गुरुवार, 28 मई 2020

माफ़ी वीर वीर सावरकर को नमन

मित्रों, आज भारतमाता के महान पुत्र विनायक दामोदर सावरकर का जन्म दिन है जिनको हम वीर सावरकर के नाम से ज्यादा जानते हैं. सावरकर जिन्होंने भारत को सबसे पहले हिंदुत्व का दर्शन दिया. सावरकर जिन्होंने एक ऐसे समरस हिन्दू समाज की कल्पना की जिसमें कोई जाति-भेद नहीं हो. सावरकर जिन पर भारत के तथाकथित राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गाँधी के अलावा कर्जन वाईली और जनरल डायर की हत्या करवाने का आरोप है.
मित्रों, वह सावरकर ही थे जिन्होंने अंग्रेजों की राजधानी लन्दन में रहकर स्वतंत्रता की अलख जगाई. वह सावरकर ही थे जिन्होंने १८५७ के विद्रोह को सबसे पहले भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहने का साहस किया. लेकिन जो लोग हिन्दू और हिंदुत्व विरोधी राजनीति करते हैं और भारत के समस्त हिन्दुओं के धर्मान्तरण अथवा भारत में इस्लामिक शासन की पुनर्स्थापना के सपने देखते हैं उनको सावरकर में त्याग, साहस, वीरता, देशभक्ति आदि गुण दिखाई ही नहीं देते दिखता है तो बस उनकी एक ही करनी कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफ़ी मांगी थी.
मित्रों, आपने भी शायद प्रकाश झा की अपहरण फिल्म देखी होगी. आपने देखा होगा कि फिल्म में हीरो विलेन के पास काम मांगने जाता है. तब विलेन उससे पूछता है कि वो उसके लिए क्या कर सकता है. हीरो कहता है कि वो उसके लिए अपनी जान दे सकता है. तब विलेन कहता है कि मैं क्या करूंगा तेरी जान लेकर? क्या कीमत है तुमरी जान की? तब हीरो जवाब में कहता है कि मैं आपके लिए जान ले भी सकता हूँ.
मित्रों, मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हमेशा जान दे देने को उद्धत रहना सही ही नहीं होता कभी-कभी अपनी जान बचाकर शत्रु को ज्यादा नुकसान पहुँचाना ज्यादा श्रेयस्कर होता है. चाणक्य नीति को देख लीजिए. पाकिस्तान की कूटनीति को देख लीजिए. चीन की १९६२ की कूटनीति को देख लीजिए. प्रत्यक्ष में युद्ध के समय भी वो हिंदी-चीनी भाई-२ कर रहा था जबकि उसकी सेना भारत के भीतर धंसी आ रही थी. सीमा पर लगभग रोजाना जवान शहीद होते हैं. उनमें से जो जवान आसानी से मारे जाते हैं क्या आपने उनको कभी कोई पदक मिलते देखा है? बल्कि पदक उनको ही मिलता है जो शत्रु को भारी नुकसान पहुंचाते हैं भले ही वे शहीद न भी हुए हों. 
मित्रों, सावरकर भी शहीद हो सकते थे. बहुत पहले २०वीं शताब्दी की शुरुआत में ही शहीद हो सकते थे. लेकिन अगर वे मर जाते तो इससे देश को क्या मिलता? आपने भगत सिंह अ लिजेंड फिल्म में देखा होगा कि चंद्रशेखर आजाद चाहते थे कि भगत सिंह बम फेंककर भाग जाएँ. लेकिन भगत सिंह नहीं माने. मैं आज आपसे पूछता हूँ कि भगत सिंह की फांसी से देश को क्या मिला? आज़ादी के बाद कांग्रेस की सरकार बनी. उसी कांग्रेस की जो भगत सिंह को आतंकवादी मानती थी और जिसके सबसे बड़े नेता मोहन दास करमचंद गाँधी ने भगत सिंह को बचाने की रंच मात्र भी कोशिश नहीं की. नेहरु ने खुद ही खुद को भारत रत्न दे दिया जो भगत सिंह को आज तक नहीं मिला. जिस विचारधारा के प्रचार के लिए भगत सिंह ने गिरफ़्तारी दी थी आज भगत सिंह की वो विचारधारा कहाँ है? कहीं नहीं. 
