ब्रज की दुनिया
सोमवार, 30 सितंबर 2024
बिहार में पीके फिरकी तो नहीं ले रहा?
मित्रों, दस साल हो गए एक फिल्म आई थी और सुपर डुपर हिट भी रही थी. नाम था पीके. उस फिल्म में भगवान, खुदा और गॉड के नाम दुनिया में व्याप्त झूठ और पाखण्ड पर व्यंग्य किया गया था. अगर आपने वो फिल्म देखी है तो देखा होगा कि उस फिल्म का नायक पीके जो सुदूर दूसरे ग्रह से आया है धर्माधिकारियों को लेकर एक बात बार-बार कहता है कि ये फिरकी ले रहा है मतलब धोखा दे रहा है.
मित्रों, इन दिनों बिहार में भी एक पीके यानि प्रशांत किशोर आए हुए हैं और वे कतई दूसरे ग्रह से नहीं आए हैं. श्रीमान इन दिनों गाँधी की तस्वीर लिए पूरे बिहार में घूम रहे हैं. उनका कहना है कि वे बिहार का कायाकल्प कर देंगे और बिहार सबसे निचले पायदान से सबसे ऊपर के पायदान पर पहुँच जाएगा. लोअर बर्थ से अपर बर्थ पर. उनका पूरा तौर-तरीका वही है जो २०१३-१४ में केजरीवाल का था. जहाँ केजरीवाल ने कथित जीवित गाँधी अन्ना हजारे को यूज किया वहीँ ये पीके गाँधी और गाँधीवाद के बल पर बिहार को जीतना चाहता है.
मित्रों, कहना न होगा कि भारत की आजादी के बाद से ही भारत को जितना गाँधीवादियों ने लूटा है किसी और ने नहीं लूटा. इतिहास साक्षी है कि पूरी मानवता के इतिहास में गाँधी से बड़ा कोई ढोंगी और पाखंडी हुआ ही नहीं. वह महान व्यक्ति दिन में महात्मा बना फिरता था और रातों में खुलेआम नंगी औरतों के साथ नंगा सोकर अपनी अतृप्त वासना को तृप्त करता था. इतना ही नहीं गाँधी ने भाईचारा की जिद में जितना हिन्दुओं और हिंदुस्तान को मुस्लिम तुष्टिकरण के माध्यम से नुकसान पहुँचाया आज किसी से छिपा हुआ नहीं है.
मित्रों, इन दिनों पीके भी उसी गाँधी की तरह खुलकर मुस्लिम तुष्टिकरण की बातें कर रहा है. इसने तो घोषणा भी कर दी है कि वो टिकट वितरण में मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात से कई गुना अधिक टिकट देगा. एक गाँधी ने भारत का बंटाधार कर दिया और अब पीके दूसरा गाँधी बनने का दावा करता फिर रहा है. सवाल उठता है कि क्या बिहार और भारत को एक और गाँधी की आवश्यकता है?
मित्रों, एक कहावत है कि सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली. सवाल उठता है कि २०१५ में क्यों पीके को बिहार का हित-अहित नजर नहीं आया जब वे बिहार में महागठबंधन को जिता रहे थे? तब उनको इस बात की चिंता क्यों नहीं थी कि महागठबंधन की जीत के बाद तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बनेंगे? क्या तब तेजस्वी यादव नौवीं फेल नहीं थे? इसी तरह आज के पश्चिम बंगाल में जो अराजकता और अत्याचार का माहौल है और जिस प्रकार बिहार के लालू राज की तरह आईएएस की पत्नी तक सुरक्षित नहीं है क्या उसके लिए प्रशांत किशोर की जिम्मेदारी नहीं बनती है जो पिछले विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के लिए रणनीति बना रहे थे?
मित्रों, आज वही प्रशांत किशोर जो पैसों के लिए किसी भी चोर-डाकू को चुनाव जितवा सकता था दांत में तिनका दबाकर खुद को पाक-साफ़ बताता फिर रहा है. कोई क्यों यकीन करे उस पर? कभी मुक्तिबोध में कहा था कि
जो है मुझे उससे बेहतर चाहिए,
पूरी दुनिया साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए.
प्रश्न उठता है कि क्या प्रशांत किशोर नीतीश कुमार से बेहतर विकल्प हैं? हम पहले ही केजरीवाल को चुनकर दिल्ली में धोखा खा चुके हैं जो २०१३-१४ में पीके की तरह ही मीठी-मीठी बातें करते थे और अब १५६ दिनों तक जेल से शासन चलाकर अनचाहा और शर्मनाक विश्व रिकॉर्ड बना चुके हैं. तो क्या प्रशांत किशोर भी केजरीवाल साबित होने वाले हैं? उन्होंने सत्ताग्रहण के पंद्रह मिनट के भीतर बिहार में शराबबंदी समाप्त करने की घोषणा करके इस बात के संकेत भी दे दिए हैं। सवाल तो यह भी उठता है कि गांधी तो मद्यपान के विरोधी थे फिर ये प्रशांत किशोर किस प्रकार का गांधीवादी है?
मित्रों, एक समय बिहार के लोगों ने जगन्नाथ मिश्र की सरकार को हटाकर लालू यादव को मुख्यमंत्री बनाया था पर मिला क्या? जंगलराज? इसी तरह क्या केजरीवाल शीला दीक्षित से बेहतर साबित हो रहे हैं? इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतीश कुमार के शासन में बिहार का विकास हुआ है और तमाम कमियों के बावजूद स्थिति में सुधार हुआ है और निरंतर हो रहा है.
मित्रों, एक बात और इसमें कोई संदेह नहीं कि इस बार का लोकसभा चुनाव परिणाम बिहार के लिए अनंत संभावनाएं लेकर आया है. विपक्ष तो आरोप भी लगा रहा है कि इस साल का आम बजट भारत का कम बिहार का बजट ज्यादा है. फिर क्यों न बिहार में डबल ईंजन की सरकार बनी रहने दी जाए? क्यों वर्तमान व्यवस्था के साथ छेड़-छाड़ की जाए और वो भी एक अविश्वसनीय पीके के कहने पर? आखिर क्यों बेवजह का जोखिम लिया जाए? बल्कि क्यों न वर्तमान सरकार को ही प्रभावी सुधार करने के लिए बाध्य किया जाए?
बुधवार, 18 सितंबर 2024
आतिशी राबड़ी हैं या मनमोहन
मित्रों, आम आदमी पार्टी (आप) की बैठक में दिल्ली की नई मुख्यमंत्री चुनी गईं आतिशी का कहना है कि वो इस जिम्मेदारी से खुश तो हैं, लेकिन उन्हें इसका भारी गम भी है कि अरविंद केजरीवाल सीएम नहीं रहेंगे। सोचिए, जो दिल्ली जैसे अहम प्रदेश जहां से पूरे भारतका शासन चलता है की मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं, वो खुलकर यह भी नहीं कह सकतीं कि हां, अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन अब वो यह कमान संभालने जा रही हैं। बल्कि वो यह कह रही हैं कि दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है और उसका नाम है- अरविंद केजरीवाल।
मित्रों, आतिशी ने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा, 'मैं आज ये जरूर कहना चाहती हूं आम आदमी पार्टी के सभी विधायकों की तरफ से, दिल्ली की दो करोड़ जनता की तरफ से कि दिल्ली का एक ही मुख्यमंत्री है, और उस मुख्यमंत्री का नाम अरविंद केजरीवाल है।' आतिशी के इस बयान के बाद क्या विरोधियों का यह आरोप साबित नहीं होता है कि दिल्ली के असली मुख्यमंत्री तो इस्तीफे के बाद भी अरविंद केजरीवाल ही रहेंगे, आतिशी तो बस रबर स्टांप रहेंगी? ध्यान रहे कि यही छवि देश के लगातार दो बार प्रधानमंत्री रहे काफी पढ़े-लिखे मनमोहन सिंह की रही। तथ्यों, तर्कों और सबूतों के आधार पर एक बड़ा वर्ग मानता है कि 2004 से 2014 तक भारत की असली प्रधानमंत्री तो सोनिया गांधी थीं, मनमोहन सिंह तो बस यस मैन की भूमिका में फाइलों पर दस्तखत करने तक सीमित थे।
मित्रों, 2004 के लोकसभा चुनावों में 145 सीटों के साथ कांग्रेस पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। बीजेपी 138 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर खिसक गई। कांग्रेस पार्टी ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के साथी दलों के साथ केंद्र में सरकार बना ली। सोनिया गांधी प्रधानमंत्री की स्वाभाविक दावेदार थीं, लेकिन विदेशी मूल का मुद्दा उछला और सोनिया को कदम वापस खींचने पड़े। बीजेपी की धाकड़ नेता सुषमा स्वराज ने तब खुला ऐलान किया था कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनती हैं, तो वह राजनीतिक संन्यास ले लेंगी और अपना सिर मुंडवाकर जमीन पर सोएंगी।
मित्रों, विपक्ष के कड़े विरोध के आगे सत्ता की भूखी सोनिया को झुकना पड़ा। वो झुकीं, लेकिन हार मानने के बजाय बाजी अपने हाथों में रखी। सोनिया ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री चुना। मनमोहन सिंह हमेशा से ब्यूरोक्रैट रहे, राजनेता नहीं। उनका ट्रैक रिकॉर्ड गारंटी दे रहा था कि वो कभी सोनिया की खिंची लक्ष्मण रेखा पार नहीं करेंगे। सोनिया को और क्या चाहिए था? दायरा क्रॉस करने की आशंका जिनसे थी, उन प्रणब मुखर्जी को सोनिया ने दरकिनार कर दिया था। बाद में प्रणब दा को राष्ट्रपति भवन भेज दिया गया।
मित्रों, हमारे यहां तेरहवीं को श्राद्ध होता है लेकिन मनमोहन सरकार के गठन के 13वें दिन ही राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) का गठन हो गया। सोनिया गांधी इसकी चेयरपर्सन बन गईं। एनएसी के गठन के पीछे दलील यह दी गई कि यूपीए के कई साथी दल हैं, जिनके साझा घोषणापत्र को लागू करने के लिए एक ऐसी संस्था की दरकार है जो सरकार को वक्त-वक्त पर सही सुझाव दे सके। लेकिन यह तो कहने की बात थी। सोनिया गांधी की अध्यक्षता में एनएसी के फैसले और सरकार में उसकी दखल के सबूत सामने आने लगे तो पता चल गया कि दरअसल असली पीएम सोनिया ही हैं, मनमोहन सिंह तो बस मुखौटा हैं।
मित्रों, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधीन सरकार का संचालन भले ही संवैधानिक रूप से स्वतंत्र था, लेकिन एनएसी के जरिए सोनिया गांधी की सीधी या परोक्ष भागीदारी ने इसे 'समानांतर सत्ता केंद्र' की शक्ति दे दी। बीजेपी और अन्य विपक्षी दलों ने एनएसी को 'सुपर कैबिनेट' कहकर इसकी आलोचना की और कहा कि मनमोहन सिंह की सरकार पर सोनिया गांधी की छाया बनी हुई है। कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे 'दो सत्ता केंद्रों' वाली सरकार कहा, जिसमें मनमोहन सिंह एक निर्वाचित और संवैधानिक प्रधानमंत्री थे, लेकिन निर्णय लेने में उनका योगदान लगभग शून्य था।
इन दोनों कार्यकाल में सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह सरकार को कभी फ्री हैंड नहीं छोड़ा और उस पर साया बनकर मंडराती रहीं। 2014 में बीजेपी सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो सरकार ने एनएसी से जुड़ी सैकड़ों फाइलें सार्वजनिक कर दीं। वो फाइलें बताती हैं कि किस तरह देश को सूचना का अधिकार (आरटीआई) देने वाली एनएसी ने अपने ही कामकाज को गुप्त रखने का पक्का इतंजाम किया था। एनएसी ने 2005 में तय किया था कि उसके रिकॉर्ड सिर्फ एनएसी के सदस्य ही देख सकते हैं, वो भी तब जब सदस्य इसकी मांग करें। एनएसी की बैठकों में मंत्रियों और नौकरशाहों को बुलाया जाता था। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) की फाइलें सोनिया गांधी के पास जाती थीं और वहां से पास होकर पीएमओ आती थीं। कई बार उलटा होता था। सोनिया गांधी की तरफ से ही फाइलें तैयार होकर पीएमओ आती थीं जिन्हें लागू करवाना मनमोहन सिंह सरकार के लिए अनिवार्य होता था। नो इफ, नो बट, सोनिया गांधी का निर्देश सर माथे पर। यही थी बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी जिम्मेदारी। मोदी सरकार की तरफ से सार्वजनिक की गई कई एनएसी फाइलें चीख-चीखकर यह सत्य बताती हैं। इन फाइलों से साफ झलकता है कि कैसे सोनिया गांधी के निर्देशों को मनमोहन सिंह को मानना ही पड़ता था।
मित्रों, केंद्र से अब रुख करते हैं बिहार का। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पशुपालन घोटाले में फंसे तो पटना के स्पेशल कोर्ट ने 25 जुलाई, 1997 को उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया। इस कारण लालू ने उसी दिन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और कमान अपनी पत्नी राबड़ी देवी के हाथों सौंप दी। लालू ने सुप्रीम कोर्ट में पटना स्पेशल कोर्ट को चुनौती दी लेकिन 29 जुलाई को याचिका खारिज हो गई और अगले ही दिन 30 जुलाई, 1997 को लालू ने स्पेशल कोर्ट के सामने सरेंडर कर दिया। लालू प्रसाद यादव को कोर्ट से जेल भेज दिया गया। अब सवाल उठता है कि क्या आतिशी के रूप में दिल्ली को राबड़ी देवी मिल गई हैं या मनमोहन मिल गये हैं। इशारा साफ है- मुख्यमंत्री की कुर्सी भले ही आतिशी के पास हो, लेकिन असली ताकत तो केजरीवाल के पास ही रहेगी, निर्णय तो वही लेंगे इसे आतिशी भी मान ही चुकी हैं। राबड़ी देवी अशिक्षित थीं और आतिशी मनमोहन की तरह उच्च शिक्षित मगर दशा एक जैसी। राजनीति में खड़ाऊं पूजन की व्यवस्था से पद पाए लोगों की महत्वाकांक्षा भी जग सकती है। आतिशी को 'शीशमहल' अपने मोहपाश में बांधा पाता है कि नहीं, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। यहां हम आपको यह भी बता दें कि कभी आतिशी के पिता विजय सिंह ने एक समय संसद पर हमले में शामिल आतंकी अफजल गुरु को फांसी से बचाने के लिए खून-पसीना एक कर दिया था। इतना ही नहीं नक्सल आतंकवाद के कट्टर समर्थक आतिशी मरलेना के कट्टर कम्युनिस्ट माता-पिता ने इनके उपनाम मरलेना में मर मार्क्स से जबकि लेना लेलिन से लिया है।
बुधवार, 11 सितंबर 2024
आखिर किसके विपक्ष में हैं विपक्ष के नेता राहुल
मित्रों, इन दिनों भारत की जनता एक सवाल से परेशान है और उसका उत्तर ढूंढ रही है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी आखिर किसके विपक्ष में हैं मोदी के या भारत के? दरअसल पिछले कई सालों से राहुल गाँधी जब भी विदेश जाते हैं तो भूल जाते हैं कि वो मोदी के खिलाफ बोलने के बजाए भारत के खिलाफ बोल रहे हैं.
राहुल भूल जाते हैं कि मोदी और भारत अलग-अलग चीज हैं दोनों एक नहीं हैं. माना कि राहुल गाँधी भारत को भारतमाता नहीं मानते लेकिन हैं तो भारत के ही. पहले जब वो सामान्य नागरिक या सांसद के रूप में विदेश की धरती से अपने देश के खिलाफ बोलते थे तब बात दूसरी थी लेकिन अब वो विपक्ष के नेता हैं, एक जिम्मेदार पद पर हैं. और विदेश में जाकर भारत के खिलाफ बोलना और दुश्मन देश चीन की स्तुति करना कहीं से लोकसभा में विपक्ष के नेता को शोभा नहीं देता.
मित्रों, विपक्ष के नेता अटलजी भी थे, आडवाणी जी थे. उन्होंने हमेशा सिर्फ सत्तारूढ़ दल की खिलाफत की कभी देश की खिलाफत नहीं की. फिर राहुल इस तरह विचित्र व्यवहार क्यों कर रहे हैं?
