शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

मैला आँचल का दुलारचंद कापरा और राहुल-सोनिया

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आपने हिंदी फिल्मों में बहुत से ऐसे खलनायक-पुत्र देखे होंगे जो पुलिस में कार्यरत हीरो से कहते हैं कि मैं नहीं डरता तुम्हारे कायदे-कानून से क्योंकि मेरे पास बहस करने के लिए वकीलों की फौज है और जजों को खरीदने के लिए अफरात पैसा।
मित्रों,मुझे नहीं पता कि कांग्रेस उपाध्यक्ष नेहरू-गांधी परिवार के चश्मोचिराग राहुल गांधी के पास कितने पालतू अधिवक्ता हैं और उनके खानदानी खजाने में कितना पैसा है लेकिन उनकी भाषा और उनकी अकड़ जरूर वही है और वैसी ही है जैसी कि हिंदी फिल्मों के खलनायकों के बेटों में होती है।
मित्रों,राहुल जी की माँ अक्सर भाजपा पर यह आरोप लगाती हैं कि भारतीय जनता पार्टी के लोग देश की आजादी के लिए जेल नहीं गए। मैं सोनिया जी को उनके राजवंश के संस्थापक पं. जवाहर लाल नेहरू जी का एक प्रसंग सुनाना चाहूंगा जो मैंने प्रकाशन विभाग द्वारा कांग्रेस शासन में प्रकाशित किसी पुस्तक में पढ़ा था। हुआ यह कि नेहरू जी को किसी आंदोलन में भाग लेने के कारण जेल भेजा गया। जेलर अंग्रेज था और बला का जालिम भी।  वो आटे में मिट्टी मिलाकर रोटियाँ बनवाता और स्वतंत्रता-सेनानियों को खाने को देता।
मित्रों,जवाहर लाल जी ठहरे खानदानी रईस सो उनसे मिट्टी मिली रोटी खाई नहीं गई और पहुँच गए जेलर के पास शिकायत लेकर। जेलर ने कहा कि खुद को स्वतंत्रता-सेनानी कहते हो और देश की मिट्टी नहीं खा सकते?  तब नेहरू जी ने खूबसूरती से जवाब दिया था कि हम यहाँ देश की मिट्टी को आजाद कराने के लिए आए हैं न कि देश की मिट्टी को खाने के लिए। लेकिन तब नेहरू जी को यह पता नहीं था कि उनके वंशज देश की मिट्टी तो क्या देश का कोयला और हवा में तैरते तरंगों तक को खा जाएंगे।
मित्रों,मैं सोनिया जी को एक और कथा भी सुनाना चाहूंगा। प्रसंग प्रख्यात समाजवादी विचारक और कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास मैला आँचल से है। पृ.सं. 294,राजपाल प्रकाशन,आठवीं आवृत्ति:2003। कांग्रेस का सच्चा कार्यकर्ता,वास्तविक गांधी भक्त और स्वतंत्रता सेनानी बावनदास आजादी मिलने के बाद कांग्रेस के बदले हुए चरित्र से काफी परेशान है। वो परेशान है कि "कटना के दुलारचंद कापरा,वही जुआ कंपनीवाला,जिसकी जूए की दुकान पर नेवीलाल,भोलाबाबू और बावन ने फारबिसगंज मेला में पिकटिन किया था। जूआ भी नहीं,एकदम पाकिटकाट खेला करता था और मोरंगिया लड़कियों,मोरंगिया दारू-गाँजा का कारबार करता था। ...आज कटहा थाना काँग्रेस का सिकरेटरी है! .....