बुधवार, 28 मई 2014

70 सालों तक विद्वानों के शिक्षा मंत्री रहते हुए भी देश में शिक्षा की स्थिति बुरी क्यों है?

28 मई,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,इन दिनों देश में बेवजह की बहस छिड़ी हुई है। बहस इस बात को लेकर चल रही है कि भारत के प्रधानमंत्री को एक इंटर पास महिला को भारत का शिक्षा मंत्री नहीं बनाना चाहिए था। लगता है जैसे स्मृति ईरानी को पढ़ाई का इंतजाम नहीं करना है बल्कि किसी विश्वविद्यालय में जाकर पढ़ाना है। मेरे चाचा बिल्कुल अनपढ़ हैं लेकिन किसी इंतजाम में लगा दीजिए तो वो ऐसा इंतजाम करते हैं कि जैसा कोई पीएचडी भी नहीं कर सकता। मेरे एक चचेरे दादाजी जो काफी कम पढ़े-लिखे थे शकुंतला देवी से भी ज्यादा तेजी में गणित की बड़ी-बड़ी गणनाओं को संपन्न कर दिया करते थे।
मित्रों,पिछले 70 सालों में भारत में एक-से-एक विद्वान इस पद को सुशोभित कर चुके हैं लेकिन फिर भी भारत में शिक्षा की स्थिति दयनीय है। क्या स्मृति जी की योग्यता पर सवाल उठानेवाले बंधु बता सकते हैं कि ऐसा क्यों है? क्या शिक्षा मंत्री बनने के लिए विदेश से हाई डिग्रीधारी बेईमान या चोर होना जरूरी है?  पिछले 5 सालों में कपिल सिब्बल ने शिक्षा के क्षेत्र को क्या दिया है सिर्फ शिक्षा के अधिकार के नामवाला कागजी अधिकार देने के सिवाय? ऐसे पढ़े-लिखे धूर्त से तो स्मृतिजी बेहतर ही हैं। वे पूरी तरह से अनपढ़ तो हैं नहीं कि हिन्दी और अंग्रेजी फाइलों को समझ ही नहीं पाएं। तीव्र प्रतिउत्पन्नमतित्व से संपन्न हैं,मेहनती हैं,देशभक्त और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे ईमानदार भी हैं। उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा है इसलिए वे हर तरह की चुनौतियों से बेहतर निपट सकती हैं।
मित्रों,अगर हम मुगल काल के इतिहास में झाँके तो हम पाते हैं कि इस काल में दो बड़े बादशाह हुए अकबर और औरंगजेब। अकबर पूरी तरह से अनपढ़ था फिर भी इतना सफल शासक साबित हुआ कि इतिहास ने उसे अकबर महान के विशेषण से विभूषित कर दिया। दूसरी तरफ औरंगजेब महाविद्वान था लेकिन वह उतना ही असफल सिद्ध हुआ। उसकी अव्यावहारिक नीतियों ने मुगल सल्तनत की चूलें हिला दीं। इसी तरह आज जिन कबीर के लिखे दोहों और साखियों को एमए तक में पढ़ा-पढ़ाया जाता है वे पूरी तरह से अनपढ़ थे। इसी तरह सत्य यह भी है कि मानव इतिहास के सबसे बड़े वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने कभी स्कूली शिक्षा ली ही नहीं