जब सिखों को विमान तक में कृपाण ले जाने की अनुमति है तो फिर राहुल ने सिखों को लेकर अमेरिका में झूठ क्यों बोला? क्या राहुल अलग खालिस्तान चाहते हैं और अमेरिका भारत तोड़ो यात्रा पर गये थे? जिस तरह गांधी नेहरू ने भारत के तीन टुकड़े किये क्या राहुल भी चाहते हैं कि भारत के अनेक टुकड़े हो जायें? क्या राहुल को भी खालिस्तानियों ने केजरीवाल की तरह अरबों रूपये दिये हैं चीन के साथ तो उनका अग्रीमेंट ही है?
मित्रों, अंत में मैं उन सभी नेताओं से जो भारत को अपनी पुण्यभूमि नहीं मानते; यह कहना चाहता हूँ कि अगर आपको चीन या पाकिस्तान ज्यादा प्यारा लगता है और भारत से नफरत है तो आप भारत में क्या कर रहे हैं चीन-पाकिस्तान चले क्यों नहीं जाते?
शनिवार, 29 जून 2024
धारा ३५६ समाप्त किया जाए
मित्रों, आप सोंच रहे होंगे कि मुझे क्या हो गया है जो मैं भारत के प्रधानमंत्री से संविधान से धारा ३५६ को समाप्त करने की मांग कर रहा हूँ. तो भाई साब और बहन जी मैं बिल्कुल ठीक हूँ और पूरे होशो-हवास में यह मांग कर रहा हूँ. दरअसल पश्चिम बंगाल और केरल की पिछले कई सालों से चली आ रही स्थिति को देखकर मेरा मन बेहद क्रोधित और उद्विग्न है. इन दोनों राज्यों में विशेष रूप से बंगाल में लोकतंत्र पूरी तरह से समाप्त हो चुका है, भाजपा के मतदाताओं और महिला समर्थकों को सड़कों पर नंगा करके पीटा जा रहा है लेकिन मोदी जी जिद पकडे बैठे हैं कि वे कहीं भी धारा ३५६ का प्रयोग करेंगे ही नहीं भले ही उस राज्य में सारे-के-सारे भाजपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं की बेरहमी से हत्या ही क्यों न कर दी जाए.
मित्रों, आप ही बताईए कि जो नेता या पार्टी अपने ही समर्थकों की रक्षा नहीं कर पाए उसे कोई क्यों वोट दे? इसी तरह भाजपा और मोदी जी ने अपने आधार मतदाताओं की उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जमकर उपेक्षा की और फिर भी उम्मीद करते रहे कि वे उनको ही वोट देंगे परिणाम पूरी दुनिया के सामने है. मैं अपनी सीट हाजीपुर लोकसभा सीट की ही बात करूं तो न तो कोई बीएलओ हमें मतदाता पर्ची देने आया और न ही भाजपा या लोजपा का कोई पोलिंग एजेंट बूथ पर मौजूद था. यह तो संयोग था या फिर एनडीए समर्थकों का दृढ़निश्चय कि चिराग पासवान यहाँ से जीत गए.
मित्रों, विषयांतर के लिए क्षमा चाहता हूँ और मोदी जी से पूछना चाहता हूँ कि जब वो बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगा ही नहीं सकते तो फिर संविधान में धारा ३५६ की जरुरत ही क्या है? फिर क्यों नहीं धारा ३७० की तरह इसे भी संविधान से हटा दिया जाए? सिर्फ ५६ ईंच बोल देने से किसी का सीना ५६ ईंच का नहीं हो जाता बल्कि उसे चरितार्थ भी करना पड़ता है. माना कि मोदी जी टीम इंडिया में विश्वास करते हैं लेकिन ममता तो ऐसा नहीं मानती? उसका तो एकदलीय शासन में विश्वास है लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं है.
मित्रों, मोदी जी बंगाल के राज्यपाल की स्थिति कितनी दुर्बल बना दी है? कभी राज्यपाल की गाडी पर हमला हो जाता है तो कभी राज्यपाल को मुख्यमंत्री द्वारा किए गए अपमान के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करना पड़ता है. राज्य के संवैधानिक प्रधान की ऐसी दुर्गति? ५६ ईंच की कौन कहे मुझे तो लगता है कि मोदी जी के सीना है ही नहीं उसकी जगह पत्थर है. अगर सीना होता तो बंगाल में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर अवश्य चीत्कारता. जिस तरह भाजपा समर्थक महिला की नग्न परेड कराई गई है अब तक तो भाजपा को सडकों पर उतर जाना चाहिए था और पूरे बंगाल को ठप्प कर देना चाहिए था तो यह भी नहीं हो रहा है.
मित्रों, पहले भी अपने आलेख में मैं मोदी जी से निवेदन कर चुका हूँ कि मोदी जी को गाँधी नहीं सावरकर बनना होगा और अगर वे सावरकर नहीं बन सकते तो उनको योगी जी के लिए सिंहासन खाली कर देना चाहिए. गाँधी बननेवाले नेताओं की तो पहले से ही देश में कोई कमी नहीं थी. अच्छा हो कि मोदी जी समय निकालकर रणदीप हुड्डा की सावरकर फिल्म को एक बार देख लें शायद आधुनिक गाजी तुगलक मोदी जी को जोश आ जाए.
शुक्रवार, 7 जून 2024
रामचंद्र कह गए सिया से
मित्रों, कई दशक पहले गोपी फिल्म में एक गाना था कि रामचंद्र कह गये सिया से, ऐसा कलजुग आएगा, हंस चुगेगा दाना दुनका कौआ मोती खाएगा. इस बार के लोकसभा चुनाव परिणामों को देखकर यही कहा जा सकता है कि इस बार सच की हार हुई है और झूठ जीत गया है. यद्यपि मोदी जी लगातार तीसरी बार सरकार बनाने जा रहे हैं तथापि उनके हाथ कमजोर हुए हैं और कमजोर भी किसने किया है? उनलोगों ने जिनके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया. हिन्दू ह्रदय सम्राट बाहुबली अपने लोगों कटप्पा द्वारा दिए गए धोखे से व्यथित है, भीतर-ही-भीतर रो रहा है ऊपर से कुछ बोल नहीं रहा.
मित्रों, किसने कल्पना की थी कि भाजपा अयोध्या की सीट हार जाएगी, किसने कल्पना की थी? उस अयोध्या की सीट जहाँ ५०० सालों के बाद मोदी जी के प्रयास से राम जी फिर से भव्य मंदिर में विराजे हैं. किसने कल्पना की थी कि कसाब को फांसी दिलवाने वाले उज्ज्वल निकम चुनाव हार जाएँगे और जेलों में बंद पंजाब और कश्मीर के दुर्दांत आतंकवादी चुनाव जीतकर माननीय बन जाएँगे? किसने कल्पना की थी कि पूर्व आईपीएस अन्नामलाई चुनाव हार जाएँगे और सनातन को बीमारी बतानेवाली पार्टी तमिलनाडु में क्लीन स्वीप करेगी?
मित्रों, सचमुच घनघोर कलयुग आ गया है. दुर्भाग्यवश हम हिन्दू बहुत आसानी से बहकावे और लालच में आ जाते हैं और इस बार तो हमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं चलाई और बल्कि कुल्हाड़ी पर पैर मार लिया है. हम आखिर समय के संकेतों को क्यों नहीं समझ पा रहे? मैं यहाँ गैर यादवों की बात कर रहा हूँ क्योंकि यादव तो बहुत पहले से हिन्दू नहीं रहे. जेहादी अजगर छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी भ्रष्ट दलों की सहायता से सनातन को निगलने के लिए तैयार बैठा है. यूपी में सहारनपुर में मोदी जी को बोटी-बोटी कर देने की धमकी देनेवाले मसूद को भी आपने जितवा दिया. और कल-परसों से ही वहां के मुसलमान हिन्दुओं के घरों पर चढ़कर गालियाँ भी देने लगे हैं. कहाँ जाओगे भागकर सोंचा भी है?
मित्रों, बंगाल की हार के लिए मैं हिन्दुओं को नहीं बल्कि स्वयं मोदी जी को दोषी ठहराता हूँ. जब संविधान में अनुच्छेद ३५६ का प्रावधान किया गया है तो उन्होंने अब तक उसका इस्तेमाल क्यों नहीं किया? सवाल उठता है कि जब आपके वोटरों को वोट गिराने ही नहीं दिया जाएगा तो आप जीतेंगे कैसे?
खैर, अब तो जो होना था हो चुका. अमित शाह जी का फेक वीडियो और कांग्रेस पार्टी की झूठी गारंटी अपना कमाल दिखा चुकी. हमारा क्या है, हम तो मोदी जी के साथ थे, हैं और रहेंगे. मोदी जी को उनके नए कार्यकाल के लिए शुभकामनाएँ और बधाई.
बुधवार, 1 मई 2024
अबकी बार ४०० पार
मित्रों, इन दिनों पूरा भारत चुनावी बुखार से तप रहा है. भारतीय जनता पार्टी अपने दो चिर विलम्बित वादों को पिछले कार्यकालों में पूरा कर चुकी है और अब बारी है सबसे बड़े वादे की अर्थात समान नागरिक संहिता की. यह ऐसा वादा है जो वादा मूलतः हमारे संविधान निर्माताओं ने देश की जनता से किया था. कांग्रेस पार्टी जिसकी संविधान सभा में सबसे बड़ी भागेदारी थी इस वादे को बहुत पहले भूल चुकी है और कई दशकों से भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने की बजाए गजवाए हिन्द लाने के कुत्सित प्रयास कर रही है. कांग्रेस पार्टी के इस बार के चुनावी घोषणा-पत्र को अगर हम देखें तो पाएँगे कि या तो वह स्वतंत्रता पूर्व मुस्लिम लीग का घोषणा-पत्र है या फिर वर्तमान पाकिस्तान का. उद्देश्य है हिन्दुओं में फूट डालना और मुसलमानों का शत-प्रतिशत मत प्राप्त करना. कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में हिन्दुओं के लिए कोई वादा किया ही नहीं है बल्कि उसके सारे वादे मुस्लिम-तुष्टिकरण की पराकाष्ठा हैं. राहुल गाँधी अपने भाषणों में जिस क्रांति का वादा कर रहे हैं वास्तव में वो इस्लामिक क्रांति है जो पिछली सदी में ईरान और अफगानिस्तान में देखने को मिली थी.
मित्रों, मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि अपना देश इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा है. हमें शरियत और संविधान के मध्य चुनाव करना है. ५०० साल बाद मोदी जी की शुभेच्छा से रामलला अपने भवन में पधारे हैं और देश के माथे से धारा ३७० जिसने कश्मीर को हिन्दूविहीन बना दिया का कलंक मिटाया जा चुका है. भारत में पहली बार एक ऐसी सरकार सत्ता में है जिस पर दस साल तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है. देश की अर्थव्यवस्था नित नई ऊंचाई छू रही है, २५ करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं. पहली बार गरीबी मिटाना नारा न होकर एक हकीकत है. जो लोग सबसे ज्यादा जनसँख्या बढ़ाकर जनसँख्या जिहाद चला रहे हैं वही लोग सबसे ज्यादा बेरोजगारी का रोना रो रहे हैं.
मित्रों, हजारों सालों की गुलामी और बर्बादी के बाद यह चुनाव नहीं है बल्कि अवसर है हजारों सालों के लिए देश का उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने का. चुनना आपको है कि आपको २०१४ से पहले वाला बम विस्फोटों, बलात्कारों, घोटालों वाला भारत चाहिए या फिर मौर्य और गुप्त काल वाला विश्वगुरु भारत चाहिए. मुसलमानों का एक भी वोट जाया नहीं जानेवाला है यह निश्चित है मगर क्या हम ऐसी ही गारंटी मोदी जी को हिन्दुओं के मतों को लेकर दे सकते हैं? इस बार कांग्रेस द्वारा अतीत में गजवाए हिंद की दिशा में उठाए गए सारे नापाक क़दमों चाहे वो मुस्लिम पर्सनल लॉ हो या वक्फ बोर्ड को मिटाने की बारी है और इसके लिए समान नागरिक संहिता लाना ही एकमात्र समाधान है सिर्फ उत्तराखंड से कुछ नहीं होनेवाला इसे पूरे भारत में लागू करना होगा और उसके लिए चाहिए ४०० पार. क्या हम गारंटी पुरुष मोदी जी को ४०० पार की गारंटी दे सकते हैं?
बुधवार, 17 अप्रैल 2024
केके पाठक का बढ़ता पागलपन
मित्रों, दुनिया में कुछ लोग काम के पीछे पागल होते हैं तो कुछ नाम के पीछे। बिहार में एक आईएएस अधिकारी ऐसे ही हैं जो दिखावा तो काम का करते हैं लेकिन दरअसल उनका लक्ष्य सिर्फ नाम बटोरना है।
मित्रों, बिहार के उस पागल अधिकारी का नाम है केके पाठक। श्रीमान अपनी मर्जी के मालिक हैं। मंत्री यहां तक कि मुख्यमंत्री विधानसभा में कुछ भी बोलें इनको कोई मतलब नहीं। श्रीमान को हम नौकरशाही की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं और निरंकुशता की चरम सीमा भी।
मित्रों, आपने माता दुर्गा की प्रतिमा को देखा होगा। माता की सवारी सिंह है जो शक्ति का प्रतीक है लेकिन लोक जन रंजन पद पंकज रूपी माता के पैरों तले है। लोकतंत्र में भी शक्ति यानि नौकरशाही को जनप्रतिनिधियों के पैरों तले होना चाहिए लेकिन केके पाठक जी ने तो हद ही कर रखी है। ये तो मुख्यमंत्री तक की नहीं मानते।
मित्रों, शिक्षा विभाग से पहले श्रीमान उत्पाद विभाग के सर्वेसर्वा थे। वहां भी इन्होंने हजारों ड्रोन खरीद डाले। कहा कि आसमान से शराब तस्करों की निगरानी करेंगे। मगर जब परिणाम शून्य बटा सन्नाटा रहा तब श्रीमान अधिकारियों के साथ गाली-गलौज करने लगे। शिक्षा विभाग में भी इन्होंने इन दिनों खूब बंदरकूद मचा रखी है लेकिन परिणाम अबतक शून्य बटा सन्नाटा ही है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। अलबत्ता इन्होंने नाकारा शिक्षकों को बिहार सरकार का कर्मचारी जरूर बना दिया है।
मित्रों, जब श्रीमान सरकारी स्कूलों में कुछ खास सुधार नहीं कर पाए तो विश्वविद्यालय शिक्षकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों को तंग करने लगे और उनका वेतन-पेंशन रोक दिया। इतना ही नहीं सीधे राज्यपाल से उलझ भी गए जबकि कानूनन विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्था होते हैं और राज्यपाल उनके कुलाधिपति होते हैं। न जाने कब बिहार के भूखे-प्यासे विश्वविद्यालय शिक्षकों और शिक्षकेतर कर्मचारियों को वेतन-पेंशन मिलेगा तीन महीनों से तो नहीं मिला है।
मित्रों, इतना ही नहीं अब तो श्रीमान ने चुनाव आयोग के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया है जबकि पूरे देश में आचार-संहिता लागू है। मल्लब श्रीमान खुद को सबसे ऊपर समझते हैं. क्या पता कब सर्वोच्च न्यायालय और प्रधानमंत्री जी को भी कोई निर्देश दे डालें महामहिम राज्यपाल महोदय तक तो पहुँच ही गए हैं.
सोमवार, 1 अप्रैल 2024
एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग
मित्रों, यूं तो मैंने इन दिनों आलेख लिखना काफी कम कर दिया है. एक तो स्वास्थ्य साथ नहीं देता तो वहीँ दूसरी ओर निजी समस्याओं ने परेशान कर रखा है लेकिन पिछले दिनों घटी दो घटनाओं ने मुझे इस आलेख को लिखने के लिए बाध्य कर दिया है. पहली घटना १९ मार्च की है. मैं बता दूं कि मेरे घर के पीछे पहले महिला थाना था जो अब पुलिस लाइन, हाजीपुर के पास मुजफ्फरपुर रोड में चला गया है. जब तक मेरे पड़ोस में महिला थाना था तब तक मोहल्ले के दुसाधों की मौज रही. उनके ही बीच का एक दुसाध विनोद महिला थाने में दलाली जो करता था. तब भोर के ३-४ बजे से मोहल्ले के दुसाध थाना के शौचालय में शौच के लिए जाने लगते. दिनभर मोटर चलाते और ठंडा पानी से नहाते, कपडे धोते. कभी-कभी मोटर जल जाता तो विनोद बनवा देता, शौचालय भी साफ़ करवा देता. लेकिन हुआ यूं कि पिछले साल ५ सितम्बर को महिला थाना यहाँ से पुलिस लाईन में चला गया और यहाँ पहले साईबर थाना और बाद में जढुआ ओपी भी खुल गया. विनोद भी अब महिला थाना के नए परिसर में दलाली करने लगा. अब शुरू हुई परेशानी, नए पुलिसवाले दुसाधों को रोकने लगे जो स्वाभाविक भी था. क्योंकि दुसाधों को तो सिर्फ शौच करने से मतलब था साफ़ कौन करता या करवाता?
