सोमवार, 30 सितंबर 2019

बहानावीर नीतीश कुमार और बेहाल बिहार


मित्रों, यह धरती वीरों से खाली नहीं है. इस धरती पर एक-से-बढ़कर-एक वीर भरे पड़े हैं. कोई भाषणवीर है तो कोई बयानवीर है तो वहीं किसी का मूर्खता करने में कोई जोड़ा नहीं है. लेकिन इन सबसे अलग भी एक प्रकार के वीरों से ये धरती अटी पड़ी है और वो वीर हैं बहानावीर. ऐसे वीर अपनी किसी भी गलती के लिए कभी भी खुद को दोषी नहीं मानते. आपने अख़बारों में पढ़ा होगा कि किसी देश की क्रिकेट टीम के कप्तान ने हार के लिए कभी टीम को तो कभी मौसम को तो कभी पिच को ही दोषी ठहरा दिया भले ही वो खुद शून्य पर चलता हो गया हो.
मित्रों, दुर्भाग्यवश ऐसे ही दुनिया के समस्त बहानावीरों के वीर श्री नीतीश कुमार जी इन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री हैं. श्रीमान अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए ऐसे-ऐसे बहाने बनाते हैं कि कदाचित खुद बहानों को भी शर्म आ रही होगी. जब श्रीमान से राज्य में फेल हो चुकी शराबबंदी के बारे में पूछा जाता है तो कहते हैं कि इसमें उनकी या उनके महान प्रशंसनीय शासन की कोई गलती नहीं है बल्कि सारी गलती पडोसी देश नेपाल और पडोसी राज्यों प. बंगाल, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश की है जिन्होंने शराब पर रोक नहीं लगाई है. इसी तरह पिछले दिनों जब उनसे राज्य में बढ़ते अपराध के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़े ही दार्शनिक अंदाज में फ़रमाया कि बढ़ता अपराध ख़राब कानून-व्यवस्था के कारण नहीं है बल्कि यह एक मानसिक या मनोवैज्ञानिक समस्या है.
मित्रों, हद तो तब हो गई जब इन दिनों भारी बरसात से उत्पन्न बुरी स्थिति को लेकर उन्होंने कहा कि यह एक प्राकृतिक आपदा है और प्रकृति पर किसका नियंत्रण है. हद हो गयी भाई, दैव दैव आलसी पुकारा. नीतीश जी आगे से राज्य में कुछ भी बुरा हो तो आप सीधे भगवान को ही दोषी ठहरा देना क्योंकि सबकुछ वही तो करता है. लेकिन जब भी कुछ अच्छा हो तो उसका श्रेय आप ले लेना क्योंकि वो तो भगवान ने नहीं किया बल्कि पूरी तरह से आपने किया. नीतीश जी को बताना चाहिए कि पटना का ड्रेनेज सिस्टम करोड़ों रूपये फूंकने के बावजूद फेल क्यों है? या फिर हर साल एक साथ बिहार के सारे बांध कैसे टूटने लगते हैं? बरसात सिर्फ पटना में ही तो नहीं होती है या नदियाँ सिर्फ बिहार में ही नहीं हैं? दिल्ली में वर्षा होती है तो कुछ ही घंटों में पानी नालियों से होकर निकल जाता है फिर पटना की नालियों से पानी क्यों नहीं निकल रहा? क्या ड्रेनेज बनाने के काम में कोताही बरती है आपके चहेते ठेकेदारों ने और उसे आधा-अधूरा बनाकर छोड़ दिया है?
मित्रों, ऐसी ही एक कथा वेदों में भी है जिसमें एक ब्राह्मण अपने हर अच्छे काम के लिए खुद की पीठ ठोकता है तो अपने हर बुरे काम के लिए भगवान को दोषी ठहरा देता है और बहाने बनाता है कि नेत्रों में सूर्य की शक्ति है तो कानों में पवन की शक्ति है तो हाथों में देवराज इंद्र का निवास है इसलिए उनके हाथों हुए प्रत्येक अपराध के लिए वो स्वयं नहीं बल्कि इन अंगों से संबधित देवता जिम्मेदार हैं. एक दिन जब वो अपने बगीचे में होता है तब वो डंडा चलता है उसके हाथों एक गाय की हत्या हो जाती है. घबराहट के मारे वो उसे पत्तों से ढँक देता है. औरअपने मन में सोंचता है कि चूंकि हाथों में इंद्र का निवास है इसलिए इस गोहत्या के लिए भी देवराज को ही सजा मिलनी चाहिए. तभी वेश बदलकर इंद्र आते हैं और उपवन की प्रशंसा करते हुए उससे पूछते हैं कि इन पेड़-पौधों को किसने लगाया है तो वह लपककर कहता है कि उसने और किसने. लेकिन जब वो पूछते हैं कि गाय जो पत्तों से ढकी हुई हैं को किसने मारा है तो वो इंद्र को दोषी ठहराने लगता है. तभी इंद्र प्रकट हो जाते है और उसे लताड़ लगाते हैं कि जब सारे अच्छे काम तुमने किये हैं तो बुरे कामों को भी तुमने ही किया है.
मित्रों, हमने स्कूल के दिनों में भी देखा है और एक शिक्षक होने के नाते आज भी रोजाना देखता हूँ कि कुछ बच्चे लगातार बहाने बनाते हैं कि होम वर्क इसलिए नहीं बना पाया क्योंकि घर में कोई बीमार हो गया था, बना तो लिया था मगर कॉपी घर पर रह गयी. कई बच्चे तो अपने मामा, नाना, दादा, दादी को ही मार डालते हैं और कई बार तो एक ही दादा-नाना को कई-कई बार मार डालते हैं. लेकिन हमने यह भी देखा है कि ऐसा करने से खुद उनका ही नुकसान होता है और वे पढाई में कमजोर रह जाते हैं. इसी तरह जो कप्तान बार-बार पिच को दोषी ठहराता है वो ज्यादा दिनों तक कप्तान बना नहीं रह पाता. मगर नीतीश जी न जाने किस मुगालते हैं कि उनको लगता है कि प्रत्येक स्थिति में यहाँ तक कि लगातार शर्मनाक प्रदर्शन के बावजूद वही हमेशा बिहार के कप्तान बने रहेंगे.

