गुरुवार, 5 अगस्त 2021

भारत कब बनेगा खेलों का विश्वगुरु?

मित्रों, भारत और चीन पड़ोसी देश हैं, दोनों बड़ी आबादी वाले देश हैं, दोनों विश्वगुरु बनने का सपना देख रहे हैं. लेकिन जब बात ओलंपिक खेलों की होती है तो चीन से तुलना करना भारतीयों के लिए काफ़ी शर्मसार करने वाली बात हो जाती है. टोक्यो में जारी ओलंपिक मुक़ाबलों में अब तक का रुझान पिछले ओलंपिक मुक़ाबलों की तरह ही नज़र आ रहा है, जहाँ चीन मेडल टैली में सबसे ऊपर है वहीँ भारत नीचे के पांच देशों में. क्या किसी के पास भारत के इस मायूस और शर्मनाक करने वाले प्रदर्शन का जवाब है? मित्रों, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. सच तो ये है कि देश में क्रिकेट को छोड़कर किसी और स्पोर्ट्स में किसी को कोई ख़ास दिलचस्पी ही नहीं है. टोक्यो में जारी ओलंपिक खेलों से पहले भारत ने अपने 121 साल के ओलंपिक इतिहास में केवल 28 पदक जीते थे जिनमें से नौ स्वर्ण पदक रहे हैं, और इनमें से आठ अकेले हॉकी में जीते गए थे. जबकि अकेले अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स ने अपने करियर में 28 ओलंपिक पदक जीते हैं जो घनी आबादी वाले देश भारत के पूरे ओलंपिक इतिहास में (टोक्यो से पहले तक) हासिल किए गए कुल पदकों के बराबर है. मित्रों, भारत के विपरीत चीन ने ओलंपिक मुक़ाबलों में पहली बार 1984 में हुए लॉस एंजेलिस ओलंपिक में भाग लिया था लेकिन टोक्यो से पहले इसने 525 से अधिक पदक जीत लिए थे, जिनमें 217 स्वर्ण पदक थे. टोक्यो में भी अब तक इसका प्रदर्शन ओलंपिक सुपर पावर की तरह रहा है. उसने बीजिंग में 2008 के ओलंपिक खेलों को आयोजित भी किया और 100 पदक हासिल करके पहले नंबर पर भी रहा. मित्रों, दरअसल, चीन और भारत ओलंपिक मुक़ाबलों के हिसाब से तो अलग-अलग हालत में हैं. आखिर ओलंपिक खेलों के आयोजन के पीछे ख़ास मक़सद स्पोर्ट्स की स्पिरिट को बढ़ाना और राष्ट्रीय गौरव हासिल करना है. चीन इतने कम समय में ओलंपिक सुपर पावर कैसे बन गया? तो इसका जवाब है एक शब्द “डिज़ायर”. ये एक गहरा शब्द है जिसमें कई शब्द छिपे हैं: चाहत, मंशा, अभिलाषा, लालच और यहाँ तक कि महत्वाकांक्षा और लगन भी. जहाँ चीन में पूरे समाज के सभी तबक़े में, चाहे वो सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, पदक हासिल करने की ज़बरदस्त चाह है. भारतीय सिर्फ सरकारी नौकरी के लालच में खेलते हैं. हमारा तंत्र और व्यवस्था इतना घटिया है कि बड़े-बड़े खिलाडी ठेला खींचते देखे जा सकते हैं. फिर खेल संगठनों में भी जमकर भ्रष्टाचार होता है. यहाँ तक कि खिलाडियों का यौन शोषण भी होता है. मित्रों, दूसरी ओर अगर हम ८० के दशक की चीनी मीडिया पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि शुरू के सालों में तमग़ा और मेडल पाने की ये चाहत सिर्फ़ चाहत नहीं थी बल्कि ये एक जुनून था. विश्व में नंबर एक बनने की दिली तमन्ना थी. चीन की आज की पीढ़ी अपने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के उस बयान से प्रेरित होती है जिसमे उन्होंने कहा था, “खेलों में एक मज़बूत राष्ट्र बनना चीनी सपने का हिस्सा है.”