और गाड़ियों में जोता.उनके दूध पर भी अधिकार कर लिया जो पूरी तरह से उनके बच्चों के लिए था फिर भी वे कुछ नहीं बोले,विरोध भी नहीं किया.लेकिन प्रभुता का मतलब यह तो नहीं कि हम उनका गला ही रेत डालें और उन्हें खा जाएँ.यह तो उनके द्वारा सदियों से मानवता की की जा रही सेवा का पारितोषिक नहीं हुआ.उन बेचारों को तो यह पता भी नहीं होता कि वे अंधी आस्था के नाम पर मारे जा रहे हैं.उन्हें तो बस अपने गले पर एक दबाव भर महसूस होता है और फिर दर्द का,भीषण दर्द का आखिरी अहसास.
                   मित्रों,इसलिए मैं नहीं समझता कि चाहे कोई हिन्दू पशु-बलि दे या मुसलमान;वह किसी भी तरह से उचित या तार्किक है.यह प्रथा हमारी असभ्यता को ही दर्शाता है इसलिए इसे तत्काल रोका जाना चाहिए.यह पूरी कायनात खुदा की बनाई हुई हैं.उस परमपिता की नज़र में सारे जीव बराबर हैं.गैर बराबरी चाहे वो ईन्सानों के बीच हो या जीवों के मध्य हमने बनाए हैं,खुदा ने नहीं;इसलिए हमें कोई हक नहीं है कि हम अपने द्वारा गुलाम बना लिए गए खुदा के अंश जानवरों पर अत्याचार करें.उसके भीतर भी उसी खुदा का वही नूर रौशन हैं जो ईन्सानों के भीतर हैं.उसे भी दर्द होता है,ख़ुशी होती हैं.वो भी हरी घास देखकर खुश होता है और गले पर चाकू फेरे जाने पर रोता-चिल्लाता है,पांव पटक-पटक कर हमसे दया की गुहार करता है.              

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

जनता आहत माल्या को राहत?

मित्रों,बात कुछ महीने पहले की है.हम भारतीय स्टेट बैंक की हाजीपुर,प्रधान शाखा से गृह ऋण लेकर घर बनाना चाहते थे.गोदान का होरी जिस तरह गाय को लेकर अपने मन में नित नए सपने बुना करता था उसी तरह हमारे मन में भी तब अपने घर को लेकर अनगिनत सपने कुलांचे भर रहे थे.लेकिन यह क्या,बैंक ने तो पिताजी की ज्यादा उम्र हो जाने का हवाला देते हुए ऋण देने से साफ तौर पर मना ही कर दिया.हम तो आदरणीय विजय माल्या की तरह कभी डिफौल्टर भी नहीं हुए थे लेकिन थे तो आम आदमी;बस यही एक दोष था हममें.हम जैसे छोटी हस्ती के लोगों के साथ सरकारी बैंक कुछ इसी तरह पेश आते हैं.काश हम भी विजय माल्या होते.तब सरकार हमारे पापों को चन्दन की तरह अपने माथे पर ले लेने के लिए बेताब हो जाती.प्रबंधन में गलती हम करते और भरपाई करती सरकार.व्यापार हम करते और जोखिम भी हमारा नहीं होता.इसी का नाम तो अमेरिकेन पूंजीवाद है जिसका हम इन दिनों अन्धानुकरण कर रहे हैं.देखा नहीं आपने अमेरिकी सरकार ने किस तरह अपने अति धनवान ऐय्याश पूंजीपतियों के पापों का ठीकरा खुद अपने ही सिर पर फोड़ लिया और जनता के खजाने में से धनपशुओं को राहत पैकेज दे दिया.