मित्रों, १९ मार्च को जब कोई दुसाध थाना परिसर में शौच करने और कूड़ा फेंकने आया तो थानेदार धर्मेन्द्र ने उसे रोकने की कोशिश की. फिर क्या था एससी एक्ट की ऐंठन से ऐंठे युवक ने भाई के साथ मिलकर थानेदार को उठाकर पटक दिया. थानेदार जान बचाकर भागे क्योंकि उस समय थाना में मात्र २-३ पुलिसकर्मी ही थे जबकि कुछ ही मिनट में दुसाधों ने थाना को घेर लिया और पथराव करने लगे. साथ ही थाना के सामने की सड़क को जाम कर थानेदार को एससी-एसटी एक्ट में फंसा देने की धमकी देने के साथ-साथ भद्दी-भद्दी गालियाँ भी देने लगे. हंगामा बढ़ता देख नगर थाना को फोन किया गया. जब भारी संख्या में पुलिस फ़ोर्स जमा हो गई तब एक महिला सहित चार लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया जिनको बाद में जेल भेज दिया गया. विनोद पर लोगों को भड़काने का आरोप लगाया गया. इन दिनों वो फरार चल रहा है. साथ ही थानेदार का तबादला कर दिया गया.
मित्रों, अब आते हैं दूसरी घटना पर जो होली के दिन की है. हुआ यूं कि वैशाली जिले के ही महनार थाना के जगरनाथपुर में गाँव के ही चमारों ने एक पीपल के पेड़ पर नीला झंडा लगा दिया और वहां लिखकर टांग दिया कि यहाँ राजपूतों का प्रवेश निषेध है. चूँकि पीपल का पेड़ राजपूतों की जमीन पर था इसलिए जब राजपूत विरोध करने के लिए पहुंचे तब योजनाबद्ध तरीके से उनके ऊपर लाठी और ईट-पत्थरों से हमला कर दिया गया जिससे कई राजपूत युवक लहू-लुहान हो गए. गजब तो तब हुआ कि जब वे लोग थाना पर केस करने पहुंचे तो उलटे उन चारों राजपूतों को एससी एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. मतलब कि मार भी उनको ही पड़ी और जेल भी उनको ही जाना पड़ा. साथ ही केस में नाम होने के चलते कई राजपूत बेवजह इन दिनों फरारी का जीवन जी रहे हैं जबकि किसानों के लिए यह समय काफी महत्वपूर्ण है.
मित्रों, समझ में नहीं आता कि इस एससी-एसटी एक्ट को मोदी सरकार ने संशोधित क्यों किया जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इसके भारी संख्या में दुरुपयोग को देखते हुए इस एक्ट के मामले में जांच से पहले गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी थी? रोजाना उत्तर प्रदेश से इस एक्ट के दुरुपयोग की खबरें हम अब तक पढ़ते आ रहे थे लेकिन अब तो बिहार में भी इसका दुरुपयोग होने लगा और मेरी आँखों के आगे हो रहा है. यहाँ मैं पूछना चाहते हूँ कि अगर धर्मेन्द्र थानेदार नहीं होते तो इस समय जेल में कौन होता? उनके ऊपर हमला करनवाले दुसाध या खुद धर्मेन्द्र? इस तरह तो गैर अनुसूचित जाति के हिन्दुओं का खुद अपने ही गाँव में रहना मुश्किल हो जाएगा साथ ही नौकरी करने में भी समस्या आएगी. जब थानेदार को एक्ट के दम पर थाना में पीटा जा सकता है तो आम आदमी की क्या बिसात?
बुधवार, 20 मार्च 2024
सावधान इंडिया, शांतिप्रिय समाज से सावधान
मित्रों, इतिहास गवाह है कि पिछले १४०० सालों में जितने निर्दोषों की हत्या कथित शांतिप्रिय लोगों ने की है उतनी कदाचित हमारे धर्मग्रंथों में वर्णित राक्षसों ने भी नहीं की होगी. सब जानते हैं कि दुनिया भर में चल रही जेहादी हिंसा के लिए कुरान की २६ आयतें जिम्मेदार हैं लेकिन सब चुप हैं. न तो कमलेश तिवारी के हत्यारों की उनसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थी, न ही कन्हैयालाल के हत्यारों की कन्हैयालाल से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थी. जेहादी हिंसा के शिकार निर्दोष हिन्दुओं लिस्ट काफी लम्बी है इसलिए सीधे कल की बदायूं में घटी घटना पर आते हैं. हुआ यूं कि दो मुस्लिम पडोसी अपने हिन्दू पडोसी विनोद सिंह के घर पर ५००० रू. कर्ज मांगने के बहाने जाते हैं. स्वागत में जब उनकी पत्नी सुनीता चाय बनाने में लग जाती है तब साजिद नामक नमाजी दूसरी मंजिल पर चला जाता है और उनके तीनों बेटे आयुष (१२ वर्ष), हनी (८ वर्ष) और पीयूष पर उस्तरे से हमला कर देता है जिसमें आयुष और हनी गला काटे जाने के चलते तत्काल दम तोड़ देते हैं जबकि पीयूष किसी तरह भागने में सफल हो जाता है. इतना ही नहीं वह नरपिशाच गला काटने के बाद उन बच्चों का खून भी पीता है. उधर जावेद सुनीता के पास ही बैठा रहता है और उनकी खतरनाक योजना से अनजान सुनीता उसे 5000 रू दे भी देती है।
मित्रों, पिछले १४०० सालों से जेहादियों ने पूरी दुनिया में निर्दोषों की हत्या का जैसे ठेका लिया हुआ है. भला १२ या ८ साल के बच्चे से किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है? उनलोगों ने उनका क्या बिगाड़ा होगा सिवाय हिन्दू माता-पिता से जन्म लेने के सिवाय? ७ अक्तूबर २०२३ को इजरायल में हमास ने जिस तरह की राक्षसी हिंसा का नग्न प्रदर्शन किया उसे पूरी दुनिया ने देखा है. भारत में भी चाहे 1920 के दशक में मोपलाओं द्वारा किया गया हिन्दू नरसंहार हो या 16 अगस्त 1946 को कोलकाता नरसंहार हो या 1990 में कश्मीर में किया गया हिन्दुओं का नरसंहार हो या फिर 2002 में गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस अग्रिकांड हो या फिर २०२० के दिल्ली के एकतरफा दंगे हों मानवता के हत्यारों द्वारा लगातार की गई रक्तरंजित हिंसा के बावजूद हम हिन्दुओं की आँखें बंद हैं और हम भाईचारे के गीत गाने में मगन हैं. हमें बहुत पहले सावधान हो जाना चाहिए था. हम यह नहीं कहते कि हमें उनपर हमला कर देना चाहिए लेकिन अपनी आत्मरक्षा के लिए हम पारंपरिक हथियार तो रख ही सकते हैं. साथ ही हमें झूठी धर्मनिरपेक्षता के खतरों को भी समझना होगा. इतना ही नहीं हमें आनेवाले लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का हाथ मजबूत करना होगा और ४०० सीटों पर जिताना होगा अन्यथा भारत को भारत-विरोधी राक्षसी शक्तियों के हाथों में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा. फिर हम हिंदुओं का वही होगा जो इन दिनों पाकिस्तान और बांग्लादेश में हो रहा है।
सोमवार, 29 जनवरी 2024
बिहार में दोषी कौन, नीतीश, लालू या कांग्रेस?
मित्रों, कई दशक बीत गए. पिताजी डॉ. विष्णुपद सिंह आर.पी.एस. कॉलेज, महनार, वैशाली के प्रधानाचार्य के पद से रिटायर हो चुके थे. बचे हुए शिक्षकों में प्रधानाचार्य बनने के लिए बड़ी मारा-मारी थी. तभी हमने सुना कि महाविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक गिरी चाचा ने प्रधानाचार्य बनने के बाद पहनने के लिए कोट भी सिलवा लिया है हालांकि वरीयता क्रम के अनुसार उनके प्रधानाचार्य बनने में अभी देरी थी.
मित्रों, ठीक इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी साल २०१३-१४ से अचकन सिलाए बैठे हैं इस प्रतीक्षा में कि जब वो प्रधानमंत्री बनेंगे तब इसको पहनेंगे. इस तरह की एक और घटना महनार में रहते हुए हमें देखने को मिली थी. एक अधेड़ उम्र का बढ़ई बाल-बच्चेदार होते हुए भी शादी करने के लिए बेहाल था. महनार के माली टोला के युवकों ने एक बार उसको शादी करवा देने का लालच दिया. उन युवकों में से ही एक युवक को दुल्हन बना दिया गया. जमकर दावत हुई और सुहागरात के दिन जो होना था वही हुआ. जब पोल खुली तब बढ़ई ने लोगों को जमकर गाली दी.
मित्रों, माननीय नीतीश जी की हालत न सिर्फ गिरी चाचा से बल्कि उस बुजुर्ग बढ़ई से भी मिलती है. कोई भी उनको प्रधानमंत्री बनाने के सपने दिखाकर बेवकूफ बना जाता है जबकि उनके पास सिर्फ १६ सांसद है हालाँकि बिहार के पड़ोसी झारखण्ड में निर्दलीय भी मुख्यमंत्री हो चुका है. मान लिया कि नीतीश जी को प्रधानमंत्री के पद के झूठे सपने दिखाकर धोखा दिया गया लेकिन उनको चने के झाड़ पर चढ़ने को किसने कहा था? क्या वो भी राहुल गाँधी की तरह पप्पू हैं?
मित्रों, मैं यह नहीं कहता कि कल की नीतीश की पल्टी के लिए सिर्फ नीतीश जी ही दोषी हैं. उनको झूठे सपने दिखाकर मूर्ख बनानेवाले भी कम दोषी नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा दोषी खुद नीतीश जी हैं इसमें कोई सन्देह नहीं. आखिर २०२० का विधानसभा चुनाव उन्होंने भाजपा के साथ रहकर जीता था फिर उनको जनमत का अपमान करने का अधिकार किसने दिया था? इसी तरह उन्होंने २०१७ में भी जनमत को ठेंगा दिखाया था जो गलत था. खैर लौट के बुद्धू घर को आए और उम्मीद करता हूँ कि अब वो पलटी नहीं मारेंगे. शायद!
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शुक्रवार, 12 जनवरी 2024
मेरे पिता स्व. डॉ. विष्णुपद सिंह
मित्रों, मेरे पिता स्व. डॉ. विष्णुपद सिंह को दुनिया से गए आज पूरे तीन साल हो चुके हैं. आज ही के दिन रात के ९ बजे उन्होंने स्थानीय गणपति अस्पताल में अंतिम सांस ली थी हालाँकि वे ५ जनवरी २०२१ से ही बेहोश थे. इन तीन सालों में मैं अपने ही पिता को शाब्दिक श्रद्धांजलि नहीं दे पाया जबकि गाहे-बेगाहे लिखना मेरी आदत रही है. दरअसल मेरे पिता मेरे सूर्य थे और उनका अस्त हो जाना जैसे मेरे जीवन में अकस्मात् शाम नहीं सीधे अर्द्धरात्रि ले आया. उस अँधेरे में मैं उन शब्दों को खोजता रहा जिन शब्दों द्वारा मैं अपने पिता के जीवन और मेरे जीवन में उनके महत्व को अभिव्यक्त कर सकूं. पिताजी को याद करते ही मेरा मन और मेरी लेखनी का भावुकता के मारे गला ही रूंध जाता और बात शुरू होने से पहले ही रूक जाती.
मित्रों, मेरे पिता मेरे गुरु, मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक सबकुछ एक साथ थे. वो इस घनघोर कलियुग में भी घनघोर ईमानदार और आदर्शवादी थे. जाहिर है उनका और हमारा जीवन घनघोर अभावों में बीता. चाहते तो अपने ईमान का सौदा करके वैभवपूर्ण जीवन जी सकते थे लेकिन निहायत नरम, विनम्र और लचीले स्वभाव वाले मेरे पिता ने इस एक मुद्दे पर कभी समझौता नहीं किया. हमेशा कर्ज में रहे लेकिन देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण को चुकता करने में कभी कंजूसी नहीं की. पटना यूनिवर्सिटी के टॉपर होते हुए भी आरपीएस कॉलेज, चकेयाज, महनार जैसे देहात में शिक्षण किया. खुद का चूल्हा भले ही जले या न जले गरीब विद्यार्थियों की फीस बेफिक्र होकर अपनी जेब से भर देते यहाँ तक कि कर्ज लेकर भी. अपने ३५-४० साल लम्बे अध्यापन काल के आरंभिक १५ वर्षों तक जब तक कॉलेज सरकारी नहीं हुआ था मामूली वेतन पर काम किया पर विद्यार्थियों को फ्री में ट्यूशन, गेस और नोट्स देते रहे. उनके नोट्स गागर में सागर होते. होते भी क्यों नहीं पिताजी एक साथ अंकगणित, हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान जो थे, इतिहास के तो वो प्राध्यापक ही थे.
मित्रों, उन्होंने एक साथ तीन पीढ़ियों को पढाया लेकिन उनका कॉलेज में कभी किसी से न तो झगडा हुआ और न ही बहस हुई. जब कभी छात्र आपस में मारा-मारी करने लगते तब पिताजी बिना कुछ कहे अपने कमरे से बाहर आकर बरामदे में खड़ा भर हो जाते क्षण भर में झगडा स्वतः बंद हो जाता.
मित्रों, पिताजी अजातशत्रु थे फिर भी अपनी ससुराल में उनको जमीन का मुकदमा लड़ना पड़ा ठीक उसी तरह जैसे धर्मराज युधिष्ठिर को दुर्योधन से लड़ना पड़ा था. पिताजी विनम्र थे लेकिन दृढप्रतिज्ञ भी थे. जो धर्मयुद्ध मेरी नानी श्रीमती धन्ना कुंवर ने प्रारंभ किया था उसे उन्होंने अंजाम तक पंहुचा कर छोड़ा. साथ ही उन्होंने जिस तरह मेरी नानी का ख्याल रखा आज भी पूरे ईलाके में मिसाल है.
मित्रों, मेरी पिताजी से कुछ शिकायतें भी हैं. उन्होंने कभी अपने परिवार और अपने परिवार के कल की चिंता नहीं की. साथ ही सिर्फ वो माँ को ही परिवार समझने लगे थे अपने एकमात्र पुत्र और पुत्रवधू की उन्होंने कभी क़द्र नहीं की. यही कारण था कि जब वे धराधाम से विदा हुए तब उनके सर पर अपनी छत नहीं थी और किराये के घर से ही उनका श्राद्ध हुआ और उनकी अटैची से सिर्फ ६०००० रू. ही निकले. फिर भी मैं अपने महान पिताजी को आज उनकी मृत्यु की तीसरी वार्षिकी पर अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ. मुझे आज भी इस बात का मलाल है कि वे बिना कुछ कहे अचानक बेहोश हो गए और फिर होश में नहीं आए. मैं ८ दिनों तक अस्पताल की कुर्सी पर बैठे-बैठे माता भगवती से उनके फिर से उठ खड़े होने की प्रार्थना करता रहा लेकिन वो नहीं माने वर्ना माता उनकी बात काट ही नहीं सकती. पिताजी आप न सिर्फ मेरे पिता थे बल्कि आदर्श और गुरु भी थे और हमेशा रहेंगे. पिताजी मैं आपकी कमी रोजाना महसूस करता हूँ और प्रत्येक क्षण आपको याद करता हूं. आपको कोटिशः नमन बाबू. जब तक आप जीवित थे आपकी ख़ुशी में ही मैंने अपनी ख़ुशी समझी और अपना सबकुछ आपको समर्पित कर दिया. अब आप नहीं हैं तो मैं आपको अपने उद्गार चंद शब्दों के माध्यम से समर्पित करता हूँ.
जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए,
अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिए....
सोमवार, 9 अक्तूबर 2023
ये कैसा मजहब है भाई
मित्रों, पिछले दिनों दुनिया में दो तरह की प्रगति देखने को मिली है। एक तरफ हिंदुत्व ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरी दुनिया को तू वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश दिया। पूरी दुनिया ने विश्व शांति के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को न सिर्फ महसूस किया बल्कि हिंदुत्व द्वारा किए गये अतिथि सत्कार से अभिभूत भी दिखी। हिंदुत्व सदियों से सह अस्तित्व की भावना का पालन करता आ रहा है और आगे भी करता रहेगा इस बात से पूरी दुनिया जी २० की बैठक के दौरान आश्वस्त दिखी।
मित्रों, दूसरी तरफ मुसलमानों ने अभी- अभी इस्राएल पर जिस तरह हमला किया है उसे देखकर पूरी मानवता का सिर शर्म से झुक गया है। अल्ला हू अकबर के नारों के साथ महिलाओं के नग्न शवों की परेड निकाली गई, ५ साल के बच्चे का सिर काट कर उसे हाथ में लेकर नृत्य किया गया, सैंकड़ों यहूदियों का अपहरण कर लिया गया, महिलाओं के साथ बर्बरता पूर्वक सामूहिक बलात्कार किए गये और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वे काफिर थे, गैर-मुसलमान थे।
मित्रों, हिंदुत्व तो सैंकड़ों सालों से इस्लाम का यह रूप देखता आ रहा है। सिंध पर अरबों के ७१० ई के आक्रमण के समय से ही भारत में करोड़ों निर्दोष हिंदुओं को मुसलमानों ने मारा, लाखों हिंदू महिलाओं को बंदी बनाया और १-२ दीनार में मध्य पूर्व में ले जाकर बेच दिया। दुनिया को यह समझना होगा कि इस्लाम धर्म नहीं अधर्म है, मानवता के नाम पर एक कलंक है, मानवता का दुश्मन है। दुनिया को यह समझना होगा कि सारे फ़साद और सारी जिहादी क्रूरता की जड़ कुरान की उन २६ आयतो़ में है जिनको पुस्तक से हटाने के लिए रिजवी साहब ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
मित्रों, अब जबकि यहूदियों ने बदले की कार्रवाई शुरू की है पूरी दुनिया के मुसलमान खुद को पीड़ित बताकर शांतिपाठ शुरू करनेवाले हैं। वो चाहते हैं कि सिर्फ गोधरा ट्रेन कांड हो उसकी प्रतिक्रिया नहीं हो, वो चाहते हैं सिर्फ हमास हिंसा करे यहूदी प्रतिहिंसा न करें। इसलिए सावधान रहें, सचेत रहें, सतर्क रहें। मुसलमानों से सावधान क्योंकि उनके पास है कुरान और वे कभी भी भारत को भी बना सकते हैं श्मशान।
शुक्रवार, 8 सितंबर 2023
विश्वगुरु बनता भारत
मित्रों, अगर हम कहें कि इनदिनों भारतवासियों के कदम जमीन पर नहीं चाँद-सूरज पर हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. जहाँ भारत के कदम चाँद और सूरज पर हैं वहीँ पूरी दुनिया सिमट कर भारत के दिल दिल्ली में आ गई है. सारी-की-सारी रेटिंग एजेंसियों में जैसे भारत की रेटिंग बढ़ाने की होड़-सी लगी हुई है.
मित्रों, वर्षा ऋतु में वसंत के आगमन से जहाँ भारतमाता के भक्तों में उल्लास और होली-दिवाली का माहौल है वहीँ भारत के आतंरिक और बाह्य शत्रुओं के चेहरे लौकी की माफिक लटक-से गए हैं. आपको याद होगा जब १९९९ समाप्त हो रहा था और दुनिया और भारत नई सहस्राब्दी में प्रवेश कर रहे थे तब कंधार विमान अपहरण के कारण हम सभी भारतवासियों में उदासी छाई हुई थी. तब किसी ने भी नहीं सोंचा था कि मात्र २३ साल बाद ऐसी स्थिति भी आएगी कि उधर चीन-पाकिस्तान जैसे भारत के चिर-शत्रुओं का सूर्य अस्त हो रहा होगा और ईधर भारत के भाग्य का सूरज पूर्व दिशा में क्षितिज पर दस्तक दे रहा होगा.
मित्रों, किसी भी देश या समाज के जीवन में नेतृत्व का अपना अलग महत्व होता है वर्ना फ़्रांस में सिर्फ नेपोलियन ही तो राजा नहीं बना था. जहाँ भारत का पिछला नेतृत्व एक परिवार का गुलाम था, जहाँ उसको भारतवासियों की ख़ुशी, भारत के गौरव से कोई मतलब ही नहीं था, जहाँ वह थका-मांदा था, जहाँ उसके कंधे झुके हुए रहते थे, जहाँ वो वैश्विक मंचों पर कोनों की तलाश करता था वहीँ भारत का नया नेतृत्व नित-नई ऊर्जा से आप्लावित है, इस नए नेतृत्व के पास न केवल अपने देश के लिए योजनाएं हैं बल्कि वह पूरी दुनिया को किसी भी संकट से उबार लेने का माद्दा भी रखता है. न तो नेपोलियन के शब्दकोश में असंभव शब्द था और न ही नरेन्द्र मोदी के शब्दकोश में इस दुनिया के सबसे फालतू शब्द के लिए कोई स्थान है.
मित्रों, जहाँ एक तरफ उस भारत का भाग्योदय हो रहा है जो एक हजार साल तक गुलाम रहा तो वहीँ दूसरी ओर भारत के उन घृणित लोगों के छिपे हुए उद्देश्य सामने आने लगे हैं जो सदा सनातन भारतीय धर्म और संस्कृति से बेवजह सख्त घृणा करते हैं. वो भूल गए हैं कि आज से पांच सौ साल पहले फ्रांस के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने भविष्यवाणी कर दी थी कि २१वीं सदी में जिस देश और धर्म का नाम एक महासागर के नाम पर होगा वो विश्व और मानवता का नेतृत्व करेगा. वो तो वाजपेयी और मोदी के बीच भारत के विघ्नसंतोषियों के हाथों में सत्ता चली गई थी वर्ना कई साल पहले भारत वैश्विक और आर्थिक महाशक्ति बन जाता. तो आईए जी२० के शिखर-सम्मलेन की पूर्व-संध्या पर दोनों मुट्ठियों को भींचकर पूरी ताकत के नारा लगाएं-
जय भारत, जय जगत.
सोमवार, 7 अगस्त 2023
मणिपुर के बाद मेवात से भाग मिल्खा भाग
मित्रों, अपना भारत भी गजब देश है. दुनिया में ऐसा कोई दूसरा देश नहीं है जहाँ बहुसंख्यक हाशिए पर हों और अल्पसंख्यक इस कदर हावी हों कि बहुसंख्यकों के लिए अपने धार्मिक क्रिया-कलाप का पालन करना जानलेवा हो जाए. मानो हिन्दू न हुए बकरे हो गए जब जी चाहे दस-बीस के गले रेत डालो. मानो हिन्दू न हुए पंछी हो गए जब जी चाहे बन्दूक उठाओ और दस-बीस को मारकर गिरा दो. कभी बंगाल में कांवरियों को डरे-सहमे समुदाय द्वारा पीटा जाता है तो कभी मणिपुर में घुसपैठियों द्वारा उनका सामूहिक नरसंहार कर दिया जाता है तो कभी हरियाणा के मेवात में तीन तरफ से पहाड़ पर से घेरकर मंदिर गए हिन्दू श्रद्धालुओं पर गोलीबारी कर दी जाती है और न जाने हत्याकांड को सही ठहराने के लिए क्या-क्या बहाने बनाए जाते हैं. जैसे, उन्होंने जय श्रीराम के नारे क्यों लगाए? उनको यात्रा निकालने के लिए यही इलाका मिला था? उन्होंने हमारी बहन को गाली क्यों दी? उन्होंने एक मुसलमान की गाड़ी में धक्का क्यों मारा? उन्होंने बदतमीजी की आदि-आदि.
हाय, कितने मासूम हैं वो कि बहाने बनाना भी नहीं आता,
छिपाना चाहते हैं अपनी गंदी फितरत को छिपाना भी नहीं आता।
मित्रों, हमने बचपन में अपनी पाठ्य-पुस्तक में एक कहानी पढी थी जो आज बड़ी शिद्दत से याद आ रही है. किसी जंगल में एक मेमना एक झरने से पानी पीने गया तभी उसने देखा कि एक भेड़िया भी उससे ऊपर झरने का पानी पी रहा है. बेचारा मेमना चुपचाप पानी पी रहा था कि तभी भेड़िया चिल्लाया कि तू मेरे पानी को जूठा कर रहे हो. सुनकर मेमना हैरान हो गया कि जबकि भेड़िया ऊपर पानी पी रहा है तो वो कैसे उसके पानी को जूठा कर सकता है. जब उसने भेड़िये को समझाने की कोशिश की तो भेड़िए ने आरोप बदल दिया और कहने लगा कि तेरे बाप ने मुझे बहुत दिन पहले गाली दी थी और फिर भेड़िया मेमने को खा गया. मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि भेड़िये को तो बस मेमने को मारकर खा जाने का बहाना चाहिए भले ही वो झूठा हो या फिर भले ही उसमें दम नहीं हो. मणिपुर में घुसपैठिए ईसाईयों को और मेवात में रोहिंग्या सहित सभी मुसलमानों को बस हिन्दुओं को मारना था, सबक सिखाना था, डराना था कि तुम जब तक हिन्दू रहोगे तुमको हम चैन से जीने नहीं देंगे. उनको हमसे समस्या और कुछ नहीं है बस इतनी-सी है कि हम हिन्दू क्यों हैं, ईसाई या मुसलमान क्यों नहीं हो जाते. २०२० के दिल्ली दंगों के बारे में कोर्ट भी कह चुका है कि मुसलमान हिन्दुओं को सबक सिखाना चाहते थे.
मित्रों, आपने देखा होगा कि बलि या क़ुरबानी हमेशा मेमनों की दी जाती है शेर-बाघों की नहीं. फैसला अब हम हिन्दुओं को करना है कि हम मेमने बनकर रहेंगे या शेर बनकर. जो व्यक्ति अपने तन की भी रक्षा नहीं कर सकता वो देश-धर्म की रक्षा क्या करेगा. मिल्खा सिंह की तरह भागोगे तो बस भागते ही रहोगे, पाकिस्तान से भागकर भारत आ गए अब भारत से भागकर कहाँ जाओगे? कोई दूसरा हिन्दू देश तो है नहीं इस भूमंडल पर? इसलिए अपनी रक्षा करना सीखो, घमंड छोड़ो और पूरे हिन्दू समाज के बारे में सोंचो, सबको साथ लेकर चलना सीखो.
शनिवार, 22 जुलाई 2023
जलते मणिपुर के गुनाहगार
मित्रों, आज मणिपुर में गृहयुद्ध की स्थिति है. प्रदेश की ९० प्रतिशत जमीन पर काबिज ईसाई मणिपुर से हिन्दू मैतेई लोगों को खदेड़ देना चाहते हैं. जब तक ईसाई मार रहे थे और हिन्दू मर रहे थे तब तक तो सोनिया गाँधी जो ईटली से आई हुई कैथोलिक ईसाई है चुप रही लेकिन जैसे ही हिन्दुओं ने पलटवार शुरू किया उसके पेट में मरोड़ शुरू हो गया. न सिर्फ मणिपुर से हिन्दुओं को खदेड़ने की साजिश है बल्कि मिजोरम से भी मिजो ईसाई हिन्दुओं को भगा देने की धमकी दे रहे हैं. ऐसे में हिन्दुबहुल भारत में हिन्दू जाए तो कहाँ जाए? कोई दूसरा हिन्दू देश तो है नहीं.
मित्रों, लगभग पूरे पूर्वोत्तर भारत में आजादी के बाद से जैसे-जैसे ईसाईयों की संख्या बढती गई अलगाववाद भी बढ़ता गया. स्वामी विवेकानन्द के इस कथन को हम पूर्वोत्तर में सत्य होता हुआ देख सकते हैं कि भारत में सिर्फ धर्मान्तरण नहीं हो रहा राष्ट्रान्तरण हो रहा है. फिर कांग्रेस की डबल ईंजन की सरकारों की अल्पसंख्यकवादी नीति ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया. फिर भी १९७१ तक पूर्वोत्तर की स्थिति कमोबेश नियंत्रण में थी.
मित्रों, क्या आप बता सकते हैं कि १९७१ के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम उर्फ़ भारत-पाकिस्तान युद्ध से भारत को क्या लाभ हुए? आप नहीं बता सकते क्योंकि भारत को इस खामखा के युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ उलटे हानि हुई और वो भी जबरदस्त. सर्वप्रथम भारत की अर्थव्यवस्था पर युद्ध के खर्च का भारी बोझ पड़ा लेकिन इसके बदले भारत को एक ईंच भी जमीन नहीं मिली वह भी तब जबकि भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान के ९३ हजार सैनिकों को बंदी बना लिया था. परिणाम भयंकर और अभूतपूर्व महंगाई. पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में १९७१ के बाद पहले शरणार्थियों की समस्या उत्पन्न हुई फिर वामपंथियों और कांग्रेस पार्टी की कृपा से पूरा पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत घुसपैठियों से भर गया. अब तो दिल्ली, मुंबई और कश्मीर तक आपको घुसपैठिए नजर आ जाएंगे. सन १९७० तक मणिपुर में जहाँ 2-4 प्रतिशत कुकी ईसाई घुसपैठिए थे आज घुसपैठ और धर्मान्तरण के गंदे कांग्रेसी खेल के चलते मणिपुर में कुकी ईसाईयों की संख्या २१ प्रतिशत हो चुकी है. इतना ही नहीं कांग्रेस की हिंदुविरोधी नीतियों के कारण जहाँ हिन्दू मैतेई ईसाई बहुल पहाड़ी स्थानों में जमीन नहीं खरीद सकते वहीँ ईसाई हिन्दू बहुत घाटियों में आराम से जमीन खरीद सकते हैं. साथ ही कांग्रेस पार्टी ने ईसाई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देकर आरक्षण और अन्य लाभ दे दिए जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिए जाते हैं वो वहीँ हिन्दू मैतेई अपने ही हिन्दूबहुल देश में मुंहतका बनकर रह गए.
मित्रों, फिर मणिपुर और केंद्र दोनों में भाजपा की सरकार बनी और निर्णय लिया गया कि मणिपुर के मैतेई हिन्दुओं के साथ पिछले ५० सालों से होनेवाले अन्याय और गैर बराबरी को दूर किया जाए और उनको भी उच्च न्यायालय के आदेशानुसार अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया जाए जिससे मैतेई हिन्दू भी आरक्षण का लाभ उठा सकें और ईसाई बहुल क्षेत्रों में जमीन भी खरीद सकें. लेकिन अब तक मणिपुर के ईसाई चीन और कांग्रेस परी की मदद से इतने शक्तिशाली हो चुके थे कि जब चाहे तब भारतीय सेना का मार्ग रोकने लगे थे. मणिपुर के ईसाई बहुल ईलाकों की तुलना हम अफगानिस्तान के तालिबानी क्षेत्रों से कर सकते हैं क्योंकि यहाँ भी अत्याधुनिक हथियारों से युक्त सेना बन चुकी है साथ ही तालिबानी क्षेत्रों की तरह गांजे और अफीम की खेती भी जमकर होती है. जैसे ही सरकार ने उच्च न्यायालय के आदेशानुसार मैतेई हिन्दुओं को आरक्षण देने की घोषणा की गई ईसाईयों ने मैतेई हिन्दुओं के साथ-साथ भारतीय सेना और सुरक्षा बलों पर हमले शुरू कर दिए और हिंसा की आग में पिछले ५० सालों से जल रहे मणिपुर में हिंसा की आग और भी तेजी से भड़क उठी जिसे हिन्दू विरोधी कांग्रेस ने और भी भड़काया, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से तो उसका समझौता है ही.