उसी की गाड़ियाँ हैं।" उधर गाँव-ईलाके के लोग गांधीजी की हत्या के बाद उनके श्राद्ध का भोज आयोजित करने में तल्लीन हैं और ईधर महान कांग्रेसी दुलारचंद कापरा तस्करी का माल बोर्डर पार पहुँचाने की फिराक में है। पूरा प्रशासन उसकी मदद कर रहा है और बावन अंगुल का बावनदास खड़ा है उसकी गाड़ियों के काफिले के आगे उसका रास्ता रोककर। वो उसे याद दिलाता है कि कापरा जी आप भी तो कांग्रेसी ही हैं फिर भी वो नहीं सुनता और बावनदास पर गाड़ी चढ़ा देता है। ठीक गांधी जी के श्राद्ध के दिन उनके अनन्य भक्त की हत्या कर दी जाती है और वो भी नए-नवेले कांग्रेसी के हाथों।
मित्रों,यह हत्या बावनदास की हत्या नहीं थी बल्कि कांग्रेस पार्टी की हत्या थी,कांग्रेस के आदर्शों की हत्या थी। महान साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु तो कांग्रेस के बदले हुए चरित्र को सन् 1954 ई. में ही समझ गए थे लेकिन आश्चर्य है कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी इसे आज तक नहीं समझ पाए हैं। हमारे बिहार में एक कहावत है कि जिसकी आँखों में ढेढर हो उसी को वो दिखाई नहीं देता है।
मित्रों,मैं ताल ठोंककर कहता हूँ कि कांग्रेस को मोदी तो क्या किसी से भी डरने की जरुरत नहीं है। यह विडंबना है कि सन् 1954 ई. में तो दुलारचंद कापरा कांग्रेस का छोटा-मोटा पदाधिकारी ही बना था लेकिन आज तो वो पार्टी का आलाकमान बन चुका है। कांग्रेस को डरना है कि खुद से डरे,खुद अपने चरित्र से डरे। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई डरने-डराने की वस्तु नहीं है जिनसे कोई डरे। राहुल जी को चाहिए कि वे अपनी पार्टी के चाल,चरित्र और चेहरे को बदलें और अपने मन में विचारें कि उनकी पार्टी आजादी के पहले क्या थी और आज क्या हो गई है। जिस पार्टी के नेतृत्व में कभी भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी वही पार्टी आज भारत के सबसे बड़े शत्रु पाकिस्तान के हाथों का मोहरा या खिलौना बन गई है। देश को बताएँ कि खुर्शीद और अय्यर ने अभी हाल ही में पाकिस्तान जाकर क्या-क्या किया है और क्या-क्या बोला है। डरना है तो अपने मन के आईने से डरें राहुल जिसमें उनको अपना और अपनी पार्टी का वास्तविक चेहरा दिखाई देगा,अपनी अंतरात्मा से डरें जो उनको रात-दिन धिक्कारेगी। मगर इसके लिए तो मन की आँखें भी चाहिए,अन्तरात्मा चाहिए जो कदाचित् उनके पास है ही नहीं। हो सके तो अपनी माँ को भी समझाएँ कि माँ किसी संस्था की महानता के लिए सिर्फ स्वर्णिम इतिहास ही काफी नहीं होता बल्कि उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है निष्कलंक वर्तमान।

