बुधवार, 29 अप्रैल 2015

किसानों के नाम पर राजनीति और किसानी की समस्याएँ

मित्रों,इन दिनों भारत देश की राजनीति अजीबोगरीब स्थिति से गुजर रही है। पूरा का पूरा विपक्ष एकजुट होकर किसान नाम केवलम् का जाप कर रहा है और केंद्र सरकार पर किसान विरोधी होने के आरोप लगा रहा है। जबकि वास्तविकता यह है कि आप जो पार्टियाँ विपक्ष में हैं यह उनकी ही करनी का परिणाम है कि आज किसानों को जीवन जीना कठिन और मौत को गले लगा लेना आसान लगने लगा है। आज खेती-किसानों की जो हालत है वह आज अचानक पैदा नहीं हुई बल्कि आजादी के बाद से ही धीरे-धीरे पैदा हुई,पिछले 60 सालों में पैदा हुई। केंद्र सरकार कह रही है और संसद में कह रही है कि विपक्ष हमें सुझाव दे,हम उस पर विचार करेंगे लेकिन विपक्ष सुझाव देने के बदले केंद्र के खिलाफ सिर्फ नारेबाजी किए जा रही है।
मित्रों,सवाल उठता है कि शोर-शराबे,नारेबाजी और बकवास भाषणबाजी करने से ही क्या किसानों का भला हो जाएगा? आज अमेरिका में 2 फीसदी जनसंख्या खेती-किसानी पर निर्भर है तो वहीं भारत में 65 फीसदी। आजादी के 70 साल बाद भी ये आँकड़े क्यों नहीं बदले? क्यों जो खेती आजादी के समय सबसे उत्तम व्यवसाय मानी जाती थी आज मजबूरी का पर्यायवाची बन गई है? इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं? आजादी के बाद कौन लोग और दल सत्ता में रहे? किसानों की दुरावस्था के लिए किन पार्टियों और नेताओं की नीतियाँ जिम्मेदार हैं?
मित्रों,राजनीति तो इस बात को लेकर होनी चाहिए कि किसानों की समस्याएँ क्या हैं और उनका समाधान क्या हो सकता है? लेकिन राजनीति हो रही है कि कैसे किसानों की समस्याएँ जस-की-तस बनी रहें और कैसे किसानों को बरगलाकर,उनके हितैषी होने का दिखावा करके उनके वोट प्राप्त किए जाएँ। कोई जंतर-मंतर पर किसान से फाँसी लगवाकर तालियाँ बजा रहा है तो कोई पूर्व में देश को बेचने में सबसे आगे रह चुका नेता जेनरल बोगी में यात्रा करके खुद को किसानों का सच्चा हमदर्द साबित करने में लगा हुआ है। लेकिन इस बात पर कोई भी विपक्षी दल विचार नहीं कर रहा कि किसानों की असल या मौलिक समस्याएँ क्या हैं और उनका समाधान क्या हो सकता है। तो क्या सिर्फ कोरी नारेबाजी और घड़ियाली आँसू बहानेभर से किसानों का भला हो जाएगा? हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि पिछले 60 सालों में जनसंख्या बढ़ने से किसानों के पास प्रति परिवार जोत का आकार काफी कम हो गया है,इतना कम कि उतनी जमीन से एक परिवार का पेट नहीं भरा जा सकता। राहुल गांधी कहते हैं कि भविष्य में कृषि-भूमि का मूल्य सोने का बराबर हो जाएगा। अगर ऐसा भविष्य में हो सकता है तो अब तक क्यों नहीं हुआ? क्यों 4 गुना 5 फीट की 'लोहे' की दुकान में बैठा आदमी 'सोना' हो गया और 5 बीघा सुनहरी फसलों में खड़ा किसान 'मिट्ठी' हो गया?