मित्रों, इस बीच केंद्र सरकार ने मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में उग्रवादियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया आखिर कब तक भारतविरोधी शक्तियों को पाला जाए और बर्दाश्त किया जाए. बस तभी से कांग्रेस पार्टी के पेट में दर्द शुरू है वो देश-विदेश में भारत को बदनाम करने के अभियान में जुटी हुई है. एक पूरा-का-पूरा टूल किट गैंग सक्रिय है जिसमें न्यायपालिका तक शामिल है अन्यथा बंगाल में चुनाव के दौरान हुई हिंसा, हत्याएं, बलात्कार और महिलाओं को नंगा करके घुमाने की घटनाएँ न्यायपालिका को नजर नहीं आती लेकिन मणिपुर की नजर आ जाती है. राजस्थान की कांग्रेस सरकार का मंत्री सदन में खड़े होकर ख़ुद कह रहा है कि उनकी सरकार प्रदेश की महिलाओं की सुरक्षा करने में असफल हो गई है। उन्होंने यहाँ तक कह दिया, ‘मणिपुर के बजाय हमें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।’ लेकिन मी लार्ड को फिर भी राजस्थान में कोई अत्याचार नजर नहीं आता. मैं यह नहीं कहता कि मणिपुर में दो कुकी महिलाओं के साथ जो कुछ भी हुआ वो सही था लेकिन जब न्यायपालिका कांग्रेस और भाजपा शासित राज्यों के बीच भेदभाव करने लगेगी तो उस पर सवाल तो उठेंगे ही क्योंकि लोक से बड़ा न तो संविधान है और न ही तंत्र. कितनी विचित्र बात है कि केंद्र में ९ सालों से भाजपा की सरकार है लेकिन सिस्टम और न्यायपालिका पर आज भी कांग्रेस का कब्ज़ा है और जब तक न्यायपालिका में कोलेजियम सिस्टम रहेगा उनका कब्ज़ा बना रहेगा. मोदी सरकार ने प्रारंभ में कोलेजियम को समाप्त करने की कोशिश भी की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा होने नहीं दिया. अब मोदी सरकार ने भी मानों हार मान ली है जिस तरह से किरण रिजीजू को कानून मंत्री के पद से हटाया गया उससे तो ऐसा ही लगता है.
मित्रों, अब तक आपको भी कांग्रेस के टूल किट गैंग और मणिपुर पर हंगामे की क्रोनोलॉजी समझ में आ गई होगी इसलिए भावनाओं में आकर बहिए नहीं क्योंकि उनको भी पता है कि हिन्दू भोले और दयालु होते हैं और वे अबतक इसका फायदा भी उठाते रहे हैं. इसी तरह कांग्रेस ने २००४ में भी आपको कथित ताबूत घोटाले के नाम पर भड़काया था और वाजपेयी जैसे ईमानदार चुनाव हार गए थे. फिर भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार सत्ता में आई थी और देश को कई साल पीछे धकेल दिया था. इस समय भी कांग्रेस उसी खेल को दोहरा रही है. भारत की अर्थव्यवस्था और विदेश नीति इस समय पूरी दुनिया के लिए एक उदाहरण बनी हुई है. भारत बहुत जल्द जर्मनी और जापान को पछाड़ कर वैश्विक अर्थव्यवस्था में नंबर तीन पर काबिज होने जा रहा है और यह हम नहीं विश्व बैंक और तमाम रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं. लगता है जैसे हम जागती आँखों से सपने देख रहे हैं. और उधर इसी बात से दिन-रात चीन के गुणगान करनेवाली कांग्रेस पार्टी की नींद उडी हुई है. तो हमें सावधान और सचेत रहना है अन्यथा चोरों का गिरोह जिसने आपको चकमा देने के लिए इंडिया नाम से गठबंधन बनाया है भारत के विश्वगुरु बनने के सपने को एक बार फिर से चकनाचूर करने के लिए तैयार बैठा है.
पुनश्च- मणिपुर में बसी एक विदेशी मूल की जाति कुकी है, जो मात्र डेढ़ सौ वर्ष पहले पहाड़ों में आ कर बसी थी। ये मूलतः मंगोल नस्ल के लोग हैं। जब अंग्रेजों ने चीन में अफीम की खेती को बढ़ावा दिया तो उसके कुछ दशक बाद अंग्रेजों ने ही इन मंगोलों को बर्मा के पहाड़ी इलाके से ला कर मणिपुर में अफीम की खेती में लगाया। आपको आश्चर्य होगा कि तमाम कानूनों को धत्ता बता कर ये अब भी अफीम की खेती करते हैं और कानून इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इनके व्यवहार में अब भी वही मंगोली क्रूरता है, और व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध का भाव है। मतलब नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे।
अधिकांश कुकी यहाँ अंग्रेजों द्वारा बसाए गए हैं, पर कुछ उसके पहले ही रहते थे। उन्हें बर्मा से बुला कर मैतेई राजाओं ने बसाया था। क्यों? क्योंकि तब ये सस्ते सैनिक हुआ करते थे। सस्ते मजदूर के चक्कर में अपना नाश कर लेना कोई नई बीमारी नहीं है। आप भी ढूंढते हैं न सस्ते मजदूर? खैर...
आप मणिपुर के लोकल न्यूज को पढ़ने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि कुकी अब भी अवैध तरीके से बर्मा से आ कर मणिपुर के सीमावर्ती जिलों में बस रहे हैं। सरकार इस घुसपैठ को रोकने का प्रयास कर रही है, पर पूर्णतः सफल नहीं है।
आजादी के बाद जब उत्तर पूर्व में मिशनरियों को खुली छूट मिली तो उन्होंने इनका धर्म परिवर्तन कराया और अब लगभग सारे कुकी ईसाई हैं। और यही कारण है कि इनके मुद्दे पर एशिया-यूरोप सब एक सुर में बोलने लगते हैं।
इन लोगों का एक विशेष गुण है। नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे। क्या सरकार, क्या सुप्रीम कोर्ट? अपुनिच सरकार है! "पुष्पा राज, झुकेगा नहीं साला"
सरकार कहती है, अफीम की खेती अवैध है। ये कहते हैं, "तो क्या हुआ? हम करेंगे।" कोर्ट ने कहा, "मैतेई भी अनुसूचित जाति के लोग हैं।" ये कहते हैं, "कोर्ट कौन? हम कहते हैं कि वे अनुसूचित नहीं हैं, मतलब नहीं हैं। हमीं कोर्ट हैं।
मैती, मैतेई या मैतई... ये मणिपुर के मूल निवासी हैं। सदैव वनवासियों की तरह प्राकृतिक वैष्णव जीवन जीने वाले लोग। पुराने दिनों में सत्ता इनकी थी, इन्हीं में से राजा हुआ करते थे। अब राज्य नहीं है, जमीन भी नहीं है। मणिपुर की जनसंख्या में ये आधे से अधिक हैं, पर भूमि इनके पास दस प्रतिशत के आसपास है। उधर कुकीयों की जनसंख्या 20% है, पर जमीन 90% है।
90% जमीन पर कब्जा रखने वाले कुकीयों की मांग है कि 10% जमीन वाले मैतेई लोगों को जनजाति का दर्जा न दिया जाय। वे लोग विकसित हैं, सम्पन्न हैं। यदि उनको यदि अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया तो हमारा विकास नहीं होगा। हमलोग शोषित हैं, कुपोषित हैं... कितनी अच्छी बात है न?
अब मैतेई भाई बहनों की दशा देखिये। जनसंख्या इनकी अधिक है, विधायक इनके अधिक हैं, सरकार इनके समर्थन की है। पर कोर्ट से आदेश मिलने के बाद भी ये अपना हक नहीं ले पा रहे हैं। क्यों? इसका उत्तर समझना बहुत कठिन नहीं है।
गुरुवार, 29 जून 2023
भारत में क्यों जरुरी है समान नागरिक संहिता?
मित्रों, जब १९४७ में भारत को रक्तरंजित बंटवारे के बाद आजादी मिली तो भारत में दुर्भाग्यवश एक ऐसे व्यक्ति को जबरन प्रधानमंत्री बना दिया गया जो बस नाम का हिन्दू था और स्वयं कहता था कि By education I am an Englishman, by views an internationalist, by culture a Muslim and a Hindu only by accident of birth. उस व्यक्ति को मुस्लिम बहुल ईलाके में हिन्दुओं और सिखों के हो रहे नरसंहार की कोई चिंता नहीं थी बल्कि उसे हिन्दुबहुल ईलाके में रह रहे मुसलमानों की चिंता खाए जा रही थी. वह हिन्दू नामधारी मुसलमान जब अमेरिका की आधिकारिक यात्रा पर जाता तो अपनी बेटी के साथ बड़े ही चाव से गोमांस का भक्षण करता.
मित्रों, जब ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री हो तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो हिन्दुओं के भले के बारे में सोंचेगा भी यही कारण है कि भारत के संविधान में बहुसंख्यकों की कोई चर्चा ही नहीं है जब अल्पसंख्यकों और उनके अधिकारों का बार-बार जिक्र है. यही कारण है कि धर्माधारित बंटवारे के बावजूद भारत में बड़ी संख्या में मुसलमान रह गए जो आज जनसँख्या जिहाद, जमीन जिहाद, लव जिहाद आदि जिहादों के माध्यम से देश की एकता-अखंडता और शांति-सद्भाव के लिए समस्या बन गए हैं. वह नेहरु ही थे जिनके चलते भारत में समान नागरिक संहिता लागू नहीं हो पाई जबकि तब ऐसा कर पाना आज की तुलना में काफी आसान था.
मित्रों, समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है कि हर धर्म, जाति, संप्रदाय, वर्ग के लिए पूरे देश में एक ही नियम. दूसरे शब्दों में कहें तो समान नागरिक संहिता का मतलब है कि पूरे देश के लिए एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने के नियम एक ही होंगे. संविधान के अनुच्छेद-44 में सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू करने की बात कही गई है. अनुच्छेद-44 संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है. इस अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ के सिद्धांत का पालन करना है. बता दें कि भारत में सभी नागरिकों के लिए एक समान ‘आपराधिक संहिता’ है, लेकिन समान नागरिक कानून नहीं है.
मित्रों, पिछले सालों में खुद भारत का सर्वोच्च न्यायालय कई बार भारत में समान नागरिक संहिता की जरुरत बता चुका है. ट्रिपल तलाक से जुड़े 1985 के चर्चित शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 44 एक ‘मृत पत्र’ जैसा हो गया है. साथ ही कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरुरत पर जोर दिया था. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि समान नागरिक संहिता विरोधी विचारधाराओं वाले कानून के प्रति असमान वफादारी को हटाकर राष्ट्रीय एकीकरण में मदद करेगी. इसी तरह बहुविवाह से जुड़े सरला मुद्गल बनाम भारत संघ मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने 1954 में संसद में समान नागरिक संहिता के बजाय हिंदू कोड बिल पेश किया था. इस दौरान उन्होंने बचाव करते हुए कहा था कि यूसीसी को आगे बढ़ाने की कोशिश करने का यह सही समय नहीं है.
मित्रों, गोवा के लोगों से जुड़े 2019 के उत्तराधिकार मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की चर्चा करने वाले भाग चार के अनुच्छेद-44 में संविधान के संस्थापकों ने अपेक्षा की थी कि राज्य भारत के सभी क्षेत्रों में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करेगा. लेकिन, आज तक इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया.
मित्रों, समान नागरिक संहिता के मामले में गोवा अपवाद है. गोवा में यूसीसी पहले से ही लागू है. बता दें कि संविधान में गोवा को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है. वहीं, गोवा को पुर्तगाली सिविल कोड लागू करने का अधिकार भी मिला हुआ है. राज्य में सभी धर्म और जातियों के लिए फैमिली लॉ लागू है. इसके मुताबिक, सभी धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग से जुड़े लोगों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार के कानून समान हैं. गोवा में कोई भी ट्रिपल तलाक नहीं दे सकता है. रजिस्ट्रेशन कराए बिना शादी कानूनी तौर पर मान्य नहीं होगी. संपत्ति पर पति-पत्नी का समान अधिकार है. जहां मुस्लिमों को गोवा में चार शादी का अधिकार नहीं है. वहीं, हिंदुओं को दो शादी करने की छूट है.
मित्रों, दुनिया के कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है. इनमें हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं. इन दोनों देशों में सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों पर शरिया पर आधारित एक समान कानून लागू होता है. इनके अलावा इजरायल, जापान, फ्रांस और रूस में भी समान नागरिक संहिता लागू है. हालांकि, कुछ मामलों के लिए समान दीवानी या आपराधिक कानून भी लागू हैं. यूरोपीय देशों और अमेरिका में धर्मनिरपेक्ष कानून है, जो सभी धर्म के लोगों पर समान रूप से लागू होता है. दुनिया के ज्यादातर इस्लामिक देशों में शरिया पर आधारित एक समान कानून है, जो वहां रहने वाले सभी धर्म के लोगों को समान रूप से लागू होता है.
मित्रों, भारत में अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होता है तो लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ा दी जाएगी. इससे वे कम से कम ग्रेजुएट तक की पढ़ाई पूरी कर सकेंगी. वहीं, गांव स्तर तक शादी के पंजीकरण की सुविधा पहुंचाई जाएगी. अगर किसी की शादी पंजीकृत नहीं होगी तो दंपति को सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा. पति और पत्नी को तलाक के समान अधिकार मिलेंगे. एक से ज्यादा शादी करने पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी. नौकरीपेशा बेटे की मौत होने पर पत्नी को मिले मुआवजे में माता-पिता के भरण पोषण की जिम्मेदारी भी शामिल होगी. उत्तराधिकार में बेटा और बेटी को बराबर का हक होगा. पत्नी की मौत के बाद उसके अकेले माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी पति की होगी. वहीं, मुस्लिम महिलाओं को बच्चे गोद लेने का अधिकार मिल जाएगा. उन्हें हलाला और इद्दत से पूरी तरह से छुटकारा मिल जाएगा. लिव-इन रिलेशन में रहने वाले सभी लोगों को डिक्लेरेशन देना पड़ेगा. पति और पत्नी में अनबन होने पर उनके बच्चे की कस्टडी दादा-दादी या नाना-नानी में से किसी को दी जाएगी. बच्चे के अनाथ होने पर अभिभावक बनने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी.
मित्रों, भाजपा की विचारधारा से जुड़े राम मंदिर और अनुच्छेद 370 की राह में कई कानूनी अड़चनें थी, मगर समान नागरिक संहिता मामले में ऐसा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई राज्यों के हाईकोर्ट ने कई बार इसकी जरूरत बताई है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार के खिलाफ दायर याचिका खारिज कर दी। इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने भी शीर्ष अदालत में कहा था कि वह समान कानून के पक्ष में है।
मित्रों, ये तो हुई समान नागरिक संहिता का कानूनी पक्ष मगर सच्चाई तो यह है कि अगर भविष्य में भारत को विभाजित होने से बचाना है तो यही समय है जब देश में समान नागरिक संहिता लागू कर देना चाहिए और अविलंब कर देना चाहिए. कोई बच्चा भी बता देगा कि भारत का अगर फिर से विभाजन होता है तो फिर से मुसलमानों के कारण ही होगा. समान नागरिक संहिता के आने से वक्फ बोर्ड कानून जो जमीन जिहाद को बढ़ावा देता है तो समाप्त होगा ही जनसँख्या जिहाद और लव जिहाद पर भी रोक लगेगी साथ ही मस्जिदों और चर्चों की तरह हिन्दुओं के मंदिर भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो जाएँगे.
रविवार, 7 मई 2023
अरविन्द केजरीवाल की नई राजनीति
मित्रों, क्या आपको साल २०१२-१३ याद है? तब अन्ना के नेतृत्व में दिल्ली में भ्रष्टाचारविरोधी आन्दोलन चल रहा था. पूरा देश रोमांचित था कि आन्दोलन रुपी यज्ञ से भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने का सूत्र निकलेगा. फिर बड़ी ही चालाकी से अन्ना को किनारे करके अरविन्द केजरीवाल नामक बड़बोले ने आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया. बड़े-बड़े वादे किए गए. लगा जैसे सादगी और ईमानदारी का मसीहा आ गया है. नई तरह की राजनीति के सब्जबाग दिखाए गए. उन दिनों उनके हाथों में दिल्ली की शीला दीक्षित की नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ कई सौ पृष्ठों का आरोपपत्र होता था. ७ जून, २०१३ को अरविन्द केजरीवाल ने एक शपथ-पत्र जारी किया जिसके अनुसार वो मुख्यमंत्री बनने के बाद न तो सरकारी गाड़ी का प्रयोग करनेवाले थे, न ही सरकारी सुरक्षा लेनेवाले थे और न ही बड़े निवास में रहनेवाले थे.