शनिवार, 28 सितंबर 2019

पाकिस्तान का पप्पू


मित्रों, यह आप भी जानते हैं कि पाकिस्तान हमेशा से भारत के मुकाबले कमजोर देश रहा है लेकिन अपनी शातिराना कूटनीति के बल पर उसने हमेशा भारत को परेशान किया है. अगर मैं ऐसा कहूं कि भारत और दुनिया के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है या हो रहा है कि पाकिस्तान भारत के मुकाबले कूटनीति के मोर्चे पर कहीं ठहर ही नहीं पा रहा है तो ऐसा कहना कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं होगी.
मित्रों, ऐसा हो भी क्यों नहीं जबकि पाकिस्तान में इन दिनों वहां के सबसे बड़े पप्पू का शासन है. मुझे आश्चर्य हो रहा है कि पाकिस्तान के लोग क्या पागल हैं जो एक बेदिमागी, दिमागी तौर पर पूरी तरह से दिवालिया व्यक्ति को प्रधानमंत्री बना दिया. मैं पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की इस मांग से पूरी तरह से सहमत हूँ कि इमरान खान के विदेश दौरों पर पूरी तरह से रोक लगाई जानी चाहिए. यह आदमी जब भी विदेश दौरे पर जाता है पाकिस्तान के हितों के खिलाफ बयान देकर खुद अपने ही देश को नुकसान पहुंचाता है. ये कभी कहता है कि पाकिस्तान आतंकियों का देश है, तो कभी कहता है कि पाकिस्तान ने अल कायदा को जन्म दिया तो कभी कहता है कि डेढ़ सौ करोड़ मुसलमान कभी भी हथियार उठा सकते हैं तो कभी कहता है कि नरेन्द्र मोदी भारत के राष्ट्रपति हैं. इतना ही नहीं इसने कई बार भारत में अपनी सबसे बड़ी समर्थक पार्टी कांग्रेस को भी उलझन में डाल दिया है. अभी कल के भाषण को ही लें तो इसने आरएसएस को लांछित करने के चक्कर में कांग्रेस को ही फंसा दिया. मैं यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर आरएसएस से इमरान या कांग्रेस को समस्या क्यों है? भारत के पप्पू भी पाकिस्तान के पप्पू की तरह प्रत्येक चुनाव में नहा-धोकर आरएसएस के पीछे पड़े रहते हैं जबकि आरएसएस पूरी तरह से एक सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन है. आरएसएस ने कभी भी किसी आपराधिक कृत्य में न तो भाग लिया है, न ही इसके लिए उकसाया है और न ही किसी आपराधिक कृत्य का समर्थन किया है. हाँ, उसने हिन्दुओं को सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति आगाह जरूर किया है. साथ ही किसी भी आपदा के समय सबसे पहले इसी के कार्यकर्ता लोगों की मदद करने आते हैं और बिना जाति-पंथ का ख्याल किए लोगों की सहायता करते हैं.
मित्रों, इमरान खान की पार्टी का नाम तहरीके इंसाफ जरूर है लेकिन यह आदमी कहीं से भी इंसाफपसंद नहीं है. इसकी सारी इंसानियत सिर्फ मुसलमानों के लिए है और जब पाकिस्तान में किसी गैरमुसलमान की बेटी को अगवा कर लिया जाता है और जबरन मुसलमान बना दिया जाता है तब इसका इंसाफ घास चरने चला जाता है. यह आदमी दुनिया के सबसे बर्बर और सबसे घनघोर स्त्री-विरोधी संगठन तालिबान का इतना बड़ा प्रशंसक है कि कई लोग इसे तालिबान खान कहकर ही पुकारते हैं. इसका मानना है कि तालिबान अब बदल गया है ठीक वैसे ही जैसे इसके प्रधानमंत्री बनने के बाद पाकिस्तान बदल गया है. पता नहीं यह आदमी गांजा पीता है या भांग घोंटता है या ड्रग्स लेता है लेकिन कुछ-न-कुछ लेता जरूर है.
मित्रों, यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि हमने पिछले चुनाव में अपने देश को अपने पप्पू के हवाले नहीं किया वरना वो भी वही कुछ कर रहा होता जो इमरान कर रहे हैं. हालाँकि हमारा पप्पू भी जब भी विदेश जाता है अपने बयानों से भारत का नुकसान करता है लेकिन वो उससे कहीं ज्यादा नुकसान खुद का और खुद की पार्टी का करता है.
मित्रों, इमरान के मुकाबले अगर हम अपने देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी की अमेरिका यात्रा को देखें तो उन्होंने हमेशा संतुलित बयान दिया खासकर उनके द्वारा यूएनजीए में दिए गए संबोधन की सराहना इस समय पूरी दुनिया कर रही है. पूरी दुनिया ने देखा कि मोदी जी ने सिर्फ शांति और विकास की बात की तो इमरान ने सिर्फ युद्ध और विनाश की यहाँ तक कि यूएन जिसका गठन ही शांति के लिए हुआ है के मंच से परमाणु युद्ध की धमकी भी दे डाली वो भी यह जानते हुए कि अगर उसने ऐसा किया तो पाकिस्तान हमेशा के लिए दुनिया के मानचित्र से ही गायब हो जाएगा. इमरान मियां, गांजा फूंकने और देश फूंकने में काफी फर्क है. कब समझोगे? भारतीय पप्पू ने तो यह समझ भी लिया है कि राजनीति उसके बस की बात नहीं है इसलिए अध्यक्ष की कुर्सी छोड़कर निकल लिया है पर इस बात को तुम कब समझोगे? नहीं समझो अपनी बला से. यह तो हमारे लिए और भी अच्छा है. मियां, तुम तब तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने रहो जब तक पाकिस्तान है.