रविवार, 15 नवंबर 2015

मोदी सरकार क्या करे क्या न करे

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,एक कहावत है छोटा मुँह बड़ी बात। लेकिन अपना तो स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि हम हमेशा अपने छोटे से मुँह से बड़ी-2 बातें करते रहते हैं। अब जो व्यक्ति इस देश को चला रहा है और दुनियाभर में जिसकी धूम है उसको हम सलाह दें तो जाहिर है ऐसा करना गुस्ताखी ही होगी। लेकिन करें तो क्या करें हमसे देश की बर्बादी नहीं देखी जाती इसलिए एक और गुनाह कर ही डालते हैं। हमारा जो कर्त्तव्य है सो कर लेते हैं बाँकी जानें मोदी जी कि वे हमारी बातों को मानते हैं या नहीं।
मित्रों,हमने मोदी सरकार के गठन के तत्काल बाद ही अपने एक आलेख द्वारा कहा था कि मंत्रिमंडल गठन में कई कमियाँ रह गई हैं। कई अयोग्य और दागी चेहरे भी मंत्री बना दिए गए हैं। यह चाहे सही भी हो कि सचिवों के माध्यम से अच्छा शासन दिया जा सकता है लेकिन जनता के बीच तो मंत्री ही जाएगा। फिर भारत के मतदाताओं का जो चरित्र है उसमें कोई एक व्यक्ति कभी भी सवा अरब लोगों को अकेला प्रभावित नहीं कर सकता।
मित्रों,बिहार के चुनावों ने यह भी साबित कर दिया है कि स्थानीय लोकप्रिय चेहरों का अपना महत्त्व होता है।  लोग मोदी जी रैली में भले ही भारी संख्या में उमड़ें लेकिन वोट तो वे उसी को और उसी के कहने पर देते हैं जिनके साथ वे सहजता से अपनत्त्व स्थापित कर पाते हैं। इसलिए मोदी जी और भाजपा को चाहिए कि सामूहिक नेतृत्व की जिद छोड़कर स्थानीय क्षत्रपों के विकास पर भी ध्यान दें और उनको पनपने के लिए उचित अवसर दें। फिर चाहे पश्चिम बंगाल हो या उत्तर प्रदेश एक सर्वसम्मत तेज-तर्रार ईमानदार चेहरे को चुन लिया जाए और उसके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाए।
मित्रों,हमने बिहार और दिल्ली के चुनावों में देखा कि एक छोटी सी गलती भी कड़े परिश्रम का बंटाधार कर सकती है। क्या आवश्यकता थी लोकसभा चुनावों के बाद प्रशांत किशोर को अलग करने की। मैं यह नहीं कहता कि जो काम प्रशांत किशोर ने बिहार में किया वह केवल वही कर सकते थे। भारत में तेज-तर्रार लोगों की कोई कमी नहीं है। फिर जनसंपर्क कोई ऐसा काम नहीं है जो सिर्फ चुनावों के समय ही करणीय हो। यह तो सतत चलनेवाली प्रक्रिया है। मोदी जी को चाहिए कि 500-1000 ऐसे लोगों की टीम हर समय उनके लिए काम करती रहे जैसे लोगों की टीम प्रशांत किशोर चलाते हैं। देखा गया है कि कई बार पीएम किसी घटना या बयान पर प्रतिक्रिया देने में काफी विलंब कर देते हैं। अगर ऐसी टीम सक्रिय रहेगी तो उनकी ओर से जवाब दे दिया करेगी जिससे देरी होने से होनेवाला नुकसान नहीं हो पाएगा। उदाहरण के लिए मोदी सरकार को बार-2 जोर-शोर से बताना चाहिए था कि सरकार कालाधन विदेशों से लाने की दिशा में काम कर रही है।
मित्रों,काफी दिनों से हम देख रहे हैं कि मोदी जी जब भाषण देते हैं तो इंटरनेट पर वह अक्षरशः उपलब्ध नहीं हो पाता जबकि पहले ऐसा नहीं था। पहले ऑडियो-वीडियो और टेक्स्ट फॉरमेट में उनकी वक्तृता आसानी से उपलब्ध होती थी फिर चाहे वह भाषण विदेशों में ही क्यों न दिया गया हो। अच्छा हो कि इसकी व्यवस्था फिर से की जाए। मुझे ऐसा भी लग रहा है कि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के रूप में अकबरूद्दीन विकास स्वरूप से बेहतर थे और उनके पास संवाद-क्षमता ज्यादा थी। वे तात्कालिक रूप से विदेश दौरों की तस्वीरें और घटनाक्रम को ट्विट करते रहते हैं जो विकास जी नहीं कर पा रहे हैं। 