                   मित्रों,पिछले दिनों अपने देश में भी यही सब होने जा रहा था.चूंकि विजय माल्या बहुत बड़े धनपति हैं इसलिए उनको व्यापार में घाटा लगने पर सरकार सारे नियमों को ताक पर रखकर उनकी रक्षा करने को बेताब हो गयी थी परन्तु हमको और आपको अगर व्यापार में दस-बीस हजार या लाख का घाटा लगता है और हमारे समक्ष जीवन-मृत्यु का यक्ष-प्रश्न भी खड़ा हो जाता है तब भी सरकार नहीं आएगी बचाने हमें.वो हमें कर लेने देगी आत्महत्या,हमारे परिवार को हो जाने देगी अनाथ.तब बैंक हमें राहत देने पर विचार करने के लिए सामूहिक मीटिंग भी नहीं करते परन्तु जब अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के साथ ऐय्याशी करनेवाले और पाँच सितारा जीवन जीनेवाले माल्या की कोई छोटी-मोटी कंपनी घाटे में चली जाती है तब देश के प्रधानमंत्री खुद राहत हेतु पहल करने की बात करने लगते हैं.वो तो भला हो विपक्षी दलों,प्रबुद्ध समाज और राहुल बजाज का जिन्होंने सरकारी पहल का जोरदार शब्दों में विरोध करने कदम वापस खींच लेने पर मजबूर कर दिया.यही सही भी है.सिद्धांततः न तो बैंकों को और न ही सरकार को यह हक़ बनता है कि वो किसी धनकुबेर के डूबते व्यापार की रक्षा के लिए जनता के द्वारा महंगाई के युग में पेट काटकर जमा किए गए धन को लुटा दे.ज्ञातव्य है कि टाटा,बिरला और बजाज परिवार के अलावा ऐसा कोई व्यापारिक घराना नहीं है जिसने देशहित में कभी किसी तरह का व्यय किया हो.विजय माल्या ने देश और समाज को सिर्फ शराब पीना सिखाया है,युवा देश की युवा पीढ़ी को नशे का लती बनाया है और फिर उनकी विमानन कंपनी भले ही डूब रही हो उनका शराब का धंधा तो अभी भी पूरे शबाब पर है.इतना ही नहीं उनके पास आईपीएल की खरबों रूपये की टीम भी है और फ़ॉर्मूला वन में भी इनकी महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी है.इस तरह से श्रीमान जब किसी भी तरह से दिवालियेपन के कगार पर नहीं हैं फिर इन्हें जनता की गरीबी और पिछड़ेपन की कीमत पर क्यों सरकार की तरफ से सहायता की जाए?ये अगर सचमुच में कड़की के शिकार होते तो ऐसा सोंचा भी जा सकता था.
                        मित्रों,किसी भी व्यापार में लाभ या हानि के लिए व्यापारी खुद ही जिम्मेदार होता है.अगर माल्या को विमानन में लाभ होता और शराब के व्यवसाय में तो वे लाभ में हैं भी तो क्या वे लाभ की राशि को देश को भेंट कर देते या देंगे?अगर नहीं तो फिर यह कहाँ का न्याय है कि व्यापार में लाभ हो तो विशुद्ध रूप से मेरा और अगर हानि हुई तो देश का?ऐसे तो भारत में रोजाना करोड़ों छोटे-बड़े व्यापारियों को घाटा होता है तो क्या उन सबको जो हानि होती है उसकी भरपाई सरकार को जनता के खाते से करनी चाहिए?नहीं न?सरकार तो सिर्फ उन कंपनियों की हानि की भरपाई के लिए जिम्मेदार है जिनका मालिकाना उसके पास है.अर्थशास्त्र का सीधा सूत्र है जिसका लाभ उसी की हानि.
                        मित्रों,कुछ लोग इस मामले में पूंजीवाद के गौड फादर अमेरिका का उदहारण दे सकते हैं कि किस तरह वहाँ की सरकार ने डूब रही कंपनियों को कुएँ से निकालनेवाला पैकेज दिया.लेकिन ऐसा कहनेवाले को यह भी याद रखना चाहिए कि जहाँ अमेरिका घोषित रूप से एक पूंजीवादी देश है वहीं भारत संवैधानिक रूप से समाजवादी राष्ट्र है और समाजवाद धन के संकेन्द्रण को बढ़ावा नहीं देता बल्कि उसके न्यायोचित वितरण पर बल देता है चाहे इसके लिए डंडे का सहारा ही क्यों न लेना पड़े.आपलोग भी जानते हैं कि विजय माल्या की गिनती बीपीएल में नहीं होती बल्कि देश के शीर्षस्थ अमीरों में होती है.वे अपने रंगीनमिजाज बेटे के बालिग होने पर गिफ्ट में पूरी-की-पूरी एयरलाईन ही दे डालते हैं और घर भी बनाते हैं तो लाखों,करोड़ों का नहीं अरबों का.पैसा कमाना बुरा नहीं है बशर्ते कमाई का तरीका उचित हो और समाज के लिए लाभकारी भी हो.वे अरबों-खरबों के घर में रहें तो इससे हमें या देश को क्या लाभ?माल्या को शराब के अलावे किसी दूसरे उद्योग में पैसा लगाना चाहिए था क्योंकि उनका व्यापार जितना ही फलेगा-फूलेगा वे तो और भी धनवान होते जाएँगे लेकिन बदले में करोड़ों गरीबों का कुछ हजारों रूपये की कम कीमत वाला घर बर्बाद हो जाएगा.आप सभी जानते हैं कि कोई भी व्यापारी समाज के बीच ही व्यापार करता है और उसके लाभ में समाज का योगदान अहम होता है इसलिए उसको अपने लाभ में से वापस कुछ-न-कुछ समाज को लौटाना भी चाहिए न कि ऐय्याशी में पैसा उड़ा देना चाहिए.अगर कोई पूंजीपति ऐसा करता है तभी उसका हक़ बनता है डूबने के समय समाज की तरफ हाथ बढ़ाकर सहायता मांगने का और प्राप्त करने का.समझे श्रीमान विजय माल्या जी!समझाया तो कबीर ने भी था ५०० साल पहले ही लेकिन शायद आपने महात्मा कबीर को नहीं पढ़ा या पढ़ा भी तो पढ़कर अनसुना कर दिया-
जो जल बाढ़े नाव में,घर में बाढ़े दाम;
दोऊ हाथ उलीचिए,यही सयानो काम.                       