गुरुवार, 26 सितंबर 2019

नीतीश आवश्यकता हैं या बोझ?


मित्रों, एक अरसा हो गया जबसे मैं कहता आ रहा हूँ कि बिहार ने जिस नीतीश कुमार को अपने लिए वरदान समझा था वे अब उसी बिहार के लिए अभिशाप बन चुके हैं. महाभारत कहता है कि जिस राज्य में अराजकता का बोलबाला होता है वो राज्य ही समाप्त हो जाता है. कमोबेश इन दिनों के बिहार की वैसी ही स्थिति है. संक्षेप में अगर हम कहें तो आज के बिहार में सरकार नाम की चीज ही नहीं है. हर जगह मनमानी है, जिसकी लाठी उसकी भैंस है. कहीं जनता मनमानी कर रही है तो कहीं राज्य सरकार के अधिकारी-कर्मचारी. बिहार सरकार ने ऐसी कोई सुविधा भी नहीं दी है जिस पर कोई अपना दुखड़ा रो सके और अगर ऐसा कोई चैनल है भी तो पूरी तरह से बेकार. अगरचे तो उसपर कुछ लिखा ही नहीं जा सकता और अगर लिख भी दिया तो होता कुछ भी नहीं. पहले नीतीश कुमार जनता दरबार भी लगाते थे लेकिन बाद के दिनों में उसे भी बंद कर दिया क्योंकि उसमें आनेवाले कभी-कभी आक्रामक हो जाते थे जिससे सरकार की बदनामी होती थी.
मित्रों, कुल मिलाकर इन दिनों बिहार रामभरोसे है हालाँकि सरकार में भाजपा भी सुशील मोदी एंड कंपनी के साथ शामिल है. ये वही सुशील मोदी हैं जिनको एक समय नीतीश कुमार में भारत का भावी प्रधानमंत्री दिखता था. दुर्भाग्यवश आज भी सुशील मोदी पूरी तरह से नीतीश-भक्त हैं और नहीं चाहते कि बिहार का विकास हो.
मित्रों, हो सकता है कि अगर भाजपा एक बार फिर से नीतीश कुमार जी के नेतृत्व में बिहार का चुनाव लडती है तो प्रचंड बहुमत से जीत जाए लेकिन सवाल उठता है कि भाजपा का उद्देश्य क्या है? सिर्फ चुनाव जीतना या बिहार का विकास करना? फिर भारतमाता के वामांग का क्या होगा? इस बात में अब कोई संदेह नहीं रहा कि नीतीश कुमार बिहार के विकास में सबसे बड़ी बाधा बन चुके हैं. बड़ी ही प्रसन्नता का विषय है कि भाजपा के भीतर से भी नीतीश कुमार जी के खिलाफ स्वर उठने लगे हैं. पिछले दिनों विधान पार्षद डॉ. संजय पासवान जैसे विद्वान नेता इस बात की मांग कर चुके हैं कि नीतीश कुमार जी को स्वेच्छा से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए. जाहिर-सी बात है कि सुशील मोदी जैसे सत्तालोलुप उनसे सहमत नहीं हैं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह किस्सा यही पर समाप्त हो जाने वाला है क्योंकि गिरिराज सिंह जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काफी निकट माने जाते हैं इन दिनों बिहार में काफी सक्रिय हो गए हैं. दूसरी तरफ नीतीश कुमार भी संघ के नेताओं से चोरी चोरी चुपके चुपके बैठक कर अपनी कुर्सी बचाने की जी-तोड़ या दूसरे शब्दों में कहें तो अंतिम कोशिश कर रहे हैं.
मित्रों, इन दिनों जिस तरह बिहार में अपराधियों का मनोबल बढ़ा हुआ है और जिस तरह बैंक से पैसा निकालना तक बिहार में जानलेवा कदम हो गया है उससे यह तो निश्चित है कि नीतीश अब फितिश यानि फिनीश हो चुके हैं इसलिए उनको अब वानप्रस्थ आश्रम की ओर प्रयाण कर ही जाना चाहिए. लेकिन सवाल उठता है कि अगर वे ऐसा करने से मना कर देते हैं तो क्या भाजपा अकेले बिहार में चुनाव लड़ने का जोखिम उठाएगी? वैसे मुझे लगता है कि आज नहीं तो कल भाजपा को सुशासन की लाश को अपने कंधे से उतार फेंकना ही होगा. जब भाजपा ऐसा महाराष्ट्र में कर सकती है तो बिहार में क्यों नहीं? अभी सबसे अच्छा तो यह होता कि केंद्र सृजन घोटाला, मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड समेत सारे घोटालों की सीबीआई से निष्पक्ष जांच करवा देता जिससे छोटे भाई भी बड़े भाई के पास पहुँच जाते. साथ में अपने परम भक्त सुशील मोदी को भी लेते जाते.

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

भारत को चाँद दिखा रहे हैं मोदी?