मित्रों,भारत के सामने इस समय दो ही रास्ते हैं। पहला यथास्थितिवाद का रास्ता है कि जैसी हालत है वैसी ही बनी रहे और दूसरा रास्ता है विकास का कि खेती पर से कैसे जनसंख्या का भार कम किया जाए। कैसे भारत को दुनिया की फैक्ट्री बनाया जाए,कैसे भारत के युवाओं को रोजगार मिले,कैसे किसानों के युवा पुत्रों को योग्यतानुसार काम मिले,कैसे खेती को लाभकारी व्यवसाय में बदला जाए,कैसे सरकार और राजनीतिज्ञों के प्रति किसानों के मन में विश्वास पैदा किया जाए जिससे वे आत्महत्या के मार्ग पर न जाएँ।
मित्रों,केंद्र सरकार सुझाव मांग रही है और पूरा भरोसा भी दे रही है कि वह विपक्ष के सुझावों पर अमल करेगी लेकिन विपक्ष है कि चाहती ही नहीं कि किसानों का भला हो,किसानी का भला हो। अच्छा होता कि विपक्ष सरकार के साथ बैठकर इस बात पर विचार करती कि अतीत में जो भी सरकारें सत्ता में रही हैं उनकी कृषि-नीतियों में कहाँ-कहाँ, कौन-कौन-सी गलतियाँ हुईं और उनका परिमार्जन किस तरह से इस प्रकार किया जाए कि कृषि फिर उत्तम खेती हो जाए,सबसे ज्यादा लाभकारी व्यवसाय हो जाए। आजादी के सत्तर साल बाद भी किसान क्यों सिंचाई के लिए बरसात पर निर्भर है? इस दिशा में केंद्र की प्रधानमंत्री सिंचाई योजना किस तरह से फायदेमंद हो सकती है या फिर इस योजना में कौन-कौन से सुधार किए जाने की आवश्यकता है? पानी का ज्यादा-से-ज्यादा संरक्षण कैसे संभव हो जिससे कि जरुरत के दिनों में पानी की कमी नहीं हो? कृषि की ऐसी कौन-सी विधियाँ हैं जिससे कम पानी में ज्यादा पैदावार प्राप्त हो सकती हैं? गांव-गांव में कृषि-आधारित उद्योगों की स्थापना कैसे हो? मृदा का संरक्षण कैसे हो और केंद्र सरकार की स्वायल हेल्थ कार्ड योजना इस दिशा में किस तरह लाभकारी सिद्ध हो सकती है? आदि-आदि। लेकिन विपक्ष सरकार के साथ खेती-किसानी की समस्याओं के समाधान में सहयोग करने की बात तो दूर ही रही साथ बैठकर समस्या पर विचार तक करने को तैयार नहीं है।
मित्रों,अगर आपने कजरारे-कजरारे वाली 'बंटी और बबली' फिल्म देखी होगी तो आपको याद होगा कि उसके एक दृश्य में बंटी अभिषेक बच्चन ताजमहल का सौदा करके एक विदेशी जोड़े को ठगता है। वो कुछ भाड़े के नेता टाईप लोगों को कुछ पैसे देता है और असली मंत्री की कार के आगे उनसे नारेबाजी करवा देता है। भाड़े के नेता नारेबाजी करते हैं कि हमारी मांगें पूरी हों चाहे जो मजबूरी हो। मंत्री कार से उतरकर पूछती है कि आपकी मांगें क्या हैं तो वे मांग नहीं बताते बल्कि वही नारा दोहराते रहते हैं कि हमारी मांगें पूरी हो चाहे जो मजबूरी है। इस बीच बंटी बबली रानी मुखर्जी को मंत्री बनाकर मंत्रालय में बैठा देता है और विदेशी जोड़े से मोटी रकम हासिल करके फरार हो जाता है।
मित्रों,कुछ ऐसा ही भाड़े के नेताओं जैसा काम इन दिनों विपक्ष कर रहा है। केंद्र सरकार कह रही है कि आपकी क्या मांगें हैं और उनका क्या समाधान हो सकता है पर आईए मिल-बैठकर विचार करते हैं लेकिन विपक्ष कुछ भी नहीं सुन रहा है और लगातार सिर्फ नारेबाजी करता जा रहा है। दरअसल विपक्ष भी बंटी और बबली फिल्म के नारेबाजों की तरह समस्या का समाधान नहीं चाहता बल्कि सरकार का मार्ग अवरूद्ध करना चाहता है,विपक्ष चाहता है कि सरकार काम नहीं कर पाए,देश का विकास नहीं कर पाए जिससे फिर से सत्ता पर उनका कब्जा हो सके,बस।

हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

राहुल जी निराश मत होईए,आपका जवाब हम देई देते हैं

मित्रों,आज कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जी काफी खुश हैं और काफी दुःखी भी। आप कहेंगे ऐसा कैसे हो सकता है तो फिर आप राहुल जी को नहीं जानते हैं। वे स्थिरबुद्धि हैं इसलिए एकसाथ ऐसा कर लेते हैं। माननीय युवराज जी इस बात से काफी खुश हैं कि उन्होंने जिन्दगी में पहली बार अच्छा भाषण किया है। वैसे यह मुगालता उनको हर बार हो जाता है जब-जब वे भाषण करते हैं लेकिन कुछ ही समय बाद दूर भी हो जाता है। खैर श्री गांधी को इस बात से भारी सदमा लगा है कि भाजपा नेतागण उनकी बातों का सही-सही जवाब नहीं दे पाए। पता नहीं उनकी दृष्टि में सही जवाब क्या हो सकता है।
मित्रों,चूँकि मुझसे श्री गांधी का दुःख देखा नहीं जा रहा है इसलिए हमने फैसला किया है कि राहुल जी की बातों और उनके सवालों का जवाब हम ही दे देते हैं। वैसे हम न तो सांसद हैं और न ही नेतारूपी अभिनेता लेकिन हमारी आदत रही है अनाधिकार चेष्टा करने की। सो हम इस बात की बिना परवाह किए कि किसी को हमारी चेष्टा से दुःख हो सकता है हम राहुल गांधी जी का दुःख दूर कर देते हैं। आखिर परोपकार भी तो कोई चीज होती है।
मित्रों,हमारे राहुल जी का कहना है कि मोदी सरकार सूट-बूटवालों की सरकार है। राहुल जी कितने बड़े पाखंडी हैं जो उनको यह पता ही नहीं है कि भारत को सबसे ज्यादा नुकसान खादी के बने सस्ते कपड़े पहननेवालों ने पहुँचाया है। उनके पिताजी के नानाजी भी खादी ही पहनते थे लेकिन उनका कपड़ा पेरिस से धुलकर आता था। आज भारत में सबसे ज्यादा कालाधन अगर किसी के पास है तो वे खादीवाले ही हैं।
मित्रों,राहुल जी ने निश्चित रूप से स्वामी विवेकानंद के संस्मरण नहीं पढ़े हैं अन्यथा वे कपड़ों की बात ही नहीं करते। हुआ यूँ था कि जब विवेकानंद जी पहली बार अमेरिका की यात्रा पर गए तो उनके गेरूए वस्त्र को देखकर अमेरिकी हँस पड़े। तब स्वामी जी ने पूरी विनम्रता के साथ अमेरिकियों से पूछा कि आपके यहाँ व्यक्ति की पहचान क्या उनके कपड़ों से निर्धारित होती है उनके कर्म से नहीं? राहुल जी को भी नरेंद्र मोदी के कपड़ों को नहीं उनके कर्मों को देखना चाहिए। नरेंद्र मोदी तो ऐसी शख्सियत हैं कि जो अपने कपड़े तक को नीलाम कर देते हैं और प्राप्त धनराशि को सरकारी खजाने में जमा कर देते हैं। नरेंद्र मोदी राहुल जी की तरह पाखंडी नहीं हैं कि खादी पहनकर चांदी के बरतन में भोजन करें या चांदी की पलंग पर सोयें बल्कि वे तो पूर्ण योगी हैं,ज्ञान योगी,कर्म योगी और राज योगी भी। साथ ही राहुल जी को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि मोदी जी के देश-विदेश में सूट पहनने से भारत को लाभ हो रहा है या हानि हो रही है? वास्तविकता तो यह है कि मोदी जी के सूट पहनने या शॉल ओढ़ने से भारत के उस वस्त्रोद्योग को बढ़ावा मिलता है जो आज भारत के सबसे ज्यादा श्रमिकों को रोजगार दे रहा है।
मित्रों,वास्तविकता तो यह है कि मनमोहन सिंह की सरकार असली सूट-बूटवालों की सरकार थी जिसमें कौन संचार मंत्री बनेगा का फैसला रतन टाटा,मुकेश अंबानी,नीरा राडिया और बरखा दत्त करते थे न कि मोदी की सरकार सूट-बूटवाली है जिसके समय सहारा श्री तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं,मुकेश अंबानी पर जुर्माना हो रहा है,वोडाफोन परेशान है,विजय माल्या बेहाल है आदि-आदि। मोदी की सरकार तो गरीबों की सरकार है जिसकी सारी नीतियाँ और कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिए हैं।
मित्रों,इसी तरह राहुल जी नितिन गडकरी के बयान को भी अपने भाषण में उद्धृत किया है लेकिन उन्होंने ऐसा करते हुए थोड़ी-सी धूर्तता भी की है। उन्होंने गडकरी जी के बयान को संदर्भ से काटकर पेश किया है। गडकरी जी ने न सिर्फ यह कहा था कि किसानों की मदद न तो सरकार ही कर सकती है और न तो भगवान ही बल्कि यह भी कहा था कि उनकी सरकार चाहती है कि किसानों आर्थिक रूप से इतने सक्षम हो जाएँ कि उनको न तो भगवान और न ही सरकार का आसरा ही करना पड़े बल्कि वे हर तरह की क्षति को खुद अपने बल पर झेल सकें। राहुल जी क्या बताएंगे कि गडकरी जी ने क्या गलत कहा था? आज किसान अगर फसल खराब होने पर आत्महत्या करने को बाध्य हो रहे हैं तो यह कोई 14 महीने में पैदा हुई स्थिति नहीं है बल्कि 70 सालों में किसानों को इतना विपन्न बना दिया गया है कि उनको अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा है। 