सोमवार, 27 सितंबर 2021

हिन्दू-धर्म के संगठन में परिवर्तन आवश्यक

मित्रों, एक बार विवेकान्द के शिष्यों ने उनसे प्रश्न किया कि गुरुदेव गृहस्थाश्रम बड़ा है या संन्यास?? तब स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि इसके लिए मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ. किसी नगर में एक राजा रहता था, उस नगर में जब कोई संन्यासी आता तो राजा उसे बुलाकर पूछता कि- ”भगवान! गृहस्थ बड़ा है या संन्यास?” अनेक साधु अनेक प्रकार से इसका उत्तर देते थे। कई संन्यासी को बड़ा तो बताते पर यदि वे अपना कथन सिद्ध न कर पाते तो राजा उन्हें गृहस्थ बनने की आज्ञा देता। जो गृहस्थ को उत्तम बताते उन्हें भी यही आज्ञा मिलती। इस प्रकार होते-होते एक दिन एक संन्यासी उस नगर में आ निकला और राजा ने बुलाकर वही अपना पुराना प्रश्न पूछा। संन्यासी ने उत्तर दिया- “राजन। सच पूछें तो कोई आश्रम बड़ा नहीं है, किन्तु जो अपने नियत आश्रम को कठोर कर्तव्य धर्म की तरह पालता है वही बड़ा है।” राजा ने कहा- “तो आप अपने कथन की सत्यता प्रमाणित कीजिये।“ संन्यासी ने राजा की यह बात स्वीकार कर ली और उसे साथ लेकर दूर देश की यात्रा को चल दिया। घूमते-घूमते वे दोनों एक दूसरे बड़े राजा के नगर में पहुँचे, उस दिन वहाँ की राज कन्या का स्वयंवर था, उत्सव की बड़ी भारी धूम थी। कौतुक देखने के लिये वेष बदले हुए राजा और संन्यासी भी वहीं खड़े हो गये। मित्रों, जिस राजकन्या का स्वयंवर था, वह अत्यन्त रूपवती थी और उसके पिता के कोई अन्य सन्तान न होने के कारण उस राजा के बाद सम्पूर्ण राज्य भी उसके दामाद को ही मिलने वाला था। राजकन्या सौंदर्य को चाहने वाली थी, इसलिये उसकी इच्छा थी कि मेरा पति, अतुल सौंदर्यवान हो, हजारों प्रतिष्ठित व्यक्ति और देश-देश के राजकुमार इस स्वयंवर में जमा हुए थे। राज-कन्या उस सभा मण्डली में अपनी सखी के साथ घूमने लगी। अनेक राजा-पुत्रों तथा अन्य लोगों को उसने देखा पर उसे कोई पसन्द न आया। वे राजकुमार जो बड़ी आशा से एकत्रित हुए थे, बिल्कुल हताश हो गये। अन्त में ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो अब यह स्वयंवर बिना किसी निर्णय के अधूरा ही समाप्त हो जायगा। इसी समय एक संन्यासी वहाँ आया, सूर्य के समान उज्ज्वल काँति उसके मुख पर दमक रही थी। उसे देखते ही राजकन्या ने उसके गले में माला डाल दी। परन्तु संन्यासी ने तत्क्षण ही वह माला गले से निकाल कर फेंक दी और कहा- ”राजकन्ये। क्या तू नहीं देखती कि मैं संन्यासी हूँ? मुझे विवाह करके क्या करना है?” यह सुन कर राजकन्या के पिता ने समझा कि यह संन्यासी कदाचित भिखारी होने के कारण, विवाह करने से डरता होगा, इसलिये उसने संन्यासी से कहा- ”मेरी कन्या के साथ ही आधे राज्य के स्वामी तो आप अभी हो जायेंगे और पश्चात् सम्पूर्ण राज्य आपको ही मिलेगा। राजा के इस प्रकार कहते ही राजकन्या ने फिर वह माला उस साधु के गले में डाल दी, किन्तु संन्यासी ने फिर उसे निकाल पर फेंक दिया और बोला- ”राजन्! विवाह करना मेरा धर्म नहीं है।“ ऐसा कह कर वह तत्काल वहाँ से चला गया, परन्तु उसे देखकर राजकन्या अत्यन्त मोहित हो गई थी, अतएव वह बोली- ”विवाह करूंगी तो उसी से करूंगी, नहीं तो मर जाऊँगी।” ऐसा कह कर वह उसके पीछे चलने लगी। हमारे राजा साहब और संन्यासी यह सब हाल वहाँ खड़े हुए देख रहे थे। संन्यासी ने राजा से कहा- ”राजन्! आओ, हम दोनों भी इनके पीछे चल कर देखें कि क्या परिणाम होता है।” राजा तैयार हो गया और वे उन दोनों के पीछे थोड़े अन्तर पर चलने लगे। चलते-चलते वह संन्यासी बहुत दूर एक घोर जंगल में पहुँचा, उसके पीछे राजकन्या भी उसी जंगल में पहुँची, आगे चलकर वह संन्यासी बिल्कुल अदृश्य हो गया। बेचारी राजकन्या बड़ी दुखी हुई और घोर अरण्य में भयभीत होकर रोने लगी। इतने में राजा और संन्यासी दोनों उसके पास पहुँच गये और उससे बोले- ”राजकन्ये! डरो मत, इस जंगल में तेरी रक्षा करके हम तेरे पिता के पास तुझे कुशल पूर्वक पहुँचा देंगे। परन्तु अब अँधेरा होने लगा है, इसलिये पीछे लौटना भी ठीक नहीं, यह पास ही एक बड़ा वृक्ष है, इसके नीचे रात काट कर प्रातःकाल ही हम लोग चलेंगे।” राजकन्या को उनका कथन उचित जान पड़ा और तीनों वृक्ष के नीचे रात बिताने