मित्रों,पिछले कुछ महीनों में भाजपा नेताओं में बकवास करने की एक होड़-सी लगी दिखती है। हमने पीएम को भी मुजफ्फरपुर की रैली के बाद एक आलेख के माध्यम से चेताया था कि उनको डीएनए वाला बयान नहीं देना चाहिए था। गिरिराज सिंह,साक्षी महाराज,आदित्यनाथ आदि तो बराबर बेवजह के बयान दे ही रहे हैं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी इस मामले में किसी से पीछे नहीं हैं। बिहार चुनावों के समय उनका पाकिस्तान वाला बयान जब हमने टीवी पर लाईव देखा तो हमें खुशी नहीं हुई थी बल्कि रंज हुआ था। अभी कल ही उन्होंने चित्रकूट में जो 60 साल वाला बयान दिया है उसकी कोई आवश्यकता थी क्या? मोदी जी तो खुद ही 65 साल के हैं तो क्या श्री शाह उनको भी रिटायर करना चाहते हैं? इसी तरह शाह द्वारा मोदी जी के कालाधन संबंधी बयान को सीधे-सीधे चुनावी जुमला बताना भी सही नहीं था और इसको विपक्ष ने बड़ा मुद्दा बना दिया जिससे जनता के मन में मोदी जी द्वारा किए जा रहे वायदों को लेकर संशय की स्थिति उत्पन्न हो गई। श्री शाह या स्वयं गोदी जी चाहिए था कि वे बताते कि हमने ऐसा कभी नहीं कहा कि हम हर व्यक्ति को 15-15 लाख रुपया देंगे। हाँ हमने ऐसा जरूर कहा था कि हम काला धन को वापस लाएंगे और उसका सदुपयोग देश-निर्माण में करेंगे। 30 अक्तूबर को नरेंद्र मोदी बिहार में हिंदू-मुसलमानों को बाँटनेवाली बातें करते हैं और 31 अक्तूबर तो अचानक एकता-अखंडता का राग आलापने लगते हैं जिससे जनता खुश नहीं होती बल्कि भ्रमित होती है।
मित्रों,यह अच्छा हुआ है कि केंद्र ने सुब्रहमण्यम स्वामी का कोर्ट में साथ नहीं दिया। आज फिर से श्री स्वामी दलाई लामा के बयान का खंडन कर एक बेवजह के विवाद को जन्म दे रहे हैं।
मित्रों,श्री स्वामी मानें या न मानें चुनाव परिणामों से यह बार-बार साबित होता रहा है कि हिंदू मन जन्मना उदार होता है। उसको तालिबानी नहीं बनाया जा सकता। अगर ऐसा करने की कोशिश होगी तो भाजपा को बार-बार बिहार जैसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा। फिर जिस चैनल पर शाह जैसे नेता मुसलमानों के खिलाफ बयान देते हैं,मोदी कहते हैं कि हम आरक्षण में धर्म के आधार पर हिस्सा नहीं लगने देंगे उसी चैनल पर जब अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के लिए ऋण में सब्सिडी का विज्ञापन आता है तो लोग जरूर सोंचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि यह सब क्या है? एक तरफ तो धर्म के आधार पर गरीबों के बीच भेदभाव किया जा रहा है और दूसरी तरफ भेदभाव के खिलाफ बयान भी दिए जा रहे हैं। अच्छा होता कि केंद्र सरकार सभी गरीब बच्चों को एक समान सुविधा देती बिना धार्मिक भेदभाव के या फिर उसके नेता इस तरह के दोहरे मापदंड वाले बयान ही नहीं देते।
मित्रों,कोई माने या न माने बिहार के चुनावों के दौरान अगर किसी एक बयान ने एनडीए का सबसे ज्यादा नुकसान किया तो वो था भागवत जी का आरक्षण-संबंधी बयान। फिर अगर दे ही दिया तो भागवत जी को इसका स्पष्टीकरण दे देना चाहिए था न कि अड़ जाना। मोदी जी संघ को समझा देना होगा कि वो चुनावों के समय बयान देने में सावधानी बरते और अच्छा हो कि अपने को सिर्फ सांस्कृतिक कार्यों तक ही सीमित रखे।
मित्रों,हम देख रहे हैं कि मोदी सरकार ने अब तक लोकपाल की कुर्सी को खाली रखा है। पता नहीं ऐसा क्यों किया जा रहा है लेकिन इसका संदेश जनता के बीच में जरूर गलत जा रहा है कि क्या सरकार कुछ छिपाने की कोशिश कर रही है? अगर पीएम मोदी ताल ठोंककर कह रहे हैं कि उनकी सरकार में एक नये पैसे का भी घोटाला नहीं हुआ है तो फिर भावी लोकपाल से वे भयभीत क्यों हैं? इसलिए जितनी जल्दी हो सके केंद्र में लोकपाल को नियुक्त किया जाना चाहिए। आगे के पश्चिम बंगाल या उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए अगर प्रशांत किशोर एनडीए के लिए काम करने को तैयार हों तो इसके लिए तुरंत प्रयास करना चाहिए अन्यथा उनके जैसे दूसरे रणनीतिकार से संपर्क किया जाना चाहिए। अमित शाह अध्यक्ष के तौर पर फेल हो चुके हैं इसलिए उनको हटाकर राजनाथ सिंह जैसे किसी समझदार व्यक्ति को पार्टी का अध्यक्ष बनाना चाहिए जो न तो बकवास करता हो और न ही बकवास करनेवालों को पसंद ही करता हो। मंत्रिमंडल में भी अविलंब बदलाव किया जाए और योग्य-ईमानदार लोगों को स्थान दिया जाए और अयोग्य लोगों को निकाल-बाहर किया जाए। साथ ही पार्टी में पलते असंतोष को साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर दूर किया जाना चाहिए। जो लोग पुचकारने पर भी नहीं मानें पार्टी के खिलाफ बयान देनेवाले ऐसे लोगों को पार्टी से बाहर कर दिया जाए। जब लालू चार सांसदों में से एक पप्पू यादव को बाहर कर सकते हैं तो भाजपा ऐसा क्यों नहीं कर सकती क्योंकि उनके पार्टी विरोधी बयान पार्टी और पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल को कमजोर करते हैं?