थी और उनका दिमाग आज भी रिसर्च के लिए संभालकर रखा गया है। इसी तरह महाकवि महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जिनकी कविता राम की शक्ति पूजा को विश्व साहित्य में अद्वितीय स्थान प्राप्त है और जिन्होंने विवेकानंद साहित्य का अंग्रेजी से हिन्दी में अभूतपूर्व अनुवाद भी किया है और जिनके ऊपर लाखों बच्चे शोध कर चुके हैं मैट्रिक पास भी नहीं थे। इतना ही नहीं आधुनिक युग के एकमात्र हिन्दी महाकाव्य कामायनी के रचयिता जयशंकर प्रसाद भी नन मैट्रिक थे। इसी तरह हिन्दी सिनेमा के शो-मैन राजकपूर भी नन मैट्रिक थे।
मित्रों,क्या अब भी वे भाई लोग यही कहेंगे कि प्रतिभा डिग्री की मोहताज होती है? फिर अपने देश में तो डिग्रियाँ बिकती भी हैं। कई पीएचडी धारक एक आवेदन तक नहीं लिख पाते। ज्यादा पढ़े-लिखे तो हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नहीं हैं तो क्या वे मनमोहन सिंह जी से कम योग्य हैं? मनमोहन सिंह विदेश से पीएचडी प्राप्त व्यक्ति थे उन्होंने देश को क्या दिया? अगर डिग्री ही सबकुछ होता है तब तो भारत के तमाम आईआईएम को नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के इंतजामों का अध्ययन करने के लिए उनके पीछे नहीं भागना चाहिए था। फिर वे भाग क्यों रहे हैं? पिछले दो दिनों में मोदी ने जितना अच्छा काम किया है,एक ही दिन में उन्होंने जिस तरह नौ-नौ राष्ट्राध्यक्षों से वार्ता की क्या उसके लिए जरूरी योग्यता को किताबों को पढ़कर प्राप्त किया जा सकता है? क्या कोई हार्वर्ड का पीएचडी धारी निराला,कबीर,आइंस्टीन,प्रसाद बन सकता है? लाल बहादुर शास्त्री ने तो विदेश में पढ़ाई नहीं की थी फिर उन्होंने अपने दो सालों के छोटे से शासन ने भारत को वह सब कैसे दे दिया जो विदेश में पढ़े नेहरू 17 साल में भी नहीं दे सके।
मित्रों,इसलिए सवा सौ करोड़ भारतीय से विनम्र निवेदन है कि वे कृपया इस तरह का बेवजह का शरारतपूर्ण विवाद खड़ा नहीं करें। हमने कांग्रेस के महायोग्य मंत्रियों की महायोग्यता को पिछले 8 सालों तक देखा है और झेला है। कौन-सा मंत्री योग्य है और कौन-सा अयोग्य इसका निर्णय जनता पर छोड़िए और उनको चैन से 60 महीने तक काम करने दीजिए। जनता 60 महीने बाद खुद ही उनकी योग्यता पर अपना फैसला सुना देगी ठीक वैसे ही जैसे आपलोगों के बारे में सुनाया है और आपलोगों को मुख्य विपक्षी दल का दर्जा पाने के लायक भी नहीं समझा है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 20 मई 2014