मित्रों, क्या आपने कभी सोंचा है कि सावरकर अगर जेल से जीवित नहीं लौटते तो क्या होता? क्या आपने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि गाँधी और कांग्रेस ने आजादी दिलाने के नाम पर भारत के हिन्दुओं के साथ कितना बड़ा धोखा किया? कहने को तो मजबूरी में देश का बंटवारा किया लेकिन क्या वो बंटवारा भी देश खासकर हिन्दुओं के साथ धोखा नहीं थ? मुसलमानों  को अलग देश दे दिया लेकिन भविष्य में नासूर बनने के लिए पाकिस्तान से भी कहीं ज्यादा मुसलमानों को जो कुछ महीने पहले तक अलग देश मांग रहे थे भारत में ही रोक लिया. इस मामले में अम्बेदकर की आपत्तियों को भी गाँधी ने दरकिनार कर दिया जो कह रहे थे कि भारत से सारे मुसलमानों को पाकिस्तान भेज दिया जाए और पाकिस्तान से सारे हिन्दुओं को भारत बुला लिया जाए. 
मित्रों, आज भारत में मुसलमान क्या कर रहे हैं? भारत की राजधानी दिल्ली में शाहीन बाग़ और हिन्दुओं का नरसंहार. हिन्दुओं के स्कूल, कारें, दुकान और घर सब जला दिया उन्होंने इसी फरवरी में. पुलिस की तो कोई क़द्र ही नहीं रही उनकी नज़रों में. पुलिस को देखते ही वे पत्थर फेंकने लगते हैं. वे राष्ट्र गान और राष्ट्र गीत के अपमान को अपना गौरव मानते हैं. वे न तो भारत के कानून को मानने को तैयार हैं और न ही भारत की सरकार को. उनके लिए उनका मजहब भारत के संविधान से भी ऊपर है. सावरकर दूरदर्शी थे और समझ गए थे कि भविष्य में भारत में क्या होनेवाला है. मैं नहीं जानता कि गाँधी की हत्या में सावरकर कहाँ तक शामिल थे लेकिन यह मानता हूँ कि गाँधी महाभारत के भीष्म की तरह अधर्म के पक्ष में थे और अगर उनका वध नहीं होता तो छद्म मुसलमान मोहम्मद गाँधी देश और हिन्दू समाज को और भी ज्यादा नुकसान पहुंचाते. 
मित्रों, अभी-अभी पृथ्वीराज चौहान की १९ मई को जयंती मनाई गई. लोगों ने श्रद्धा सुमन के ढेर लगा दिए लेकिन मैं पृथ्वीराज को एक महान व्यक्ति नहीं मानता हूँ. आदर्श अपनी जगह है और राष्ट्र अपनी जगह. उस एक व्यक्ति की एक मूर्खता के कारण भारत को सात सौ साल से भी ज्यादा की गुलामी झेलनी पड़ी. न जाने इन सात सौ सालों में कितने मंदिर तोड़ दिए गए, कितनी बार हिन्दुओं का नरसंहार हुआ और कितनी हिन्दू महिलाओं को नंगी करके बगदाद के बाजारों में बेच दिया गया और उसके बाद उनका क्या हुआ होगा आप इसकी सिर्फ कल्पना कर सकते हैं. हिन्दू धर्म के गर्भ से सिख धर्म का जन्म हुआ. गुरु गोविन्द सिंह के बेटों को जीवित दीवार में चुनवा दिया गया. गुरु तेगबहादुर, बाबा बन्दा सिंह बहादुर और संभाजी को असीम यातनाएं देकर मौत के घाट उतार दिया गया.......