मित्रों, जैसा कि मैं बता चुका हूँ कि मेरा बचपन गाँव में बीता है और गाँव में एक-से-बढ़कर एक मनोरंजक घटनाएँ लगातार होती रहती हैं. ऐसी ही एक घटना एक बार मेरे दरवाजे पर हुई. हुआ यह कि हमारे एक पडोसी बच्चे का जो हमारा हमउम्र था पैंट का बटन टूट गया. बेचारे का पैंट बार-बार नीचे सरक जाता था. हमारे गाँव के सबसे शरारती बच्चों में से एक ने उससे कहा कि चाँद देखोगे. हम सभी आश्चर्य में पड़ गए कि दिन के १० बजे ये चाँद कहाँ से दिखाएगा. फिर उसने आसमान की ओर इशारा करके कहा कि वो रहा चाँद, देखो. उस बेचारे ने जैसे ही ऊपर देखना शुरू किया शरारती बच्चे ने उसका पैंट नीचे खींच दिया और उसे नंगा कर दिया.
मित्रों, खैर ये तो रही बचपन के हंसी-मजाक की बात. लेकिन आज मैंने एक संस्मरणात्मक प्रसंग को बिलकुल भी मजाक-मजाक में नहीं उठाया है बल्कि काफी गंभीर मनःस्थिति में उठाया है. आप सभी जानते हैं कि भारत ने कुछ दिन पहले चाँद पर चंद्रयान भेजा था जिसकी लैंडिंग के समय भारत के प्रधानमंत्री भी मौजूद थे. फिर लैंडिंग में गड़बड़ी आ गई और माहौल अचानक ग़मगीन हो गया. इसरो अध्यक्ष रोने लगे और उनको कन्धा दिया प्रधानमंत्री जी ने. फिर खबर आई कि अभी मामला समाप्त नहीं हुआ है और हमारे वैज्ञानिक चंद्रयान से संपर्क साधने की कोशिश में हैं.
मित्रों, कुल मिलाकर मामले को पूरा तूल दिया गया और पूरा भारत दिन-रात चाँद पर नजर गड़ाए रहा इस बात से बिलकुल बेखबर कि नीचे जमीन पर हो क्या रहा है. कहीं चाँद दिखाकर उन्हें भी निर्वस्त्र तो नहीं किया जा रहा है. मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि इन दिनों देश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से ख़राब है. वाजपेयी जी ने पेंशन समाप्त किया था तो मोदी ने नौकरी ही समाप्त कर दी है. जहाँ भी नजर डालिए आंकड़े बता रहे हैं कि हालत ख़राब है. उस पर गजब यह कि केंद्रीय वित्त मंत्री स्वास्थ्य और रेल मंत्रालय से सम्बंधित घोषणाएं कर रही हैं. मतलब कि जिस मंत्री का जो काम है वो काम मंत्री कर ही नहीं रहा है. जैसे कि ग्रेग चैपल ने इरफ़ान पठान को हरफनमौला बनाने का प्रयास किया था और अंततः इरफ़ान की गेंदबाजी की लय ही बिगड़ गई और बेचारे टीम से ही बाहर हो गए.
मित्रों, भारत सरकार कहती है कि राजकोषीय घाटा कम करना है और इसके लिए सरकारी खर्च को कम करना है. मैं पूछता हूँ कि सरकार जनता के लिए है यह जनता सरकार के लिए? मैं यह भी पूछना चाहता हूँ कि सरकार जनता से है यह जनता सरकार से है? सरकारी खर्च कम करना है तो प्रधानमंत्री सामान्य यात्री की तरह विमान-यात्रा करें किसने रोका है? विधायकों-सांसदों-मंत्रियों को पेंशन देना बंद कर दें किसने रोका है? महाभ्रष्ट योजना सांसद-विधायक फण्ड को बंद कर दें किसने रोका है? लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे उनको तो जनता से त्याग करवाना है खुद त्याग नहीं करना है इसलिए वे तो नौकरी में कटौती करेंगे.