70 साल पहले कहा जाता था उत्तम खेती,मध्यम बान,अधम चाकरी भीख निदान। क्यों आज यह कहावत उल्टी हो गई है? क्यों आज भी किसान सिंचाई के लिए रामभरोसे है? क्यों आज किसान खेती करना नहीं चाहता? क्या 14 महीने पहले किसानों की स्थिति अच्छी थी? गुजरात के किसानों की जमीन अगर मोदी सरकार ने जबरन छीना था तो वहाँ के किसानों ने कभी विरोध क्यों नहीं किया? कल की राहुल की रैली में कितने ऐसे किसान थे जो गुजरात से आए थे? गुजरात के किसानों की स्थिति बाँकी राज्यों के किसानों से अच्छी क्यों है?
मित्रों,क्या राहुल जी यह नहीं जानते हैं कि कृषि राज्य सूची का विषय है? किस किसान की कितनी फसल खराब हुई इसका सर्वेक्षण करवाना संवैधानिक रूप से किसका काम है केंद्र की सरकार का या राज्य की सरकार का? केंद्र सरकार तो बार-बार राज्य सरकारों से इस बारे में विस्तृत रिपोर्ट मांग रही है। अगर राज्य सरकारें इस काम को गंभीरता से नहीं ले रही हैं तो इसके लिए दोषी कौन है राज्य सरकार या नरेंद्र मोदी? हाँ,अगर राज्य सरकार की रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार मुआवजा नहीं देती है तो जरूर वह दोषी होगी लेकिन केंद्र तो पैसे राज्य सरकारों को ही दे सकती है। फिर भी बाँटना तो राज्यों की सरकारों को ही है। अगर बाँटने में भ्रष्टाचार होता है और मुआवजे को तंत्र सोख जाता है तो फिर दोषी कौन होगी राज्य की या केंद्र की सरकार?
मित्रों,हमारे राहुल जी को इस बात का भी दुःख है कि मोदीजी किसानों से मिलने नहीं गए। क्या किसानों का भला करने के लिए सिर्फ उनसे मिल लेना ही काफी होगा? हमारा उद्देश्य किसानों से मिलना होना चाहिए या उनके दुःखों का निवारण करना? क्या उनकी समस्याओं को उनके खेतों में गए बिना दूर नहीं किया जा सकता है? अगर नहीं तो पिछले 70 सालों में किसानों की हालत दिन-ब-दिन खराब क्यों होती चली गई जबकि 65 सालों तक कांग्रेस या कांग्रेस के समर्थन से बनी सरकार केंद्र में सत्ता में थी? क्या राहुल जी द्वारा लीलावती-कलावती की झोपड़ी में रात गुजारने से देश की गरीबी दूर हो गई? क्या राहुलजी बताएंगे कि आजादी के 70 साल बाद भी अगर भारत की 65 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है तो इसके लिए कौन सबसे ज्यादा जिम्मेदार है? भारत के कृषि मंत्री आसमानी आपदा के आने के बाद से ही प्रत्येक राज्य का दौरा कर रहे हैं। राज्यों के मुख्यमंत्रियों,मंत्रियों और अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे हैं। भारत के गृहमंत्री खेतों में जाकर स्वयं बालियों से दानों को निकालकर देख रहे हैं। क्या पीएम को उन्होंने अपनी रिपोर्ट नहीं दी होगी? फिर मोदी जी को हर खेत पर जाने की क्या आवश्यकता है? क्या पीएम के हर खेत का दौरा कर लेने मात्र से ही किसानों की समस्त समस्याओं का समाधान हो जाएगा? या इसके लिए इस तरह की योजनाएँ बनानी पड़ेंगी या संजीदगी से लागू करनी पड़ेगी कि खेती फिर से गुलाम भारत की तरह भारत का सबसे उत्तम व्यवसाय हो जाए? और हम समझते हैं कि मोदी सरकार इसी दिशा में काम भी कर रही है।
मित्रों,सत्ता और विपक्ष में से कौन किसानों की तरफ है और कौन वाड्रा की तरफ यह राहुल जी को बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। आँकड़े गवाह हैं कि किसानों की सबसे ज्यादा जमीन पिछले दिनों हरियाणा में कांग्रेस की सरकार ने ही छीनी है। जमीन का अधिग्रहण होने बाद भी जमीन का मालिकाना हक सरकार के पास ही रहेगा न कि उद्योगपतियों के पास। किसानों और गरीबों के नाम की माला जपते-जपते मुँह में राम बगल में छुरी को चरितार्थ करनेवाले कांग्रेसियों ने किसानों और गरीबों की हालत कितनी चिंताजनक बना दी यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। मोदी जी ने पहली बार किसानों की मूल समस्या को पकड़ा है और वह है सिंचाई के साधन नहीं होना और फसल का उचित मूल्य नहीं मिलना। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री सिंचाई योजना शुरू की है और कहा है कि हम किसानों को उसकी लागत से ड्योढ़ा दाम देंगे।
मित्रों,राहुल जी और पूरा विपक्ष परेशान है कि मोदी इतनी विदेश-यात्रा क्यों करते हैं तो उनको पता होना चाहिए कि मोदी विदेश भी गए थे तो देश के लिए ही न कि छुट्टियाँ मनाने या गुप्त-यात्रा पर गए थे।

