सोमवार, 30 नवंबर 2020

फिर से आग से खेल रही है कांग्रेस

मित्रों, हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा था कि १८५७ का स्वतंत्रता-संग्राम सैनिकों ने नहीं लड़ा था बल्कि वे सैनिक वर्दी पहने हुए किसान थे. १७९३ में जमींदारी और १७९४ में सूर्यास्त कानून के आने के बाद बंगाल, बिहार, उड़ीसा और पूर्वी उत्तर प्रदेश में लगान की दरें दोगुनी कर दी गयी थी जिससे किसान त्राहि-त्राहि कर उठे थे. सैनिक जब भी अपने घर जाते तो वहां की हालत देखकर उनके मन में क्रोध भर जाता जिसकी परिणति सैनिक-विद्रोह के रूप में हुई. मित्रों, आज भी देश के लिए जान न्योछावर करनेवाले लगभग सारे-के-सारे वीर किसानों के बेटे होते हैं. ऐसे में ऐसा कैसे संभव है कि किसान भारत माता की जय बोलने से मना कर दें और उसके बदले पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने लगें. जाहिर है कि इस समय दिल्ली में चल रहा किसान आन्दोलन के पीछे कोई साजिश है जिसके रचयिता देश को जलाना चाहते हैं. जिस तरह से इस आन्दोलन में कांग्रेस सहित पूरा-का-पूरा टुकड़े-टुकड़े गैंग सक्रिय है कथित आन्दोलन के प्रति वह भारत के जन-गण-मन की आशंकाओं को और भी गहरा करता है. मित्रों, हमें भूलना नहीं चाहिए कि १९७० के दशक में इसी कांग्रेस पार्टी ने अकाली दल पर कब्ज़ा ज़माने के लिए जरनैल सिंह भिंडरावाले को प्रोत्साहित किया था. अलगाववादी प्रवृत्ति का भिंडरावाले अवसर का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान की गोद में जा बैठा था और भारतीय पंजाब को अलग देश बनाने के सपने देखने लगा. फिर पंजाब दो दशकों तक जलता रहा और उसकी आग में होलिका राक्षसी की तरह श्रीमती इंदिरा गाँधी भी जल गई. साथ ही हजारों की संख्या में निरपराध मारे गए जिनमें हिन्दू सबसे ज्यादा थे. मित्रों, एक बार फिर से कांग्रेस बेवजह आन्दोलन खड़ा करके पंजाब में अलगाववाद की आग भड़का रही है. बेवजह इसलिए क्योंकि पंजाब सरकार अक्टूबर में ही नए कानून बनाकर भारत सरकार द्वारा बनाए गए कृषि कानून को निष्प्रभावी बना चुकी है. फिर समझ में नहीं आता कि पंजाब की किसान क्यों आंदोलन कर रहे हैं. जाहिर है कि दाल में कुछ काला है और कांग्रेस टुकड़े-टुकड़े गैंग का हिस्सा बनकर चीन-पाकिस्तान से मोटी रकम वसूलने के चक्कर में है. मित्रों, तथापि कांग्रेस पार्टी इस बात को समझ नहीं पा रही है अथवा जानबूझकर ऐसे खेल खेल रही है जिससे पंजाब दोबारा जलने लगे और साथ में जल उठे पूरा भारतवर्ष. हाथरस कांड में कांग्रेस ने जिस तरह हिन्दुओं में फूट डालने के पाकिस्तानी और चीनी एजेंडे को पूरा करने की कोशिश की वह किसी से छिपी हुई नहीं है. जिस तरह से दिल्ली की मस्जिदों से आन्दोलनकारियों के भोजन और आवासन की व्यवस्था की जा रही है उससे यह खेल और भी खतरनाक हो जाता है. शायद कांग्रेस भूल गई है कि जिस इंदिरा गाँधी की हत्या को उसने महान शहादत का नाम देकर १९८४ का चुनाव जीता था वह खुद इंदिरा की लगाई आग का परिणाम था. कहने का तात्पर्य यह कि अगर पंजाब फिर से जलता है तो उसकी लपटें फिर से कांग्रेस को भी झुलसाएंगी.