मित्रों, भारत सरकार यह भी कहती है कि व्यवसाय चलाना सरकार का काम नहीं है इसलिए परिवहन, संचार सहित प्रत्येक क्षेत्र से सम्बद्ध सरकारी उद्यमों को निजी क्षेत्र को बेच देना चाहिए और वो भी उनका दिवाला निकालने के बाद. इस मामले में मुझे जहाँ तक लगता है कि या तो भारत सरकार महामूर्ख है या फिर महाचतुर. सरकारी उद्यमों को तो वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने भी बेचा था लेकिन तब जब उनकी हालत अच्छी ही नहीं बहुत अच्छी थी और वो नवरत्न और महानवरत्न कहलाते थे. मेरा आज भी मानना है कि सरकारी उद्यमों को सुधारा जा सकता है और एक बात फिर से महानवरत्न बनाया जा सकता है लेकिन इसके लिए कोशिश तो हो. लेकिन कोशिश तो हो रही है कि कैसे अम्बानी दुनिया के सबसे धनवान व्यक्ति बनें और इसलिए सबकुछ उनके हवाले किया जा रहा है. अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों. साथ ही आपने यह भी गौर किया होगा कि आजकल सबकुछ सिर्फ और सिर्फ गुजरात में ही हो रहा है. मानों सिर्फ गुजरात ही भारत है जबकि वादा तो किया गया था कि माँ भारती के वामांग को यानि पूर्वी भारत को भी मजबूत किया जाएगा.
मित्रों, अब मैं बात करना चाहूँगा पाकिस्तान और हिंदुत्व की. लोग-बाग़ दिन-रात उल्लुओं की तरह टीवी पर नजर गडाए हुए हैं कि कब भारत पाकिस्तान पर हमला बोलेगा. अरे भाई वो तो खुद ही भूखों मर रहा है उसको मारने की जरुरत क्या है? चिंता करनी है तो अपनी अर्थव्यवस्था की चिंता करो नहीं तो कुछ सालों में तुम भी पाकिस्तान ही बननेवाले हो.
मित्रों, जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो लगा कि अब साधू-समाज देश का सञ्चालन करेगा और देश में रामराज्य आ जाएगा. साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को हमने क्या समझा था और क्या निकली. इनकी तो खुद की प्रज्ञा ही नष्ट हो चुकी है. हमेशा आएं-बाएँ बोलती रहती है. इनके बारे में तो यही कहा जा सकता है कि यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम, लोचनाभ्याम विहीनस्य दर्पणं किं करिष्यति. थोड़ी बात चिन्मयानन्द की भी हो जाए जिनके खिलाफ सबूतों के अम्बार लगे हैं लेकिन अब तक उनके खिलाफ एफआईआर तक नहीं हुआ है. क्यों नहीं हुआ है? शायद इसलिए क्योंकि वे भाजपाई हैं और भाजपा तो गंगा है जिसमें डुबकी लगाकर न जाने कितने महाभ्रष्ट कांग्रेसी पवित्र हो चुके हैं.
मित्रों, अंत में मैं आपसे हाथ जोड़कर विनती करना चाहता हूँ कि कृपया चाँद की ओर देखना बंद करिए और धरती की तरफ देखिए जो धीरे-धीरे आपके पाँव के नीचे से सरक रही है या यूं कहें कि सरकाई जा रही है. सोंचिए कल अगर रेलवे निजी हाथों में चला गया तो क्या कोई गरीब इसकी सवारी कर पाएगा? सोंचिएगा जरूर. नहीं तो,....