करारी हार के बावजूद जनता के संदेश को नहीं समझ पा रहा विपक्ष

20 मई,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बात चाहे खेल की हो या राजनीति की जब भी कोई टीम या पार्टी हारती है तो उससे यही अपेक्षा की जाती है कि वह हार के कारणों की समीक्षा करेगी और कारणों को समझकर उसे दूर करने के प्रयास करेगी। मगर लगता है कि हमारे देश की विपक्षी पार्टियाँ करारी हार के बावजूद यह समझ नहीं पा रही है या फिर समझना चाहती ही नहीं है कि जनता ने मतदान द्वारा क्या संदेश दिया है। अगर वे इसी तरह से नादानी करते रहे तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर निकट-भविष्य में विधानसभा चुनावों में भी उनको सिर्फ पराजय और निराशा ही हाथ लगे।
मित्रों,कांग्रेस पार्टी का कहना है कि उसकी नीतियाँ तो अच्छी थीं लेकिन भाजपा ने दस हजार करोड़ के प्रचार-बजट से उनको मात दे दी। पता नहीं कांग्रेस वो कौन-सी नीति की बात कर रही है जो अच्छी थीं। क्या उनकी कोयला नीति सही थी,स्पेक्ट्रम नीति अच्छी थी,रक्षा खरीद नीति बेहतरीन थी? वे आजादी के 70 साल बाद आधी रोटी और पूरी रोटी की बात करते हैं और फिर भी अपनी नीतियों पर शर्मिंदा नहीं होते जबकि 70 सालों में 60 सालों तक उनका ही शासन रहा है। उन्होंने सूचना का अधिकार तो दे दिया लेकिन सूचनाएँ दी क्या? जब भी किसी ने राबर्ट वाड्रा से संबंधित जानकारी मांगी तो बहाना करके टाल दिया। लोग इस अपीलीय अधिकारी से उस अपीलीय अधिकारी के यहाँ चक्कर काटते रहते हैं लेकिन राज्य सरकारों का तंत्र सूचना नहीं देता। फिर कैसा सूचना का अधिकार,कौन सा सूचना का अधिकार? केंद्र में शिक्षा का अधिकार तो कागज पर दे दिया लेकिन देश के किसी भी गरीब-भुक्खड़ के बच्चों को इससे कोई लाभ हुआ क्या? फिर यह कैसा अधिकार है जो वास्तव में है ही नहीं?! भारत की जनता को केंद्र सरकार द्वारा भिखारी मान लिया जाना क्या अच्छी नीति कही जा सकती है? यह मुफ्त वह मुफ्त लेकिन रोजगार नहीं देंगे। केंद्र सरकार ने महंगाई को नियंत्रित करने के लिए क्या किया? कौन-सी नीति अपनाई? क्या देश को जानलेवा महंगाई की आग में झोंक देना उसकी अच्छी नीति थी? कल जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक थी तो उम्मीद की जा रही थी कि उसमें हार के कारणों की गहराई और विस्तार से समीक्षा की जाएगी और जरूरी कदम उठाएंगे। मगर हुआ क्या माँ-बेटे ने इस्तीफा दिया,कार्यसमिति ने पूर्वलिखित नाटक की तरह नामंजूर कर दिया और कर्त्तव्यों की इतिश्री हो गई।
मित्रों,हमारे विपक्षी दल अभी भी एक-दूसरे के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ने में लगे हैं और अपने गिरेबान में झाँक नहीं रहे हैं। समाजवादी पार्टी कहती है कि हम कांग्रेस के कारण हारे जबकि जबसे यह पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई है तबसे उसने ऐसा कोई भी एक काम नहीं किया है जिससे जनता को अपनी सरकार पर गर्व हो। अभी कल ही उसके मंत्री आजम खान आधी रात में अपने गुर्गों को छुड़वाने के लिए रामपुर जिले के अजीमनगर थाने पर जा धमकते हैं। उनके पूरे गृह जिले रामपुर में किसान नलकूपों को बिजली नहीं मिलने से परेशान हैं मगर उनकी समस्याओं की ओर मंत्रीजी की निगाह नहीं जाती उनका पूरा ध्यान अपने गुंडों को बचाने पर रहता है। पार्टी की बैठक में जनता की समस्याओं और उनके विकास पर चर्चा नहीं होती बल्कि इस बात पर बहस की जाती है कि किस जाति और धर्म के कितने लोगों ने हमें वोट दिया और कितनों ने नहीं दिया मगर लखनऊ में पानी किल्लत पर कोई बात नहीं होती।
मित्रों,अपने को प्रधानमंत्री का सबसे सुटेबल उम्मीदवार माननेवाले नीतीश कुमार की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। उनको लगता है कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाने से बेहतर है पद से इस्तीफा दे देना। क्या यह अस्पृश्यता नहीं है? नीतीश जी मानते हैं कि महादलित को मुख्यमंत्री बना देने मात्र से महादलितों की जिन्दगी बदल जाएगी और वे फिर से उनके पाले में आ जाएंगे। क्या महादलितों का विकास सिर्फ एक महादलित ही कर सकता है? क्या उनका दर्द सिर्फ एक महादलित ही समझ सकता है? क्या ईमानदारी और योग्यता की कोई कीमत नहीं होती सबकुछ जाति ही होती है? अगर अभी  भी नीतीश ऐसा ही समझते हैं तो वे निश्चित रूप से फिर से मुँह की खानेवाले हैं। दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र को जाति नहीं विकास चाहिए,रोजगार चाहिए। चुनाव परिणामों ने आसमान में एक ईबारत लिख दी है कि जाति और संप्रदाय के नाम पर बाँटकर वोट पाने के दिन अब लद गए। समाप्त हो गया वह युग जब जनता के बीच पैसे और सामान बाँटकर वोट बटोर लिया जाता था। वीत गया वह समय जब जनता नंगी-भूखी रहकर भी किसी खास राजनैतिक परिवार के लिए जान तक देने को तैयार रहती थी। उस कालखंड का भी अंत हो गया जब चुनाव-दर-चुनाव एक ही वादा कर करके पार्टियाँ चुनाव जीत जाया करती थी। अच्छा होगा कि हमारे विपक्षी दल इस नए जमाने की नई तरह की राजनीति को यथाशीघ्र समझ लें और उसके अनुसार अपने आपको ढाल लें नहीं तो जनता तो उनको अप्रासंगिक बना ही देगी।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 18 मई 2014

