मित्रों,अनिद्रा की बीमारी बहुत पुरानी है.कम-से-कम पाँच सौ साल पुरानी तो है ही.कबीर को भी थी;पूरी दुनिया की चिंता जो बेचारे सिर पे उठाए फिरते थे.कबीर रो रोकर कहते फिरते थे-सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै;दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै.रोते-रोते और जागते-जागते उनकी ज़िन्दगी में एक दिन ऐसा भी आया जब इसका बुरा असर उनकी सेहत पर भी दिखने लगा तब जाकर कबीर संभले और तब दुनिया को जैसे नया ज्ञान देते हुए समझाया कि चाहे कुछ भी बिना किए पड़े ही क्यों न रहो लेकिन चिंता बिलकुल भी नहीं करो क्योंकि चिंता से चतुराई घटे दुःख से घटे शरीर,पाप से धनलक्ष्मी घटे कह गए दास कबीर.
मित्रों,कुल मिलकर कहने का लब्बोलुआब यह है कि आदमी को ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए.नहीं तो ज़िन्दगी के जहन्नुम बनते देर नहीं लगती.मगर दीगर अहवाल यह भी है कि जब कन्धों और माथे पर जिम्मेदारी ज्यादा होती है तब चिंता भी अपने आप ज्यादा हो जाती है.कुछ चिंताएं तो अमिताभ बच्चन द्वारा संस्तुतित तेल लगा लेने भर से दूर हो जाती हैं कुछ फिर भी दूर नहीं होती.मुझे नहीं पता कि हमारे प्रधानमंत्री नवरत्न तेल का इस्तेमाल करते हैं या नहीं लेकिन अगर नहीं करते हैं तो अवश्य करके देखना चाहिए.अगर उनकी चिंताएँ सच्ची हैं तो क्या पता ऐसा करने से दूर हो ही जाए और सवा अरब भारतीयों में से कम-से-कम एक चिंतामुक्त हो ही जाए और अगर उनकी चिंताएं सिर्फ दिखावा हैं तब भी ऐसा करके वे एक बार और चिंतित होने का दिखावा तो कर ही सकते हैं.
मित्रों,मनमोहन जी के गंजे माथे पर (हालाँकि मैंने अब तक उन्हें बिना पगड़ी के देखा नहीं है लेकिन मेरा अनुमान है कि चूंकि वे देश की जनता के लिए या फिर अपनी मैडम के लिए इतना अधिक चिंतित रहा करते हैं इसलिए पूरी तरह से नहीं तो अंशतः तो गंजे जरूर हो चुके होंगे) कितना अधिक बोझ है आप बिना प्रधानमंत्री बने इसका अनुमान तक नहीं लगा सकते.मसलन,मनमोहन सिंह पर देश और जनता की सुरक्षा और वित्तीय स्थिति को सुधारने तथा नक्सलियों और भ्रष्टाचार से निबटने की महती जिम्मेदारी है.वृद्धावस्था,अंगों-प्रत्यंगों में मशीन फिट और इतनी ज्यादा जिम्मेदारी;ऐसे में कोई भी अच्छा या बुरा आदमी फेल हो सकता है;मनमोहन जी भी हुए.कदाचित मुसोलिनी के देश की कन्या को खुश करने के चक्कर में बेचारे इतनी दूर निकल गए कि जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को ही भूल गए.इसके पीछे उनकी चाहे कोई भी मजबूरी हो या नहीं हो लेकिन जब भी उन पर असफल और कमजोर होने का आरोप लगता है तो वे पहले तो एक-एक कर अपनी कई मजबूरियां गिना जाते हैं और बाद में अपनी ही कही हुई बात से मुकरते हुए खुद को भारत के सबसे मजबूर प्रधानमंत्री के बजाए सबसे मजबूत प्रधानमंत्री बताने लगते हैं.समझ में नहीं आता कि वे किस आधार पर अपने को मजबूत प्रधानमंत्री बताते हैं?क्या इसलिए नहीं कि उनके लिए सोनिया गाँधी ही इण्डिया है और भारत भी है.शायद वे अपने को इसलिए मजबूत बताते हैं क्योंकि अदालत से लेकर जनता के बीच वे इतनी फजीहत झेलने के बाद भी सोनिया जी की नजर में मजबूत बने हुए हैं?
मित्रों,इसमें कोई संदेह नहीं कि महंगाई और आतंरिक सुरक्षा सहित तमाम मोर्चों पर मनमोहन विषयवार फेल हो चुके हैं.ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्हें पास मार्क्स लायक सफलता भी हाथ लगी हो.जनता महंगाई डायन से लगातार बेहाल है.कांग्रेस शासन द्वारा पोषित यह डायन उसे मत देकर जितानेवाली आम जनता के निबाले में से दाल और दूध तो पहले ही चट कर चुकी है अब उसकी बुरी नजर रोटी-सब्जी पर भी टिक गयी हैं.यह काहिलीपन की हद नहीं तो और क्या है कि वे और उनकी सरकार के मंत्री जनता के जान के पीछे नहा-धोकर पड़ी महंगाई को नियंत्रित करने की दिशा में अगरचे तो कोई कदम उठाते नहीं हैं और बार-बार जनता को गुमराह करने के ख्याल से किसी मंजे हुए भविष्यवक्ता की तरह महंगाई के कम होने की तारीख-पे-तारीख देते रहते हैं.यह तो अर्थशास्त्र का कोई भोंदू विद्यार्थी भी जानता है कि उस स्थिति में जब पूर्ति मांग के अनुपात में लगातार कम होती जा रही हो तब केवल ब्याज-दर बढाकर महंगाई को बढ़ने से नहीं रोका जा सकता.यह तो मुठ्ठी भर बालू डालकर उफनाई हुई नदी के प्रवाह को रोकने जैसी बात हुई.