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

अंधेर नगरी मोदी राजा

मित्रों, भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तक माना जाता है. भारतेंदु स्वयं एक बहुत बड़े नाटककार भी थे. उन्होंने अपने नाटक के माध्यम से देश में व्याप्त अनेकों समस्याओं को देश वासियों से समक्ष प्रस्तुत किया. ‘अंधेर नगरी’ उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यंग्य-नाटक है, जो सत्ता की विवेकहीनता का रूप सामने लाता है. अंधेर नगरी अंग्रेजी राज का दूसरा नाम है. ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ अंग्रेजी राज्य की अंधेरगर्दी की आलोचना ही नहीं, वह इस अंधेरगर्दी को ख़त्म करने के लिए भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है. अंधेर नगरी की प्रचलित लोककथा पर आधारित भारतेंदु के इस नाटक में उत्तर औपनिवेशिक चेतना की स्पष्ट झलक है. यह उपनिवेशवाद का प्रतिवाद है. भारतेंदु ने अंधेर नगरी को पश्चिमी साम्राज्य का रूप दिया है. भारतेंदु ने इस व्यंग्य के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्य को अंधेर नगरी की संज्ञा दी है. अंधेर नगरी में भारतेंदु ने महंत के माध्यम से कहलाया है, “बच्चा नारायणदास, यह नगर दूर से बड़ा सुंदर दिखाई पड़ता है.” भारतेंदु दिखाना चाहते थे कि पश्चमी साम्राज्यवादी सभ्यता दूर से इतनी सुंदर दिखाई देती है, पर अंदर से क्या है. ये एक सभ्यता पर टिपण्णी करना चाहते थे, सिर्फ अंग्रेजी राज पर नहीं. भारतेंदु द्वारा अंधेर नगरी में चित्रित महंत विवेकशीलता का प्रतिक है. भारतेंदु ने महंत की ये विवेकशीलता एक गुरु के रूप में उद्धरित की है. अपने गुरु की आज्ञा न मानकर गोबरधनदास टके सेर मिठाई खाता है और चौपट राज्य की व्यवस्था में फंस जाता है. फांसी पर जब शिष्य को लटकाया जा रहा था तो उसने गुरू का स्मरण किया उन्होंने जो युक्ति सुझाई वही कारगर हुई यानी आज भी होगी। यानि गुरु के महत्त्व को भारतेंदु प्राथमिकता दी है और इस दृश्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शिक्षा एवं ज्ञान के कारण ही हम बड़े-बड़े संकट से बच सकते हैं. भारतेंदु की वैचारिक दृष्टि सदा आम जनता के उद्धार के प्रति ही रही. अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्ति और उनकी अंधेरगर्दी से छुटकारा ही उनकी रचनाओं का प्रमुख विषय रहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “भारतेंदु का पूर्ववर्ती काव्य साहित्य संतो की कुटिया से निकल कर राजाओं और रईसों के दरबार में पहुँच गया था. उन्होंने एक तरफ तो काव्य को फिर से भक्ति की पवित्र मंदाकिनी में स्नान कराया और दूसरी तरफ़ उसे दरबारीपन से निकल कर लोक-जीवन के आमने-सामने खड़ा कर दिया.” इसके आधार पर भारतेंदु ने अंधेर नगरी में दरबार के उपेक्षा की है और लोक जीवन का समर्थन किया है. मित्रों,भारतेंदु ने अंधेर नगरी के माध्यम से अपनी वैचारिक दृष्टि कानून व्यवस्था पर भी डाली है. क़ानूनी व्यवस्था का प्रतिनिधि राजा को सुनाई नहीं देता, वह ‘पान खाइए’ को ‘सुपरनखा आई’ सुनता है. जब कोई फरियादी उसके पास अपनी फ़रियाद लेकर आता है तो वह उसे अपनी बातो में उलझा कर न्यायिक प्रक्रिया को और लम्बा कर देता है. फरियादी की दिवार गिरने के कारण बकरी मर जाती है. वह न्याय के लिए राजा के पास जाता है लेकिन राजा की न्याययिक प्रक्रिया जाकर गोबर्द्धन दास को फाँसी किस सजा सुनाने पर रूकती है. क्योंकि फाँसी का फंदा उसी के नाप का था. कुछ ऐसा ही दृश्य मन्नू भंडारी द्वारा लिखित नाटक ‘उजली नगरी, चतुर राजा’ में देखने को मिलता जहाँ एक आदमी अपनी समस्या लेकर राजा से पास आता है तो राजा उसे अपनी बातों में उलझा कर बिना न्याय किये वापस भेज देता है. यह कहा जा सकता है कि सवा सौ साल पहले ही भारतेंदु ने वर्तमान की तस्‍वीर खींच दी थी. अंधेर नगरी के अंत में भारतेंदु अपनी बौद्धिकता का प्रमाण देते हुए महंत के माध्यम से चौपट राजा को फाँसी पर चढ़ा कर समाज में परिवर्तन के सुखद संकेत दिए हैं. अंत में भारतेंदु कहते हैं, “ जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज। ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥“ मित्रों, सवाल उठता है कि क्या आज भारतेंदु द्वारा यह प्रसिद्ध नाटक लिखने के डेढ़ सौ साल बाद देश अंधेर नगरी नहीं रहा? क्या भारत में राम राज्य आ गया है या स्थिति अंग्रेजों के समय से भी ज्यादा ख़राब हो गई है? क्या स्वतंत्र भारत की सरकारों ने भ्रष्टाचार को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है? क्या हमारी सरकार सचमुच भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहती है या फिर भ्रष्टाचार को समाप्त करने के प्रयास करने का नाटक मात्र कर रही है? मित्रों, वास्तविकता तो यही है कि चाहे तो केंद्र की मोदी सरकार हो या राज्यों की सरकारें किसी की भी प्राथमिकता सूची में देशोद्धार है ही नहीं. सबके सब सिर्फ ज्यादा से ज्यादा वोटबैंक बनाने और सत्ता प्राप्त करके के लिए मरे जा रहे हैं. केंद्र सरकार की सारी योजनाएं सिर्फ इस दृष्टिकोण से बनाई गई हैं कि उससे कितना वोट बढेगा. फिर चाहे वो जन धन खाता हो, उज्ज्वला योजना हो, स्वास्थ्य बीमा योजना हो, किसान सम्मान योजना या बिहार सरकार की नक़ल करके लाई गई हर घर नल का जल योजना. सच्चाई तो यह है कि आज भी बिना रिश्वत दिए जनता का कोई काम नहीं होता. पुलिस आज उससे भी सबसे ज्यादा अंधेरगर्दी करती है जितनी वो अंग्रेजों के ज़माने में करती थी. दिल्ली पुलिस तक महाभ्रष्ट है. पटवारी आज उससे भी ज्यादा रिश्वत खाता है जितनी वो अंग्रेजों के ज़माने में खाता था. हाकिम आज उससे भी ज्यादा भ्रष्ट है जितना वो अंग्रेजों के ज़माने में था. आज भी नेता आपस में मिलकर सुशांत सिंह मामले को रफा-दफा कर देते हैं. इन्साफ आज भी दूर की कौड़ी है जैसे भारतेंदु से समय था. अंग्रेजों के बारे में भारतेंदु ने कहा था कि भीतर भीतर सब रस चूसै बाहर से तन मन धन मूसै जाहिर बातन में अति तेज क्यों सखि साजन? नहीं अंगरेज। क्या हमारे आज के नेता अंग्रेजों से अलग हैं? हमारे प्रधानमंत्री दिन-रात भाषण देते रहते हैं लेकिन उससे क्या फर्क पड़ा है? केंद्र की भाजपा सरकार का कोई ठिकाना नहीं कि कब किस तरह की नीति की घोषणा कर दे भले ही सरकार की तैयारी कुछ भी नहीं हो. सरकार ने सत्ता में आने के १० दिन के भीतर विदेशों से काला धन लाने की बात कही थी आई क्या? भाजपा ने हर साल २ करोड़ लोगों को रोजगार देने की बात कही थी दी क्या? सरकार ने योजना आयोग को समाप्त कर दिया क्या लाभ हुआ? सरकार ने यूजीसी को समाप्त करने की बात कही है लेकिन उसके स्थान पर उच्च शिक्षा को देखेगा कौन और व्यय कौन उठाएगा? सरकार ने नेट की वैल्यू को कम करके पीएचडी की वैल्यू को बढ़ा दिया. फिर नेट की परीक्षा ली क्यों जा रही है? नेट की परीक्षा में तो फिर भी पारदर्शिता है लेकिन पीएचडी में जो मनमानी है और सेटिंग है उसको रोकने के लिए सरकार ने क्या किया है? आज कहने को ऑनलाइन सरकार है लेकिन नमो ऐप सहित किसी भी मंच पर जनता की शिकायतें नहीं सुनी जा रही है. जनता आज अंग्रेजों के ज़माने से भी ज्यादा लाचार है. मित्रों, अंग्रेज तो सात समंदर पार से आए थे इसलिए स्वाभाविक था कि हमारे देश