सोमवार, 16 अगस्त 2021

फिर से तालिबान

मित्रों, अफगानिस्तान में फिर से तालिबान का पदार्पण हो चुका है. अर्थात अमेरिका ने पिछले दो दशकों में तालिबान को उखाड़ फेंकने के जो भी प्रयास किए थे सब पर पानी फिर चुका है. इस बार भले भी अफगानिस्तान में लादेन या उमर नहीं हैं लेकिन फिर भी यह यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में अफगानिस्तान फिर से इस्लामिक आतंकवाद का एक और केंद्र बनकर नहीं उभरेगा. मित्रों, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद व्यक्ति आधारित न थी न है बल्कि विचारधारा आधारित है. जब कुरान और हदीस ही मुसलमानों को पूरी दुनिया से काफिरों को मिटाकर इस्लाम का शासन कायम करने की आज्ञा और प्रेरणा देते हैं तो इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि जब तक इस्लाम है दुनिया में हिंसा रहेगी, आतंकवाद रहेगा. मित्रों, अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने बाद तालिबान ने कहा है कि वे शरिया कानून के तहत महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करेंगे. लेकिन समस्या यह है कि शरिया कानून में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ही नहीं। सच्चाई तो यह है कि अफगानिस्तान में किशोर लड़कियों को घरों से जबरन उठाया जा रहा है और अपने लड़ाकों के बीच जीत की ट्रॉफी के रूप में उनको वितरित कर दिया जा रहा है. मित्रों, अभी दो-तीन दिन पहले भारत के राजौरी में एक तीन वर्षीय बच्चे वीर सिंह की बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी गई. इस हत्या के पीछे भी वही इस्लामिक विचारधारा है जिसकी क्रूरता का कोई अंत नहीं. यह विचारधारा न तो काफिरों के प्रति नरम है और न ही मुसलमानों के प्रति. इराक और सीरिया में हम शरिया शासन देख चुके हैं जिसमें हजारों निर्दोष लोगों को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वे मुसलमान नहीं थे. फिर भी न जाने कुछ लोग क्यों और किस आधार पर इस्लाम को शांति का धर्म बता रहे हैं. मित्रों, तालिबान के फिर से उभरने के पीछे जहाँ अमेरिका की मूर्खता है वहीँ चीन, रूस और पाकिस्तान की धूर्तता भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है. हम नहीं जानते कि भविष्य में वैश्विक राजनीति कौन-सी दिशा पकडनेवाली है और उसमें तालिबान का क्या योगदान होगा लेकिन अफगानिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है वो न तो भारत और न ही मानवता के हित में है. रूस न तो कभी भारत का मित्र था, न है और न होगा. वो तो बस नेहरु-गाँधी परिवार का मित्र था. इसी तरह हमें अपनी विदेश नीति अमेरिका से अलग हटकर बनानी होगी. वर्ना जिस तरह अफगानिस्तान में हमारे २२५०० करोड़ रूपये के निवेश बेकार हो गए हैं दूसरे देशों में भी होते रहेंगे.