लगे। मित्रों, उस वृक्ष के कोटर में पक्षियों का एक छोटा सा घोंसला था, उसमें वह पक्षी, उसकी मादी और तीन बच्चे थे, एक छोटा सा कुटुम्ब था। नर ने स्वाभाविक ही घोंसले से जरा बाहर सिर निकाल कर देखा तो उसे यह तीन अतिथि दिखाई दिये। इसलिये वह गृहस्थाश्रमी पक्षी अपनी पत्नी से बोला- “प्रिये! देखो हमारे यहाँ तीन अतिथि आये हुए हैं, जाड़ा बहुत है और घर में आग भी नहीं है।” इतना कह कर वह पक्षी उड़ गया और एक जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा कहीं से अपनी चोंच में उठा लाया और उन तीनों के आगे डाल दिया। उसे लेकर उन तीनों ने आग जलाई। परन्तु उस पक्षी को इतने से ही सन्तोष न हुआ, वह फिर बोला-”ये तो बेचारे दिनभर के भूखे जान पड़ते हैं, इनको खाने के लिये देने को हमारे घर में कुछ भी नहीं है। प्रिय, हम गृहस्थाश्रमी हैं और भूखे अतिथि को विमुख करना हमारा धर्म नहीं है, हमारे पास जो कुछ भी हो इन्हें देना चाहिये, मेरे पास तो सिर्फ मेरा देह है, यही मैं इन्हें अर्पण करता हूँ।” इतना कह कर वह पक्षी जलती हुई आग में कूद पड़ा। यह देखकर उसकी स्त्री विचार करने लगी कि ‘इस छोटे से पक्षी को खाकर इन तीनों की तृप्ति कैसे होगी? अपने पति का अनुकरण करके इनकी तृप्ति करना मेरा कर्तव्य है।’ यह सोच कर वह भी आग में कूद पड़ी। यह सब कार्य उस पक्षी के तीनों बच्चे देख रहे थे, वे भी अपने मन में विचार करने लगे कि- ”कदाचित अब भी हमारे इन अतिथियों की तृप्ति न हुई होगी, इसलिये अपने माँ बाप के पीछे इनका सत्कार हमको ही करना चाहिये।” यह कह कर वे तीनों भी आग में कूद पड़े। यह सब हाल देख कर वे तीनों बड़े चकित हुए। सुबह होने पर वे सब जंगल से चल दिये। राजा और संन्यासी ने राजकन्या को उसके पिता के पास पहुँचाया। इसके बाद संन्यासी राजा से बोला- ”राजन्!! अपने कर्तव्य का पालन करने वाला चाहे जिस परिस्थिति में हो श्रेष्ठ ही समझना चाहिये। यदि गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की तेरी इच्छा हो, तो उस पक्षी की तरह परोपकार के लिये तुझे तैयार रहना चाहिये और यदि संन्यासी होना चाहता हो, तो उस उस यति की तरह राज लक्ष्मी और रति को भी लज्जित करने वाली सुन्दरी तक की उपेक्षा करने के लिये तुझे तैयार होना चाहिये। कठोर कर्तव्य धर्म को पालन करते हुए दोनों ही बड़े हैं।“ मित्रों, जबसे अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष और निरंजनी अखाड़ा के सचिव महंत नरेंद्र गिरि की संदिग्ध मौत हुई है यह सवाल फिर से हिन्दुओं के मन में उठने लगा है कि क्या हिन्दुओं के सर्वोच्च संगठनों से जुड़े लोग वास्तव में संन्यासी हैं भी या नहीं या गेरुआ वस्त्र धारण कर हिन्दुओं के साथ छल कर रहे हैं? उपरोक्त कथा के अनुसार इनमें से कई सारे ठग हैं. पहले भी राधे माँ और गोल्डन बाबा जैसे संन्यासी हिन्दू धर्म को कलंकित करते रहे हैं लेकिन इस बार भी अखाडा परिषद् के अध्यक्ष ही सवालों के घेरे में हैं. क्या किसी संन्यासी के लिए भोग-विलास से युक्त जीवन व्यतीत करना उचित है? चाहे वो नरेन्द्र गिरी हों या उनके शिष्य आनंद गिरी उनकी जीवन-शैली को किसी भी प्रकार से एक वास्तविक संन्यासी की जीवन-शैली तो नहीं कहा जा सकता. सवाल तो यह भी उठता है कि इन अखाड़ों और शंकराचार्यों की आज के समय में क्या और कितनी उपयोगिता है? ये लोग न तो समाज के लिए कुछ कर रहे हैं और न ही धर्मान्तरण को रोकने के लिए तृणमूल स्तर पर कुछ कर रहे हैं. तो क्या ये लोग हिन्दुओं के पैसों पर भोग-विलास में संलिप्त होकर बोझ नहीं बन गए हैं? क्या इस दिशा में अमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है? मित्रों, ऐसे ही छद्म-संन्यासियों के बारे में ६०० साल पहले कबीर ने कहा था मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।। टेक।। आसन मारि मंदिर में बैठे, नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा।। 1।। कनवां फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।। 2।। जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होइ गैलै हिजरा।। 3।। मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँचि के होइ गैले लबरा।। 4।। कहहि कबीर सुनो भाई साधो, जम दरबजवाँ बाँधल जैवे पकरा।। 5।।