को लूटकर धन सात समंदर पार ले गए लेकिन हमारे नेताओं ने क्या किया? क्या वे धन स्विस बैंक में नहीं ले गए? मोदी सरकार के समय माल्या, मेहुल चौकसे और नीरव मोदी बैंकों से भारी मात्र में ऋण लेकर सात समंदर पार भाग गए और मोदी सरकार मूक दर्शक बनी देखती रही ऐसे में क्यों नहीं यह समझा जाए कि मोदी सरकार ने ही उनको भगाया है? आज भी बैंक आम जनता को ऋण नहीं देती लेकिन अम्बानी-अडानी को हजारों करोड़ के कर्ज झटपट मिल जाते हैं. इतना ही नहीं आज एक-एक करके निजी बैंक बंद हो रहे हैं और उनमें जनता के खून-पसीने से कमाया गया पैसा फंस जा रहा है. किसी-किसी की जीवन भर की कमाई डूब जा रही है. मित्रों, देश के शुभचिंतक लगातार मांग कर रहे हैं कि सरकार जनसँख्या नियंत्रण कानून बनाए साथ ही भ्रष्टाचारियों के खिलाफ अमेरिका की तरह सख्त कानून बनाए, पुलिस को जनता के प्रति जिम्मेदार बनाया जाए, न्यायिक प्रणाली को त्वरित और जिम्मेदार बनाया जाए लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही बल्कि खुद भाजपा के कार्यकर्ता रोजाना बंगाल और केरल में मारे जा रहे लेकिन केंद्र सरकार उनकी जान बचाने के बदले किनारे पर खड़ी होकर शोर मचा रही है फिर अर्नब को कौन और क्यों बचाए. केंद्र सरकार कड़क सरकार के बदले कड़ी निंदा की सरकार बनकर रह गई है. आज राष्ट्रवाद का सौदा किया जा रहा है. केवल चीन-पाकिस्तान का शोर मचाकर चुनाव जीते जा रहे हैं जबकि देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है. रेलवे, हवाई अड्डे निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं. जनता की आमदनी बढ़ाए बिना महंगाई बढ़ाई जा रही है. सिविल सेवा में नेताओं के भाई-भतीजों को सीधे भरा जा रहा है जबकि योग्य उम्मीदवार खाक छानते फिर रहे हैं. मोदी सरकार द्वारा किसी को भी किसी भी केंद्रीय विवि का कुलपति बना दिया गया है तो किसी को भी ओएनजीसी का स्वतंत्र निदेशक. मित्रों, अब बिहार की नवगठित सरकार को ही लें जिसे मोदी जी डबल ईंजन की सरकार कहते हैं. इसमें एक ऐसे व्यक्ति को शिक्षा मंत्री बना दिया जाता है जिस पहले से ही भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. मंत्री को कार्यभार सँभालने के मात्र तीन घंटे के भीतर ही इस्तीफा देने को कह दिया जाता है. उधर मुख्यमंत्री के चमचे कहते हैं कि मुख्यमंत्री जी भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टोलरेन्स रखते हैं. फिर सवाल उठता है कि ऐसे भ्रष्ट को मंत्री बनाया ही क्यों? क्या ऐसी ही सरकार को डबल ईंजन की सरकार कहते हैं? अभी भी नीतीश सरकार में आठवीं पास मंत्री हैं. लोगों ने मोदी जी के नाम पर वोट दिया है तो क्या मोदी जी का यह कर्त्तव्य नहीं है कि वे मंत्रिमंडल में दागियों को शामिल करने से रोकें? खैर जब मोदी जी ही सुरेश प्रभु को हटाकर पीयूष गोयल को रेल मंत्री बनाते हैं, नचनिया-गवैया मनोज तिवारी और गिरिराज सिंह जिनको दो पंक्ति हिंदी लिखनी नहीं आती को मंत्री बनाते हैं तो वे क्या बिहार मंत्रिमंडल का गठन करवाएंगे. मित्रों, कुल मिलाकर आज भी भारत में अँधेर नगरी नाटक जैसे हालात हैं बल्कि हालात अंग्रेजी राज से भी ज्यादा ख़राब है. अँधा कानून है, बहरी और बडबोली सरकार है. सबकुछ उल्टा है कुछ भी सीधा नहीं है. भारतेंदु जहाँ नाटककार थे मोदी जी बहुत बड़े नटकिया हैं. कभी फौजी कपडा पहन लिया तो कभी पुजारी बन गए. भारतेंदु से भी पहले मुग़लकाल में ऐसी ही हालत को देखकर कभी तुलसीदास जी ने कहा था कि खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी। जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’