देवा रे देवा नीतीश कुमार की इतनी हेराफेरी!

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कल न जाने क्यों 3 बजे दोपहर में मेरे मोहल्ले की बिजली चली गई और आई तो साढ़े चार बज रहे थे। इसी बीच मुझे फेसबुकिया दोस्तों से मालूम हुआ कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया है। यकीन ही नहीं हुआ लेकिन जब इंटरनेट पर ढूंढ़ा तो पता चला कि यही सच है। फिर 5 बजे नीतीश कुमार ने संवाददाता सम्मेलन किया और कहा कि हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए वे इस्तीफा देते हैं। उन्होंने जनता के विवेक पर प्रश्न-चिन्ह लगाते हुए कहा कि बिहार में मतदान सांप्रदाय़िक ध्रुवीकरण के आधार पर हुआ है जिससे वे क्षुब्ध हैं। उन्होंने यह भी बताया कि कल 4 बजे शाम में जदयू विधायक दल की बैठक होगी। मन में कई तरह के कयास जन्म लेने लगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जिसने बिहार के मुख्यमंत्री को इस्तीफी देने पर मजबूर कर दिया क्योंकि मैं नहीं मानता कि इन कथित नमाजवादियों के पास थोड़ी-सी भी नैतिकता बची हुई है जिसके आधार पर ये इस्तीफा दें। तभी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडे टीवी पर प्रकट हुए और नीतीश के पद-त्याग को कोरा नाटक करार दे दिया। झारखंड भाजपा नेता सीपी सिंह ने तो कह भी दिया कि इनके पास नैतिकता है ही नहीं तो फिर ये कैसे नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे सकते हैं।
मित्रों,इसके बाद टीवी पर दिखाई दिए जदयू के ऱाष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव और दावा कर गए कि कल उनके फैसलों से सभी चौंक जाएंगे। साथ ही उन्होंने कथित धर्मनिरपेक्षता की प्राण-रक्षा की खातिर अपने चिर शत्रु रहे लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाने का दावा किया। उधर लालू जी ने भी उनकी तरफ बढ़े हुए मजबूरी की दोस्ती के बढ़े हुए इस हाथ को झटका नहीं दिया और थाम लेने के संकेत दिए।
मित्रों,लेकिन इस नाटक पर से पर्दा उठा दिया जदयू के प्रवक्ता केसी त्यागी ने। त्यागी जी से जब पूछा गया कि क्या कल नीतीश जी की जगह किसी दूसरे व्यक्ति को नेता चुना जाएगा तो उन्होंने कहा कि ऐसा संभव ही नहीं है। नीतीश हमारे सर्वमान्य नेता हैं। उन्होंने एनडीए को चुनौती दी कि हम उनको 24 घंटे का समय देते हैं इस बीच अगर उनके पास बहुमत है तो सरकार बना लें। अब कोई रहस्य नहीं रह गया था,सबकुछ सामने था। स्पष्ट हो चुका था कि नीतीश जी यह इस्तीफा उसी तरह से दिया गया इस्तीफा था जिस तरह कि उन्होंने कभी रेल मंत्री के पद से दिया था। तब उन्होंने इस्तीफे को सीधे राष्ट्रपति को नहीं भेजकर प्रधानमंत्री को भेज दिया था जिन्होंने स्वाभाविक तौर पर उनके त्याग-पत्र को नामंजूर कर दिया था। इसलिए नीतीश कुमार के पुराने रिकार्ड को देखते हुए संभावना तो यही है कि आज फिर से विधायक दल की बैठक में नीतीश कुमार जी खुद को नेता चुनवाएंगे और फिर से मुख्यमंत्री के पद की शपथ लेंगे। देवा रे देवा इतनी हेराफेरी! नीतीश जी जितना नाटक करना है करिए लेकिन जनता के विवेक पर सवाल खड़े नहीं करिए। अवसर आपके लिए भी खुले हुए थे। आपने क्यों जनता को अपनी तरफ नहीं कर लिया? नरेंद्र मोदी ने तो कहीं सांप्रदायिकता की बात ही नहीं की फिर जनता ने कैसे सांप्रदायिक बहकावे में आकर मतदान कर दिया? आप हार चुके हैं,हारना भी सीखिए और हार को पचाना भी। जनता आपको भी समझ रही है और आपके नाटकों को भी जो आप पिछले 8 सालों से बिहार के रंगमंच पर खेल रहे हैं। मिला लीजिए जंगलराज के डाइरेक्टर लालू जी से भी हाथ और फिर भी करते रहिए नैतिक होने का ढोंग।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 17 मई 2014

छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी

17-05-14,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आज का सूर्योदय आपने देखा होगा और पाया होगा कि आज भी सूरज पूरब से निकला है लेकिन वह सूरज झूठा है। आज के भारत का वास्तविक सूरज पूरब से नहीं सुदूर पश्चिम से उदित हुआ है। कल तक हम जब पुराने सूरज की रोशनी में थे तो हमें लालची,नपुंसक,जातिवादी और संप्रदायवादी कहा जाता था लेकिन आज हमने उतार फेंका है इन आरोपों को और पूरी ताकत से उछाल दिया है दुनिया के आसमान में एक पत्थर जो हमें उम्मीद है कि नाकामी और मायूसी के बादलों को तितर-बितर करके रख देगा।

मित्रों,हमें नहीं चाहिए खैरात हमें तो काम चाहिए। आखिर हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र जो ठहरे। हमें नहीं चाहिए भीख की रोटी हमें तो ईज्जत की रोटी चाहिए। हमें नहीं चाहिए एक अंतहीन इंतजार कि अब हमारे राजनीतिज्ञ देश को बदलनेवाले हैं। कभी नेपोलियन ने अपने एक सेनापति से कहा था कि चेंज योर वाच अदरवाईज आई विल चेंज यू। लीजिए हमने अपना सेनापति बदल दिया क्योंकि हमारे लिए प्रतीक्षा अब असहनीय हो गई थी। जबकि कंप्यूटर के एक क्लिक से पलक झपकते ही बड़े-बड़े काम संपन्न हो जाते हैं हमारे राजनेता चुनाव-दर-चुनाव पुराने वादों पर ही अँटके थे।