बुधवार, 11 अगस्त 2021

अश्विनी उपाध्याय की गिरफ़्तारी

मित्रों, क्या आपने कभी देश की स्थिति के बारे में सोंचा है? क्या देश की दुरावस्था को देखकर कभी किसी रात आपकी नींद गायब हुई है? क्या आपके मन में कभी अंग्रेजी राज को देश से मिटा देने की ईच्छा आई है? आपने एकदम सही समझा है मैं गोरे अंग्रेजों की बात नहीं कर रहा बल्कि काले अंग्रेजों की बात कर रहा हूँ. मित्रों, मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसे देश में छाई अराजकता के कारण सचमुच रातों में नींद नहीं आती. मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसने देश की समस्त बिमारियों का ईलाज ढूंढ निकाला है. मैला आंचल के डागदर बाबू ने तो सबसे बड़ी बीमारी की खोज की थी इस व्यक्ति ने उस बीमारी अर्थात गरीबी का ईलाज भी निकाल लिया है. और उस आदमी को जिसे हम पीआईएल मैन के नाम से भी जानते हैं का नाम है अश्विनी उपाध्याय. मित्रों, यह आदमी सर्वोच्च न्यायालय का वरिष्ठ अधिवक्ता है. इस आदमी ने जंतर मंतर और देश भर में अंग्रेजी राज से चले आ रहे कानूनों को समाप्त करने की मांग करते हुए पिछले ८ अगस्त को जुलूस निकाला था. जंतर मंतर के जुलूस में कुछेक लुम्पेन यानि लम्पट लोग भी घुस आए या घुसा दिए गए और मुसलमानों के खिलाफ आपत्तिजनक नारे लगा दिए. अब मुसलमान तो ठहरे होली काऊ पवित्र गाय सो अश्विनी उपाध्याय जी को उस अपराध के लिए आनन-फानन में उन्हीं कानूनों के अंतर्गत जेल भेज दिया गया जिनको समाप्त करने की उन्होंने मांग की थी. इस देश की राजधानी में मौलाना शाद और अमानतुल्ला खान को ५६ ईंच की दाढ़ीवाले बाबा की पुलिस पकड़ना तो दूर छू भी नहीं पाती लेकिन अपनी ही पार्टी के एक निर्दोष और देशभक्त नेता को झटपट पकड़ लेती है. वाह री सरकार! मित्रों, पकडे भी क्यों न? ऐसा करके सरकार ने एक तीर से दो शिकार जो किए हैं. मुसलमानों को बता दिया कि हम भी नमाजवादियों की तरह ही तुष्टीकरण की नीति पर चलने को तैयार हैं और अपने गले में अटकी हुई हड्डी को निगल भी गई. मित्रों, ऐसा नहीं है कि अश्विनी जी को यह पता नहीं था कि उनकी पार्टी और उनकी पार्टी की संघ सरकार किसी भी तरह के कानूनी, प्रशासनिक या न्यायिक सुधार के खिलाफ है अर्थात यथास्थितिवादी है. फिर भी अश्विनी उपाध्याय जी ने हिम्मत नहीं हारी. ऐसा भी नहीं है कि अश्विनी जी अचानक सड़क पर उतर गए. बल्कि जब उन्होंने देखा कि उनकी पार्टी की सरकार ही उनकी देशहित के लिए नितांत आवश्यक मांगों पर भी कान नहीं दे रही है तब वे सड़क पर उतरे. अश्विनी जी बार-बार जनसंख्या-नियंत्रण कानून की मांग करते रहे. एक बार प्रधानमंत्री के समक्ष कानून के ड्राफ्ट को प्रदर्शित भी किया लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी गए लेकिन वहां भी सरकार ने कह दिया कि वह ऐसे किसी कानून के समर्थन में नहीं है. इसी तरह अश्विनी जी सर्वोच्च न्यायालय में अकेले लम्बे समय से हिन्दू अल्पसंख्यकों की लडाई लड़ते आ रहे हैं. मित्रों, आज देश में बिना घूस दिए कोई काम नहीं होता तो इसके लिए