रविवार, 15 नवंबर 2020

इस्लाम, यूरोप और भारत

मित्रों, देखते-देखते कई साल बीत गए जब सितम्बर २०१५ में तुर्की के समुद्र तट के पास अयलान नामक मुस्लिम बच्चे की समुद्र किनारे तैरती लाश को देखकर पूरा यूरोप द्रवित हुआ जा रहा था. उस गलदस्रु भावुकता को देखकर तब हमने कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब ये लोग पछताएंगे. और दोस्तों दुर्भाग्यवश वह दिन आ भी गया है. इस्लाम में सब जायज है नाजायज कुछ भी नहीं है यूरोप वाले कई सौ सालों तक क्रुसेड लड़ने के बाद भी इस सच्चाई को समझ ही नहीं पाए. शायद इस्लाम ने मृत बच्चे की लाश का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. मित्रों, भावुकतावश यूरोप ने अपने दरवाजे मुस्लिम शरणार्थियों के लिए खोल दिए मगर जैसे ही उनके खाली पेटों में अनाज गया वे यूरोप वालों को चेतावनी देने लगे कि उनको शरियत के अनुसार चलना पड़ेगा. यूरोप में आज जगह-जगह जेहादी हिंसा हो रही है. वे गैर मुस्लिमों को मारने के लिए किसी भी वस्तु या वाहन को हथियार बना लेते हैं. उनका बस एक ही लक्ष्य है पूरी दुनिया में इस्लाम का साम्राज्य स्थापित करना. चूंकि उनकी आसमानी किताब सिर्फ हिंसा, लूट और बलात्कार की शिक्षा देती है इसलिए वे दूसरे धर्म के अनुयायियों के साथ मिलकर रह ही नहीं सकते. वे मानवों से अधिक मानवता के हत्यारे हैं. मित्रों, आज यूरोप के विभिन्न देशों में मस्जिदों में ताले लगाए जा रहे हैं. बहशी मुसलमानों को जेलों में ठूंसा जा रहा है. यह उसी यूरोप में हो रहा है जो दो दशक पहले तक यह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत जेहादी हिंसा से परेशान है. बल्कि तब वो मुसलमानों के मानवाधिकारों की बात करते थे और कश्मीर पर भारत के विरोध में थे. तब उनको कश्मीरी हिन्दुओं की पीड़ा नजर नहीं रही थी जो अपने ही देश में शरणार्थी बना दिए गए थे और इस्लाम ने जिनका सबकुछ छीन लिया था. मित्रों, सवाल उठता है कि क्या भारत को यूरोप के अनुभवों से शिक्षा लेते हुए समय रहते ऐहतियाती कदम नहीं उठाने चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस्लाम एक मार्शल कौम है और हम अहिंसावादी बनकर हरगिज उनका सामना नहीं कर सकते. सरकार को हिन्दुओं को सशक्त योद्धा बनाना होगा और अगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो जनसँख्या नियंत्रण कानून को शीघ्रातिशीघ्र बनाना होगा. इस काम में जितनी देरी होगी भारत को उसकी उतनी ही बड़ी कीमत चुकानी होगी. इसके साथ ही मदरसों को बंद करना होगा और कट्टरपंथी मौलानाओं को जेलों में बंद करना होगा. पीएफआई जैसी इस्लामिक सेनाओं पर कठोरतम कार्रवाई करनी होगी. दिल्ली में दंगे करके और शाहीन बाग़ में धरना आयोजित करके इस्लाम ने भारत पर कब्ज़ा करने का प्रयोग शुरू भी कर दिया है. अगर देश में कोरोना नहीं आया होता तो कदाचित इस समय भारत गृहयुद्ध का सामना कर रहा होता.