मित्रों,हम भी चाहते हैं दुनिया के विकास की दौड़ में रेस लगाना और सबसे आगे निकलना। हमारा युवा रक्त कैसे बर्दाश्त करता कि चीन,पाकिस्तान जैसे पड़ोसी हमें आँखें दिखाए। हमारा युवा जोश कैसे सहता कि चीन की जीडीपी हमारी जी़डीपी की तीन गुना से भी ज्यादा हो गई है। हमारी इस्पाती नसें और हिमालय सरीखी दृढ़ता भला इस सत्य को कैसे स्वीकार करतीं कि भारत सरकार ठगों और भ्रष्टाचारियों का दुनिया में सबसे बड़ा जमावड़ा बन गई है। हमें तो वादे नहीं इरादे चाहिए थे इसलिए हमने इस बार बिल्कुल नए इरादे से मतदान किया और नए सिरे से लिख दिया भारतीय राजनीति की प्रस्तावना को। अब से हमारे जान से भी ज्यादा प्यारे भारत में सिर्फ-और-सिर्फ विकास चलेगा और विकास की ही राजनीति चलेगी। नहीं चलेगा जातिवाद और संप्रदायवाद के नाम पर ठगी सिर्फ सच्चा राष्ट्रवाद चलेगा। अब हमें याद नहीं रहा कि हमने किस जाति और संप्रदाय में जन्म लिया था हमें तो बस इतना ही याद है कि हम प्रथमतः और अंततः एक भारतीय हैं भारतीय आत्मा हैं।

मित्रों,हम न तो बहानेबाज हैं और न ही हमें बहानेबाज सरकार चाहिए। हम युवा हैं बहाने नहीं बनाते देश बनाते हैं,देश का वर्तमान और भविष्य बनाते हैं। हम नहीं जानते कि मजबूरी क्या होती है। हम इतना ही जानते हैं कि हमारे हाथों की गर्मी से मोटी-मोटी जंजीरें पिघल जाएंगी इसलिए हमने केंद्र की सरकार को भी मजबूत जनादेश दिया है। पूरी ताकत दी है कि तुम बनाओ नया भारत,लिखो नए युग की इबारत और हमें भी भागीदार बनाओ वास्तविक अतुल्य भारत के वास्तविक निर्माण में। हमने अपनी ऊंगली के जादू से सरकार को बदला है अब अपने फौलादी इरादे और मांसपेशियों से हम भारत को भय,भूख और भ्रष्टाचार से रहित विकसित राष्ट्र बनाएंगे।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 14 मई 2014