मित्रों,मैं पहले भी मोदी सरकार से अर्ज कर चुका हूँ कि वो किसी भी मुद्दे पर यू टर्न नहीं ले। उदाहरण के लिए भूमि-अधिग्रहण के मुद्दे पर सरकार को जो नुकसान होना था वो हो चुका था फिर पल्टी मारने का कोई मतलब नहीं था। सरकार को चाहिए था कि वो संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर दृढ़तापूर्वक उसको पारित करवाती। साथ ही सरकार को कुछ इस तरह से काम करना चाहिए कि जनता को उसका काम धरातल पर दिखाई दे क्योंकि हमारी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो जीडीपी वगैरह का मतलब ही नहीं जानती।
मित्रों,हमने देखा कि भाजपा ने मिस्ड कौल द्वारा करोड़ों लोगों को अपना सदस्य बनाया। तब कहा गया था कि पार्टी कार्यकर्ता मिस्ड कौल सदस्यों से संपर्क करेंगे और उनसे सदस्यता का फार्म भरवाएंगे। लेकिन ऐसा किया नहीं गया जिससे मिस्ड कौल सदस्यों के मन में पार्टी के प्रति गुस्सा उत्पन्न हुआ। पार्टी को चाहिए कि अबसे भी पूरे देश में महाभियान चलाकर मिस्ट कौल सदस्यों से संपर्क कर फार्म भरवाया जाए। इतना ही नहीं समय-2 पर फोन द्वारा उनसे संपर्क किया जाए,शुभकामनाएँ दी जाए और स्थानीय स्तर पर उनकी बैठक आयोजित की जाए जिसमें वे पार्टी के लिए परामर्श दे सकें। साथ ही उनको पार्टी की तरफ से टास्क दिया जाए।
मित्रों,गाय को लेकर इन दिनों भारी विवाद चल रहा है। कुछ लोग तो स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त गायों के चमड़े से भी चप्पलादि बनाने पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। ऐसा करना उचित नहीं होगा। सरकार को चाहिए कि पूरे भारत में गोवध पर रोक लगा दे। कोई अगर गोवध करता हुआ पकड़ा जाए तो उसको कानून के अनुसार सजा दी जाए न कि भीड़ को पीट-पीटकर उसकी हत्या कर देने की छूट दे दी जाए। गोतस्करों के खिलाफ कड़ाई से पेश आना तो आवश्यक है ही साथ ही ऐसी गाएँ जो अब दुधारू नहीं रह गई हैं के पालन-पोषण की भी व्यवस्था की जाए। महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन तुरंत बंद होना चाहिए क्योंकि भारत का जनमत इसको अच्छा घटनाक्रम नहीं मानेगा और पार्टी को इसका नुकसान ही उठाना पड़ेगा।
मित्रों,बिहार के चुनावों में टिकट बाँटने के समय हमने देखा कि पार्टी ने टिकट बाँटा नहीं बेच दिया। इस तरह के कृत्य शर्मनाक हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं को टिकट वितरण में तरजीह दी जानी चाहिए। साथ ही हर विधानसभा का अलग-अलग बारीकी से विश्लेषण करना चाहिए। कौन टिकटाकांक्षी कितना लोकप्रिय है का गुप्त सर्वेक्षण भी करवाना चाहिए। मतदाताओं से घर-घर जाकर संपर्क करना चाहिए और उनकी समस्याएँ क्या हैं,आकाक्षाएँ क्या है का विस्तृत डाटाबेस बनाना चाहिए। अंत में उनके आधार पर ही पार्टी का घोषणापत्र तैयार किया जाना चाहिए। हो सके तो हर विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र के लिए अलग-2 घोषणापत्र बनाया जाना चाहिए और चुनाव जीतने के बाद उसको लागू भी किया जाना चाहिए।
मित्रों,धारा 370 को हटाने और समान नागरिक संहिता को लागू करना जरूरी तो है लेकिन अभी सरकार के पास ऐसा करने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं है इसलिए इनको ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहने देना चाहिए। जहाँ तक राम मंदिर बनाने का सवाल है तो कोर्ट के निर्णय का इंतजार किया जाना चाहिए। वैसे भी राम को कंकड़-पत्थर के भवनों में नहीं अपने हृदय में बसाने की आवश्यकता है। अगर सबके मन-आत्मा में राम के आदर्शों को बसा दिया जाए तो भौतिक मंदिर की जरुरत ही कहाँ रह जाएगी और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो मंदिर बनाकर भी कौन-सा अलौकिक लाभ हो जाएगा? जय श्रीराम।