मित्रों, इन सबके लिए अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार है तो वो पृथ्वीराज चौहान है जिसने पकड़ में आए शत्रु को बार-बार माफ़ी मांगने पर छोड़ दिया. शहीद तो पृथ्वीराज भी हुआ लेकिन उसकी शहादत, वीरता और आदर्श से भारत को क्या मिला? हाँ बार-बार क्षमा मांगनेवाला मोहम्मद गोरी एक बार जीता और उसने कोई गलती या मूर्खता नहीं की. इसलिए मैं कहता हूँ कि सावरकर ने अगर माफ़ी मांगी भी तो वह अपराध नहीं था एक रणनीति थी ठीक उसी तरह जैसे आगरा के किले में कैद कर दिए जाने के बाद छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब से लिखित में माफ़ी मांगी थी क्योंकि उनको लग रहा था कि ऐसा नहीं करने पर क्रूर औरंगजेब उनकी हत्या करवा देगा.  

रविवार, 24 मई 2020

मोदी नहीं कोरोना और चीन से लड़े कांग्रेस


मित्रों, इन दिनों जब पूरा देश और पूरी दुनिया कोरोना से लड़ने में मशगूल है और कमर कसकर लड़ रही है ऐसे में हमारे देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस अपनी पूरी ताकत से इस लडाई को कमजोर करने में जुटी हुई है. एक तरफ तो वो कह रही है कि यह समय गन्दी और तुच्छ राजनीति करने का नहीं है वहीं दूसरी तरफ वो खुद ऐसा ही करने में पूरे प्राणपन से लगी हुई है. कांग्रेस शासित महाराष्ट्र और पंजाब में कोरोना को लेकर पूरी तरह से अराजकता का वातावरण है. कांग्रेस को उसे ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए लेकिन कांग्रेस का पूरा ध्यान इस समय उत्तर प्रदेश का माहौल बिगाड़ने पर है जहाँ की स्थिति बांकी राज्यों के मुकाबले काफी अच्छी है.
मित्रों, हम काफी समय से सोनिया, प्रियंका और राहुल नामक तीन व्यक्तियों की पार्टी रह गई कांग्रेस से यह कहते आ रहे हैं कि उसको अपना हिंदूविरोधी रवैया त्यागना चाहिए नहीं तो वो एक समय भारत का बंटवारा करने वाली मुस्लिम लीग का भारतीय संस्करण मात्र बनकर रह जाएगी लेकिन कांग्रेस न तो अपना हिन्दूविरोधी रवैया छोड़ रही है और न ही मोदी विरोधी रवैया. इतना ही नहीं वो बार-बार लगातार मोदी का विरोध करते-करते भारत के हितों के खिलाफ बात करने लगती है. जिससे शक होने लगता है कि वो कहीं भारत विरोधी शक्तियों की एजेंट तो नहीं है.
मित्रों, यहाँ हम एक उदाहरण लेना चाहेंगे. हरियाणा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पंकज पूनिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गरियाने के चक्कर में पिछले दिनों हिन्दुओं के लिए परम पूज्य मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को गालियाँ दे बैठे. दूसरी तरफ रायबरेली से कांग्रेस विधायक अदिति सिंह प्रियंका वाड्रा की आलोचना करती हैं. कांग्रेस अदिति सिंह पर तो अनुशासन का डंडा चलाती है लेकिन पंकज पूनिया की आलोचना तक नहीं करती कार्रवाई तो दूर रही. शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस के लिए भगवान राम का कोई मूल्य नहीं है जबकि प्रियंका उसके लिए बहुत कुछ ही नहीं सबकुछ है.