दोषी कौन है-अंग्रेजी राज वाले कानून. वो कानून जिनका निर्माण अंग्रेजों ने भारत को लूटने और भारतीयों का दमन करने के लिए किया था. हम जानते हैं कि नारेबाजी तो बस एक बहाना है, अश्विनी उपाध्याय नामक ऊंट को पहाड़ के नीचे लाना है. लेकिन हम सरकार को आगाह करना चाहेंगे कि अश्विनी जी ने जो आन्दोलन शुरू किया है, जो मशाल जलाई है वो अब बुझेगी नहीं बल्कि और भी तेजी से धधकेगी और अंततः उसे अंग्रेजी राज के कानूनों को समाप्त करना ही होगा, भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून बनाने ही होंगे, समान शिक्षा, समान चिकित्सा, समान कर संहिता, समान पेंशन, समान दंड संहिता, समान श्रम संहिता, समान पुलिस संहिता, समान नागरिक संहिता, समान धर्मस्थल संहिता और समान जनसंख्या संहिता को लागू करना ही होगा. #IsupportAshwiniUpadhyay

सोमवार, 9 अगस्त 2021

समझौते की मेज पर भारत की एक और हार

मित्रों, जब २०१४ का लोकसभा का चुनाव प्रचार चल रहा था तब भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी बार-बार एक बात का वादा अपने भाषणों में किया करते थे कि अगर उनकी सरकार बनी तो भारत न तो किसी देश के आगे आँखें झुकाकर बात करेगा, न ही आँखें दिखाकर बात करेगा बल्कि आँखों में आँखें डालकर बात करेगा. तब लोगों ने समझा था कि उनका इशारा चीन की तरफ है. लेकिन आज जब लद्दाख में भारत और चीन की सेनाएं एक साल के तनाव के बाद वापसी कर रही है तब दूसरा ही मंजर देखने को मिला है. मित्रों, दरअसल भारत वार्ता की मेज पर एक बार फिर से हार गया है जबकि रणनीतिक रूप से भारत की स्थिति चीन के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत थी. सैन्य मामलों के जानकार और विशेषज्ञों ने चीन के साथ हुए भारत के उस समझौते पर सवाल उठाए हैं जिसमें भारत ने अपने अधिकार क्षेत्र वाले पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील के उत्तर और दक्षिणी तट पर 10 किलोमीटर चौड़े बफ़र ज़ोन को बनाने के लिए सहमति दे दी है. जानकारों का कहना है कि डेपसांग और कुछ अन्य सक्टरों में भी डिस्इंगेजमेंट को लेकर भारत को चीन पर दबाव बनाना चाहिए था और ऐसा नहीं करके भारत ने बहुत बड़ी चूक कर दी है क्योंकि कूटनीतिक और सैन्य दृष्टि से यह क्षेत्र भारत के लिए बेहद अहम है. यह वही क्षेत्र है, जहां माना जाता है कि चीन की सेना भारत के अधिकार वाले क्षेत्र में 18 किलोमीटर तक अंदर प्रवेश कर गई है. मित्रों, रक्षा मामलों के जानकार और कर्नल (सेवानिवृत्त) अजेय शुक्ला ने इस संबंध में बीबीसी से बात की. चीन के साथ बफ़र ज़ोन को बनाने को लेकर हुए समझौते पर बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा- "मेरी समझ में ये एक अच्छा अग्रीमेंट है क्योंकि पैंगोंग के उत्तर और दक्षिण, दोनों जगह भारत और चीन के सैनिक बिल्कुल आमने-सामने थे. किसी भी समय झड़प की आशंका बनी हुई थी और वो झड़प सिर्फ़ झड़प ना रहकर बढ़ जाए, इसकी भी पूरी आशंका बनी हुई थी. इस लिहाज़ से ख़तरा हर समय बना हुआ था, तो वहां से दोनों ओर की