सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

पंजाब को बचा लो मोदी जी

मित्रों, जबसे पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार आई है तभी से पंजाब के एक बार फिर से आतंकवाद की आग में जलने का खतरा उत्पन्न हो गया है. यह तो कोई नहीं कह सकता कि आप पार्टी के साथ खालिस्तानी अलगाववादियों के साथ क्या गुप्त संधि हुई है लेकिन पिछले दिनों पंजाब में जिस तरह की हिंसक घटनाएँ हो रहीं हैं उससे शक होता है कि सरकार ने राज्य को पूरी तरह से खालिस्तानियों के हवाले कर दिया है. पहले हिन्दू नेता सुधीर सूरी की पुलिस के सामने हत्या और अब सीधे पुलिस थाने पर हमले से यही संकेत मिलते हैं कि पंजाब में आप पार्टी बेहद गन्दी राजनीति कर रही है. मित्रों, मोहाली-चंडीगढ़ बॉर्डर पर बैठे एक अन्य गुट ने भी पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया था। ये लोग 14 साल की कैद पूरी कर चुके सिख कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे। हालांकि कई हमलावरों की पहचान की गई, लेकिन किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। अजनाला मामले में भी एफआईआर नहीं हुई है। यह पुलिस बल के मनोबल को तोड़कर रख देगा इसमें कोई संदेह नहीं. मित्रों, अमृतपाल एक नया लड़का है जो दुबई से आया है। जो हुआ वह बहुत खुशी की बात नहीं है। अलगाववादी और हमारे पड़ोसी दुश्मन इसका फायदा उठाएंगे। उन्होंने (पुलिस और राज्य सरकार) अपना फैसला लिया। मुझे नहीं पता कि उन्होंने ऐसा फैसला क्यों लिया। पुलिस तो सरकार के इशारे पर काम करती है इसलिए उसका क्या कसूर? लेकिन कट्टरपंथियों की मांगों के आगे झुकना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है। शायद खालिस्तानियों ने आम आदमी पार्टी को अकूत पैसे दिए हों. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि लवप्रीत को छोड़ देने से अमृतपाल निश्चित रूप से जनता के लिए एक खतरनाक शख्सियत बन गया है। कुछ इसी तरह की गलती इंदिरा गाँधी ने भिंडरावाले के मामले में की थी. लम्हों ने खता की थी और कैसे सदियों ने सजा पाई हम सबने देखा है. मित्रों, हम मानते हैं कि राजनीति होनी चाहिए, राजनीतिज्ञ राजनीति करें लेकिन ऐसी राजनीति बिल्कुल न करें जिससे देश को नुकसान हो. पिछले साल जुलाई से पंजाब में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत स्थायी डीजीपी नहीं है। अगर राज्य सरकार की ओर से नियमों का ख्याल नहीं रखा जा रहा तो केंद्र को इसका संज्ञान लेना चाहिए. भारत सरकार को पंजाब को जलता देख मुंह नहीं ताकना चाहिए बल्कि संविधानप्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए पंजाब सरकार को सख्त निर्देश देने चाहिए और फिर भी न माने तो बर्खास्त कर देना चाहिए.