रविवार, 19 सितंबर 2021

ईटीएम से कटे बिहार रोडवेज में टिकट

मित्रों, आप जानते होंगे पिछले कुछ सालों से मैं उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में रह रहा था। जाहिर है इस दौरान मुझे बार-बार बस यात्रा करनी पडी। मैं यह देखकर हतप्रभ था कि उत्तर प्रदेश में चलनेवाली लगभग सारी बसें सरकारी थीं। साथ ही सारी बसों में ईटीएम (इलेक्ट्रोलक्स टिकट मशीन) से टिकट काटा जा रहा था। यहां तक कि अगर एक बस के संवाहक से आप पैसा वापस लेना भूल गए हों तो दूसरी सरकारी बस के संवाहक को टिकट दिखाकर पैसा वापस ले सकते थे। न ही कोई धांधली न ही धांधली की गुजाईश। मित्रों,अब मुज़फ्फरनगर से आते हैं मुज़फ्फरपुर। वही बिहार वाला मुज़फ्फरपुर। पिछले दिनों मुझे लगातार दस दिनों तक हाजीपुर से मुज़फ्फरपुर जाना पडा। पहले तो रेलवे रो खंगाला तो पता चला कि हाजीपुर से सुबह में ऐसी कोई पैसेंजर ट्रेन है ही नहीं जो नौ बजे से पहले मुज़फ्फरपुर पहुंचा दे। मजबूरन मुझे बस से यात्रा करनी पडी। मैंने जानबुझकर सरकारी बस को चुना हालांकि बिहार में वे अल्पसंख्यक हैं। मित्रों, मैंने देखा सरकारी बसों के संवाहक अगरचे यात्रियों को टिकट देते ही नहीं थे और अगर जिद करने पर देते भी थे तो परचूनिया टिकट जिन पर क्रम संख्या तक अंकित नहीं होते थे बांकी रूट-किराया-गंतव्य स्थान वगैरह के ब्योरे की बाद तो दूर ही रही. एकाध संवाहक कार्बन लगाकर टिकट काट जरूर रहे थे लेकिन उसमें से भी कितना पैसे सरकारी खजाने में जाता होगा राम ही जानें. इतना ही नहीं कोई संवाहक हाजीपुर से मुजफ्फरपुर का भाड़ा ८० रूपया ले रहा था तो कोई ९०-१०० और १२०. कोई निर्धारित भाड़ा नहीं जितना लूट सको लूट लो. मित्रों, अगर ईटीएम से टिकट कटता तो सरकारी बसों में ऐसी मनमानी और बेईमानी हरगिज नहीं होती. क्योंकि ईटीएम से टिकट में हाेने वाली गड़बड़ियों पर रोक लगेगी। यात्रियों को समय और किलोमीटर अंकित टिकट मिलेगा। ईटीएम मशीन से बस के चलने का समय, किराए की डिटेल, किलोमीटर, बस का दूसरे स्थान पर पहुंचने का समय, टैक्स, टूल टैक्स, बस के रूट की जानकारी, कंडक्टर की रिसीट ऑल टिकट का जोड़ भी मिला करेगा। मित्रों, समझ में नहीं आता कि जो मशीन उत्तर प्रदेश की बसों में वर्षों पहले लागू हो चुकी है वो अब तक उसके पडोसी राज्य बिहार में क्यों लागू नहीं हुई? क्या नीतीश कुमार जी इतने शाहे बेखबर हैं कि उनको सरकारी बसों और उनके संवाहकों का सच पता नहीं है? या नीतीश जी भी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार चलता रहे? हाँ, यह मेरी समझ में जरूर आ गया है कि उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बिहार से इतना आगे क्यों है?