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भंवरी का भंवर

मित्रों,कई साल पहले मेरा एक दूर का मित्र हुआ करता था,नाम मुझे याद है लेकिन अपना पत्रकारिता धर्म निभाते हुए मैं बताऊँगा नहीं.दूर का मित्र इसलिए क्योंकि वह मेरे अभिन्न मित्र प्रभात रंजन जो इस समय पटना,प्रभात खबर में संवाददाता हैं;का मित्र था.वह मेरा दूर का मित्र उन दिनों असम के एक सांसद का पी.ए. हुआ करता था.आदमी तेज-तर्रार था,ज़माने के बदलते मिजाज़ के अनुसार आसानी से खुद को ढाल लेनेवाला.वह बताता था कि दिल्ली में एक सेक्स रैकेट सांसदों के आस-पास खूब सक्रिय रहा करता है.सांसद महोदय जब दिल्ली के लिए रवाना होते हैं तभी गरम गोश्त के दलालों को खबर कर देते हैं.एक-एक रात के लिए पचास हजार से लेकर लाखों रूपये तक की फीस अदा की जाती है.ज्यादातर लड़कियां दिल्ली और आसपास के कॉलेजों में पढनेवाली हाई-फाई ग्रेड की होती हैं,जींस-पैंट वाली.उसका मानना था कि चूंकि साड़ी और सलवार-सूट वाली तो सांसदों को अपने गृह-प्रदेशों में भी मिल जाती हैं इसलिए वे अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अपनी रातों को अक्सर जींस-पैंट वालियों के साथ रंगीन किया करते हैं.बाद में कई सांसदों की सेक्स सी.डी. मीडिया में आई जिसमें हमारे बिहार के भी कई सांसदों का अहम् योगदान रहा.फिर भी मैं आज भी तब से लेकर अब तक गंगा में बहुत सारा पानी बह जाने के बावजूद यह नहीं मानता हूँ कि नेताओं-अफसरों या न्यायाधीशों में से हर कोई शौक़ीन मिजाज़ का होता हैं.फिर भी इतना तो निश्चित है कि अगर पूरी-की-पूरी दाल काली नहीं है तो कम-से-कम दाल में कुछ-न-कुछ काला तो जरूर है.
                     मित्रों,हमारे नीति-नियंताओं पर मेरा यह आरोप या संदेह महज आरोप या संदेह भर नहीं है.प्रमाण के रूप में बीच-बीच में इस तरह के मामले समय-समय पर सामने आते रहे हैं.अब भंवरी हत्याकांड को ही लें जो इन दिनों हमारे समाचार माध्यमों पर छाया हुआ है.मुझे जहाँ तक लगता है कि भंवरी जो एक ७-८ हजार रूपये की मामूली वेतन पाने वाली नर्स थी,एक अतिमहत्वकांक्षी महिला थी.उसके सेक्सुअल सम्बन्ध राज्य के बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों से थे.उसे इससे कितना आर्थिक लाभ हुआ जाँच का विषय हो सकता है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि आधुनिक समाज में जब पैसा ही सबकुछ बनता जा रहा है तब कुछ महिलाएँ अपनी महत्वाकांक्षाओं को जल्दीबाजी में पूरा करने के लिए अपनी कमनीय नारी देह का सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करती हैं.मैं नहीं मानता कि उनका ऐसा करना किसी भी तरह से महिला-सशक्तिकरण को आगे बढ़ाता है.