मित्रों, पिछले दिनों एक और अनपेक्षित घटना देखने को मिलती है. दिल्ली के महाबदमाश मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल एक विज्ञापन में सिक्किम को स्वतंत्र राष्ट्र बताता है. जाहिर है कि उनके जैसा बहुत ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी अनजाने में तो ऐसी गलती नहीं ही करेगा. खैर, चूंकि हम उनको दिल्ली चुनावों से पहले ही काला नाग बता चुके हैं इसलिए उनके बारे में हमें ज्यादा बोलने की जरुरत नहीं है. मगर कांग्रेस भी इस मुद्दे पर चुप रह जाती है जबकि जब सिक्किम का भारत में १९७५ में विलय हुआ था तब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसे अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि बताया था. तो क्या कांग्रेस पार्टी को इंदिरा गाँधी द्वारा किए गए महान कार्यों से भी कोई मतलब नहीं रह गया है? या फिर कांग्रेस और केजरीवाल दोनों इस समय चीन के एजेंट हैं जो आज भी सिक्किम को भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं मानता?
मित्रों, भारत के कम्युनिस्टों का तो कहना ही क्या? अगर आज भारत पर चीन का हमला हो जाए जो कभी भी और किसी भी दिन हो सकता है तो ये गरीबों और सर्वहारा वर्ग के कथित मसीहा निश्चित रूप से एक बार फिर से चीन के समर्थन में दिखाई देंगे. इससे पहले १९६२ में भी वे चीन के समर्थन में और अपने ही देश भारत के खिलाफ खड़े हो चुके हैं. लेकिन क्या कांग्रेस को भी भविष्य में चीन या पाकिस्तान से चुनाव लड़ना है? अगर हां तब तो कोई बात नहीं, हमारी शुभकामनाएँ उसके साथ है लेकिन अगर उसे भारत से ही चुनाव लड़ना है तो उसे सर्वप्रथम अपना हिन्दूविरोधी रवैया त्यागना होगा अन्यथा जिस प्रकार मुस्लिम लीग को भारत में कभी १ और कभी २ सीटें लोकसभा चुनावों में आती हैं वैसे ही आया करेगी और राहुल गाँधी कभी भी दोबारा अमेठी से चुनाव नहीं जीत पाएंगे. दूसरी बात उसे मोदी विरोध और भारत विरोध के बीच के फर्क को समझना होगा. तीसरी बात अगर सोनिया समझती हैं कि उनके नेतृत्व में पूरे भारत को ईसाई धर्म में धर्मान्तरित किया जा सकता है तो उनको शीघ्रातिशीघ्र इस भ्रम को त्याग देना चाहिए क्योंकि यह नितांत असंभव है. ऐसा करने के प्रयास वास्को डी गामा के समय से ही जारी है और न जाने कितने ईसाई धर्मप्रचारक इस भारत की पवित्र मिटटी में मरखप गए और यहीं उनकी कब्रें बन गईं लेकिन हिंदुत्व का परचम लहराता रहा और लहराता रहेगा.
मित्रों, अंत में मैं अपने इस आलेख का अंत एक दुखद संयोग के साथ करना चाहूँगा कि इस समय भारत के चार प्रमुख दुश्मन हैं और उन चारों के नाम अंग्रेजी के सी अक्षर से शुरू होते हैं-सी फॉर कोरोना, सी फॉर कांग्रेस, सी फॉर चाइना और सी फॉर कम्युनिस्ट. साथ ही मैं बहन मायावती द्वारा इस समय दिखाई जा रही गंभीरता और दूरदर्शिता की प्रशंसा भी करना चाहूँगा जिनसे क से कांग्रेस, केजरीवाल और कम्युनिस्ट चाहें तो बहुत कुछ सीख सकते हैं.