सेनाओं का पीछे हटना अच्छी बात थी. लेकिन यहां ये भी कहना ज़रूरी है कि यहां पर दक्षिणी पैंगोंग ही एकमात्र ऐसी जगह थी जहां भारतीय सेना अच्छी पोज़िशन पर थी.'' वो कहते हैं, ''चीन की सेनाओं की तुलना में इस जगह पर भारतीय सेना की स्थिति काफी अच्छी थी और यहां पर सारी एडवांटेज भारतीय सैनिकों के पास थी. तो यहां से डिस्इंगेजमेंट के लिए सहमति देने का मतलब अब यह है कि जो ट्रंप कार्ड हमारे हाथ में था, हम वो खेल चुके हैं. वो अब हमारे पास नहीं रहा है और अगर चीन ये बात नहीं मानता है कि बाकी जगहों से भी डिस्इंगेजमेंट करना है और वो उससे इनक़ार कर दे तो हमारे पास में कोई ट्रंप कार्ड नहीं बचा है." मित्रों, 10 फ़रवरी को भी उन्होंने एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने पैंगोंग से जुड़ी घोषणाओं को लेकर सवाल उठाए थे. उन्होंने ट्वीट में कहा था - ''पैंगोंग सेक्टर में सेनाओं के पीछे हटने को लेकर झूठ बोला जा रहा है. कुछ हथियारबंद गाड़ियों और टैंकों को पीछे लिया गया है. सैनिकों की पोज़िशन में कोई बदलाव नहीं हुआ है. चीन को फ़िंगर 4 तक पेट्रोलिंग करने का अधिकार दे दिया गया है. इसका मतलब यह है कि एलएसी फ़िंगर 8 से फ़िगर 4 पर शिफ़्ट हो गई है.'' मित्रों, राज्यसभा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने भी इस संबंध में ट्वीट करके अपना मत ज़ाहिर किया है. उन्होंने लिखा है, "साल 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि कोई आया नहीं और कोई गया नहीं. चीन के लोग बहुत खुश हुए थे. लेकिन ये सच नहीं था. बाद में नरवणे ने सैनिकों को आदेश दिया कि वे एलएसी पार करें और पैंगोंग हिल को अपने कब्ज़े में लें. ताकि पीएलए के बेस पर नज़र रखें. और अब हम उन्हें वहां से हटा रहे हैं. लेकिन डेपसांग से क्या चीन पीछे हट रहा है? नहीं अभी नहीं." मित्रों, इससे पूर्व चीन के साथ चल रहे सीमा विवाद पर मौजूदा जानकारी देते हुए केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सदन में कहा था कि भारत ने हमेशा चीन को यह कहा कि द्विपक्षीय संबंध दोनों पक्षों के प्रयास से ही विकसित हो सकते हैं. साथ ही सीमा के प्रश्न को भी बातचीत के ज़रिए ही हल किया जा सकता है. वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति में किसी भी प्रकार की प्रतिकूल स्थिति का बुरा असर हमारी द्विपक्षीय बातचीत पर पड़ता है. उन्होंने कहा था कि ''टकराव वाले क्षेत्रों में डिस्इंगेजमेंट के लिए भारत का यह मत है कि 2020 की फ़ॉरवर्ड डेपलॉयमेंट्स (सैन्य तैनाती) जो एक-दूसरे के बहुत नज़दीक हैं, वो दूर हो जायें और दोनों सेनाएं वापस अपनी-अपनी स्थायी चौकियों पर लौट जाएं.'' राजनाथ सिंह ने दोनो सेनाओं के कमांडरों के बीच हुई बातचीत का भी ज़िक्र किया था. राजनाथ सिंह ने कहा था, ''अभी तक सीनियर कमांडर्स के स्तर पर नौ दौर की बातचीत हो चुकी है. हमारे इस दृष्टिकोण और बातचीत के फ़लस्वरूप चीन के साथ पैंगोंग त्सो झील के उत्तर और दक्षिण छोर पर सेनाओं के पीछे हटने का समझौता हो