मित्रों,लगता है कि राहुलजी ने अभी तक नरेंद्र मोदी को पीएम के रूप में स्वीकार नहीं किया है तभी तो वे कभी मनमोहन सिंह को पीएम कह जाते हैं तो कभी कहते हैं कि आपके पीएम जबकि उनको कहना चाहिए था हमारे पीएम,देश के पीएम।
मित्रों,हम अंत में राहुल जी को बता देते हैं कि मोदी सरकार ने पिछली बार लोकसभा में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में कौन-कौन से परिवर्तन किया था हो सकता है कि वे अपने थाईलैंड प्रवास के दौरान उनको पढ़ने का समय नहीं मिला होगा-
01. खेती योग्य जमीन दायरे में नहीं
मोदी सरकार ने पहले संशोधन में खेती योग्य भूमि को अधिग्रहित करने का भी प्रस्ताव शामिल किया था। लेकिन अब लोकसभा में लाए गए बिल में संशोधन कर दिया गया है। अब बहुफसली भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। साथ ही इंडस्ट्रियल कॉरीडोर के लिए सीमित जमीन लिए जाने का फैसला लिया गया है। इससे किसानों के एक बड़े वर्ग को राहत मिलेगी।
02. मंजूरी जरूरी
भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के मुताबिक अधिग्रहण के लिए 80 फीसदी किसानों की मंजूरी का प्रावधान था। उसे मोदी सरकार ने नए संशोधन में खत्म कर दिया था लेकिन अब लोकसभा में पास किए गए बिल के मुताबिक सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए होने वाले अधिग्रहण में किसानों की मंजूरी भी जरूरी होगी। इसी तरह से आदिवासी क्षेत्रों में अधिग्रहण के लिए पंचायत की सहमति जरूरी होगी।
03. अपील का अधिकार
मोदी सरकार ने 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में शामिल अपील के अधिकार को खत्म कर दिया था। पर अब संशोधन के बाद आए बिल में किसानों को अपील का अधिकार वापस मिल गया है। अब वे अधिग्रहण के किसी भी मामले में अपील कर सकेंगे। इससे उनके अधिकारों की सुरक्षा को बल मिलेगा।
04. मिलेगी नौकरी
पहले चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून में प्रभावित किसानों को मुआवजा देने का प्रावधान था लेकिन किसी को नौकरी नहीं दी जाती थी। संशोधन के बाद लोकसभा में पास हुए बिल में प्रभावित परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी दिए जाने का प्रावधान किया गया है।
05. इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के लिए अधिग्रहण
भूमि अधिग्रहण बिल में शामिल किए गए एक प्रावधान से रेलवे ट्रेक और हाइवे के एक किलोमीटर दायरे में रहने वालों को परेशानी हो सकती है। सरकार ने फैसला कर लिया है कि इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के लिए अब रेलवे ट्रैक और हाईवे के दोनों तरफ एक किलोमीटर तक की जमीन का अधिग्रहण किया जा सकता है। संशोधित भूमि अधिग्रहण बिल के मुताबिक बंजर जमीनों के लिए अलग से रिकॉर्ड रखा जाएगा।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 19 अप्रैल 2015