                   मित्रों,मैंने कई बार कई चैनलों,अख़बारों और डॉट कॉमों में देखा है कि कुछ लड़कियां अपने सौंदर्य द्वारा बॉस को खुश करके लड़कों के मुकाबले ज्यादा प्रोन्नति प्राप्त कर लेती हैं.कई बार बॉस खुद भी अपनी मातहत नारी देह को भोगने का उतावलापन दिखता है.इस सम्बन्ध में मुझे बिहार के एक बहुत बड़े स्वतंत्र पत्रकार द्वारा सुनाया गया एक वाकया याद आ रहा हैं.एक समय हम प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में अक्सर उनके साथ शाम की चाय पिया करते थे.उनका नाम था या है-चलिए उनके नाम को भी रहने देते हैं शायद उन्हें मेरा ऐसा करना पसंद न आए.तो जैसा कि उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी पहचान की एक लड़की को एक समाचार चैनल में रखवा दिया.नियोक्ता कभी उनका शिष्य हुआ करता था.कुछ दिन तक तो लड़की ठीक-ठाक तरीके से बिना किसी परेशानी के काम करती रही.फिर उसके नियोक्ता ने जो उसका बॉस भी था;शिमला-यात्रा की योजना बनाई और लाभुक लड़की को भी साथ चलने को कहा.उसे बताया गया कि इस दौरान उसे अपने बॉस के साथ अकेले रहना पड़ेगा और अकेले ही होटल में कमरा साझा भी करना पड़ेगा.कुल मिलाकर आप समझ गए होंगे कि उसका बॉस किए गए उपकार के बदले उससे उसका शरीर मांग रहा था.लड़की समय की मारी थी मगर खुद्दार थी इसलिए उसने वरिष्ठ पत्रकार जी को सारे घटनाक्रम से अवगत करवाया.तब उन्होंने अपने पूर्व शिष्य को पहले तो उसके टुच्चेपन के लिए जमकर फटकार लगी और फिर लड़की से नौकरी छोड़ देने को कहा.परन्तु कई बार कदाचित ऐसा भी होता है जब लड़कियां जल्दी में सफलता के शिखर पर पहुँचने के लिए खुद ही बॉस को ऑफर करने लगती हैं;शायद कुछ इस अंदाज में-सर आपका डेरा किधर है?आपने कभी अपना घर हमें नहीं दिखाया?कभी हमें भी ले चलिए न सर इत्यादि.
                मित्रों,गलत दोनों तरह के लोग हैं.यौन-शोषण के लिए लगातार प्रयास करनेवाले नेता-अफसर या बॉस भी और खुद को खुद ही ख़ुशी-ख़ुशी अल्कालिक या दीर्घकालिक लाभ के लिए नरपशुओं को सौंप देनेवाली लड़कियां भी क्योंकि ऐसा करने वाली लड़कियों का वही अंत होता है जो भंवरी का हुआ और नेताओं-अफसरों का अंत वैसा ही होता है जैसा महिपाल मदेरणा का हुआ.मुझे तो यह समझ में नहीं आ रहा है कि किसी का मन अपनी पत्नी या पति को छोड़कर दूसरों के साथ भरता भी कैसे है?छिः,मुझे तो सोंचकर ही घिन्न आती है.ऐसा करना अपने जीवन-साथी के साथ सरासर धोखा है.भगवान ने हमारे यौनांगों को इसलिए नहीं बनाया है कि हम जिस-तिस के साथ चंद पैसों के लिए या किसी भी अन्य कारण से सेक्स करते फिरें.ये अंग हमें आगे आनेवाली दुनिया के लिए नेक और शरीफ संतान प्रदान करने के लिए प्रदान किए गए हैं.इसलिए मेरी जवान होती,जवान हो चुकी और बुढ़ा रही पीढ़ियों से विनम्र अनुरोध है कि आप सभी अपने जीवन-साथी के प्रति यौन-संबंधों सहित सभी क्षेत्रों में पूरी तरह से वफादार बनिए.सफलता भी प्राप्त करिए लेकिन अपनी सुन्दर काया के बल पर नहीं बल्कि अपनी योग्यता के बल पर.फिर वह सफलता आपको स्थायी सुख तो देगी ही आपके लिए गर्व का विषय भी होगी.हो सकता है कि आपकी काली करतूतें घरवालों या ज़माने की नज़रों से बची रह जाएँ लेकिन यह मत भूलिए कि आपके बच्चों में उनके ४६ गुणसूत्रों में से २३ आपके हिस्से से जाएँगे और मैं समझता हूँ कि आप चाहे जैसे भी हों आप ऐसा कभी नहीं चाहेंगे कि आपमें से आपके ख़राब गुण आपके बच्चों में जाए और वो भी वही सब करें जो आप इन दिनों कर रहे हैं.वैसे पाप छिपता नहीं है कभी-न-कभी बेपर्दा हो ही जाता है.इस सम्बन्ध में रहीम कवि क्या खूब कह गए हैं-खैर खून खांसी ख़ुशी वैर प्रीति मद्यपान;रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान.

रविवार, 6 नवंबर 2011

मनमोहन तुम कब जाओगे?