गुरुवार, 14 मई 2020

मोदी, विपक्ष और मुसलमान


मित्रों, जबसे केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में आई है तभी से विपक्ष उसके खिलाफ मुद्दे तलाश रहा है और अपनी कोशिशों के लगातार असफल होते जाने से दिन-ब-दिन पागल भी होती जा रही है. कभी-कभी तो उसका पागलपन इतना बढ़ जाता है कि उसके नेता सीधे पाकिस्तान पहुँच जाते हैं और उससे मोदी जी को अपदस्थ करने में सहायता मांगने लगते हैं तो कभी कांग्रेस पार्टी के युवराज गुप्त यात्रा पर चीनी दूतावास पहुँच जाते हैं. कहने का तात्पर्य यह कि विपक्ष बार-बार मोदी विरोध और भारत विरोध का फर्क भूल जाता है.
मित्रों, सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि विपक्ष, पाकिस्तान और चीन द्वारा रचे गए इस गंदे खेल में मुसलमान पासे बन गए हैं. बहकावे में आकर वे बेवजह सीएए को लेकर आसमान सर पे उठा लेते हैं. जगह-जगह धरना और हिंसक प्रदर्शन. यहाँ तक कि जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत की और दिल्ली की यात्रा पर होते हैं तभी वे हिन्दुओं के नरसंहार की योजना बना डालते हैं और पूरी पूर्वोत्तर दिल्ली को जला डालते हैं. इस दुर्भाग्यपूर्ण हिंसा में जैसा कि आप भी जानते हैं कि ५० से भी ज्यादा बेगुनाह लोग मारे जाते हैं. मुसीबत तो यह थी कि इतने के बावजूद भी शाहीन बाग़ का धरना समाप्त नहीं किया जाता.
मित्रों, इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर कोरोना वायरस का भारत में आगमन नहीं हुआ होता तो देश इस समय शायद गृह युद्ध का सामना कर रहा होता. इसके लिए मैं कोरोना का धन्यवाद करना चाहूँगा. कोरोना के आने बाद तबलीगी जमात का भंडाफोड़ होता है और तबलीगी स्वास्थ्यकर्मियों और सुरक्षा बलों के साथ पागल कुत्तों की तरह व्यवहार करने लगते हैं. जो पुलिस और स्वास्थ्यकर्मी उनकी जान बचाने का प्रयास कर रहे हैं वे उनकी ही जान लेना चाहते हैं शायद इसलिए क्योंकि वे हिन्दू हैं और इसलिए बतौर कुरान काफ़िर हैं. पुलिस न तो तबलीग के पीछे की साजिश का पता लगा पाती है और न ही उनके मुखिया मौलाना शाद को पकड़ पाती है लेकिन तबलीगियों के कुत्तेपन की आलोचना करने के अपराध में कई लोग जेल भेज दिए जाते हैं मानों हम भारत में नहीं पाकिस्तान में हैं जहाँ कुरान और इस्लाम की आलोचना करना अक्षम्य अपराध है.
मित्रों, अब आगे अपने देश में क्या होनेवाला है ये तो भगवान और अल्लाह जाने. इस समय मेरे हिसाब से सबसे बड़ी समस्या कोरोना नहीं है बल्कि देश की सबसे बड़ी समस्या भारतीय मुसलमानों के मन से भारत के प्रति पैदा हो रही नफरत है. मुट्ठीभर कट्टरपंथी मुसलमान तो हमेशा से भारत को मुस्लिम देश बनाना चाहते हैं लेकिन जिस तरह कथित उदारवादी भी पिछले कुछ समय से पहले मोदी विरोधी फिर हिन्दू विरोधी और अंततः भारतविरोधी होते जा रहे हैं वह देश के लिए काफी खतरनाक है. समझ में नहीं आता कि मोदी और हिन्दुओं ने उनका क्या बिगाड़ा है? पहले आमिर खान, नसीरुद्दीन शाह, प्रतापगढ़ी, गुलाम नबी आज़ाद, शाह फैसल, जफरुल इस्लाम और अब मुन्नवर राणा. जफरुल इस्लाम जो दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हैं ने जहाँ भारत के हिन्दुओं को अरब देशों की धमकी दे डाली वहीँ मुन्नवर राणा के मतानुसार भारत के ३५ करोड़ मुसलमान इन्सान हैं और भारत के १०० करोड़ हिन्दू जानवर जो सिर्फ वोट देना जानते हैं. राणा का बयान खुद ही इस बात को बयां कर रहा है कि ये साहिबान जो अभी तक दुनिया को मुहब्बत का पैगाम सुनाते फिर रहे हैं वो सारा सिर्फ-और-सिर्फ फरेब है. इस आदमी के दिमाग में हिन्दुओं के प्रति सिर्फ जहर भरा हुआ है. जिस तरह इतने बड़े शायर फरेबी निकले हैं उससे कहना न होगा भारत के सारे मुसलमान संदेह के घेरे में आ गए हैं कि क्या उनका देशप्रेम भी फरेब है और समय आने पर वे भी पल्टी मार जाएंगे?