मित्रों, धीरे-धीरे समय बीता. २०२० में केजरीवाल की पार्टी द्वारा प्रायोजित दिल्ली के हिन्दू-विरोधी दंगों ने दिल्ली की धरती को हिन्दुओं के खून से लाल कर दिया. शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ मुकदमा करना और चलाना तो दूर की बात रही राजनीति के कीचड़ के कथित अरविन्द यानि कमल ने अपनी पहली सरकार ही कांग्रेस के समर्थन से बनाई. धीरे-धीरे कालनेमि सरकार के कारनामे भी सामने आने लगे. फिर पहले तो सरकार का जेल मंत्री जेल में रहकर जेलों को सँभालने लगा बाद में उपमुख्यमंत्री जो वास्तव में मुख्यमंत्री थे भी तिहाड़ की शोभा बढाने लगे. अरविन्द केजरीवाल इतना शातिर था कि उसने सरकार में कोई विभाग नहीं लिया क्योंकि उसे घोटालों का पैसा तो चाहिए था जेल नहीं चाहिए था. लगा जैसे दिल्ली में एक बार फिर से रोबर्ट क्लाइव वाला द्वैध शासन आ गया है, जिम्मेदारी तुम्हारी मलाई हमारी. यूं तो स्वघोषित अराजकतावादी केजरीवाल ने बार-बार दिल्ली में अराजकता की स्थिति पैदा कर केंद्र की मोदी सरकार को परेशान किया लेकिन गनीमत यह थी कि अभी तक उसके हाथों में पुलिस नहीं थी.
मित्रों, जैसे ही केजरीवाल ने पंजाब का चुनाव जीता उसकी यह ईच्छा भी पूरी हो गई. फिर तो पंजाब पुलिस दिल्ली में केजरीवाल के विरोधियों को पकड़ने दिल्ली पहुँचने लगी. अब जबकि उसके आम आदमीपन की पोल पट्टी उसके ४५ करोड़ के शीश महल की सच्चाई सामने आने के बाद पूरी तरह से खुल चुकी है दिल्ली प्रदेश का कथित प्रधानमंत्री केजरीवाल गुस्से से पागल हो गया है. वो कहते हैं न खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे तो दिन-रात लालू परिवार जैसे महाभ्रष्टों के साथ प्यार की पींगे पढनेवाले कथित महा ईमानदार केजरीवाल ने निरीह पत्रकारों को जेल भेजना शुरू कर दिया है वो भी झूठे मुकदमे में फंसाकर. ऐसा ही करके इन दिनों बिहार में भी लालू जी के बेटे लोकतंत्र की रक्षा कर रहे हैं. खिलाफ में रिपोर्टिंग कईले तो गेले बेटा.
मित्रों, कुल मिलाकर जिस तरह से केजरीवाल की कलई खुली है, नीला रंग उतरा है, उसके बाद सच मानिए तो बिहार और भारत की जनता किसी भी नए नेता का साथ देने में सौ बार सोंचेगी फिर चाहे वो प्रशांत किशोर ही क्यों न हों. खुद को अरविन्द यानि कमल बतानेवाला और झाड़ू हाथ में लेकर भारतीय राजनीति की गंदगी साफ़ करने का वादा करनेवाला आज भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी गंदगी बन गया है. का-का, छी-छी, केजरीवाल छी-छी.
सोमवार, 17 अप्रैल 2023
अतीक के आतंक का अंत
मित्रों, यह धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष कोई आज का नहीं है बल्कि हमेशा से है. कहते हैं कि सतयुग में भगवान स्वयं आकर धर्म की जीत सुनिश्चित करते थे फिर त्रेता में उन्होंने रामावतार लिया और अपने अवतार के हाथों से धर्म की संस्थापना की. इसके बाद द्वापर में भगवान ने महाभारत में भाग नहीं लिया बल्कि सारथी बनकर धर्म की जीत को सुनिश्चित किया. अब जबकि कलियुग है भगवान ने सारथी बनना भी छोड़ दिया है और कर्मफल के आधार पर आतातियों का अंत करते हैं. मतलब कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा.
मित्रों, हमारा तो यही मानना है अब कोई कथित आसमानी किताब चाहे कुछ भी कहती हो. अब परसों रात में मारे गए अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को ही ले लीजिए जिनका आतंक इतना ज्यादा था कि जज तक उसके डर से थर-थर कांपते थे. और उस आधुनिक युग के रावण को तीन छोटे-छोटे बच्चों ने मार डाला. कहते हैं कि चाहे कितना भी बड़ा गुंडा या राक्षस क्यों न हो सबका एक-न-एक दिन अंत निश्चित है. जिस तरह अतीक ने सैकड़ों लाशों की सीढी बनाकर फर्श से अर्श तक का सफ़र तय किया था वैसे ही उससे भी बड़ा डॉन बनने की महत्वाकांक्षा रखनेवाले तीन युवाओं ने उसे मौत के घाट उतार दिया. एक बार फिर से कर्मफल का सिद्धांत सत्य साबित हुआ.
मित्रों, अब चाहे वह लोग कितनी भी छाती पीटें जो अतीक की मदद से चुनाव जीतते थे अतीक तो जिन्दा होने से रहा. इस हत्याकांड में पुलिस प्रशासन की क्या भूमिका थी या कोई भूमिका थी ही नहीं लेकिन यह पुलिस-प्रशासन की चूक तो है ही और अतीक और अशरफ की सुरक्षा में लगे कर्मियों और पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई भी हो रही है.
मित्रों, अंत में समस्त भूमंडलवासियों से यह कहना चाहूंगा कि सत्कर्म पर चलिए और किसी कमजोर पर जुल्म मत ढाहिए. हो सकता है कि आप इंसानों की अदालत से बच जाएं लेकिन भगवान की अदालत जो सबसे बड़ी अदालत है से नहीं बच पाएंगे और उसकी लाठी बेआवाज होती है.
बुधवार, 12 अप्रैल 2023
मनीष कश्यप, नीतीश कुमार और रामनवमी का त्योहार
मित्रों, कई साल पहले मैंने किसी कवि की एक रचना पढ़ी थी जिसका भाव कुछ इस प्रकार था-
भारत में प्रत्येक मतदान के समय
हम बकरियां यानि जनता अपने लिए सुयोग्य कसाई का चुनाव करते हैं.
हर चुनाव के बाद जनता को लगता है कि इस बार भी उसे ठगा गया है.
जिनको समझा था शरीफ जालिम निकले,
इंसाफ के खूनी ही मुंसिफ और हाकिम निकले;
जिन्होंने वादा किया था इंसाफ दिलाने का,
वक्त आया तो वही चोर और कातिल निकले.
मित्रों, यकीं नहीं होता कि बिहार को पिछले 33 सालों से बर्बाद और तबाह करनेवाले लोग बिहार आंदोलन की उपज हैं. उस बिहार आंदोलन की जो भारत में लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर चलाया गया था. जिन नेताओं ने अपने बच्चों के नाम तक कुख्यात मीसा कानून के नाम पर रखे थे क्या विडंबना है कि आज उनके बच्चे अपनी और अपनी सरकार की आलोचना में एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं हैं. आप ही बताईए आखिर मनीष कश्यप का कसूर क्या था? यही न कि उसने आधुनिक युग के रावणों को सच का आईना दिखाने की कोशिश की, यही न कि उसने भारत के संविधान पर भरोसा किया जो भारत के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. हो सकता है मनीष की भाषा आक्रामक हो लेकिन उसकी रिपोर्ट झूठ नहीं है उन्होंने उसी को चोर कहा है जो कोर्ट में चोर साबित हो चुके हैं. रही बात तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों की प्रताड़ना की तो अगर गरीबों के आंसुओं को अभिव्यक्ति देनेवाली रिपोर्टें झूठी हैं भी तो कार्रवाई बिहार के उन सारे मीडिया संस्थानों के खिलाफ भी होनी चाहिए जिनमें तमिलनाडु की रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी और जिन मीडिया संस्थानों ने सरकार के डर से अचानक तमिलनाडु की रिपोर्ट छापनी बंद कर दी. सवाल है कि क्या बिहार में लोकतंत्र है? क्या मनीष की गिरफ़्तारी लोकतंत्र की हत्या नहीं है. अब उन पत्रकारों को क्या कहें जिनको सांप सूंघ गया है. आपातकाल के समय पत्रकारों के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए लाल कृष्ण आडवानी ने कहा था कि सरकार ने तो उनको सिर्फ झुकने के लिए कहा था लेकिन वो तो रेंगने लगे. क्या बिहार के पत्रकार भी ठीक उसी तरह से नहीं डर गए हैं जैसे कक्षा के एक बच्चे की पिटाई से पूरी कक्षा के बच्चे डर जाते हैं?
मित्रों, अब हम बात करेंगे रामनवमी के त्योहार के दौरान बिहार में रामजी की झांकी पर हुए पथराव और दो हिंदुओं की हत्या पर. यह कितना निराशाजनक है कि हम हिंदू अब बिहार में अपना त्योहार तक नहीं मना सकते. धीरे-धीरे पूरा भारत कश्मीर बनता जा रहा है. सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो सबके सब मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे हुए हैं. हिन्दुओं के जुलूसों पर पत्थरबाजी करनेवाली मस्जिदों और मजारों को ढाहने के बजाए नेतागण ईफ्तार पार्टी देने में मशगुल हैं. सबसे दुखद पहलू तो यह है कि रामनवमी की हिंसा में मारे भी हिंदू गये और गिरफ्तारी भी हिंदुओं की हो रही है. लगता है जैसे नीतीश कुमार ने बिहार में उस सोनिया कानून को लागू कर दिया है जो अगर यूपीए सरकार के समय लागू हो जाता तो चाहे दंगे एकतरफा तौर पर मुसलमान करते और एकतरफा तौर पर भले ही हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार किया जाता, दंगों के लिए दोषी हिन्दू ही माने जाते और जेल भी हिन्दू ही जाते. जाहिर है जब तक हिन्दू बंटा हुआ है तब तक कटता रहेगा.
जिनका कुर्सी धरम है,
जिनका कुर्सी ईमान है;
वो न होंगे हिन्दुओं के,
भले ही उनका हिन्दू नाम है.
शुक्रवार, 24 मार्च 2023
अयोग्य ठहराए गए अयोग्य राहुल
मित्रों, कहने को तो भारत में लोकतंत्र है लेकिन वास्तव में आज भी भारत में राजतन्त्र है. यहाँ मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री बनता है और प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री भले ही वो इन पदों के लायक हो या न हो. अब राहुल गाँधी को ही लीजिए. कल से जबसे उनको सूरत की अदालत ने अनाप-शनाप गाली बकने के मामले में दो साल कैद की सजा सुनाई है तभी से यह चर्चा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छिड़ी है कि उनको लोकसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है जैसे कि राहुल गाँधी बहुत बड़े समझदार नेता हों. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसलिए क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने भी इस मामले में अपनी नाक घुसेड़ने की कोशिश की है. कितनी तगड़ी लोबिंग है ईसाइयों की समझ में नहीं आता. राहुल गाँधी की जगह अगर कोई हिन्दुत्ववादी नेता होता तो निश्चित रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की नींद नहीं उड़ती.
मित्रों, सवाल उठता है कि कई बड़े नेताओं की बेटों की तरह क्या राहुल गाँधी भी भारत की राजनीति के लायक हैं? क्या उनमें इतनी समझ है कि उनको भारत का प्रधानमंत्री तो दूर सांसद भी बनाया जा सके? जिस व्यक्ति की जीभ पर नियंत्रण नहीं हो वो भला कैसे राजनीति करेगा? साथ ही उनका मानसिक स्तर भी वैसा नहीं है जैसा कि एक जनप्रतिनिधि का होना चाहिए. हरेक भाषण से पहले उनको चार लोग मिलकर बताते हैं कि क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है लेकिन माईक पर जाते ही वो भूल जाते हैं और कुछ-न-कुछ विवादास्पद बोल जाते हैं. न जाने आरएसएस और सावरकर जी ने उनका क्या बिगाड़ा है कि वो बराबर इनके खिलाफ बोलते रहते हैं. अभी दो-तीन दिन पहले ही उन्होंने कहा कि वो सावरकर नहीं हैं राहुल गाँधी हैं. भला उनको कौन नहीं जानता जो वो इस प्रकार से अपना परिचय देते फिरते हैं? क्या राहुल जी सावरकर जी की चरण-धूलि के भी बराबर हैं? कदापि नहीं!!! सावरकर उद्दाम देशभक्त और परम विद्वान थे अच्छे वक्ता तो थे ही. जबकि राहुल गाँधी की छवि देशभक्त की नहीं देशविरोधी की है. विद्वता का तो यह हाल है कि कभी आलू से सोना बनाते हैं तो कभी खुद कहते हैं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे संसद सदस्य हैं तो कभी कहते हैं कि उन्होंने खुद ही मार दिया है. ये लक्षण निश्चित रूप से मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति के हैं और संविधान कहता है कि कोई विक्षिप्त चुनाव नहीं लड़ ही नहीं सकता.
मित्रों, मुझे कांग्रेस और राहुल गाँधी दोनों पर दया आती है. बचपन में मैंने अमरकांत जी की कहानी पढ़ी थी जिन्दगी और जोंक. इस कहानी में एक भिखारी लम्बे समय तक जीवित रहता है जबकि उनके जीने का कोई मतलब नहीं है. जैसे जिंदगी उससे जोंक की तरह चिपकी हुई है. जब उनकी मौत होती है तब अमरकांत जी लिखते हैं कि आज जिन्दगी उस व्यक्ति से और वह व्यक्ति जिंदगी से छुटकारा पा गया. कुछ ऐसी ही हालत कांग्रेस और गाँधी परिवार की है. यह सिद्ध हो चुका है कि न तो कांग्रेस गाँधी परिवार को बचा सकती है और न ही गाँधी परिवार कांग्रेस का पुनरुद्धार कर सकने की स्थिति में है लेकिन दोनों एक-दूसरे से जिंदगी और जोंक की तरह चिपके हुए हैं. न जाने दोनों को कब एक-दूसरे से मुक्ति मिलेगी. इतनी जबरदस्त फजीहत के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि राहुल गाँधी को राजनीति से और राजनीति को राहुल गाँधी से मुक्ति मिलने वाली है.
सोमवार, 27 फ़रवरी 2023
पंजाब को बचा लो मोदी जी
मित्रों, जबसे पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार आई है तभी से पंजाब के एक बार फिर से आतंकवाद की आग में जलने का खतरा उत्पन्न हो गया है. यह तो कोई नहीं कह सकता कि आप पार्टी के साथ खालिस्तानी अलगाववादियों के साथ क्या गुप्त संधि हुई है लेकिन पिछले दिनों पंजाब में जिस तरह की हिंसक घटनाएँ हो रहीं हैं उससे शक होता है कि सरकार ने राज्य को पूरी तरह से खालिस्तानियों के हवाले कर दिया है. पहले हिन्दू नेता सुधीर सूरी की पुलिस के सामने हत्या और अब सीधे पुलिस थाने पर हमले से यही संकेत मिलते हैं कि पंजाब में आप पार्टी बेहद गन्दी राजनीति कर रही है.
मित्रों, मोहाली-चंडीगढ़ बॉर्डर पर बैठे एक अन्य गुट ने भी पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया था। ये लोग 14 साल की कैद पूरी कर चुके सिख कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे। हालांकि कई हमलावरों की पहचान की गई, लेकिन किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। अजनाला मामले में भी एफआईआर नहीं हुई है। यह पुलिस बल के मनोबल को तोड़कर रख देगा इसमें कोई संदेह नहीं.