सोमवार, 6 सितंबर 2021

जातीय जनगणना की बेतुकी मांग

मित्रों, अगर आप भारत के किसी छोटे बच्चे से भी पूछेंगे कि देश को किसने बर्बाद किया तो वो छूटते ही कहेगा नेताओं ने. दुर्भाग्य की बात है कि जैसे-जैसे नेताओं की नई पीढी आ रही है वैसे-वैसे नेताओं का देशहित से सरोकार कम होता जा रहा है। अब स्थिति इतनी खराब हो गई है कि हमारे नेता सिर्फ लोक लुभावन देश नशावन मुद्दों को ही हवा देने लगे हैं. मध्यकाल में जहाँ संत कबीर ने कहा था कि जाति न पूछो साधू की, केवल देखिए ज्ञान; मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान वहीँ हमारे वर्तमान काल के नेताओं ने जाति नाम परमेश्वर बना दिया है. मित्रों, हमारे नेता इतने पर ही रूक जाते तो फिर भी गनीमत थी. उन्होंने यह जानते हुए पहले जातीय आरक्षण लागू किया कि हर जाति में गरीबी है. फिर पंचायत व शहरी निकाय चुनावों में यह जानते हुए जाति आधारित आरक्षण लागू किया कि लोकतंत्र बहुमत का शासन है. जाति के नाम पर पार्टी को पारिवारिक संस्था में बदल देनेवाले नेताओं का प्रतिभा का गला घोंटने के बाद भी जी नहींं भरा और अब वो जातीय जनगणना की मांग करने लगे हैं. मित्रों, यह बात किसी से छिपी हुई नहींं है कि जब कांग्रेस राज में परिवार नियोजन का महा अभियान चला था तब सबसे ज्यादा बंध्याकरण सवर्णों ने ही करवाया था जिससे उनकी संख्या में भारी गिरावट आई. ऐसे में अगर जातीय जनगणना होती है तो सबसे ज्यादा नुकसान में वही लोग होंगे जिन्हें सबसे ज्यादा देश की चिंता होती है. मित्रों, ऐसा इसलिए होगा क्योंकि जाति नाम परमेश्वर वाले नेतागण लगे हाथों जनसंख्या के अनुपात में जातीय आरक्षण की मांग करेंगे. फिर पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा को तोड़ दिया जाएगा और देश शत प्रतिशत आरक्षण की ओर अग्रसर हो जाएगा. फिर प्रतिभा और गुणवत्ता का कोई मायने नहीं रह जाएगा और इस तरह भारत कभी भी विश्वगुरू नहीं बन पाएगा. मित्रों, अत: जातीय जनगणना का जमकर विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि यह एक पश्चगामी कदम है. इससे न सिर्फ जातीय राजनीति को बढावा मिलेगा वरन प्रतिभावानों का मनोबल भी गिरेगा.