मित्रों, वैसे एक बात तो निश्चित है कि अब न १९४७ का साल है और न ही भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत है इसलिए भारत और एक बार टूटने से तो रहा. फिर अभी भी भारत के बहुत सारे मुसलमान भारत पर अपनी जान छिड़कते हैं. कम-से-कम कश्मीर में शहीद हो रहे जवानों के नाम तो इसकी तस्दीक करते हैं और उम्मीद बंधाते हैं.

सोमवार, 4 मई 2020

मजदूरों के साथ सरकारी अन्याय





मित्रों, अगर आपने हमारे भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढ़ी होगी तो आपको भी यह पता होगा कि भारत एक लोककल्याणकारी राज्य है. राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते हमें ज्ञात है कि एक लोककल्याणकारी राज्य की क्या-क्या विशेषताएँ होती हैं. किसी भी लोककल्याणकारी राज्य में सरकार का यह प्रथम कर्त्तव्य होता है कि वहां के जनसामान्य को आर्थिक सुरक्षा मिले क्योंकि इसके बिना लोककल्याणकारी राज्य का कोई महत्त्व नहीं है. ऐसे राज्य में सबके लिए रोजगार, न्यूनतम जीवन की गारण्टी, अधिकतम आर्थिक समानता होनी चाहिए। यदि शासन तन्त्र में राजसत्ता आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोगों के हाथों में होगी तो वह लोककल्याणकारी राज्य की श्रेणी में नहीं आयेगा। किसी भी लोककल्याणकारी लोकतंत्र की दूसरी विशेषता होती है राजनीतिक, सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था. लोककल्याणकारी राज्य को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करे कि राजनैतिक शक्ति सम्पूर्ण रूप से जनता के हाथ में हो। शासन व्यवस्था लोकहित में हो। इसके साथ ही लोककल्याणकारी राज्य का प्रमुख लक्षण यह होना चाहिए कि वह सामाजिक सुरक्षा से साथ-साथ समाज में रंग, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वंश, लिंग के आधार पर भेदभाव न करे और न होने दे। राज्य को लोककल्याण सम्बन्धी वे सभी कार्य करने चाहिए, जिससे नागरिकों की स्वतन्त्रता प्रभावित न हो और वे अपने कार्यक्षेत्र में पूर्ण क्षमता एवं स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सकें। राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था कायम करना तथा नागरिकों को कानून के तहत सुशासन प्रदान करना भी राज्य के कर्तव्यों में सम्मिलित है। लोककल्याणकारी राज्य को शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्याय की भी व्यवस्था करनी चाहिए। लोककल्याणकारी राज्य को स्त्री-पुरुष, बच्चों तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का इस प्रकार नियमन करना चाहिए कि उनके बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न न हो. साथ ही सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करना और नागरिकों के स्वास्थ्य रक्षा हेतु समुचित उपाय करना भी एक लोककल्याणकारी राज्य में राज्य का कर्त्तव्य है.