गया है.'' उन्होंने सदन में यह स्पष्ट शब्दों में कहा था कि - इस बातचीत में हमने कुछ भी खोया नहीं है. जबकि सच तो यह है कि भारत ने समझौते में रणनीतिक चोटियों पर से अपना पोजिशन खोया है भले ही समझौते में जमीन खोने का जिक्र नहीं हो लेकिन सच तो यह है कि चीन ने पहले भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण किया और फिर यथास्थिति को औपचारिक रूप देते हुए भारत पर बफर जोन थोप दिया. सच तो यह है कि यह एक एकतरफा समझौता है जिसमें चीन की दोहरी-तिहरी जीत हुई है। पहली- गलवान सौदा एलएसी में थोड़े बदलाव के साथ तीन किमी चौड़ा बफर जोन बनाता है। भारत अपने पैट्रोलिंग प्वाइंट (पीपी) 14 तक पहुंच खो देता है। दूसरी- पैंगॉन्ग सौदा भारत को रणनीतिक कैलाश हाइट्स को खाली करने के लिए मजबूर करता है, जबकि तीसरी- गोगरा सौदा पांच किमी का बफर बनाता है, जिससे भारत पीपी-17 ए तक पहुंच खो देता है। मित्रों, इस बारे में रक्षा मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी भी रक्षा मंत्री से सहमत नहीं हैं। उन्होंने इस मामले में ट्वीट किया है, ''किसी भी सौदे में कुछ दिया जाता है और कुछ लिया जाता है. लेकिन भारत ने चीन के साथ जो समझौता (पैंगोंग इलाक़े को लेकर) किया है वो बेहद सीमित है.'' रणनीतिक और सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी कहते हैं कि दो देशों के बीच समझौते लेन-देन पर आधारित होते हैं. लेकिन चीन के साथ भारत का समझौता केवल पैंगोंग इलाक़े तक सीमित है, और भारत की पेशकश है. ऐसा लगता है कि सर्दियों से पहले चीन ने जो शर्तें रखी थीं भारत ने उसे मान लिया है और पैगोंग इलाक़े को लेकर समझैता कर नो मैन्स लैंड बनाने पर तैयार हो गया है. एक अन्य ट्वीट में उन्होंने सवाल किया, ''चीन के आक्रामक रवैये के ख़िलाफ़ भारत खड़ा रहा है और उसने दिखाया है कि वो युद्ध की पूरी तैयारी के साथ भारत हिमालय की सर्दियों के मुश्किल हालातों में भी डटा रह सकता है. ऐसे में बड़े मुद्दों का हल तलाश करने की जगह अपनी मुख्य ताक़त कैलाश रेंज कंट्रोल को हारने को लेकर इस तरह के एक सीमित समझौते के लिए भारत क्यों तैयार हुआ?'' मित्रों, समझ में नहीं आता कि भारत चीन के समक्ष क्यों झुका? क्या अमेरिका में सत्ता परिवर्तन ने मोदी को हिला कर रख दिया, या फिर रूस की तरफ से कोई दबाव था, या फिर अफगानिस्तान की मौजूदा हालत ने मोदी के हाथ-पाँव फुला दिए? कहाँ गयी वो आँखें जो चीन की आँखों-में आँखें डालकर बात करनेवाली थीं? कहाँ हैं उस कविता के कटे-फटे पृष्ठ जिसको मोदी ने जनता को लुभाने के लिए कभी पढ़ा था-मैं देश नहीं झुकने दूंगा, मैं देश नहीं बिकने दूंगा? माननीय रक्षा मंत्री जी से हमें न तो पहले उम्मीद थी और न अब है क्योंकि वे तो सिर्फ कड़ी निंदा करना जानते हैं. हे गलवान के अमर शहीदों हमें माफ करना क्योंकि हमारी सरकार ने आपकी शहादत को भुला दिया है। पहले कांग्रस सरकार ऐसा करती थी अब भाजपा सरकार भी वही कर रही है.

गुरुवार, 5 अगस्त 2021

भारत कब बनेगा खेलों का विश्वगुरु?