सोमवार, 9 नवंबर 2015

बिहार ने चुना विनाश का पथ,विकासवाद को मारी ठोकर

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बिहार के विधानसभा चुनावों के परिणाम अप्रत्याशित रहे हैं। लोग समझ रहे थे कि 2014 के लोकसभा चुनावों की तरह ही बिहार इन चुनावों में भी विकासवाद को चुनेगा और जातिवादी विनाशवाद को हमेशा के लिए लात मार देगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बिहार में 15 साल बाद एक बार फिर से लुम्पेन राजनीति के प्रतीक लालू प्रसाद यादव की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। ऐसा क्यों हुआ,कैसे हुआ और आगे इसके दुष्परिणाम क्या होंगे?
मित्रों,यह तो 2014 के लोकसभा चुनावों के समय से ही स्पष्ट था कि लालू के साथ 18,नीतीश के साथ 18 और कांग्रेस के साथ 9 प्रतिशत वोट बैंक है। चूँकि तब तीनों अलग-अलग लड़े थे इसलिए उनको हराने में भाजपा को ज्यादा मुश्किल नहीं हुई लेकिन इस बार तीनों एकसाथ थे और पूरी ताकत के साथ एकसाथ थे। उन्होंने इस चुनाव में भी कुल मिलाकर 42 प्रतिशत ही वोट प्राप्त किया है जो उनके द्वारा 2014 के लोकसभा चुनावों में प्राप्त मतों के योग से कम ही है।
मित्रों,दूसरी तरफ भाजपा के पास ऐसा कोई बड़ा वोट बैंक नहीं था जो उसे चुनाव जितवाता। कुल मिलाकर पार्टी की सारी उम्मीदें वोटकटवाओं पर लगी हुई थीं जो फेल हो गए। पार्टी ने यद्यपि अकेले साढ़े 24 प्रतिशत मत प्राप्त किया लेकिन इतने मतों से चुनाव तो नहीं जीते जा सकते। उसके सहयोगी दलों के पास जितनी क्षमता थी उतने मत उन्होंने भी प्राप्त किए लेकिन वह भी नाकाफी था। अंत तक दोनों गठबंधनों के बीच 4 प्रतिशत का भारी अंतर रह गया।
मित्रों,जाहिर है कि बिहार ने एक बार फिर से जातीय समीकरण के दायरे में मतदान किया है और भाजपा के विकासवाद के नारे को ठुकरा दिया है। शुरू से ही भाजपा इस बात को समझ रही थी कि बिहार का रण काफी कठिन है फिर भी उसने कई गलतियाँ कीं। भाजपा ने प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार को नीतीश के पाले में चले जाने दिया। टिकट बाँटा नहीं बेच दिया। सूत्रों के अनुसार हाजीपुर से ही पार्टी टिकट के ऐवज में देव कुमार चौरसिया से 2 करोड़ रुपये मांग रही थी जबकि चौरसिया जदयू के जिलाध्यक्ष हैं। टिकट वितरण में विधानसभा क्षेत्रों के जातीय समीकरणों को भी ध्यान में नहीं रखा गया। रही-सही कसर सहयोगी दलों के साथ और सहयोगी दलों के बीच उभरे विवादों ने पूरी कर दी जिससे बिहार की जनता के बीच गलत संदेश गया। साथ ही भागवत पुराण ने अतिपिछड़ी जातियों के मन में शंका पैदा कर दी। केंद्र सरकार के कामों से गरीबों को अबतक सीधा फायदा नहीं हो पाया है जिससे गरीबों ने महागठबंधन को अपना ज्यादा हमदर्द समझा। बड़ी जाति के लोग भी इसी कारण से उदासीन से रहे। पीएम की रैलियों से जो भी लाभ होता उसको नीतीश-लालू ने रैलियों के तुरंत बाद प्रेसवार्ता करके समाप्त कर दिया। इतना ही नहीं बिहार की जनता खासकर महिलाओं ने इसलिए नीतीश को वोट दिया क्योंकि उनकी सरकार ने बच्चों को साइकिल दी थी,छात्रवृत्ति दी थी और महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत का आरक्षण दिया था। नाराज शिक्षकों को भी वेतनमान देकर सरकार ने अपनी ओर कर लिया जो एक बहुत बड़ा वोटबैंक थे।
मित्रों,कुल मिलाकर बिहार की जनता ने साल 2014 को ही दोहराया है। अंतर इतना ही है कि तब तीनों पार्टियाँ अलग-अलग लड़ी थीं और अब एकसाथ थीं। भाजपा को जहाँ तब 22 प्रतिशत वोट मिले थे इस बार साढ़े 24 प्रतिशत मत मिले। इन चुनावों का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव की बिहार की राजनीति में फिर से वापसी हुई है और वो भी सबसे बड़े दल के रूप में। ऐसे में सवाल उठता है कि अब बिहार का आगे क्या होगा? क्या बिहार का विकास होगा या फिर विनाश होगा? जीतने के बाद भी लालू बैकवॉर्ड-फॉरवॉर्ड ही कर रहे हैं जिससे संदेह और भी बढ़ जाता है कि क्या बिहार एक बार फिर से बर्बादी के मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है? इतिहास तो यही बताता है कि लालू जी का विकास के साथ 36 का रिश्ता है। आखिर बिहारियों ने जो बोया है वही तो काटने को मिलेगा। वैसे नीतीश ने भी बिहार को बनाया कम बर्बाद ही ज्यादा किया है।