मित्रों, इसके साथ ही कृषि की उन्नति हेतु राज्य को उत्तम बीज, खाद एवं सिंचाई के समुचित साधनों की व्यवस्था करना, कृषकों को कम ब्याज पर ऋण देना, यातायात एवं संचार के लिए सड़कों, रेलों, जल तथा वायुमार्गो, डाक, तार, टेलीफोन, रेडियो, दूरदर्शन आदि की व्यवस्था करना, श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए श्रमहितकारी कानून बनाना, शारीरिक रूप से अपंग एवं वृद्ध व्यक्तियों के लिए इस प्रकार के शिक्षण और प्रशिक्षण की व्यवस्था करना कि वह अपना जीविकोपार्जन स्वयं कर सकें, राज्य में कला, साहित्य, विज्ञान को प्रोत्साहन देना, नागरिकों के लिए आमोद-प्रमोद व मनोरंजन की व्यवस्था करना, प्राकृतिक सम्पदा के अधिकाधिक उपयोग के उपाय करने के साथ ही प्राकृतिक आपदा के समय जनसामान्य के लिए राहत और प्राणरक्षा के उपाय करना भी राज्य का कर्त्तव्य है.
मित्रों, दुर्भाग्यवश इस समय भी हमारे देश में आपदा आई हुई है और जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि किसी देश ने जानबूझकर कोरोना वायरस को फैलाया है तब तक इसे प्राकृतिक आपदा ही माना जाना चाहिए. जैसा कि हमें ज्ञात है कि पूरे भारत में २४ मार्च से ही सबकुछ बंद है यानि पूर्ण लॉक डाउन है. प्रधानमंत्री ने इस दौरान राष्ट्र को अपने पहले संबोधन में देश के सभी नियोक्ताओं और मकानमालिकों से निवेदन किया था कि वे श्रमिकों को काम और घर से नहीं निकालें बल्कि उनकी मदद करें. कितना आदर्श दिवास्वप्न था यह! अद्भुत! लेकिन चाहे आदर्श हो या स्वप्न उनका सत्य के धरातल पर उतरना हमेशा असंभव होता है, ऐसा हो न सका. अचानक पूरे भारत में और खासकर बड़े-बड़े महानगरों में हजारों लोग अपना रोजगार और निवास खोकर सडकों पर आ चुके हैं. कुछ दिनों तक तो भोजन और आवास का प्रबंध भी राज्य सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा किया गया लेकिन धीरे-धीरे राहत कार्यों में शिथिलता आने लगी. दुनिया के सबसे बड़े लोककल्याणकारी गणराज्य की राजधानी में दिल्ली में हजारों श्रमवीरों को पुलों के नीचे खुले में सोना पड़ रहा है. इतना ही नहीं उन्हें भोजन भी दिनभर में एक ही बार दिया जा रहा है. कुछ ऐसी ही स्थिति मुम्बई और अन्य महानगरों में फंसे मजदूरों की है. जिन मजदूरों के साथ उनका परिवार भी है उनकी स्थिति तो और भी ख़राब है.