मित्रों, भारत और चीन पड़ोसी देश हैं, दोनों बड़ी आबादी वाले देश हैं, दोनों विश्वगुरु बनने का सपना देख रहे हैं. लेकिन जब बात ओलंपिक खेलों की होती है तो चीन से तुलना करना भारतीयों के लिए काफ़ी शर्मसार करने वाली बात हो जाती है. टोक्यो में जारी ओलंपिक मुक़ाबलों में अब तक का रुझान पिछले ओलंपिक मुक़ाबलों की तरह ही नज़र आ रहा है, जहाँ चीन मेडल टैली में सबसे ऊपर है वहीँ भारत नीचे के पांच देशों में. क्या किसी के पास भारत के इस मायूस और शर्मनाक करने वाले प्रदर्शन का जवाब है? मित्रों, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. सच तो ये है कि देश में क्रिकेट को छोड़कर किसी और स्पोर्ट्स में किसी को कोई ख़ास दिलचस्पी ही नहीं है. टोक्यो में जारी ओलंपिक खेलों से पहले भारत ने अपने 121 साल के ओलंपिक इतिहास में केवल 28 पदक जीते थे जिनमें से नौ स्वर्ण पदक रहे हैं, और इनमें से आठ अकेले हॉकी में जीते गए थे. जबकि अकेले अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स ने अपने करियर में 28 ओलंपिक पदक जीते हैं जो घनी आबादी वाले देश भारत के पूरे ओलंपिक इतिहास में (टोक्यो से पहले तक) हासिल किए गए कुल पदकों के बराबर है. मित्रों, भारत के विपरीत चीन ने ओलंपिक मुक़ाबलों में पहली बार 1984 में हुए लॉस एंजेलिस ओलंपिक में भाग लिया था लेकिन टोक्यो से पहले इसने 525 से अधिक पदक जीत लिए थे, जिनमें 217 स्वर्ण पदक थे. टोक्यो में भी अब तक इसका प्रदर्शन ओलंपिक सुपर पावर की तरह रहा है. उसने बीजिंग में 2008 के ओलंपिक खेलों को आयोजित भी किया और 100 पदक हासिल करके पहले नंबर पर भी रहा. मित्रों, दरअसल, चीन और भारत ओलंपिक मुक़ाबलों के हिसाब से तो अलग-अलग हालत में हैं. आखिर ओलंपिक खेलों के आयोजन के पीछे ख़ास मक़सद स्पोर्ट्स की स्पिरिट को बढ़ाना और राष्ट्रीय गौरव हासिल करना है. चीन इतने कम समय में ओलंपिक सुपर पावर कैसे बन गया? तो इसका जवाब है एक शब्द “डिज़ायर”. ये एक गहरा शब्द है जिसमें कई शब्द छिपे हैं: चाहत, मंशा, अभिलाषा, लालच और यहाँ तक कि महत्वाकांक्षा और लगन भी. जहाँ चीन में पूरे समाज के सभी तबक़े में, चाहे वो सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, पदक हासिल करने की ज़बरदस्त चाह है. भारतीय सिर्फ सरकारी नौकरी के लालच में खेलते हैं. हमारा तंत्र और व्यवस्था इतना घटिया है कि बड़े-बड़े खिलाडी ठेला खींचते देखे जा सकते हैं. फिर खेल संगठनों में भी जमकर भ्रष्टाचार होता है. यहाँ तक कि खिलाडियों का यौन शोषण भी होता है. मित्रों, दूसरी ओर अगर हम ८० के दशक की चीनी मीडिया पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि शुरू के सालों में तमग़ा और मेडल पाने की ये चाहत सिर्फ़ चाहत नहीं थी बल्कि ये एक जुनून था. विश्व में नंबर एक बनने की दिली तमन्ना थी. चीन की आज की पीढ़ी अपने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के उस बयान से प्रेरित होती है जिसमे उन्होंने कहा था, “खेलों में एक मज़बूत राष्ट्र बनना चीनी सपने का हिस्सा है.”