मित्रों, अमृतपाल एक नया लड़का है जो दुबई से आया है। जो हुआ वह बहुत खुशी की बात नहीं है। अलगाववादी और हमारे पड़ोसी दुश्मन इसका फायदा उठाएंगे। उन्होंने (पुलिस और राज्य सरकार) अपना फैसला लिया। मुझे नहीं पता कि उन्होंने ऐसा फैसला क्यों लिया। पुलिस तो सरकार के इशारे पर काम करती है इसलिए उसका क्या कसूर? लेकिन कट्टरपंथियों की मांगों के आगे झुकना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है। शायद खालिस्तानियों ने आम आदमी पार्टी को अकूत पैसे दिए हों. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि लवप्रीत को छोड़ देने से अमृतपाल निश्चित रूप से जनता के लिए एक खतरनाक शख्सियत बन गया है। कुछ इसी तरह की गलती इंदिरा गाँधी ने भिंडरावाले के मामले में की थी. लम्हों ने खता की थी और कैसे सदियों ने सजा पाई हम सबने देखा है.
मित्रों, हम मानते हैं कि राजनीति होनी चाहिए, राजनीतिज्ञ राजनीति करें लेकिन ऐसी राजनीति बिल्कुल न करें जिससे देश को नुकसान हो. पिछले साल जुलाई से पंजाब में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत स्थायी डीजीपी नहीं है। अगर राज्य सरकार की ओर से नियमों का ख्याल नहीं रखा जा रहा तो केंद्र को इसका संज्ञान लेना चाहिए. भारत सरकार को पंजाब को जलता देख मुंह नहीं ताकना चाहिए बल्कि संविधानप्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए पंजाब सरकार को सख्त निर्देश देने चाहिए और फिर भी न माने तो बर्खास्त कर देना चाहिए.
लफंगों के राष्ट्रकवि कुमार विश्वास
मित्रों, तुलसी रामचरितमानस में कह गए हैं कि पंडित सोई जो गाल बजाबा. निश्चित रूप से गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसा व्यंग्यपूर्वक कहा होगा लेकिन आज के कई कवि सिर्फ गाल बजाकर महाकवि बन गए हैं और ऐसे कवियों में सबसे अग्रगण्य हैं कुमार विश्वास. इन श्रीमान ने न जाने कौन-सी महान कविता लिखी है लेकिन ये लच्छेदार बातें करने में माहिर जरूर हैं और यही इनकी एकमात्र योग्यता भी है. इसी योग्यता के कारण इनको कथित कवि सम्मेलनों में मंच संचालन का भार दिया जाता है. कभी किसी कवि का परिचय देते हुए ये कहते हैं कि इन्होंने कविता लिखते समय दिमाग नहीं लगाया है तो कभी श्रोताओं को छिछोरों की तरह खींसे निपोरते हुए कहता है कि जो लोग दूसरों की पत्नियों के साथ आए हैं.
मित्रों, इतना ही नहीं इन श्रीमान को यह भी पता नहीं है कि कबीर अकबर के समकालीन नहीं थे फिर भी टीन टप्पर ठोक पीट कर ट्रेन में चनाजोर बेचनेवालों की तरह घटिया तुकबंदी करनेवाला यह घटिया आदमी खुद को महान कबीर की परंपरा का महान कवि बताता है. कभी महादेवी वर्मा ने कहा था कि कवि सम्मलेन थकान मिटाने के साधन बनकर रह गए हैं लेकिन कुमार विश्वास जैसे बड़बोलों ने कवि सम्मेलनों का स्तर इतना ज्यादा गिरा दिया है कि कवि सम्मेलनों में ईज्जतदार लोगों ने जाना ही छोड़ दिया है. मैं नोएडा में रहने के दौरान कई बार इस व्यक्ति को मंच संचालित करते और कविता पाठ करते हुए देख चुका हूँ और इस व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी कह सकता हूँ कि यह आदमी पैसों पर नाचनेवाली रूपजीवाओं से ज्यादा कुछ भी नहीं है. इस व्यक्ति की तुलना कबीर से तो कदापि नहीं हो सकती अगर हो भी सकती है तो रीतिकाल के छिछोरे कवि बिहारी से हो सकती है.
मित्रों, कुछ दिनों के लिए यह आदमी भारत का दूसरा सबसे महान राजनेता भी बना था और अन्ना हजारे के मंच से चीख-चीख कर भारत के सबसे घटिया नेता अरविन्द केजरीवाल को एशिया का सबसे योग्य युवा बता रहा था. बाद में जब उस एशिया के कथित सबसे योग्य युवा ने राज्य सभा में भेजने से मना कर दिया तबसे ये पागलों की तरह उसको गालियां देता फिरता है. इसकी इस हरकत की तुलना मंदिर के बाहर भीख मांगनेवाली उस बुढ़िया से की जा सकती है जो भीख न मिलने पर आगंतुक को बद्दुआएं देने लगती है.
मित्रों, इस व्यक्ति को एक और लाईलाज बीमारी है और वो बीमारी है जबरदस्ती का संतुलन बनाने की. आपने देखा होगा कि कुछ लोग कहते हैं कि पीएफआई की तरह आरएसएस पर भी प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए वे लोग भी इसी बीमारी से ग्रस्त हैं. कुमार विश्वास का मानना है कि सिर्फ दानवों को बुरा-भला नहीं कह सकते बल्कि उनके साथ-साथ देवताओं में भी जबरन छिद्रान्वेषण करना होगा. इन साहिबान को आरएसएस और उसकी सेवा भावना के बारे में कुछ भी पता नहीं लेकिन इनकी सोच है कि आप सिर्फ रावण को गाली नहीं दे सकते राम को भी देना होगा या आप सिर्फ राम की बड़ाई नहीं कर सकते रावण की भी प्रशंसा करनी ही होगी. और अपनी इसी घटिया सोंच को ये बुद्धिहीन बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता का नाम देते हैं.
सोमवार, 6 फ़रवरी 2023
हिन्दू महापुरुषों का बंटवारा
मित्रों, पिछले कुछ महीनों से मैं देख रहा हूँ कि कुछ नासमझ हिन्दू दिन-रात महापुरुषों को लेकर आपस में झगड़ते रहते हैं कि ये हमारी जाति के थे तो वो हमारी जाति में पैदा हुए थे. कई बार तो महापुरुषों को छीनने या उनकी चोरी करने के आरोप भी लगाए जाते हैं जबकि सच्चाई तो यह है कि कोई भी महापुरुष किसी जाति विशेष के थे ही नहीं बल्कि सबके थे, हम सबके थे. कई बार तो हम उनको सिर्फ हिन्दू धर्म के संकीर्ण दायरे में भी नहीं बांध सकते.
मित्रों, हम उदाहरण के लिए अगर बिहार बाँकुड़ा बाबू कुंवर सिंह को लें तो वे सिर्फ राजपूतों के महापुरुष नहीं थे क्योंकि वे न तो सिर्फ राजपूतों के लिए लड़ रहे थे और न तो उनकी सेना में सिर्फ राजपूत ही थे बल्कि इसके उलट उनकी सेना में सभी जातियों के हिन्दू तो थे ही बड़ी संख्या में मुसलमान भी थे. इसी तरह महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी की सेना में भी सभी जातियों के लोग थे. स्वयं आल्हा-उदल की सेना में बिहार के भागलपुर के रहनेवाले भगोला नामक यादव महाबली-महावीर थे जो पेड़ों को जड़ से उखाड़ कर उससे और बड़े-बड़े पत्थरों से युद्ध करते थे और अपने आपमें एक किला थे.
मित्रों, इसी तरह जब-जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर विधार्मियों के आक्रमण हुए चाहे वो तैमूर हो, बाबर हो, अब्दाली हो या नादिरशाह हो हर बार हिन्दुओं की सर्वजातीय सेना से उनका सामना हुआ भले ही नेतृत्व राजपूतों के हाथों में रहा हो. अयोध्या के राममंदिर के लिए तो सभी जातियों के हिन्दू शहीद हुए ही सिखों ने भी अपनी क़ुरबानी दी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ के गंगू मेहतर के योगदान को भला कोई कैसे भुला सकता है? महाराणा प्रताप की सेना में बड़ी संख्या में आदिवासी शामिल थे जिन्होंने युद्धों में अपने प्राण तो दिए ही जमकर शत्रुओं का आखेट भी किया. पुंजा भील को कौन नहीं जानता? इतना ही नहीं अगर भामाशाह ने अपना सबकुछ महाराणा सौंप नहीं दिया होता तो कदाचित उसी समय मेवाड़ का नाम भारत की वीरता के मानचित्र से मिट गया होता फिर महाराणा सिर्फ राजपूतों के महापुरुष कैसे हुए?
मित्रों, इसी तरह महावीर पृथ्वीराज चौहान को लेकर राजपूत-गुज्जर बराबर लड़ते रहते हैं कि पृथ्वीराज राजपूत थे या गुज्जर? हद हो गई यार. चंदवरदाई को पढ़ लो और वो जो कहें मान लो, बात ख़त्म. फिर चाहे वह राजपूत हों या गुज्जर उनकी वीरता पूरे भारत की, पूरे हिन्दू समाज की धरोहर है. अगर महाराणा राजपूत न होकर चमार होते तो क्या इससे उनकी वीरता कम हो जाती? राजा सुहेलदेव जो पासी थे की तो कम नहीं हुई.
मित्रों, विद्वता की ही तरह वीरता भी किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं है. बल्कि जो ज्ञानी है वो विद्वान है फिर चाहे तो राजेंद्र प्रसाद हों या अम्बेडकर, पाणिनि हों या वाल्मीकि, तुलसीदास हों या रैदास या कबीरदास. उसी तरह जो संकट आने पर वीरता दिखाए वो वीर है. यहाँ मैं एक उदाहरण पेश करना चाहूँगा. १६ अगस्त, १९४६ को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने की घोषणा की थी. मुसलमान अलहे सुबह तलवार लेकर सडकों पर निकल पड़े और कलकत्ता की सडकों को हिन्दुओं की लाशों से पाटना शुरू कर दिया. तब सारे सवर्ण हिन्दू अपने-अपने घरों में दुबक गए. फिर एक नीच कसाई जाति के हिन्दुओं ने गोपाल पांडा के नेतृत्व में हिन्दुओं की तरफ से मोर्चा संभाला और मुसलमानों को खदेड़ दिया. अब सवाल उठता है कि यथार्थ क्षत्रिय कौन हैं, घरों में दुबके लोग या खटिक जाति के लोग?
मित्रों, इसलिए हम अपने देश की हिन्दू जनता से निवेदन करेंगे कि कृपया नेताओं के झांसे में आकर उनका वोट बैंक न बने. नेताओं का तो काम ही है महापुरुषों के नाम पर हिन्दू समाज को बांटकर चुनाव जीतना. मुझे आश्चर्य होता है कि कोई जाति राम या सम्राट अशोक के ऊपर अपना दावा कैसे ठोक सकती है? कैसे पता चलेगा कि वे वर्तमान की किस जाति में जन्मे थे?
मंगलवार, 31 जनवरी 2023
मुलायम को ताली, तुलसी को गाली
मित्रों, पिछले कुछ दिन भारत की राजनीति में बड़े छिछालेदार रहे हैं. एक तरफ तो राम के सबसे बड़े भक्तों में से एक के पीछे लोग डंडा लेकर पड़ गए हैं तो वहीँ दूसरी तरफ सबसे बड़े रामद्रोही को भारत का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान देकर सम्मानित किया जा रहा है. पता ही नहीं चलता कि क्या सही है और क्या गलत?
मित्रों, बिहार के बैग में कारतूस लेकर चलनेवाले शिक्षा मंत्री द्वारा रामचरितमानस को लेकर उठाई गयी हवा धीरे-धीरे वबंडर का रूप लेती जा रही है. दोनों तरफ से तलवारें खिंच गई हैं. कुछ लोग कहने लगे हैं कि रामचरितमानस को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. तो कुछ लोग कह रहे हैं कि यह सम्पूर्ण हिन्दू धर्म का अपमान है इसलिए रामचरितमानस के आलोचकों की जीभ काट लेनी चाहिए. कुछ लोग जो कुछ ज्यादा ही उत्साही हैं रामचरितमानस को ही जलाने लगे हैं जैसे वह उसकी अंतिम प्रति हो.
मित्रों, मेरा मानना है कि हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे लचीला धर्म है. अगर किसी हिन्दू को किसी भी काव्य, महाकाव्य या धर्मग्रन्थ से परेशानी है तो उसे निश्चित रूप से इस पर सवाल उठाने का अधिकार है. स्वामी प्रसाद मौर्य के रामचरितमानस पर दिये गए बयान पर तल्ख़ प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं है। मौर्य ने रामचरितमानस का अपमान नहीं किया है मात्र कुछ अंशों पर आपत्ति जताई है। उन्होंने राम पर नहीं तुलसीदास पर सवाल उठाया है. उन्हें इसका अधिकार है। फिर, रामचरितमानस पर किसी जाति या वर्ग का विशेषाधिकार नहीं है।
मित्रों, निश्चित रूप से भारतीय ग्रंथों ने समाज को गहराई से प्रभावित किया है। इन ग्रंथों में जातिवाद, ऊंचनीच, छुआछूत, जातीय श्रेष्ठता, हीनता आदि को दैवीय होना स्थापित किया गया है। अत: पीड़ित व्यक्ति या समाज अपना विरोध तो व्यक्त करेगा ही। किसी को भी भारतीय ग्रंथों पर एकाधिकार नहीं जताना चाहिए। कुछ अति उत्साही उच्च जाति के हिंदू ऐसे प्रत्येक विरोध को दबाना चाहते हैं। यह वर्ग चाहता है कि कोई इनका का विरोध न करे, क्योंकि वे इसे धर्मविरोधी बताते हैं। हिंदू समाज की एकता के लिए जरूरी है कि लोगों को अपना विरोध प्रकट करने दिया जाए। हिन्दू ग्रंथ सबके हैं। यह शोषित वर्ग हिंदू समाज में ही रहना चाहता है और रहता आया है इसीलिए विरोध करता रहता है। अन्यथा इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुका होता। अतीत में धर्मांतरण इस कारण से भी हुए हैं।
मित्रों, चाहे वो रामचरितमानस हो, चाहे कई भाषाओँ में रचा गया रामायण हो या फिर वेद या पुराण हों किसी भी पुस्तक की प्रामाणिक प्रति कौन-सी है पहले यह निर्धारित करना ही कठिन है क्योंकि लम्बे समय तक इनको लिखा ही नहीं गया और सिर्फ कंठस्थ किया जाता रहा जिसके चलते इनकी विभिन्न प्रतियों में अंतर देखने को मिलता है. स्वयं रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि सारे धर्मग्रन्थ जूठे हैं अर्थात सबमें कलमकारों ने अपने हिसाब से क्षेपक जोड़े हैं. इसलिए भी दुनिया का कोई भी ग्रन्थ दैवीय या ईश्वरीय नहीं हो सकता. हो सकता है कि उपलब्ध रामचरितमानस अक्षरशः तुलसी ने ही लिखा हो तब भी तुलसी ने वही लिखा जो उस समय प्रचलन में था या ज्ञात था. चाहे बाइबिल हो या कुरान हो उस समय जो ज्ञात था रचनाकार ने वही लिखा और अपने ज्ञान को ईश्वर पर थोप दिया. ठीक वही बात तुलसी पर भी लागू होती है. इसलिए अगर कोई आधुनिक ज्ञान के आधार पर पुरानी किताबों में बदलाव करने की मांग करता है तो बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि उन ग्रंथों में यथोचित बदलाव करना चाहिए. जिद करने से न तो धरती चपटी हो जाएगी और न ही कोई जाति नीच या ऊंच हो जाएगी.
मित्रों, तुलसी तो हमारे पूर्वज हैं ही राम और कृष्ण भी हमारे पूर्वज हैं। हम उनका अनुसरण करते हैं। हमें यह अधिकार है कि हम अपने पूर्वजों से प्रश्न करें। यह एक स्वस्थ समाज के विकास की स्वाभाविक गति है। राम और कृष्ण सहित अपने सभी पूर्वजों से उनके कई कार्यों के बारे में सदियों से आमलोग सवाल पूछते रहे हैं। यही उनकी व्यापक स्वीकार्यता का सबूत भी है इसलिए न तो किसी ग्रन्थ को जलाने की जरुरत है और न ही जीभ या सर काटने की बल्कि वर्तमान काल और परिस्थितियों के अनुसार उनमें अपेक्षित बदलाव करने की जरुरत है।
मित्रों, समस्या राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध से नहीं है बल्कि राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध की व्याख्या करने वालों से है. राम या कृष्ण या अल्लाह खुद तो किताबें लिखने नहीं आए बल्कि इंसानों ने उनको लिखा और उतना ही लिखा जितनी उसकी बुद्धि थी इसलिए भी धार्मिक पुस्तकों में जरुरत पड़ने पर परिवर्तन किए जा सकते हैं और किए भी जाने चाहिए.