मित्रों,हो सकता है कि भविष्य में हमें सशक्त लोकपाल मिल भी जाए लेकिन उसे भलीभांति लागू करवाने के लिए जो ईच्छाशक्ति एक शासक में होनी चाहिए वो तो मनमोहन में है ही नहीं या है भी तो ऋणात्मक है.ऐसे में जब तक यह अकर्मण्य,कर्महीन किन्तु महाविद्वान प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पड़ा हुआ है हमें यह उम्मीद हरगिज नहीं रखनी चाहिए कि देश की स्थितियों में;किसी भी क्षेत्र में कोई बदलाव आने जा रहा है.इसलिए अगर हमारे मन के किसी भी अनजान कोने में देश के प्रति थोड़ा-सा भी प्यार बचा हुआ है तो हमारा अगला कदम इसे कुर्सी पर से हटाने का प्रयास होना चाहिए.जोर लगा के हईसा-शायद फेवीकोल का जोर है इसलिए बिना पूरी ताकत लगाए कुर्सी छूटेगी नहीं.मैं मानता हूँ कि सिर्फ आदमी को बदलने से व्यवस्था नहीं बदलेगी लेकिन इस आदमी को नहीं हटाने से भी व्यवस्था नहीं बदलनेवाली है,यकीन मानिए.
मित्रों,वर्तमान भारत की स्थिति काफी हद तक वैसी ही है जैसी महान मोहम्मद बिन तुगलक के समय थी.तुगलक भी मनमोहन की तरह महाविद्वान था,कर्मण्य भी था परन्तु विवेकशील नहीं था.मनमोहन तो उससे भी गया-गुजरा है.यह अकर्मण्य तो है ही विवेकशील तो बिलकुल भी नहीं है.जब तुगलक मरा तब एक इतिहासकार ने लिखा कि उसकी मृत्यु पर राजा और प्रजा दोनों ने चैन की साँस ली.इस तरह एक साथ राजा को प्रजा से और प्रजा को राजा से छुटकारा मिल गया.वर्तमान भारत की जनता और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों की पारस्परिक स्थिति भी अभी वैसी ही है.हमारे माननीय और मानवीय प्रधानमंत्री देश की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हैं और रोज-रोज कभी बढती महंगाई तो कभी भ्रष्टाचार को लेकिन अपनी चिंता जनता के समक्ष प्रकट करते रहते हैं और इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि वे सिवाय चिंता प्रकट करने के क्यों और कुछ नहीं कर पा रहे हैं?ईधर जनता भी यह सोंचकर परेशान है कि उन्हें उनकी ही गलती से यह कैसा अजीबोगरीब शासक मिल गया है जो सिर्फ मुफ्त की चिंता ही करता रहता है;समस्या के समाधान के लिए कुछ करता ही नहीं.अभी लोकसभा चुनाव में पूरे तीन साल की देरी है लेकिन जनता उनके दो सालों के कुशासन से ही आजिज़ हो चुकी है.साथ ही बाँकी वो बचे तीन सालों के उनके संभावित शासन को लेकर सशंकित और भयभीत भी है.एक मसखरे के मतानुसार एक समय जिस तरह राबड़ी देवी केवल दो महीने में जापान को बिहार बना देने का माद्दा रखती थीं उसी तरह यह आदमी भी अगले तीन सालों में पूरे भारत को राबड़ीकालीन बिहार बना देने का पूरा माद्दा रखता है.पहले के दो सालों में इसके शासन ने हमारी जो हालत बना दी है हम इस स्थिति में बिलकुल भी नहीं हैं कि इसके बाँकी बचे हुए तीन सालों के शासन को जीवित रहते हुए झेल सकें.इससे पहले के लेख में मैं राईट टू रिकॉल को पूरी तरह से अव्यावहारिक ठहरा चुका हूँ लेकिन आज मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि बिना इस अधिकार के जनता इस कर्महीन और अकर्मण्य शासक को पाँच साल पूरा होने से पहले हटाए भी तो कैसे हटाए?मनमोहन और उनकी लाचार मगर नाराज जनता दोनों के लिए यह ज्यादा अच्छा होता अगर वे तत्काल प्रभाव से खुद ही इस्तीफा दे देते और जनता को घर में जबरन डेरा जमाए अतिथि की तरह उनसे यह प्रश्न पूछना नहीं पड़ता कि मनमोहन तुम कब जाओगे?दुनिया से नहीं रे बाबा प्रधानमंत्री के गरिमामय पद से.जीओ न तुम दो सौ साल या इससे भी कई गुना ज्यादा जीओ लेकिन हमें भी तो जीने दो.
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