मित्रों,अनिद्रा की बीमारी बहुत पुरानी है.कम-से-कम पाँच सौ साल पुरानी तो है ही.कबीर को भी थी;पूरी दुनिया की चिंता जो बेचारे सिर पे उठाए फिरते थे.कबीर रो रोकर कहते फिरते थे-सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै;दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै.रोते-रोते और जागते-जागते उनकी ज़िन्दगी में एक दिन ऐसा भी आया जब इसका बुरा असर उनकी सेहत पर भी दिखने लगा तब जाकर कबीर संभले और तब दुनिया को जैसे नया ज्ञान देते हुए समझाया कि चाहे कुछ भी बिना किए पड़े ही क्यों न रहो लेकिन चिंता बिलकुल भी नहीं करो क्योंकि चिंता से चतुराई घटे दुःख से घटे शरीर,पाप से धनलक्ष्मी घटे कह गए दास कबीर.
                     मित्रों,कुल मिलकर कहने का लब्बोलुआब यह है कि आदमी को ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए.नहीं तो ज़िन्दगी के जहन्नुम बनते देर नहीं लगती.मगर दीगर अहवाल यह भी है कि जब कन्धों और माथे पर जिम्मेदारी ज्यादा होती है तब चिंता भी अपने आप ज्यादा हो जाती है.कुछ चिंताएं तो अमिताभ बच्चन द्वारा संस्तुतित तेल लगा लेने भर से दूर हो जाती हैं कुछ फिर भी दूर नहीं होती.मुझे नहीं पता कि हमारे प्रधानमंत्री नवरत्न तेल का इस्तेमाल करते हैं या नहीं लेकिन अगर नहीं करते हैं तो अवश्य करके देखना चाहिए.अगर उनकी चिंताएँ सच्ची हैं तो क्या पता ऐसा करने से दूर हो ही जाए और सवा अरब भारतीयों में से कम-से-कम एक चिंतामुक्त हो ही जाए और अगर उनकी चिंताएं सिर्फ दिखावा हैं तब भी ऐसा करके वे एक बार और चिंतित होने का दिखावा तो कर ही सकते हैं.
                   मित्रों,मनमोहन जी के गंजे माथे पर (हालाँकि मैंने अब तक उन्हें बिना पगड़ी के देखा नहीं है लेकिन मेरा अनुमान है कि चूंकि वे देश की जनता के लिए या फिर अपनी मैडम के लिए इतना अधिक चिंतित रहा करते हैं इसलिए पूरी तरह से नहीं तो अंशतः तो गंजे जरूर हो चुके होंगे) कितना अधिक बोझ है आप बिना प्रधानमंत्री बने इसका अनुमान तक नहीं लगा सकते.मसलन,मनमोहन सिंह पर देश और जनता की सुरक्षा और वित्तीय स्थिति को सुधारने तथा नक्सलियों और भ्रष्टाचार से निबटने की महती जिम्मेदारी है.वृद्धावस्था,अंगों-प्रत्यंगों में मशीन फिट और इतनी ज्यादा जिम्मेदारी;ऐसे में कोई भी अच्छा या बुरा आदमी फेल हो सकता है;मनमोहन जी भी हुए.कदाचित मुसोलिनी के देश की कन्या को खुश करने के चक्कर में बेचारे इतनी दूर निकल गए कि जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को ही भूल गए.इसके पीछे उनकी चाहे कोई भी मजबूरी हो या नहीं हो लेकिन जब भी उन पर असफल और कमजोर होने का आरोप लगता है तो वे पहले तो एक-एक कर अपनी कई मजबूरियां गिना जाते हैं और बाद में अपनी ही कही हुई बात से मुकरते हुए खुद को भारत के सबसे मजबूर प्रधानमंत्री के बजाए सबसे मजबूत प्रधानमंत्री बताने लगते हैं.समझ में नहीं आता कि वे किस आधार पर अपने को मजबूत प्रधानमंत्री बताते हैं?क्या इसलिए नहीं कि उनके लिए सोनिया गाँधी ही इण्डिया है और भारत भी है.शायद वे अपने को इसलिए मजबूत बताते हैं क्योंकि अदालत से लेकर जनता के बीच वे इतनी फजीहत झेलने के बाद भी सोनिया जी की नजर में मजबूत बने हुए हैं?