. राष्ट्रपति शी का ये बयान ‘डिज़ायर’ ही पर आधारित है. मित्रों, आम तौर से भारत के नागरिक और नेता हर मैदान में अपनी तुलना चीन से करते हैं और अक्सर चीन की तुलना में अपनी हर नाकामी को चीन के अलोकतांत्रिक होने पर थोप देते हैं, लेकिन ओलंपिक खेलों में अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देश भी बड़ी ताकत हैं. जब भारतीय चीन के प्रति इतने प्रतियोगी हैं तो खेलों का स्तर चीन की तरह क्यों नहीं? या चीन भारतीय खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा क्यों नहीं? आखिर ये कैसे संभव हुआ कि 1970 के दशक में दो ग़रीब देश, जो आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग समान थे मगर इनमें से एक खेलों में निकल गया काफ़ी आगे और दूसरा कैसे काफ़ी पीछे छूट गया? एक पदक में अमेरिका को मात दे रहा है और दूसरा उज़्बेकिस्तान जैसे ग़रीब देशों से भी पिछड़ा है? वास्तव में चीन और हिंदुस्तान की जनसंख्या लगभग समान है और हमारी अधिकांश चीजें भी समान हैं. परन्तु चीन के खिलाड़ियों की ट्रेनिंग साइंटिफ़िक और मेडिकल साइंस के आधार पर ज़्यादा ज़ोर देकर करवाई जाती है जिससे वो पदक प्राप्त करने में कामयाब रहे हैं. चीन में सब बंदोबस्त ‘रेजीमेन्टेड’ होता जिसे सबको मानना पड़ता है. भारत में ऐसा करना मुश्किल है. चीन में माता-पिता और परिवार वाले बचपन से ही अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाना चाहते हैं जबकि भारत में, खास तौर ग्रामीण क्षेत्रों में, माँ-बाप बच्चों को पढ़ाने पर और बाद में नौकरी पर ध्यान देते हैं. मित्रों, चीन के पास सरकार के नेतृत्व वाली समग्र योजना है, खेलों में लोगों की व्यापक भागीदारी है, वहां ओलंपिक के हिसाब से लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों क्षेतों में मजबूती है, प्रतिभाओं की खोज और प्रोत्साहन के लिए विकसित तंत्र है, सरकारी और निजी क्षेत्रों के बीच तालमेल है. चीन ने अपने खेल के बुनियादी ढांचे में ज़बरदस्त सुधार किया है और वो खुद कई तरह के खेल उपकरण बना सकता है. मित्रों, भले ही रिओ ओलंपिक में चीन पदक तालिका में (70 पदकों के साथ) तीसरे स्थान पर था, लेकिन वो चर्चा इस बात पर कर रहा होगा कि वो लंदन 2012 ओलंपिक में अपने 88 पदकों की संख्या को बेहतर क्यों नहीं कर सका. इसके विपरीत, भारत अपने बैडमिंटन रजत पदक विजेता पीवी सिंधु और कुश्ती कांस्य विजेता साक्षी मलिक को भारी मात्रा में धन और प्रतिष्ठित राज्य पुरस्कारों से नवाज़ रहा है. जिमनास्ट दीपा करमाकर, जो पदक हासिल करने से चूक गईं, और निशानेबाज़ जीतू राय को भी सम्मानित किया गया, जिन्होंने पिछले दो वर्षों में स्वर्ण और रजत सहित एक दर्जन पदक जीते हैं, लेकिन रियो में वो कोई पदक न जीत सकीं. मित्रों, टोक्यो में ओलंपिक खेल शुरू हुए एक हफ़्ते से ज़्यादा हो गया है और पिछली प्रतियोगिताओं की तरह इस बार भी भारत के जिन खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद थी वो ख़ाली हाथ देश लौट रहे हैं. भारत ने अब तक एक रजत और तीन कांस्य पदक ही जीता है जबकि चीन पर पदकों की बरसात हो रही है. ओलंपिक खेलों की समाप्ति के बाद जनता भारत की नाकामी का मातम मनाएगी और मीडिया इसका विश्लेषण करेगी और थोड़े दिनों बाद सब कुछ नॉर्मल हो जाएगा. भारत की नाकामी का दोष खिलाडियों को पूरी तरह से नहीं दिया जा सकता. दरअसल भारती में खेल संस्कृति का अभाव है, खेलों में पारिवारिक-सामाजिक भागीदारी की कमी है, खेल सरकारों की प्राथमिकता में नहीं हैं, खेल फ़ेडेरेशनों पर सियासत हावी है, खेल इंन्फ्रास्ट्रक्चर और डाइट नाकाफ़ी है, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद है, देश में ग़रीबी है और खेल से पहले नौकरी को लोग प्राथमिकता देते हैं. साथ ही प्राइवेट स्पॉन्सरशिप की भी कमी है. न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों का बजट आवश्यकता के अनुसार है, लगभग सभी राज्य सरकारों का स्पोर्ट्स बजट प्रति व्यक्ति दस पैसा भी नहीं है. ऐसी दशा में खेलों की इस दशा के लिए कौन ज़िम्मेदार है-सरकार, परिवार, समाज? मेरी मानें तो सभी.