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

डर के आगे जीत है

मित्रों, बिहार का चुनाव परिणाम आ चुका है और ठीक वैसा ही रहा है जैसा कि हमारा अनुमान था. चुनाव के दौरान हमने प्रत्येक पूछनेवाले को यही कहा था कि नीतीश कुमार फिर से वापसी करेंगे और गिरते-पड़ते एनडीए को बहुमत आ जाएगा. हमने यह भी कहा था कि पहले चरण के मतदान पर मुंगेर गोलीकांड का असर रहेगा लेकिन बाद के दोनों चरणों में एनडीए पहले चरण में होनेवाले नुकसान की भरपाई कर लेगा और हुआ भी ऐसा ही है. मित्रों, एग्जिट पोल वाले हैरान होंगे कि ऐसा हुआ कैसे. दरअसल बिहार के मतदाताओं में आज भी लगभग आधे वे लोग हैं जिन्होंने लालू के जंगल राज को देखा है, भोगा है और वे कभी नहीं चाहेंगे कि बिहार को फिर से वही दिन देखने को मिले. बिहार की जनता ने लालू जी को कई अवसर दिए क्योंकि उन्होंने कहा था कि आगे से वे ठीक तरह से काम करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. रेल मंत्री के रूप में लालू जी कुछ अलग नहीं कर पाए. बिहार में उन्होंने अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया और उस पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया जिसको शौचालय और सचिवालय का फर्क तक पता नहीं था. राबड़ी राज में विकास के सारे काम इसलिए रोक दिए गए कि कहीं घोटाला न हो जाए और लालू जी की तरह राबड़ी को भी जेल न जाना पड़े. १९९०-२००५ के कालखंड में बिहार से सारे व्यवसायी भाग गए, सरकारी और निजी चीनी मिलें बंद हो गईं और हजारों सालों में बिहार ने जो भी आर्थिक प्रगति की थी उसका सम्पूर्ण विनाश कर दिया गया. सामाजिक न्याय के नाम पर बिहार के अलावा कई अन्य प्रदेशों में भी शासक बदले लेकिन किसी ने भी उन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था को इस तरह बर्बाद नहीं किया. पडोसी राज्य उत्तर प्रदेश इसका उदाहरण है. जब लालू राज के दौरान हम दिल्ली जाते थे तो देखते थे कि उत्तर प्रदेश के गाँव बिजली की दुधिया रौशनी में नहाए हुए हैं जबकि उस दौरान पूरा बिहार लालटेन की रोशनी के सहारे दिन काट रहा था. मित्रों, एग्जिट पोल वाले बिहार में इस बात को समझने में विफल रहे कि जो लोग शाम तक नीतीश सरकार को गरिया रहे थे उन्होंने भी सुबह में एनडीए वो वोट दिया. इनमें सबसे बड़ी संख्या सवर्णों की थी. साथ ही पिछड़े और दलित भी इसमें शामिल थे. सिर्फ यादवों और मुसलमानों ने एकजुट होकर महागठबंधन को वोट दिया. मैं यद्यपि प्रधानमंत्री मोदी जी की रैलियों के प्रभाव से भी इंकार नहीं कर रहा हूँ. पहले चरण के मतदान के बाद उन्होंने मोर्चा संभाला और लोगों को जंगलराज की याद दिलाई. साथ ही राम मंदिर, अनुच्छेद ३७०, उज्ज्वला योजना, किसान सम्मान योजना और बिहार में बन रहे पुलों-सड़कों का जिक्र कर फिजां ही बदल दी. मित्रों, इस बात से हमें कभी इंकार नहीं था कि टक्कर जोरदार है और ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है लेकिन दूसरे और तीसरे चरणों के मतदान ने बिहार को बचा लिया. हो सकता है कि तेजस्वी १० लाख नौकरियों के अपने वादे को पूरा कर भी देते लेकिन उसमें जमकर यादवों के पक्ष में धांधली की जाती इसमें कोई संदेह नहीं. और फिर से बिहार की कानून-व्यव्यस्था यादवों के हाथों में चली जाती जैसा कि लालू-राबड़ी के समय उन्होंने नंगा नृत्य किया था. मित्रों, बिहार के चुनाव परिणामों में कुछ खतरनाक संकेत भी हैं जैसे ओवैसी की पार्टी का बिहार विधानसभा में प्रवेश और कम्युनिस्टों की शानदार जीत. दोनों ही दलों का रवैया हिंदुविरोधी और तदनुसार भारत-विरोधी है. इन शक्तियों का मजबूत होना बिहार और देश के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है.