             मित्रों,इसमें कोई संदेह नहीं कि महंगाई और आतंरिक सुरक्षा सहित तमाम मोर्चों पर मनमोहन विषयवार फेल हो चुके हैं.ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्हें पास मार्क्स लायक सफलता भी हाथ लगी हो.जनता महंगाई डायन से लगातार बेहाल है.कांग्रेस शासन द्वारा पोषित यह डायन उसे मत देकर जितानेवाली आम जनता के निबाले में से दाल और दूध तो पहले ही चट कर चुकी है अब उसकी बुरी नजर रोटी-सब्जी पर भी टिक गयी हैं.यह काहिलीपन की हद नहीं तो और क्या है कि वे और उनकी सरकार के मंत्री जनता के जान के पीछे नहा-धोकर पड़ी महंगाई को नियंत्रित करने की दिशा में अगरचे तो कोई कदम उठाते नहीं हैं और बार-बार जनता को गुमराह करने के ख्याल से किसी मंजे हुए भविष्यवक्ता की तरह महंगाई के कम होने की तारीख-पे-तारीख देते रहते हैं.यह तो अर्थशास्त्र का कोई भोंदू विद्यार्थी भी जानता है कि उस स्थिति में जब पूर्ति मांग के अनुपात में लगातार कम होती जा रही हो तब केवल ब्याज-दर बढाकर महंगाई को बढ़ने से नहीं रोका जा सकता.यह तो मुठ्ठी भर बालू डालकर उफनाई हुई नदी के प्रवाह को रोकने जैसी बात हुई.
                       मित्रों,हो सकता है कि भविष्य में हमें सशक्त लोकपाल मिल भी जाए लेकिन उसे भलीभांति लागू करवाने के लिए जो ईच्छाशक्ति एक शासक में होनी चाहिए वो तो मनमोहन में है ही नहीं या है भी तो ऋणात्मक है.ऐसे में जब तक यह अकर्मण्य,कर्महीन किन्तु महाविद्वान प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पड़ा हुआ है हमें यह उम्मीद हरगिज नहीं रखनी चाहिए कि देश की स्थितियों में;किसी भी क्षेत्र में कोई बदलाव आने जा रहा है.इसलिए अगर हमारे मन के किसी भी अनजान कोने में देश के प्रति थोड़ा-सा भी प्यार बचा हुआ है तो हमारा अगला कदम इसे कुर्सी पर से हटाने का प्रयास होना चाहिए.जोर लगा के हईसा-शायद फेवीकोल का जोर है इसलिए बिना पूरी ताकत लगाए कुर्सी छूटेगी नहीं.मैं मानता हूँ कि सिर्फ आदमी को बदलने से व्यवस्था नहीं बदलेगी लेकिन इस आदमी को नहीं हटाने से भी व्यवस्था नहीं बदलनेवाली है,यकीन मानिए.
                   मित्रों,वर्तमान भारत की स्थिति काफी हद तक वैसी ही है जैसी महान मोहम्मद बिन तुगलक के समय थी.तुगलक भी मनमोहन की तरह महाविद्वान था,कर्मण्य भी था परन्तु विवेकशील नहीं था.मनमोहन तो उससे भी गया-गुजरा है.यह अकर्मण्य तो है ही विवेकशील तो बिलकुल भी नहीं है.जब तुगलक मरा तब एक इतिहासकार ने लिखा कि उसकी मृत्यु पर राजा और प्रजा दोनों ने चैन की साँस ली.इस तरह एक साथ राजा को प्रजा से और प्रजा को राजा से छुटकारा मिल गया.वर्तमान भारत की जनता और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों की पारस्परिक स्थिति भी अभी वैसी ही है.हमारे माननीय और मानवीय प्रधानमंत्री देश की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हैं और रोज-रोज कभी बढती महंगाई तो कभी भ्रष्टाचार को लेकिन अपनी चिंता जनता के समक्ष प्रकट करते रहते हैं और इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि वे सिवाय चिंता प्रकट करने के क्यों और कुछ नहीं कर पा रहे हैं?ईधर जनता भी यह सोंचकर परेशान है कि उन्हें उनकी ही गलती से यह कैसा अजीबोगरीब शासक मिल गया है जो सिर्फ मुफ्त की चिंता ही करता रहता है;समस्या के समाधान के लिए कुछ करता ही नहीं.अभी लोकसभा चुनाव में पूरे तीन साल की देरी है लेकिन जनता उनके दो सालों के कुशासन से ही आजिज़ हो चुकी है.साथ ही बाँकी वो बचे तीन सालों के उनके संभावित शासन को लेकर सशंकित और भयभीत भी है.एक मसखरे के मतानुसार एक समय जिस तरह राबड़ी देवी केवल दो महीने में जापान को बिहार बना देने का माद्दा रखती थीं उसी तरह यह आदमी भी अगले तीन सालों में पूरे भारत को राबड़ीकालीन बिहार बना देने का पूरा माद्दा रखता है.पहले के दो सालों में इसके शासन ने हमारी जो हालत बना दी है हम इस स्थिति में बिलकुल भी नहीं हैं कि इसके बाँकी बचे हुए तीन सालों के शासन को जीवित रहते हुए झेल सकें.इससे पहले के लेख में मैं राईट टू रिकॉल को पूरी तरह से अव्यावहारिक ठहरा चुका हूँ लेकिन आज मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि बिना इस अधिकार के जनता इस कर्महीन और अकर्मण्य शासक को पाँच साल पूरा होने से पहले हटाए भी तो कैसे हटाए?मनमोहन और उनकी लाचार मगर नाराज जनता दोनों के लिए यह ज्यादा अच्छा होता अगर वे तत्काल प्रभाव से खुद ही इस्तीफा दे देते और जनता को घर में जबरन डेरा जमाए अतिथि की तरह उनसे यह प्रश्न पूछना नहीं पड़ता कि मनमोहन तुम कब जाओगे?दुनिया से नहीं रे बाबा प्रधानमंत्री के गरिमामय पद से.जीओ न तुम दो सौ साल या इससे भी कई गुना ज्यादा जीओ लेकिन हमें भी तो जीने दो. 