मित्रों, कुल मिलाकर पूरे भारत में इस समय श्रमिकों की हालत भिखारियों से भी बदतर है. कई मजदूर तो परेशान होकर आत्महत्या भी कर चुके हैं. लेकिन सरकारें उनके लिए कर क्या रही हैं? लोग सपरिवार भूखे-प्यासे हजारों किलोमीटर की यात्रा करके घर पहुँच रहे हैं. उनमें से कईयों ने तो रास्ते में ही दम भी तोड़ दिया है. इसी बीच दिल्ली सरकार ने अफवाह फैला दी कि आनंद विहार बस अड्डे से बसें खुलनेवाली हैं और मजदूरों को आनंद विहार ले जाकर छोड़ दिया ताकि मजदूर उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर जाएँ और दिल्ली सरकार का उनसे पिंड छूटे. उधर महाराष्ट्र सरकार भी लगातार कह रही है कि प्रवासी मजदूरों को राहत पहुँचाना उसका काम नहीं है. इतना ही नहीं जब केंद्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों को घर जाने की अनुमति दे दी तब कई राज्य सरकारें ऐसा कहने लगी कि प्रवासी मजदूरों को घर तक पहुँचाना उनका काम नहीं है. समझ में ही नहीं आता कि मजदूर किसकी जिम्मेदारी हैं? इतना ही नहीं आज सुबह से है आकाशवाणी पर प्रसारित समाचारों में कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार द्वारा जारी नए निर्देशों के अनुसार सिर्फ उन्हीं लोगों को घर लौटने की अनुमति होगी जो लॉक डाउन से तत्काल पहले यात्रा पर गए होंगे और लॉक डाउन घोषित हो जाने के चलते फंस गए होंगे. उन लोगों को घर जाने की अनुमति नहीं है जो पहले से ही मजदूरी या व्यापार के लिए बाहर रहते आ रहे हैं. क्या मजाक है? तो क्या रोजगार और आवास खो चुके सारे श्रमिक सामूहिक आत्महत्या कर लें? क्या इसी को लोककल्याणकारी शासन कहते हैं? कोरोनावीरों को सम्मान और श्रमवीरों को मृत्युदंड? फिर क्या जरुरत है दुनिया के सबसे बड़े रेल तंत्र की?
मित्रों, बिहार जहाँ के सबसे ज्यादा मजदूर दूसरे राज्यों में फंसे हुए हैं वहां की सरकार की करतूत तो और भी शर्मनाक है. पहले बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी ने कहा कि बिहार में किसी को घुसने ही नहीं दिया जाएगा जैसे बिहार उनकी पैतृक और निजी संपत्ति हो. जब कुछ दिनों पहले केंद्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों को घर जाने की अनुमति दे दी तब भी बिहार सरकार का रवैया निराशाजनक था. बिहार सरकार कहने लगी कि उसके पास मजदूरों को वापस लाने के लायक साधन ही नहीं है इसलिए केंद्र सरकार ट्रेनों की व्यवस्था करे. अब जब केंद्र सरकार इसके लिए भी तैयार हो गई तो उसने कुछ नंबर जारी किए और कहा कि ये नंबर उन नोडल अधिकारियों के हैं जिनसे प्रवासी मजदूरों को संपर्क करना है लेकिन उनमें से ज्यादातर नंबर बंद हैं. ऐसा संयोग है या सायास किया जा रहा है पता नहीं लेकिन सवाल उठता है कि कोई सरकार अपनी जनता के साथ ऐसा क्रूर और भद्दा मजाक कैसे कर सकती है और वह भी ऐसे लोगों के साथ जो मजदूर से मजबूर बन चुके हैं. ऐसा हमें वर्षों से ज्ञात है कि बिहार में सरकार नाम की चीज नहीं है लेकिन केंद्र सरकार गरीबों के साथ ऐसा कैसे कर सकती है? तो क्या केंद्र में भी सरकार नहीं है? और अगर सरकार है भी तो क्या वो गरीबों की सरकार नहीं है? समाचार तो इस तरह के भी प्राप्त हो रहे हैं कि जो मजदूर ट्रेनों से घर आ रहे हैं उनसे किराया वसूल रही है कांग्रेस और वामपंथियों की सरकारें. यहाँ तक कि राजस्थान से यूपी आनेवाले यात्रियों से भी ट्रेनों में चढ़ने से पहले ही राजस्थान की सरकार द्वारा किराया का पैसा ले लिया गया. हद हो गयी जिनका सबकुछ पहले ही लुट गया है वो बेचारे किराया कहाँ से देंगे? क्या भारत में अभी भी अंग्रेजों की सरकार है?