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

१९२९ के अमेरिका से भारत की आश्चर्यजनक समानता



मित्रों, इन दिनों भारत में मंदी की चर्चा बड़े जोर-शोर से हो रही है. यह उस भारत में हो रहा है जिसकी सरकार अगले ५ वर्षों में जीडीपी को दोगुना कर देने का दंभ भर रही है. हमारे जैसे फिजूल में देश के लिए चिंतित रहनेवाले लोगों ने पिछले सालों में कई बार सरकार को सचेत भी किया लेकिन सब बेकार.
मित्रों, वर्तमान सरकार किसी भी तरह से अर्थव्यवस्था की दुरावस्था के लिए पिछली सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकती क्योंकि ५ साल का समय कम नहीं होता. पिछले पांच सालों में सरकार ने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिससे देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलती. अगर हम १९२९ की अमेरिका की महामंदी से वर्तमान भारत की तुलना करें तो आश्चर्यजनक रूप से आज भारत की अर्थव्यवस्था की हालत ठीक वही है जैसी १९२९ में अमेरिका की अर्थव्यवस्था की थी. १९२० के दशक में अमेरिका के सबसे धनी ०.१ प्रतिशत लोगों ने ३४ प्रतिशत बचत को नियंत्रित कर रखा था जबकि देश के ८० प्रतिशत लोगों की कोई बचत ही नहीं थी.
मित्रों, १९२० के दशक के अमेरिका में उद्योग में उत्पादकता तो बढ़ रही थी किन्तु लोगों की मजदूरी उस अनुपात में नहीं बढ़ रही थी. उद्योगपतियों को अधिक मजदूरी नहीं देनी पड़ती थी इसलिए उन्होंने अकूत मुनाफा कमाया किन्तु अगर मजदूरी कम होगी तो उत्पाद खरीदेगा कौन? किसी भी अर्थव्यवस्था के समुचित रूप से काम करने के लिए जरूरी है कि मांग और पूर्ति के संतुलन को कायम रखा जाए. १९२० के दशक के अंत तक अमेरिका में वस्तुओं की आपूर्ति आवश्यकता से अधिक हो गयी किन्तु उन्हें खरीदने के लिए लोगों के पास पर्याप्त पैसे नहीं थे. चूंकि अधिसंख्य अमेरिकियों के पास अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं थी अतः वे इन वस्तुओं को उधार पर खरीदने लगे. 'खरीदो अभी, भुगतान बाद में' की संकल्पना जोर पकड़ने लगी. १९२० के दशक के अंत तक ६० प्रतिशत कारें और ८० प्रतिशत रेडियो सेट किस्तों पर ख़रीदे गए. १९२५ और १९२९ के बीच बकाया किस्तों की कुल रकम १.३८ अरब डॉलर से बढ़कर ३ अरब डॉलर से भी अधिक हो गयी. यह एक खतरनाक स्थिति थी क्योंकि लोगों को अपनी कम आय का अधिकांश भाग विवश होकर अपने पिछले ऋणों की चुकौती के लिए रखना पड़ता था.
मित्रों, तत्कालीन अमेरिकी अर्थव्यवस्था विलास-व्यय और अमीर व्यक्तियों के निवेश पर बहुत अधिक निर्भर थी. यह स्थिति तभी तक चल सकती थी जब तक कि अमीर लोगों को अर्थव्यवस्था पर विश्वास हो. अमेरिकी उद्योग के अनेक क्षेत्र गरीब थे. केवल २०० कम्पनियों ने आधी से अधिक निगमित संपत्ति को नियंत्रित कर रखा था. ऑटोमोबाइल क्षेत्र उन्नति कर रहा था और कृषि क्षेत्र की उपेक्षा हो रही थी. अधिकांश उद्योग, जो १९२० के दशक में फले-फूले, किसी-न-किसी रूप में ऑटोमोबाइल, रेडियो उद्योग, इस्पात, शीशा, रबर टायर, पेट्रोल उत्पादों, होटलों, निर्माण कार्यों आदि के साथ जुड़े हुए थे. स्वाभाविक रूप से यह एक खरतनाक स्थिति थी क्योंकि लोग अनगिनत कारें और रेडियो तो खरीद नहीं सकते थे. जो चीजें रोज खरीदी जाती थीं वे थी खाद्य वस्तुएं. १९२९ तक अमेरिका की कृषि बर्बाद हो चुकी थी.