लफंगों के राष्ट्रकवि कुमार विश्वास

मित्रों, तुलसी रामचरितमानस में कह गए हैं कि पंडित सोई जो गाल बजाबा. निश्चित रूप से गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसा व्यंग्यपूर्वक कहा होगा लेकिन आज के कई कवि सिर्फ गाल बजाकर महाकवि बन गए हैं और ऐसे कवियों में सबसे अग्रगण्य हैं कुमार विश्वास. इन श्रीमान ने न जाने कौन-सी महान कविता लिखी है लेकिन ये लच्छेदार बातें करने में माहिर जरूर हैं और यही इनकी एकमात्र योग्यता भी है. इसी योग्यता के कारण इनको कथित कवि सम्मेलनों में मंच संचालन का भार दिया जाता है. कभी किसी कवि का परिचय देते हुए ये कहते हैं कि इन्होंने कविता लिखते समय दिमाग नहीं लगाया है तो कभी श्रोताओं को छिछोरों की तरह खींसे निपोरते हुए कहता है कि जो लोग दूसरों की पत्नियों के साथ आए हैं. मित्रों, इतना ही नहीं इन श्रीमान को यह भी पता नहीं है कि कबीर अकबर के समकालीन नहीं थे फिर भी टीन टप्पर ठोक पीट कर ट्रेन में चनाजोर बेचनेवालों की तरह घटिया तुकबंदी करनेवाला यह घटिया आदमी खुद को महान कबीर की परंपरा का महान कवि बताता है. कभी महादेवी वर्मा ने कहा था कि कवि सम्मलेन थकान मिटाने के साधन बनकर रह गए हैं लेकिन कुमार विश्वास जैसे बड़बोलों ने कवि सम्मेलनों का स्तर इतना ज्यादा गिरा दिया है कि कवि सम्मेलनों में ईज्जतदार लोगों ने जाना ही छोड़ दिया है. मैं नोएडा में रहने के दौरान कई बार इस व्यक्ति को मंच संचालित करते और कविता पाठ करते हुए देख चुका हूँ और इस व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी कह सकता हूँ कि यह आदमी पैसों पर नाचनेवाली रूपजीवाओं से ज्यादा कुछ भी नहीं है. इस व्यक्ति की तुलना कबीर से तो कदापि नहीं हो सकती अगर हो भी सकती है तो रीतिकाल के छिछोरे कवि बिहारी से हो सकती है. मित्रों, कुछ दिनों के लिए यह आदमी भारत का दूसरा सबसे महान राजनेता भी बना था और अन्ना हजारे के मंच से चीख-चीख कर भारत के सबसे घटिया नेता अरविन्द केजरीवाल को एशिया का सबसे योग्य युवा बता रहा था. बाद में जब उस एशिया के कथित सबसे योग्य युवा ने राज्य सभा में भेजने से मना कर दिया तबसे ये पागलों की तरह उसको गालियां देता फिरता है. इसकी इस हरकत की तुलना मंदिर के बाहर भीख मांगनेवाली उस बुढ़िया से की जा सकती है जो भीख न मिलने पर आगंतुक को बद्दुआएं देने लगती है. मित्रों, इस व्यक्ति को एक और लाईलाज बीमारी है और वो बीमारी है जबरदस्ती का संतुलन बनाने की. आपने देखा होगा कि कुछ लोग कहते हैं कि पीएफआई की तरह आरएसएस पर भी प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए वे लोग भी इसी बीमारी से ग्रस्त हैं. कुमार विश्वास का मानना है कि सिर्फ दानवों को बुरा-भला नहीं कह सकते बल्कि उनके साथ-साथ देवताओं में भी जबरन छिद्रान्वेषण करना होगा. इन साहिबान को आरएसएस और उसकी सेवा भावना के बारे में कुछ भी पता नहीं लेकिन इनकी सोच है कि आप सिर्फ रावण को गाली नहीं दे सकते राम को भी देना होगा या आप सिर्फ राम की बड़ाई नहीं कर सकते रावण की भी प्रशंसा करनी ही होगी. और अपनी इसी घटिया सोंच को ये बुद्धिहीन बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता का नाम देते हैं.

सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

हिन्दू महापुरुषों का बंटवारा

मित्रों, पिछले कुछ महीनों से मैं देख रहा हूँ कि कुछ नासमझ हिन्दू दिन-रात महापुरुषों को लेकर आपस में झगड़ते रहते हैं कि ये हमारी जाति के थे तो वो हमारी जाति में पैदा हुए थे. कई बार तो महापुरुषों को छीनने या उनकी चोरी करने के आरोप भी लगाए जाते हैं जबकि सच्चाई तो यह है कि कोई भी महापुरुष किसी जाति विशेष के थे ही नहीं बल्कि सबके थे, हम सबके थे. कई बार तो हम उनको सिर्फ हिन्दू धर्म के संकीर्ण दायरे में भी नहीं बांध सकते. मित्रों, हम उदाहरण के लिए अगर बिहार बाँकुड़ा बाबू कुंवर सिंह को लें तो वे सिर्फ राजपूतों के महापुरुष नहीं थे क्योंकि वे न तो सिर्फ राजपूतों के लिए लड़ रहे थे और न तो उनकी सेना में सिर्फ राजपूत ही थे बल्कि इसके उलट उनकी सेना में सभी जातियों के हिन्दू तो थे ही बड़ी संख्या में मुसलमान भी थे. इसी तरह महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी की सेना में भी सभी जातियों के लोग थे. स्वयं आल्हा-उदल की सेना में बिहार के भागलपुर के रहनेवाले भगोला नामक यादव महाबली-महावीर थे जो पेड़ों को जड़ से उखाड़ कर उससे और बड़े-बड़े पत्थरों से युद्ध करते थे और अपने आपमें एक किला थे. मित्रों, इसी तरह जब-जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर विधार्मियों के आक्रमण हुए चाहे वो तैमूर हो, बाबर हो, अब्दाली हो या नादिरशाह हो हर बार हिन्दुओं की सर्वजातीय सेना से उनका सामना हुआ भले ही नेतृत्व राजपूतों के हाथों में रहा हो. अयोध्या के राममंदिर के लिए तो सभी जातियों के हिन्दू शहीद हुए ही सिखों ने भी अपनी क़ुरबानी दी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ के गंगू मेहतर के योगदान को भला कोई कैसे भुला सकता है? महाराणा प्रताप की सेना में बड़ी संख्या में आदिवासी शामिल थे जिन्होंने युद्धों में अपने प्राण तो दिए ही जमकर शत्रुओं का आखेट भी किया. पुंजा भील को कौन नहीं जानता? इतना ही नहीं अगर भामाशाह ने अपना सबकुछ महाराणा सौंप नहीं दिया होता तो कदाचित उसी समय मेवाड़ का नाम भारत की वीरता के मानचित्र से मिट गया होता फिर महाराणा सिर्फ राजपूतों के महापुरुष कैसे हुए? मित्रों, इसी तरह महावीर पृथ्वीराज चौहान को लेकर राजपूत-गुज्जर बराबर लड़ते रहते हैं कि पृथ्वीराज राजपूत थे या गुज्जर? हद हो गई यार. चंदवरदाई को पढ़ लो और वो जो कहें मान लो, बात ख़त्म. फिर चाहे वह राजपूत हों या गुज्जर उनकी वीरता पूरे भारत की, पूरे हिन्दू समाज की धरोहर है. अगर महाराणा राजपूत न होकर चमार होते तो क्या इससे उनकी वीरता कम हो जाती? राजा सुहेलदेव जो पासी थे की तो कम नहीं हुई. मित्रों, विद्वता की ही तरह वीरता भी किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं है. बल्कि जो ज्ञानी है वो विद्वान है फिर चाहे तो राजेंद्र प्रसाद हों या अम्बेडकर, पाणिनि हों या वाल्मीकि, तुलसीदास हों या रैदास या कबीरदास. उसी तरह जो संकट आने पर वीरता दिखाए वो वीर है. यहाँ मैं एक उदाहरण पेश करना चाहूँगा. १६ अगस्त, १९४६ को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने की घोषणा की थी. मुसलमान अलहे सुबह तलवार लेकर सडकों पर निकल पड़े और कलकत्ता की सडकों को हिन्दुओं की लाशों से पाटना शुरू कर दिया. तब सारे सवर्ण हिन्दू अपने-अपने घरों में दुबक गए. फिर एक नीच कसाई जाति के हिन्दुओं ने गोपाल पांडा के नेतृत्व में हिन्दुओं की तरफ से मोर्चा संभाला और मुसलमानों को खदेड़ दिया. अब सवाल उठता है कि यथार्थ क्षत्रिय कौन हैं, घरों में दुबके लोग या खटिक जाति के लोग? मित्रों, इसलिए हम अपने देश की हिन्दू जनता से निवेदन करेंगे कि कृपया नेताओं के झांसे में आकर उनका वोट बैंक न बने. नेताओं का तो काम ही है महापुरुषों के नाम पर हिन्दू समाज को बांटकर चुनाव जीतना. मुझे आश्चर्य होता है कि कोई जाति राम या सम्राट अशोक के ऊपर अपना दावा कैसे ठोक सकती है? कैसे पता चलेगा कि वे वर्तमान की किस जाति में जन्मे थे?