रविवार, 1 नवंबर 2015

मधुबनी में मोदी ने दी BIHAR की नई परिभाषा

मधुबनी (सं.सू.)। पांचवें चरण के चुनाव प्रचार के लिए मधुबनी पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आते ही एक पर्चा दिखाया। असल में वह पीएम मोदी को कर्पूरीग्राम की कुछ बहनों की ओर से भेजा गया मेमोरेंडम था। उन्होंने नीतीश-लालू पर निशाना साधते हुए कहा, कि इन लोगों ने तंत्र मंत्र के चक्कर में लोकतंत्र का अपमान किया है।

मोदी ने पत्र का जिक्र करते हुए कहा, अब देखिए बिहार का हाल। ये गांव के गरीब लोगों की बिहार में सुनने वाला कोई नहीं, इनको अपनी शिकायत लेकर प्रधानमंत्री के पास आना पड़ा। इनकी शिकायत है कि इनको इनकी जमीन से हटाने पर यहां की सरकार तुली है। उन्होंने वादा किया आठ तारीख के बाद इसका समाधान करने का वादा किया। हालांकि उन्होंने दुख जताया कि शिकायत करने वाले एक भी माताओं बहनों ने हस्ताक्षर करना नहीं आता।

मोदी ने कहा, मुझे दुख है कि माताओं बहनों को हाथ का अंगूठा लगाकर मुझे पत्र भेजना पड़ रहा है, जबकि खुशी होती कि वो अपने हाथ से लिखकर मुझे अपने हस्ताक्षर में भेजा होता। इसके लिए बिहार पर 60 सालों तक शासन करनेवाले नीतीश, लालू और सोनिया जिम्मेदार हैं।


इस अवसर पर मोदी ने बिहार की नई परिभाषा गढते हुए बताया, B यानी ब्रिलियेंट, I यानी इनोवेटिव, H यानी हार्ड वर्किंग, A यानी एक्शन ओरिएंटेड, R यानी रिसोर्सफुल। मोदी ने कहा, मैं जंतर मंतर पर भरोसा नहीं करता हूं, मैं लोकतंत्र भर भरोसा करता हूं। उन्होंने फिर से नीतीश लालू पर निशाना साधते हुए कहा कि ये लोग भी मन से हार गए हैं तो वो बाबा के पास चले गए। इन लोगों ने लोकतंत्र का मजाक बना दिया है।

छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवियों की अवसरवादी भावुकता और बिहार का विधानसभा चुनाव