याद रहोगे मनमोहन

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,इन दिनों भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विदाई देने का सिलसिला जारी है। अगले एक-दो दिनों में ही मनमोहन सिंह इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे। मनमोहन भले ही कोई इतिहास बना नहीं सके लेकिन फिर भी वे इतिहास का हिस्सा तो बन ही गए हैं। चाहे उनका शासन जैसा भी रहा हो,हमारे लिए वो अच्छी यादें हों या बुरी यादें लेकिन हम चाहकर भी उनको भुला नहीं पाएंगे। वैसे भी बुरी यादों को भुलाना कहीं ज्यादा कठित होता है। जितना भुलाना चाहो वे उतनी ही ज्यादा याद आती हैं। याद तो बहुत आएंगे मनमोहन मगर सवाल उठता है कि किस रूप में और किस-किस रूप में?
मित्रों,संजय बारू की किताब के प्रकाशित होने के बाद अब इस तथ्य में कोई संदेह नहीं रहा कि मनमोहन एक दुर्घटनात्मक प्रधानमंत्री थे। मनमोहन राजनीति में अर्थव्यवस्था के कारीगर मात्र बनकर आए थे लेकिन उनको बनना पड़ा प्रधानमंत्री। पड़ा इसलिए क्योंकि वे उन्होंने बनना चाहा नहीं था मगर बने। हमने शतरंज के खेल में प्यादा को वजीर तक बनते देखा है मगर मनमोहन ऐसे वजीर थे जो शुरू से अंत तक प्यादा ही बने रहे। या तो उनको वजीर बनना ही नहीं था या फिर उनको वजीर बनना आता ही नहीं था।
मित्रों,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मंत्री तो थे मगर मंत्रियों के प्रधान नहीं थे। उन्होंने अपना हानि-लाभ,जीवन-मरण,यश-अपयश सबकुछ सोनिया परिवार के हाथों में सौंप दिया था। मनमोहन समर्पण की पराकाष्ठा थे। तुभ्यदीयं गोविंदं तुभ्यमेव समर्पयामि। यहाँ तक कि उन्होंने अपने आराध्य को देश भी समर्पित कर दिया। हे माता तुमने ही मुझे प्रधानमंत्री बनाया है। मैं तो एक छोटा-सा बालक हूँ और उस पर निर्बल भी इसलिए तुम्हीं संभालो इस राज-पाठ को। मैं कुछ भी नहीं जानता,न देश को और न ही देशहित को। मैं तो केवल तुमको जानता हूँ। मेरे लिए तो सबकुछ तुम-ही-तुम हो। आरंभ भी,मध्य भी और मेरा अंत भी।
मित्रों,सवाल उठता है कि क्या मनमोहन सिंह निरपराध हैं और भोले हैं? मेरे हिसाब से तो नहीं। वे इन दोनों में से कुछ भी नहीं हैं। वो इसलिए क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी किया या होने दिया जानबूझकर किया और होने दिया। मनमोहन सिंह ने जानबूझकर अपार संभावनाओं की भूमि भारत का 10 साल बर्बाद किया। दस साल तक सबकुछ जानते हुए भी भारत में वह सब होने दिया जिसने भारत की गाड़ी को 21वीं सदी के अतिमहत्त्वपूर्ण पहले दशक में रिवर्स गियर में चला दिया। निरपराध और भोले तो वे तब होते जब उनको कुछ भी पता नहीं होता या फिर वे महामूर्ख होते। परंतु दुर्भाग्यवश इन दोनों संभावनाओं के लिए मनमोहन के संदर्भ में कहीं कोई स्थान नहीं है।
मित्रों,मनमोहन जा नहीं रहे,बिल्कुल भी स्वेच्छा से नहीं जा रहे वरन् उनको जनता ने धक्का देकर निकाल दिया है। हमने बहुत प्रतीक्षा की,बहुत इंतजार किया कि अब शायद उनका जमीर जागे और मनमोहन इस्तीफा दे दें। मगर भारत में लगातार दुःखद घटनाएँ घटती रहीं,मनमोहन हर मोर्चे पर विफल होते गए परन्तु स्वेच्छा से पद-त्याग नहीं किया। उनका जमीर या तो मर गया था या फिर उनके पास जमीर नामक कोई चीज थी ही नहीं। वे एक नौकरशाह थे और नौकरी उनके खून में थी इसलिए वे मालिक होकर भी नौकर ही बने रहे और नौकरी ही करते रहे। चूँकि मनमोहन प्रधानमंत्री पद से अपने सुखद और प्रतीष्ठापूर्ण अंत को सुनिश्चित नहीं कर सके और उन्होंने देश को सिवाय बर्बादी के कुछ नहीं दिया इसलिए हम वाहेगुरू से यह कामना करते हैं कि वे आधुनिक युग के इस स्वनिर्मित धृतराष्ट्र को उसके बचे-खुचे बुढ़ापे में उसके गर्हित कर्मों या अकर्मों के लिए दंडित जरूर करे क्योंकि भारत का वर्तमान कानून तो शायद उनको कभी दंडित नहीं कर पाएगा। वैसे आपको बता दूँ कि कल मंगलवार को ही इजरायल के पूर्व प्रधानमंत्री यहूद ओलमर्ट को तेलअवीव की एक अदालत ने भ्रष्टाचार के आरोप में 6 साल की कैद की सजा सुनाई है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 8 मई 2014