मित्रों, १९२० के दशक में अमेरिका में सट्टेबाजी की संस्कृति पनपने लगी. चौतरफा निराशा के वातावरण में लोगों ने भारी मुनाफा कमाने की आशा में स्टॉक एक्सचेंजों में निवेश करना शुरू कर दिया, जबकि इस राशि से वे अपने पुराने ऋण चुकता कर सकते थे. वेतन-वृद्धि के अभाव में वे कर भी क्या सकते थे? जल्दी ही लोगों ने अपने ही दलालों से, शेयर खरीदने के लिए पैसे उधार लेना शुरू कर दिया. कोई भी व्यक्ति अपने दलाल से ६५ डॉलर उधार लेकर ७५ डॉलर मूल्य के शेयर खरीद सकता था, इसके लिए उसे १० डॉलर ही अपनी जेब से देने होते थे. इस प्रकार की बेतहाशा खरीद से शेयरों के दाम आसमान छूने लगे. एक साल के भीतर ही खरीदार उन्हीं शेयरों को ४२० डॉलर में बेच सकता था और ब्याज सहित अपने दलाल को ऋण चुका सकता था और पर्याप्त राशि घर भी ले जा सकता था. किन्तु सट्टेबाजी में आया यह उछाल मजबूत आधारों पर टिका हुआ नहीं था. अनेक कम्पनियाँ, जिनके शेयरों की कीमत बहुत ज्यादा बढ़ी हुई थी, वास्तव में अच्छी स्थिति में नहीं थी.
मित्रों, १९२९ की गर्मियों तक शेयर दलालों को देय कुल बकाया ऋण ७ अरब डॉलर से अधिक था. अगली तिमाही में यह बढ़कर ८.५ अरब डॉलर हो गया. अचानक शेयरों के दाम गिरने लगे. फिर ये ये दाम इतने गिर गए कि लोगों के पास जो भी शेयर थे वे उन्हें बेचने लगे. 'काले मंगलवार' यानि २९ अक्टूबर १९२९ को दाम इतने गिर गए कि शेयरों को किसी भी दाम पर खरीदने के लिए कोई भी खरीदार नहीं बचा.
मित्रों, स्टौक मार्केट के यूं ढह जाने के बाद अमेरिका के 'चंद' धनाढ्य लोगों का भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विश्वास जाता रहा. उन्होंने विलासिता की वस्तुओं पर खर्च कम कर दिया और निवेश धीमा कर दिया. मध्य वर्ग और गरीब वर्ग तो अपने पुराने ऋणों को ही नहीं चुका पा रहा था; बहुत ही कम लोगों ने कार और रेडियो खरीदने के लिए नए ऋण लिए. मांग में कमी से सभी उद्योग प्रभावित हुए और इस प्रकार औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट आ गयी. परिणामतः भारी संख्या में मजदूरों की छंटनी कर दी गयी. १९३० में बेरोजगारों की संख्या ५० लाख थी वह १९३२ में बढ़कर १३० लाख हो गई. देश महाविपत्ति से घिर चुका था. इस घटना को 'महामंदी' के नाम से भी जाना जाता है.
मित्रों, दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं-एक जो दूसरों की गलतियों से सबक लेते हैं और दूसरे जो दूसरों की गलतियों से सबक नहीं लेते और खुद के लिए महाविपत्ति की प्रतीक्षा करते हैं. अब यह भारत सरकार पर निर्भर है कि वो १९२९ की अमेरिका की महामंदी से सबक लेकर समय रहते निवारण के उपाय करती है या फिर देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह से ढह जाने का इंतज़ार करती है. वैसे भी ऐसे वित्त मंत्री से हम क्या आशा रखें जो उबर और ओला को मंदी के लिए जिम्मेदारी ठहरा रही हों. सरकार के समक्ष इस समय क्या रास्ते हैं इस पर चर्चा अगले आलेख में.