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

व्यावहारिक नहीं है राईट टू रिकॉल

मित्रों,राईट टू रिकॉल की मांग अब पुरानी हो चुकी है.जे.पी. के बाद बीच के समय में इस पर चर्चा लगभग बंद हो गयी थी लेकिन अन्ना के राष्ट्रीय परिदृश्य में आने और छाने के बाद एक बार फिर से यह चर्चा के केंद्र में है.ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि जो सरकार इस समय केंद्र में है वो ठीक तरीके से काम नहीं कर रही है या फिर और भी स्पष्टवादी होकर कहें तो कोई काम ही नहीं कर रही है.
               मित्रों,भारत की जनता पिछले ६१ सालों में १५ लोकसभाओं और सैंकड़ों विधानसभाओं के चुनाव देख चुकी है.उसने चुनावों को पवित्र पर्व-त्योहार से निंदनीय क्रय-विक्रय के महाभोज में परिणत हुए अपनी खुली आँखों से देखा है.इस नैतिक-स्खलन के लिए किसी व्यक्ति-विशेष को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता.कहीं-न-कहीं चुनावों में धांधली करनेवाले और धांधली देखकर चुपचाप रह जानेवाले;दोषी दोनों तरह के लोग हैं.हमारे देश में चुनावों में गड़बड़ी की शुरुआत हुई मतदान-केन्द्रों पर कब्जे से यानि वोटरों के शरीर को वश में करने से;जिसके चलते राजनीति में अपराधियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी.बाद में चुनाव आयोग की सख्ती के कारण चुनावों में बाहुबल का प्रयोग प्रायः बंद हो गया.तब उम्मीदवारों ने धन,वस्तु और शराब का लालच देकर या फिर जनभावनाओं को गलत दिशा देकर मतदाताओं के दिलो-दिमाग पर कब्ज़ा करना शुरू किया.इसी बीच राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर आगमन हुआ राजनीति से संन्यास ले चुके और भारत छोड़ो आन्दोलन के हीरो रह चुके लोकनायक जयप्रकाश नारायण का.जे.पी. ने राईट टू रिकॉल पर चर्चा की शुरुआत इसकी मांग करके की.परन्तु खुद उनके ही आशीर्वाद से बनी जनता पार्टी की सरकार ने ही इसे अपने देश के लिए व्यावहारिक नहीं माना और बात आई-गई हो गयी.
                  मित्रों,मैं समझता हूँ कि राईट टू रिकॉल भारत जैसे विशाल और विकासशील देश के लिए १९७७-७८ में तो व्यावहारिक नहीं ही था यह आज भी व्यावहारिक नहीं है.चुनाव किसी भी लोकतंत्र की हृदय गति के समान होता है और हृदय का आवश्यकता से जल्दी-जल्दी धड़कना तो स्वास्थ्य पर बुरा असर डालनेवाला होता ही है उसका काफी धीमी गति से धड़कना भी स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छा नहीं माना जाता.देर से चुनाव जहाँ तानाशाही को जन्म देता है वहीं चुनावों के बहुत जल्दी-जल्दी होने से सम्बंधित प्रदेश या विधानसभा-लोकसभा क्षेत्र विकास की दौड़ में पिछड़ जाते हैं.आप सभी यह अच्छी तरह जानते हैं कि चुनाव की घोषणा होते ही क्षेत्र में आचार संहिता लागू हो जाती है.इस अवधि में सरकार उस क्षेत्र-विशेष के लिए न तो कोई नई योजना ही शुरू कर सकती है और न ही क्षेत्र में उद्घाटन-शिलान्यास ही किया जा सकता है जिससे कई तरह की विकास संबधी जटिलताएँ पैदा हो जाती हैं.ऐसा ही एक वाकया पिछले विधानसभा चुनावों में मुजफ्फरपुर में देखने को मिला.हुआ यूं कि मुजफ्फरपुर में एक फ्लाई ओवर उद्घाटन के लिए बनकर तैयार था तभी चुनावों की घोषणा कर दी गयी और आचार संहिता लागू हो गयी.जनता परेशान,कई सप्ताहों में जाकर चुनाव की प्रक्रिया पूरी होनी थी.कैसे इंतजार किया जाए जबकि पुल के चालू न होने से जनसामान्य को आने-जाने में काफी परेशानी हो रही थी?अंत में जनता ने बिना उद्घाटन के ही पुल को प्रयोग में लाना आरंभ कर दिया.