मित्रों, समस्या सिर्फ ग्रंथकारों से नहीं राजनीतिज्ञों के पल्टू दांव से भी है. पता ही नहीं चलता कि वो कब क्या कर जाएँ. अब इस साल के पद्म पुरस्कारों को ही लीजिए. इस साल भगवान राम के सबसे बड़े विरोधी मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण सम्मान देने की घोषणा की गई है. पता नहीं राम के नाम पर सत्ता में पहुंची भाजपा और मोदी ने मुलायम सिंह यादव में ऐसा कौन-सा गुण देख लिया जो यह निर्णय लिया. क्या यह रामभक्तों पर गोलियां चलवाने का ईनाम है? अभी पिछले साल ही हिन्दू ह्रदय सम्राट और राम मंदिर आन्दोलन के अगुआ बाबूजी कल्याण सिंह जी को भी पद्म विभूषण दिया गया था. तो क्या मोदी जी की नज़रों में रामभक्त और रामद्रोही दोनों एकसमान हैं? अगर ऐसा है तो हम मोदी समर्थक नाहक ही उनके और हिन्दू धर्म के विरोधियों पर दिन-रात बरसकर अपना श्रम और समय जाया करते रहते हैं. पता नहीं कब किसको मोदी सरकार पद्मविभूषण देकर विभूषित कर दे, ओवैसी या जाकिर नाईक को भी भारत रत्न दे दे.
मंगलवार, 6 दिसंबर 2022
सुनीता, लालू, संविधान और भारतीय लोकतंत्र
मित्रों, आज मैं आपलोगों से सीधे-सीधे एक सवाल पूछता हूँ कि सरकार किसके लिए है या सरकार की जरुरत किसको है? सरकार अमीरों के लिए है या गरीबों के लिए? सरकार की जरुरत किसको है अमीरों को या गरीबों को? अमीरों का क्या वो तो पैसे से महंगा-से-महंगा ईलाज और शिक्षा खरीद लेगा या फिर मोटी रिश्वत अफसरों को देकर अपना काम करवा लेगा लेकिन अगर गरीबों को सरकार नहीं देखेगी, गरीबों का ध्यान नहीं रखेगी, गरीबों को भी जमीन, गहने या बरतन बेचकर मोटी रिश्वत देनी पड़ेगी तो मैं पूछता हूँ कि देश-प्रदेश में सरकारें क्यों होनी चाहिए या सरकार की आवश्यकता ही क्या है? क्या सरकार सिर्फ घूस खाने और भ्रष्टाचार करने के लिए होनी चाहिए?
मित्रों, आपलोगों ने भी पढ़ा होगा कि इस समय लालू जी जिनके शासन में आते ही भेड़ियाधसान अपहरण का दौर चला था, लालू जी जिनके समय में बिहार का ऐसा कोई विभाग नहीं था जिसके फंड को दोनों हाथों लूटा न गया हो, लालू जी जो बचपन में भैंस चराया करते थे और कथित रूप से भैंस की सींग की तरफ से चढ़ते थे वही लालू जी इन दिनों सिंगापूर गए हुए हैं और दुनिया के सबसे महंगे अस्पताल में अपनी किडनी बदलवाने गए हुए हैं. सवाल उठता है कि लालूजी के पास इतना पैसा आया कहाँ से? वो तो लोहिया और कर्पूरी के चेले हैं?
मित्रों, कुछ महीने पहले ही बिहार के मुजफ्फरपुर में एक बेहद गरीब महिला सुनीता जो जाति से चमार है और रोज कमाने-खानेवाले अकलू राम की पत्नी है की दोनों किडनी झोपड़ीनुमा निजी क्लीनिक से चोरी हो गई. जी हां, सही पढ़ा आपने किडनी चोरी हो गयी. बिहार में डाका-चोरी तो आम बात है ही अब किडनी और गर्भाशय की चोरी भी आम है. चोरी का इल्जाम एक ऐसे व्यक्ति पर लगा जो पहले सेब बेचता था और जिसके पास मेडिकल की कोई डिग्री नहीं थी. आज तक महागठबंधन की सरकार जिसमें माननीय लालू जी के बेटे स्वास्थ्य मंत्री हैं उस किडनी के लुटेरे को गिरफ्तार तक नहीं कर पाई है. बेचारी के बार-बार हाथ-पाँव फूल जा रहे हैं और डायलिसिस करवाना पड़ रहा है. सरकारी मदद गायब है और बेचारी के परिवार की आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है. ऐसे ही दुःख भोगते-भोगते वो बेचारी एक दिन तड़प-तड़प कर मर जाएगी जैसे भागलपुर में कल-परसों नीलम यादव मर गई. बिहार में जन्म लेने का दंड तो भोगना पड़ेगा न.
मित्रों, मैं पूछता हूँ कि अगर लालू जी या नीतीश जी के स्थान पर उनके कथित आदर्श या गुरु कर्पूरीजी या लोहिया जी बिहार की सरकार चला रहे होते और उनकी किडनी ख़राब हो गई होती वो क्या करते? क्या वह भी सुनीता देवी को मरता हुआ छोड़कर सिंगापूर जाकर अपना ईलाज करवाते? जहाँ तक मुझे लगता है वो ऐसा हरगिज नहीं करते. खैर छोडिए इस बात को. मुझे इस बात से भी कुछ भी लेना-देना नहीं है कि वो होते तो क्या करते क्योंकि यह एक काल्पनिक सवाल है. वास्तविक सवाल तो यह है कि कभी भैंस चरानेवाले, गरीबों के मसीहा, भारत के सबसे गरीब राज्य को १५ सालों तक बेरहमी से लूटनेवाले लालू जी अब बेहद अमीर हैं और उनको अपने ईलाज के लिए सरकार की मदद की जरुरत नहीं है इसलिए उन्होंने सिंगापूर जाकर अपना ईलाज करवा लिया जहाँ ईलाज करवाना तो दूर जाना तक हमारे लिए स्वप्न समान है लेकिन सुनीता देवी का क्या? अगर लाखों करोड़ का बजट बनाने वाली सरकार एक गरीब महिला के साथ हुई शारीरिक अंग लूट को रोक नहीं पा रही हो या लूट हो जाने के बाद उसकी प्राण रक्षा नहीं कर पा रही हो या करना ही नहीं चाहती हो तो फिर यह लोकतंत्र और सरकारें किस काम की? दुनिया का सबसे बड़ा संविधान किस काम का और उसमें लिखे अधिकार किस काम के?
लेबल:
लालू,
संविधान और भारतीय लोकतंत्र,
सुनीता
शनिवार, 19 नवंबर 2022
अमित शाह जी आतंकवाद का भी धर्म होता है
मित्रों, कहते हैं कि एक बार भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु संसद की सीढियों पर लड़खड़ा गए थे तब दिनकर जी ने उनको संभाला था और मजाक में कहा था कि जब भी भारत की राजनीति लड़खड़ाएगी साहित्य आगे बढ़कर उसे संभाल लेगा. खैर ये तो हुई मजाक की बात. नेहरु ने भले कितनी भी गलतियाँ की हों, आजाद भारत में भी अंगेज को गवर्नर जनरल बनाए रखा हो, कश्मीर के महाराजा के विलय के प्रस्ताव पर कश्मीर के मुसलमानों की ईच्छा को तरजीह दी हो, अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर द्वारा चीनी हमले की आशंका पर ध्यान न दिया हो और हिन्दू विवाह कानून बनाकर हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया हो लेकिन फिर भी देश में जब तक कांग्रेस का शासन रहा भ्रष्टाचार कम रहा और राजनीतिज्ञों की आँखों में लाज थी. निस्संदेह सन १९६७ से देश की राजनीति लगातार पराभव की तरफ जाने लगी जबसे राजनीति में पिछड़ों की राजनीति करनेवाली शक्तियां मजबूत होने लगी.
मित्रों, आज स्थिति क्या है? आज भारत की राजनीति से मूल्य बिलकुल ही गायब हो चुका है. नेता येन-केन-प्रकारेन गद्दी पा लेना चाहते हैं. मिनट-मिनट पर झूठ बोलना और जनता को ठगना ही उनके लिए राजधर्म बन गया है भले ही उनकी नीतियों से देश-प्रदेश को कितना ही दीर्घकालिक नुकसान क्यों न हो. एक तरफ केजरीवाल हैं जिनकी झूठ की ही खेती है और जिनके लिए दिल्ली में राजनीति का मतलब जनता को फ्री का लालच देकर गद्दी प्राप्त करना है और गद्दी प्राप्त करने के बाद खजाने को लूट लेना है. तो वहीँ केजरीवाल जी के लिए पंजाब में राजनीति का मतलब खालिस्तान समर्थकों के समर्थन से सत्ता प्राप्त करना है और जीतने के बाद तुभ्यदीयं गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पयामि के अंदाज में खालिस्तानियों के चरणों में दंडवत हो जाना है फिर राज्य आतंकवाद की आग में जले तो जले.
मित्रों, बिहार के नेताओं की हालत भी कोई अलग नहीं है. यहाँ नौकरी पानेवालों की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए सरकार नियुक्ति घोटाला कर रही है. जो लोग पहले से ही नौकरी में हैं उनको गाँधी मैदान में बुलाकर और करोड़ों रूपये खर्च कर समारोहपूर्वक फिर से नियुक्ति-पत्र बांटे जा रहे हैं. राजस्थान में महिलाओं की ईज्ज़त दुश्शासन दिन-दहाड़े लूट रहे हैं मगर वहां की सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा. कांग्रेस नेतृत्व यहाँ तक पतित हो चुकी है कि अपने ही पति की हत्या से राजनैतिक लाभ लेने के प्रयास कर रही है. उद्धव ठाकरे कुर्सी के लिए सावरकर को भुला देते हैं और दिन-रात पानी पी-पीकर सावरकर जी को गालियाँ देनेवाले लोगों के साथ मिलकर सरकार बनाते और चलाते हैं जबकि उनकी पार्टी शुरू से ही घनघोर हिंदुत्ववादी पार्टी रही है.
मित्रों, ममता, सोरेन, स्टालिन और विजयन से मूल्यपरक राजनीति की उम्मीद करना सीधे-सीधे समय की बर्बादी होगी लेकिन हद तो तब हो गई जब भारत के गृह मंत्री माननीय अमित शाह ने कल कह दिया कि आतंकवाद को किसी धर्म के साथ नहीं जोड़ना चाहिए जबकि सच यह है कि उनकी पार्टी को हमेशा की तरह गुजरात में भी मुसलमानों का एक भी वोट नहीं मिलने जा रहा. अमित शाह जी आतंक को धर्म के साथ हिन्दुओं ने नहीं जोड़ा है फिर आप समझा किसको रहे हैं? आतंकवाद को धर्म से उन्होंने ही जोड़ा है जो धर्म के नाम पर सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आतंक फैला रहे हैं और काफिरों को मारकर काल्पनिक स्वर्ग के लिए स्वर्ग समान धरती को नरक बना रहे हैं. आज पूरी दुनिया जानती है कि आतंकवाद का धर्म क्या है? पूरी दुनिया में अल्लाह हो अकबर का नारा लगाते हुए काफिरों पर हमले होते हैं. हाल में लन्दन में हिन्दुओं मंदिरों पर जब हमले हुए तब भी हमलावरों की भीड़ यही नारा लगा रही थी. अमित जी हमें कम-से-कम आपसे इस तरह के बयान की उम्मीद नहीं थी. माफ़ कीजिएगा आप भी बांकी दलों के कुर्सीवादी छद्मधर्मनिरपेक्षतावादियों की तरह दिशाहीन हो रहे हैं. याद रखिएगा जो गाडी बार-बार हर यू टर्न पर यू टर्न लेती है कभी भी मंजिल तक नहीं पहुँचती.
शुक्रवार, 18 नवंबर 2022
क्या सावरकर अंग्रेजों के गुलाम थे?
मित्रों, पिछले दिनों नेहरु परिवार के युवराज व होनहार कांग्रेस नेता राहुल गाँधी जी ने अपनी कथित भारत जोड़ो यात्रा के दौरान वीरों के वीर वीर सावरकर जी पर अंग्रेजों की गुलामी करने के आरोप लगाए. हालाँकि अगर हम उस दौर में मोहन दास करमचंद गाँधी के पत्रों को देखें तो पता चलता है कि भारत के कथित राष्ट्रपिता ने भी ठीक उसी शैली में अंग्रेजों को पत्र लिखे थे जिस शैली में सावरकर जी ने जमानत और जेल में सुधार के लिए अंग्रेजों के समक्ष आवेदन दिया था.
उदाहरण के लिए २२ जून, १९२२ को गांधीजी ने ब्रिटिश भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र लिखा था जिसके अंत में उन्होंने लिखा था-
I have the honour to remain.
your excellency's obedient servant.
m. k. gandhi
उक्त पत्र के इन पंक्तियों में गांधीजी लिख रहे हैं कि मुझे गर्व महसूस हो रहा है कि मैं आपका जीवनभर आज्ञाकारी नौकर रहना चाहता हूँ. तो क्या गाँधी जी भी अंग्रेजों के नौकर थे? गाँधी जी के एक और पत्र की जो उन्होंने फरवरी १९२० में ड्यूक ऑफ़ कनाट को लिखा था उसकी भाषा पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है.
I beg to remain.
Your royal highness faithful servant.
M. K. Gandhi.
यहाँ गाँधी जी ने खुद को अंग्रेजों का विश्वास करने योग्य नौकर बताया है.
इतना ही नहीं गाँधी जी अपने एक और पत्र में लिखते हैं कि उन्होंने चार बार ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अपने जीवन को दांव पर लगाया है और किसी अन्य भारतीय ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए उतना नहीं किया होगा जितना उन्होंने वो पिछले २९ सालों से लगातार करते आ रहे हैं.
तो क्या गाँधी जी अंग्रेजों के साथ गुपचुप मिलकर भारत की जनता को धोखा दे रहे थे?
एक और पत्र है जिसके एक पैराग्राफ में गाँधी जी ने चार बार योर एक्सेलेंसी लिखा है. लेकिन पत्र का शीर्षक इस प्रकार रखा है-We have lost faith in british justice.
अर्थात अगर हम सिर्फ शाब्दिक अर्थ पर जाएंगे तो फिर गाँधी जी को अंगेजों का सबसे बड़ा गुलाम मानना चाहिए. इतना ही नहीं गाँधी ने तो इन्हीं शब्दों में १५ अगस्त १९१० को रुसी दार्शनिक लियो टोलस्टाय को भी पत्र लिखा था. मलतब गाँधी न सिर्फ अंग्रेजों के बल्कि रूस के भी नौकर थे. और अगर ऐसा है तो राहुल गाँधी के पूरे परिवार को गाँधी सरनेम का त्याग कर देना चाहिए और अपने दादा का सरनेम खान अपना लेना चाहिए.
कुछ और विस्तार में जाएँ तो ६ अप्रैल १८६९ को अमेरिका के महानतम राष्ट्रपति जिन्होंने अमेरिका को टूटने से बचाया अब्राहम लिंकन ने अमेरिकी सांसद हेनरी एल्पियर्स को पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने अपना परिचय Your obedient servant लिखकर दिया था तो क्या लिंकन उक्त सांसद के गुलाम या नौकर हो गए?
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह कि सावरकर ने जिस भाषा में आवेदन दिया था उस समय वही प्रचलित भाषा थी जिसका हर शालीन व्यक्ति प्रयोग करता था. अब इतनी-सी बात कांग्रेस के युवराज की समझ में नहीं आ रही तो इसमें सावरकर की क्या गलती? और अगर सावरकर अंग्रेजों के गुलाम थे तो फिर अंग्रेजों ने उनको दो जन्मों के लिए कठोर कारावास की सजा क्यों दी थी? और सिर्फ सावरकर ही नहीं उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को भी कालापानी की सजा क्यों दी थी? और अगर सावरकर की गिरफ़्तारी का मामला अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय हेग में नहीं जाता तो बहुत संभव है कि उनको १९१० में ही फांसी पर चढ़ा दिया गया होता. क्या तब भी महान भाषा विज्ञानी राहुल गाँधी उनको गुलाम बताते?
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