भारतीय नेताओं का निजी जीवन और देशहित

मित्रों,वैसे तो हर व्यक्ति को निजता का मौलिक अधिकार होता है लेकिन जब व्यक्ति सार्वजनिक जीवन से जुड़ा हुआ हो और उसकी ऐय्याशी व रंगरेलियों की वजह से देश-प्रदेश का हित प्रभावित होता हो तब जनता को अधिकार होना चाहिए यह जानने का कि उसका नेता कैसा है और क्या कर रहा है। पंडित नेहरू से लेकर नीतीश कुमार तक के बारे में समय-समय पर कई तरह की अंदरखाने की बातें बाहर आती रही हैं जिससे भारत की जनता को शक होता रहता है कि कहीं इन नेताओं ने भी मुगल बादशाह जहाँगीर की तरह शराब,कबाब और शबाब के बदले हिन्दुस्तान को नूरजहाँ के पास गिरवी तो नहीं रख दिया था या दिया है या फिर पैसों के बदले बेच तो नहीं दिया या फिर पैसों के बदले बेच तो नहीं दिया।
मित्रों,सवाल उठानेवाले लोग तो भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दाम्पत्य जीवन को लेकर भी सवाल उठाते रहे हैं लेकिन नरेंद्र मोदी तो काफी पहले से ही संन्यासी हैं। हाँ यह बात जरूर है कि अगर उनको संन्यास ही लेना था तो फिर उन्होंने शादी क्यों की? क्यों एक अबला का जीवन बर्बाद किया? हाँ यह भी सही है कि अभी तक नरेंद्र मोदी के ऊपर विवाहेतर संबंध जैसा कोई आरोप नहीं है जो यह दर्शाता है कि मोदी पूरी निष्ठा के साथ संन्यास के नियमों का पालन कर रहे हैं।
मित्रों,अब कांग्रेस के कुछ वर्तमान नेताओं को देखिए जैसे कि अभिषेक मनु सिंघवी,दिग्विजय सिंह आदि। लगता है जैसे इन लोगों का चरित्र शब्द से ही कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसी तरह हमारे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी के बारे में भी कई-कई तरह की बातें हवाओं में तैरती रहती हैं। नीतीश जी का दाम्पत्य जीवन भी बड़ा रहस्यमय रहा है। उनके बड़े भैया लालू जी की पत्नी ने तो एक बार खुलेआम मंच पर से ही बिहार के सड़क निर्माण मंत्री ललन सिंह को उनका साला बता दिया था जबकि दरअसल में ललन सिंह जी नीतीश जी के साले तो क्या जाति-बिरादरी के भी नहीं हैं। इसी तरह से पिछले साल लालू जी के लाड़ले तेजस्वी यादव जी का भी एक बेहद कामुक फोटो फेसबुक पर वाइरल हो गया था। कहा तो यह भी जाता है कि यह तस्वीर किसी और ने नहीं बल्कि उनके मामाश्री सुभाष जी ने ही खींची थी।
मित्रों,कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी यूपीए की सरकार के समय बराबर विदेश की गुप्त-यात्राएँ किया करती थीं और मीडिया को निजता की दुहाई देती रहती थीं। अभी राहुल जी दो महीने तक गुप्त रहने के बाद प्रकट हुए हैं। इन दो महीनों में वे कहाँ-कहाँ रहे और क्या-क्या किया यह देश की जनता को क्यों नहीं जानना चाहिए? अगर सबकुछ गुप्त ही रखना था तो फिर सार्वजनिक जीवन में आना ही नहीं चाहिए था। आखिर ऐसी कौन-सी बात है जिसको वे और उनकी माँ जनता के साथ साझा नहीं करना चाहते? कहीं उनलोगों ने गुप्त-यात्राओं के दौरान कोई ऐसा काम तो नहीं किया जिससे भारत के दूरगामी या अल्पकालिक हितों को नुकसान होता हो? अगर आपको जनता का मत चाहिए,अगर आप चाहते हैं कि जनता आपके हाथों में देश या प्रदेश की बागडोर सौंप दे तो फिर जनता को निश्चित रूप से यह जानने का अधिकार भी है कि आप क्या हैं,आपका चरित्र कैसा है? ऐसा हरगिज नहीं चलेगा कि पानी में तैरते हुए बर्फ की तरह आपके व्यक्तित्व का दसवाँ हिस्सा ही आँखों के आगे हो। आखिर आज भी भारत कश्मीर और अरूणाचल में नेहरू की गलतियों का नतीजा ही तो भुगत रहा है। उसी नेहरू की गलतियों का जिनके कथित रूप से लेडी माउंटबेटन से अंतरंग संबंध थे और ऐसा दावा सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि माउंटबेटन की बेटी भी कर रही है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

नमो की शॉल और प्रेस्टीच्यूट्स

मित्रों, पिछले कुछ दिनों से इंटरनेट पर जनरल वीके सिंह द्वारा मीडिया के एक हिस्से को प्रेस्टीच्यूट्स कहे जाने का विवाद छाया हुआ है। भारतीय मीडिया का एक हिस्सा इस बात को लेकर मुँह फुलाये बैठा है कि उनकी तुलना प्रौस्टीच्यूट्स यानि वेश्याओं के साथ क्यों कर दी गई। जाहिर है कि जनरल साहब को ऐसा नहीं करना चाहिए था बल्कि बिकाऊ मीडिया की तुलना तो किसी जानवर के साथ करनी चाहिए थी।
मित्रों,वेश्या तो सिर्फ शरीर का सौदा करती हैं यह बिकाऊ मीडिया तो रोजाना अपने ईमान का सौदा करती है। इनकी हालत तो कुत्तों जैसी है जो रोटी को देखते ही मुँह से लार टपकाने लगते हैं। इन प्रेस्टीच्यूट्स की आमदनी का आप हिसाब ही नहीं लगा सकते हैं। इनका वेतन होता तो हजारों और लाखों में होता है लेकिन इनकी वास्तविक आय करोड़ों में होती है। वरना क्या कारण है कि किसी पत्रकार के पास दिल्ली में करोड़ों की कोठी है तो किसी के पास नोएडा में अपना मॉल है?
मित्रों,अभी जब भारत के पीएम नरेंद्र मोदी फ्रांस गए थे तो उन्होंने एक शॉल ओढ़ रखी थी जिस पर कथित रूप से N M लिखा हुआ था।