सोमवार, 2 अगस्त 2021

पारदर्शिता घटानेवाला सुधार

मित्रों, वर्तमान राजनीति के बारे में आपका क्या ख्याल है? मेरी माने तो ऐन केन प्रकारेण सफलता या जीत प्राप्त कर लेना ही वर्तमान काल में राजनीति है लेकिन जब कोई सत्ता पा लेने के बाद भी छल करता रहे तो उसे क्या कहेंगे? मित्रों, आपने एकदम ठीक समझा है मेरा तात्पर्य भारत के उन्हीं नेताओं से है जिनके हाथों में हमने अपने देश-प्रदेश का वर्तमान दे रखा है। वही नेता जिनकी कथनी और करनी में कोई साम्य ही नहीं है। जो कहते कुछ है और करते कुछ हैं। दिखाते कुछ हैं और होता कुछ है। कई बार उनके शब्द उनके कृत्य के नितांत विपरीत होते हैं। मित्रों, मैं मोदीजी की बात नहीं कर रहा मैं बात कर रहा हूं बिहार के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री रामसूरत राय जी की। दरअसल पिछले दिनों बडी धूमधाम से बिहार भूमि की वेबसाइट का नवीनीकरण किया गया है। ३१ जुलाई को बिहार के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री श्री राम सूरत राय जी ने इसका उद्घाटन किया. निस्संदेह यह एक अच्छा कदम है क्योंकि कई सारी सुविधाएँ जो पहले से इस वेबसाइट पर जनता जनार्दन को उपलब्ध नहीं थी अब उपलब्ध है. मित्रों, लेकिन एक सुविधा जो पहले से इस वेबसाइट पर उपलब्ध थी अब समाप्त कर दी गई है. पहले जहाँ प्रत्येक मौजा के प्रत्येक वर्ष के अब तक के सारे लंबित दाखिल ख़ारिज मामलों की स्थिति को जब चाहे तब चाहे जितनी बार देखा जा सकता था अब देखा नहीं जा सकेगा. निश्चित रूप से इससे उन निकम्मे और घूसखोर कर्मचारियों व अधिकारियों को फायदा पहुँचनेवाला है जो बिना घूस लिए जमीन का दाखिल ख़ारिज नहीं करते. मित्रों, जहाँ पूरी दुनिया में सूचना क्रांति के इस दौर में पारदर्शिता बढ़ाने पर जो दिया जा रहा है वहीँ बिहार सरकार ने अपने सबसे भ्रष्ट विभाग में पारदर्शिता को घटानेवाला पश्चगामी कदम उठाया है. एक तरफ मंत्रीजी इस विभाग से घूसखोरी को समाप्त करने का इरादा लगातार मीडिया में जाहिर करते रहते हैं वहीँ दूसरी और उनके द्वारा वेबसाइट में प्रतिगामी परिवर्तन जिससे रिश्वतखोरी को बढ़ावा मिलेगा आश्चर्य में डालनेवाला है. निश्चित रूप से यह जनता के साथ छल है, धोखा है.