हाजीपुर टाईम्स का असर विवि को वेतन व पेंशन का 279.70 करोड़ जारी

पटना (सं.सू.)। बीते दो माह से वेतन एवं पेंशन की प्रतीक्षा कर रहे विश्वविद्यालय शिक्षकों एवं कर्मियों के लिए यह अच्छी खबर है। राज्य सरकार ने मार्च और अप्रैल के वेतन एवं पेंशन मद की एकमुश्त राशि 279.70 करोड़ जारी किया है। इस संबंध में शिक्षा विभाग के विशेष सचिव सह निदेशक एचआर श्रीनिवास ने एक सप्ताह के अंदर वेतन एवं पेंशन की राशि का वितरण सुनिश्चित करने का आदेश सभी कुलसचिवों को दिया है। राज्य सरकार ने मार्च से मई तक सभी विश्वविद्यालयों और उनके अधीनस्थ अंगीभूत महाविद्यालयों के अलावा अल्पसंख्यक कालेजों के शिक्षकों एवं कर्मचारियों के वेतन मद में 313.27 करोड़ और पेंशन मद में 106.27 करोड़ की स्वीकृति प्रदान की है। यह कुल राशि 419.55 करोड़ है। इनमें से मार्च एवं अप्रैल की राशि जारी की गई है। शिक्षा विभाग की ओर से मई का वेतन एवं पेंशन मद की राशि को भी शीघ्र जारी किए जाने की उम्मीद है।

विदित हो कि हाजीपुर टाईम्स ने 29 अप्रैल को समाचार लिखा था कि भुखमरी के कगार पर पहुँचे बिहार के विश्वविद्यालय शिक्षक। हमारी मेहनत ने रंग दिखाया है और बिहार सरकार को विश्वविद्यालयों के वेतन और पेंशन मद में दो महीने के लिए एकमुश्त राशि जारी करनी पड़ी है। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 7 मई 2014

प्रशासनिक लापरवाही के चलते हजारों लोग नहीं गिरा पाएंगे वोट

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। जिला प्रशासन की लापरवाही या मनमानी के चलते हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र में हजारों मतदाता अपना मतदान नहीं कर पाएंगे और इस प्रकार मतदान करने के अपने मूलभूत अधिकार से वंचित रह जाएंगे। विदित हो कि इसी साल 9 मार्च को पूरे देश में राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाया गया था और चुनाव आयोग द्वारा घोषणा की गई थी कि जिन लोगों के नाम अब तक वोटर लिस्ट में नहीं है वे फार्म संख्या 6 भरकर अपना नाम जुड़वा सकते हैं। उस समय भी हमने लिखा था कि वैशाली जिला प्रशासन ने राष्ट्रीय मतदाता दिवस ने इस अभियान को गंभीरता से नहीं लिया। (आधे-अधूरे मन से मनाया गया मतदाता दिवस) परन्तु अहले सुबह जब लोग अपने परिवार के साथ मतदान केंद्र पर पहुँचे तो पता चला कि उनका नाम तो लिस्ट में जुड़ा ही नहीं है। हालाँकि कुछ लोगों के नाम जोड़े गए हैं लेकिन ये लोग वे हैं जिनके किसी-न-किसी परिजन का नाम पहले से लिस्ट में दर्ज है और जिनके किसी भी परिजन का नाम पहले से लिस्ट में नहीं है उनके नाम लिस्ट में जोड़े ही नहीं गए और ऐसे में हजारों लोग मतदान करने से वंचित रह जाएंगे।

जढ़ुआ के महावीर राय ने बताया कि उनका नाम वोटर लिस्ट से उनके वार्ड आयुक्त ने इसलिए हटवा दिया है क्योंकि वे उसके समर्थक नहीं हैं वहीं जढ़ुआ के ही नरेश साह ने बताय कि उन्होंने पिछले 15 सालों में हर बार कम-से-कम 10 बार फार्म 6 भरकर जमा किया लेकिन उनका या उनके परिजनों का नाम आजतक भी वोटर लिस्ट में दर्ज नहीं है। इसी प्रकार सहयोगी उच्च विद्यालय पर भी कई ऐसे लोग जिन्होंने फार्म 6 जमा करवाया था वोटर लिस्ट में अपना नाम न पाकर परेशान दिखे। इस बावत पूछने पर हाजीपुर नगर की भाग संख्या 108 की बीएलओ संगीता कुमारी ने बताया कि उन्होंने तो निर्वाची कार्यालय में सभी प्रपत्र 6 को जमा करा दिया था लेकिन नए नाम क्यों नहीं जुड़ सके उनको पता नहीं है। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)