https://twitter.com/sagarikaghose/status/587161033845800960

महान पत्रकार सागरिका घोष ने बिना सोंचे-समझे,बिना किसी प्रमाण के नमो पर यह आरोप लगा दिया कि उनके द्वारा ओढ़ी गई यह शॉल लुईस व्हिटन कंपनी द्वारा बनाई गई थी जबकि लुईस व्हिटन का कहना है कि वो ऐसे शॉल तो बनाती ही नहीं है।

https://twitter.com/search?q=sagrika%20ghose&src=tyah

इसी तरह बिकाऊ मीडिया ने नरेंद्र मोदी के शूट को लेकर भी अफवाह उड़ाई थी और बाद में बिना विलंब किए माफी भी मांग ली थी। लोकसभा चुनावों के समय इसी बिकाऊ मीडिया का एक चैनल एक नेता को जबर्दस्ती क्रांतिकारी,बहुत ही क्रांतिकारी साबित करने पर तुला हुआ था। हद है बेहयाई की कि पहले कुछ भी बोल दीजिए और जब वह झूठ साबित हो जाए तो बेरूखी के साथ माफी मांग लीजिए।

https://twitter.com/sagarikaghose/status/587189427065135104

मित्रों,कहने का तात्पर्य यह है कि कांग्रेस-राज में जमकर मलाई चाभनेवाली बिकाऊ मीडिया ने बार-बार की फजीहत के बाद भी हार नहीं मानी है और अभी भी बेवजह के विवाद पैदा करने की कोशिश करती रहती है। आपको याद होगा कि मनमोहन सिंह की सरकार ने इस दलाल मीडिया का वर्चस्व इस कदर बढ़ा हुआ था कि नीरा राडिया और बरखा दत्त मंत्रियों की सूची तक बनाने में दखल रखते थे और नरेंद्र मोदी की सरकार आते ही इनलोगों के ऐसे बुरे दिन आ गए कि अब जब पीएम विदेश जाते हैं तो इन लोगों को अपनी जेब से भाड़ा लगाकर समाचार कवर करने जाना पड़ता है। ऐसे लोगों का देशहित से भी पहले भी कुछ भी लेना-देना नहीं था और आज भी नहीं है बल्कि इनके लिए तो अपना स्वार्थ ही सबकुछ है। इस बिकाऊ मीडिया को आज भी इस बात का भ्रम है कि वह जो कुछ भी कह या दिखा देगी देश की जनता उसको आँखें बंद करके सच मान लेगा। जबकि सच्चाई तो यह है कि आज की सबसे शक्तिशाली मीडिया न तो प्रिंट मीडिया है और न ही इलेक्ट्रानिक मीडिया बल्कि सोशल मीडिया है। एक ऐसा प्लेटफॉर्म जहाँ न तो कोई बड़ा है और न ही कोई छोटा,सब बराबर हैं। एक ऐसा पात्र है जो पलभर में दूध को दूध और पानी को पानी कर देता है। इसलिए अच्छा हो कि प्रेस्टीच्यूट्स जल्दी ही सही रास्ते पर आ जाएँ और फिजूल की अफवाहें फैलाना बंद कर दे नहीं तो यकीनन उनकी हालत ऐसी हो जाएगी कि वे सच भी बोलेंगे तो लोग उसे झूठ समझेंगे। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