. राष्ट्रपति शी का ये बयान ‘डिज़ायर’ ही पर आधारित है. मित्रों, आम तौर से भारत के नागरिक और नेता हर मैदान में अपनी तुलना चीन से करते हैं और अक्सर चीन की तुलना में अपनी हर नाकामी को चीन के अलोकतांत्रिक होने पर थोप देते हैं, लेकिन ओलंपिक खेलों में अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देश भी बड़ी ताकत हैं. जब भारतीय चीन के प्रति इतने प्रतियोगी हैं तो खेलों का स्तर चीन की तरह क्यों नहीं? या चीन भारतीय खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा क्यों नहीं? आखिर ये कैसे संभव हुआ कि 1970 के दशक में दो ग़रीब देश, जो आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग समान थे मगर इनमें से एक खेलों में निकल गया काफ़ी आगे और दूसरा कैसे काफ़ी पीछे छूट गया? एक पदक में अमेरिका को मात दे रहा है और दूसरा उज़्बेकिस्तान जैसे ग़रीब देशों से भी पिछड़ा है? वास्तव में चीन और हिंदुस्तान की जनसंख्या लगभग समान है और हमारी अधिकांश चीजें भी समान हैं. परन्तु चीन के खिलाड़ियों की ट्रेनिंग साइंटिफ़िक और मेडिकल साइंस के आधार पर ज़्यादा ज़ोर देकर करवाई जाती है जिससे वो पदक प्राप्त करने में कामयाब रहे हैं. चीन में सब बंदोबस्त ‘रेजीमेन्टेड’ होता जिसे सबको मानना पड़ता है. भारत में ऐसा करना मुश्किल है. चीन में माता-पिता और परिवार वाले बचपन से ही अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाना चाहते हैं जबकि भारत में, खास तौर ग्रामीण क्षेत्रों में, माँ-बाप बच्चों को पढ़ाने पर और बाद में नौकरी पर ध्यान देते हैं. मित्रों, चीन के पास सरकार के नेतृत्व वाली समग्र योजना है, खेलों में लोगों की व्यापक भागीदारी है, वहां ओलंपिक के हिसाब से लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों क्षेतों में मजबूती है, प्रतिभाओं की खोज और प्रोत्साहन के लिए विकसित तंत्र है, सरकारी और निजी क्षेत्रों के बीच तालमेल है. चीन ने अपने खेल के बुनियादी ढांचे में ज़बरदस्त सुधार किया है और वो खुद कई तरह के खेल उपकरण बना सकता है. मित्रों, भले ही रिओ ओलंपिक में चीन पदक तालिका में (70 पदकों के साथ) तीसरे स्थान पर था, लेकिन वो चर्चा इस बात पर कर रहा होगा कि वो लंदन 2012 ओलंपिक में अपने 88 पदकों की संख्या को बेहतर क्यों नहीं कर सका. इसके विपरीत, भारत अपने बैडमिंटन रजत पदक विजेता पीवी सिंधु और कुश्ती कांस्य विजेता साक्षी मलिक को भारी मात्रा में धन और प्रतिष्ठित राज्य पुरस्कारों से नवाज़ रहा है. जिमनास्ट दीपा करमाकर, जो पदक हासिल करने से चूक गईं, और निशानेबाज़ जीतू राय को भी सम्मानित किया गया, जिन्होंने पिछले दो वर्षों में स्वर्ण और रजत सहित एक दर्जन पदक जीते हैं, लेकिन रियो में वो कोई पदक न जीत सकीं. मित्रों, टोक्यो में ओलंपिक खेल शुरू हुए एक हफ़्ते से ज़्यादा हो गया है और पिछली प्रतियोगिताओं की तरह इस बार भी भारत के जिन खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद थी वो ख़ाली हाथ देश लौट रहे हैं. भारत ने अब तक एक रजत और तीन कांस्य पदक ही जीता है जबकि चीन पर पदकों की बरसात हो रही है. ओलंपिक खेलों की समाप्ति के बाद जनता भारत की नाकामी का मातम मनाएगी और मीडिया इसका विश्लेषण करेगी और थोड़े दिनों बाद सब कुछ नॉर्मल हो जाएगा. भारत की नाकामी का दोष खिलाडियों को पूरी तरह से नहीं दिया जा सकता. दरअसल भारती में खेल संस्कृति का अभाव है, खेलों में पारिवारिक-सामाजिक भागीदारी की कमी है, खेल सरकारों की प्राथमिकता में नहीं हैं, खेल फ़ेडेरेशनों पर सियासत हावी है, खेल इंन्फ्रास्ट्रक्चर और डाइट नाकाफ़ी है, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद है, देश में ग़रीबी है और खेल से पहले नौकरी को लोग प्राथमिकता देते हैं. साथ ही प्राइवेट स्पॉन्सरशिप की भी कमी है. न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों का बजट आवश्यकता के अनुसार है, लगभग सभी राज्य सरकारों का स्पोर्ट्स बजट प्रति व्यक्ति दस पैसा भी नहीं है. ऐसी दशा में खेलों की इस दशा के लिए कौन ज़िम्मेदार है-सरकार, परिवार, समाज? मेरी मानें तो सभी.

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