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

ठीके तो नहीं हैं नीतीश कुमार

मित्रों, आपको भी याद होगा कि २०१५ के बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार मोदी विरोध का प्रतीक बन गए थे. तब रमन मैगसेसे पुरस्कार से हाल ही में सम्मानित हो चुके रवीश कुमार जी बुरी तरह से नीतीश समर्थक बने हुए थे और पूरे बिहार में घूम-घूमकर पूछते फिर रहे थे कि नीतीशे कुमार हैं? हैं? बागों में बहार है? ना, ना, ना, ना, ना, ना! खैर वक़्त बदला और नीतीश जी फिर से भाजपा के साथ हो गए, रवीश जी भी बदल गये और नीतीश विरोधी हो गये लेकिन नहीं बदला तो बिहार और नहीं बदली तो बिहार की तक़दीर.
मित्रों, अब जबकि बिहार की हालत २०१५ से भी ख़राब है तब अक्सर बीमार रहनेवाले नीतीश कुमार जी फिर से बिहार का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. उन्होंने एक नया नारा भी दे दिया है-काहे करें विचार, ठीके तो हैं नीतीश कुमार. यहाँ आप देख सकते हैं कि ठीक की जगह ठीके का प्रयोग हुआ है जिसका बिहार में मतलब होता है कामचलाऊ. अगर कोई आपसे पूछे कि कैसे हैं आप और आपने कहा कि ठीके हैं तो इसका बिहार में यही मतलब होता है कि जैसा होना चाहिए वैसे तो नहीं हैं लेकिन ठीक ही हैं. कहने का मतलब यह कि खुद नीतीश कुमार भी मानते हैं कि उनकी सरकार का कामकाज अब वैसा नहीं है जैसा कि होना चाहिए था लेकिन फिर भी ठीक ही हैं.
मित्रों, हम जानते हैं कि पिछले कई दशकों से बिहार भारत का सबसे पिछड़ा, सबसे भ्रष्ट और सबसे अराजक प्रदेश बना हुआ है. बिहार में एक दिन में जितनी हत्या होती है शायद ही देश के किसी अन्य राज्य में होती होगी. आज बिहार अराजकता के चरम पर है. लोग बैंक से पैसा निकालते हैं तो कोई गारंटी नहीं होती कि कहाँ पर पैसा छिन जाएगा. घर में भी लोग सुरक्षित नहीं रहे. हर तरफ लूट है. कहीं सरकारी अधिकारी जनता को लूट रहे हैं तो कहीं अपराधी. अब ऐसे राज्य में ठीके सरकार से कैसे काम चलेगा बल्कि यहाँ तो पूरी तरह से ठीक-ठाक सरकार चाहिए.
मित्रों, कुछ विश्लेषक मानते हैं कि नीतीश कुमार जी को मुगालता हो गया है कि बिहार में उनका कोई विकल्प ही नहीं है. साथ ही उनको लगता है कि मोदी जी को लोगों ने इसलिए दोबारा चुना क्योंकि विकल्पहीनता की स्थिति थी. अगर ऐसा है और ऐसा ही है तो मैं नीतीश जी को बता देना चाहूँगा कि बिहार में उनके हजारों विकल्प मौजूद हैं. हमारे जैसे हजारों बिहारी हैं जिनका कोई निहित स्वार्थ नहीं है और जो उनसे अच्छा शासन दे सकते हैं क्योंकि आज के बिहार में वस्तुस्थिति यह है कि यहाँ शासन नाम की चीज ही नहीं है और जिसके हाथ में लाठी है वही भैंस को हांक ले जा रहा है. रही बात मोदी जी के दोबारा जीतने की तो देश की जनता ने मोदीजी को इसलिए नहीं जिताया कि उनके समक्ष विकल्प नहीं थे बल्कि इसलिए जिताया क्योंकि वे सर्वश्रेष्ठ विकल्प थे और हैं. देश को न तो सत्ता परिवर्तन चाहिए था और न ही अवस्था परिवर्तन बल्कि देश को व्यवस्था-परिवर्तन चाहिए था और ऐसा कर पाने में सिर्फ मोदी जी ही सक्षम थे और हैं. आज देश के गृह और वित्त मंत्री रहते हुए रिश्वत में सेक्स की मांग कर इन महान पदों की गरिमा को धूल-धूसरित करनेवाले चिदंबरम जेल में हैं क्या ये कम बड़ा परिवर्तन है?