मेक इन इंडिया में बाधक बना विपक्ष

मित्रों,यह गहन चिंतन का विषय है कि राजनीति को किसके लिए होनी चाहिए। राजनीति अगर सिर्फ राज के लिए की जाती है तो वह राजनीति है ही नहीं बल्कि राजनीति राज्य के लिय,राज्य की भलाई के लिए की जानी चाहिए। परन्तु आदर्श और यथार्थ में हमेशा एक फर्क होता है,फासला होता है और इस फासले को इन दिनों आसानी से देखा जा सकता है भारत की केंद्रीय राजनीति में विपक्ष की भूमिका निभा रही राजनैतिक पार्टियों की कथनी और करनी में।
मित्रों,लगभग सारी विपक्षी पार्टियाँ बात तो जनता की भलाई की कर रही हैं लेकिन काम कर रही हैं जनता और देश को नुकसान पहुँचाने का। चाहे किसी भी तरह का उद्यम या उद्योग हो उसके लिए सबसे जरूरी होती है जमीन। केंद्र सरकार 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में जरूरी बदलाव करना चाहती है क्योंकि इस कानून ने भूमि अधिग्रहण को लगभग असंभव ही बना दिया है। केंद्र सरकार चाहती है कि कानून में कुछ ऐसे सुधार किए जाएँ जिससे न तो किसानों को ही क्षति हो या न तो किसानों के साथ ही जबर्दस्ती हो और न ही राज्य के लिए उद्योगादि की स्थापना के लिए जमीन प्राप्त करना असंभव ही हो जाए।
मित्रों,कल अगर केंद्र सरकार देश की 65 प्रतिशत युवा आबादी को रोजगार देने में विफल रहती है तो यही विपक्ष शोर मचाएगा कि केंद्र वादे को पूरा नहीं कर पाया। क्या विपक्ष बताएगा कि बिना जमीन के उद्योग कहाँ खुलेंगे? क्या विपक्ष बताएगा कि अगर उद्योग नहीं खुलेंगे तो देश के बेरोजगार युवाओं को रोजगार कैसे मिलेगा? क्या विपक्ष के पास इसके लिए कोई वैकल्पिक योजना है? अगर विपक्ष के पास ऐसी कोई वैकल्पिक योजना नहीं है तो फिर उच्च सदन राज्यसभा को हथियार बनाकर भूमि अधिग्रहण बिल को रोकने का क्या औचित्य है? राज्यसभा का गठन तो इस उद्देश्य से किया गया था कि अगर लोकसभा से कोई गलती हो जाती है तो उसमें सुधार किया जा सके लेकिन जिस तरह से विपक्ष राज्यसभा में अपने बहुमत का देशहित के विरूद्ध दुरूपयोग कर रहा है उसने तो राज्यसभा के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। जबकि आज पूरी दुनिया की शक्तियाँ भारत के मेक इन इंडिया में अपना अहम योगदान देने को तत्पर हैं यह विडंबनापूर्ण है कि भारत का विपक्ष इसमें रोड़े अँटका रहा है। कल अगर विपक्षी पार्टियों द्वारा शासित राज्यों में देसी-विदेशी पूंजी का निवेश नहीं होता है यही विपक्ष कहेगा कि मेक इन इंडिया का लाभ उनको जानबूझकर नहीं मिलने दिया गया। बिहार का ही उदाहरण अगर लें तो दीघा रेल सह सड़क पुल के लिए एप्रोच पथ के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण हो रही देरी के लिए स्वयं पीएम को राज्य के मुख्य सचिव से बात करनी पड़ रही है। पुल बनकर तैयार है लेकिन एप्रोच पथ नहीं बन पाने के कारण चालू नहीं हो पा रहा है। जब सुशासन बाबू की सरकार सड़क के लिए ही जमीन नहीं जुटा पा रही है तो फिर बिना उचित भूमि अधिग्रहण बिल के उद्योग के लिए कहाँ से हजारों-लाखों एकड़ जमीन लाएगी।
मित्रों,चाहे पक्ष हो या विपक्ष सबके लिए इंडिया फर्स्ट मूल मंत्र होना चाहिए लेकिन ऐसा परिलक्षित हो रहा है कि विपक्ष के लिए इंडिया प्राथमिकता सूची में कहीं है ही नहीं। उसको तो बस मोदी को नीचा दिखाना है,पराजित होते देखना है भले ही इससे देश को कितनी ही क्षति क्यों न उठानी पड़े। मगर ऐसा करते हुए विपक्ष को यह जरूर सोंचना चाहिए कि आज के युग में पब्लिक को बरगलाना आसान नहीं रह गया है। आज की जनता सब जानती है,सब समझती है,सब देखती है। आगे बिहार में विधानसभा चुनाव होना है और बिहार की जनता अपनी देशभक्ति और राजनैतिक-विवेक के लिए पूरी दुनिया में जानी जाती है। बिहार की जनता को यह पता है कि मोदी सरकार को अगर राज्यसभा में बहुमत दिलवाना है तो उनको राज्य में ज्यादा-से-ज्यादा सींटें जीतकर भाजपा को देनी होगी। ऐसे में कहीं ऐसा न हो कि निकट-भविष्य में आनेवाले विधानसभा चुनावों में हारते-हारते विपक्ष का राज्यसभा से भी सूपड़ा साफ हो जाए। आखिर नकारात्मक और घोर स्वहितकारी राजनीति का यही परिणाम होता है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)