                   मित्रों,इतना ही नहीं चुनावों के कारण पूरी सरकारी मशीनरी ही ठप्प हो जाती है.जिला,अनुमंडल और प्रखंड-कार्यालयों में दिनानुदिन का कामकाज रूक जाता है;विद्यालयों में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाती है जिसका गाँव-समाज की शिक्षिक और आर्थिक स्थिति पर पश्चगामी प्रभाव पड़ता है.चुनाव-दर-चुनाव धनबल के बढ़ते जोर और जनता के बढ़ते लालच के चलते चुनाव लगातार महंगे होते जा रहे हैं.राईट टू रिकॉल लागू होने पर विभिन्न विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों में बार-बार के उपचुनावों से भारत सरकार के खजाने पर बेवजह दबाव पड़ेगा जिससे निपटने के लिए हमारा नाकारा रिजर्व बैंक अतिरिक्त करेंसी की छपाई करेगा और अभूतपूर्व महंगाई के इस युग में महंगाई के बढ़ने की रफ़्तार और भी तेज हो जाएगी.साथ ही,बार-बार होनेवाले चुनाव उम्मीदवारों की जेब पर भी बार-बार डाका डालेंगे जिससे उनके भ्रष्ट होने का खतरा और भी बढ़ जाएगा.
                  मित्रों,राईट टू रिकॉल वर्तमान भारत में पंचायत स्तर पर लागू भी है.लेकिन पंचायत की जनसंख्या तो काफी कम होती है इसलिए वहां ग्राम-सभा की बैठक बुलाकर प्रत्यक्ष निर्णय सम्भव है.परन्तु विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र का परास अपेक्षाकृत काफी बड़ा होता है और उनकी जनसंख्या भी काफी ज्यादा होती है.ऐसे में इन स्तरों पर जनता के लिए प्रत्यक्ष निर्णय कर पाना कदाचित संभव नहीं हो सकेगा.तब एक मात्र विकल्प यह बचेगा कि समय-समय पर क्षेत्र में जनमत-संग्रह करवाया जाए जिससे यह मालूम हो सके कि जनता अपने जनप्रतिनिधियों की कारगुजारियों से संतुष्ट है या नहीं.फिर इन जनमत-संग्रहों में भी अगर बाहुबल और धनबल के जोर पर धांधली की गयी तो?सबसे बड़ी बात कि भारत जैसे विकासशील और सीमित साधनों वाले देश को ऐसा करना निश्चित रूप से काफी महंगा पड़ेगा क्योंकि इसमें काफी खर्च आएगा.साथ ही इसके लागू होने के बाद सरकारों और जनप्रतिनिधियों के भविष्य पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी.वे लगातार इस चिंता में दुबले होते रहेंगे कि न जाने कब जनता उनकी कुर्सी के नीचे की जमीन ही छीन ले.परिणाम यह होगा कि वे कोई भी दीर्घकालीन योजना बनाने से कतरायेंगे.
               मित्रों,इस प्रकार हमने देखा और गहराई से विश्लेषण करने पर पाया कि राईट टू रिकॉल भारत जैसे गरीब और विशालकाय देश के लिए किसी भी दृष्टिकोण से व्यावहारिक नहीं है.वास्तव में यह एक आदर्श है और इसे आदर्श ही रहने देने में हमारी भलाई भी है.वैसे भी प्रत्येक पाँच साल बाद जनता को उम्मीदवारों में से अपना जनप्रतिनिधि चुनने का सुअवसर मिलता ही है और पाँच साल का समय कोई ज्यादा नहीं होता.दरअसल समस्या पाँच साल के कथित लम्बे समय के अन्तराल पर चुनावों का होना नहीं है;समस्या है जनता द्वारा अपने मतों का नासमझी से प्रयोग करना.साथ ही,चुनाव प्रक्रिया में भी सुधार की आवश्यकता है जिससे धनबलियों और असामाजिक तत्वों का विधानसभाओं और लोकसभा-राज्यसभा में प्रवेश को पूरी सख्ती के साथ रोका जा सके.वास्तव में भारत में राईट टू रिकॉल लागू करने का मतलब होगा सही बीमारी का गलत ईलाज.