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,एक चुटकुला आपने भी पढ़ा होगा कि एक महिला के पति का किसी से झगड़ा हो जाता है। जब तक उसका पति दूसरे व्यक्ति को पीटता रहता है तब तक तो महिला खुशी से उछलती रहती है लेकिन जब पतिदेव की पिटाई होने लगती है तो महिला पुलिस को फोन लगा देती है। आप भी कह रहे होंगे कि मैंने आज कितने गंभीर विषय पर लिखने के लिए कलम उठाई है और आपको चुटकुला सुना रहा हूँ। कहीं मैं ललुआ (जैसे लालू जी हर बात को हल्के में लेते हैं) तो नहीं गया हूँ। अगर आप ऐसा सोंच रहे हैं तो गलत सोंच रहे हैं। दरअसल आज भारत के छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धूजीवी  (बुद्धिजीवी) भी वही कर रहे हैं जो इस प्रसिद्ध चुटकुले में उस महिला ने किया था।
मित्रों,जब तक हिंदू संस्कृति पर प्रहार हो रहा था,कश्मीरी पंडितों पर भीषण अत्याचार हो रहा था,सिखों को काटा जा रहा था,हिंदुओं को ट्रेनों में जीवित जलाया जा रहा था,गाजर-मूली की तरह काटकर नहर में फेंका जा रहा था,कानून द्वारा प्रतिबंधित होने बावजूद हिंदुओं के लिए सगी माँ से भी ज्यादा पूज्य गायों को खुलेआम मारकर खाया जा रहा था  तब तक तो ये धूर्त लोग चुप थे और मजा ले रहे थे लेकिन जैसे ही इनको गाय खाने से,काटने से और उसकी तस्करी करने से रोका जाने लगा तो ये बेहाल होने लगे,इनकी मरी हुई आत्मा जीवित हो गई और ये लोग देश की स्थिति खराब होने का रोना रोने लगे अपना सम्मान वापस लौटाने लगे।
मित्रों,जो व्यक्ति दयालु होगा उसका हृदय क्या जाति और धर्म को देखकर द्रवित होगा? जो लोग खुद को अतिसंवेदनशील कहते हैं क्या उनकी संवेदनशीलता सिर्फ चयनित घटना पर मुखर होगी? कदापि नहीं,बल्कि जो सचमुच में संवेदनशील होंगे वे तो एक क्रौंच की हत्या पर भी द्रवित हो उठेंगे और बहेलिये को श्राप दे डालेंगे कि मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शास्वतीसमाः। यत् क्रौंच मिथुनादेकम वधीः काममोहितम्। राजा शिवि ने जब एक कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर के एक-एक अंग को काटकर तराजू पर तौल दिया था तब तो उन्होंने यह नहीं देखा था कि कबूतर उनका सगा नहीं है। भगवान बुद्ध ने जब हंस की या महाराज दिलीप ने जब गाय की प्राण रक्षा की  तब तो उन्होंने अपने-पराये या लाभ-हानि का ख्याल नहीं किया?
मित्रों,लेकिन हमारे छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवी तो ऐसा ही कर रहे हैं। इनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या गला रेतने पर दर्द सिर्फ उनको ही होता है या उनके परिजनों को ही होता है बांकी इंसानों और पशु-पक्षियों को नहीं होता? जरा इनके विरोध की टाईमिंग भी तो देखिए। जब बिहार में विधानसभा चुनाव चल रहा है तब इन घनघोर घड़ियालों ने अपने आँसुओं से हिंद महासागर को और भी नमकीन बनाना शुरू कर दिया है। इन लोगों को लगता है कि बिहार भी दिल्ली है और बिहार की जनता अंधी है जो नहीं देख पा रही है कि दिल्ली के लोग किस प्रकार से अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। खोमचेवाले सड़क किनारे जलेबी नहीं बना सकते,टेंपो और टैक्सी वालों की रोजी-रोटी का सौदा कर दिया गया है,प्याज और चीनी में जबर्दस्त घोटाला हुआ है,सीसीटीवी कैमरे व बसों में महिलारक्षक पुलिस,फ्री वाई-फाई सेवा,फ्री की बिजली-पानी का कहीं अता-पता नहीं है। सफाईकर्मियों जिन्होंने जी-जान से केजरीवाल का साथ दिया था भूखों मर रहे हैं और हड़ताल पर हैं जिससे पूरी दिल्ली साक्षात रौरव नरक बन गई है।
मित्रों,यह तो हमें भी पहले से ही पता था कि छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवी बहुत समय तक शांत तो नहीं बैठेंगे लेकिन बगुला भगत इतनी जल्दी अपनी असलियत पर आ जाएंगे यह हमने भी नहीं सोंचा था। मुक्तिबोध को तो पाखंडियों का वास्तविक चेहरा अंधेरे में दिखा था यहाँ तो चिलचिलाती धूप में अहिंदू,देशद्रोही कथित हिंदुओं के सात घूंघटों वाले चेहरे बेनकाब होते जा रहे हैं। अरे कोई है और भी जो बचा हुआ है अपना कथित सम्मान वापस करने के लिए? आओ भाई जल्दी आओ और अपना मुखड़ा दिखाओ क्योंकि अब बिहार के चुनाव समाप्त होने वाले हैं। वैसे हम आपलोगों को बता दें कि हमें आपके सम्मान वापसी से कोई फर्क नहीं पड़ता दरबारियों हमें तो भारतमाता का खोया हुआ सम्मान वापस प्राप्त करना है। जापान का इतिहास पढ़ो सम्मान लौटानेवाले इतिहासकारों। पढ़ो कि कैसे मेजी पुनर्स्थापना (1868) के 3 दशकों के भीतर ही जापान महाशक्ति बन गया और हम आजादी के 70 साल बाद भी दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब जनसंख्या को धारण करनेवाले देश के निवासी हैं। पढ़ो कि कैसे 20वीं सदी की शुरुआत में साम्राज्यवादियों के लिए बँटवारे का तरबूज रहे चीन ने सबको गरीब बनाने की नकारात्मक साम्यवादी नीति का परित्याग कर सबको अमीर बनाने की अति सकारात्मक नीति का अनुगमन किया और आज दुनिया की दूसरी आर्थिक महाशक्ति बनकर अमेरिका के सामने सीना तानकर खड़ा है। भारत और भारतीयों को भी दुनिया में सबसे आगे निकलना है और भूख और गरीबी को बीता हुआ कल बनाना है। बिहार तो क्या अब भारत का कोई भी हिस्सा तुम्हारी नहीं सुनेगा क्योंकि उसे एक ऐसा नेतृत्व मिल गया है जिसको अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए,जो सिर्फ और सिर्फ देश के लिए जीता है और जाग्रत,उत्तिष्ठ,प्राप्य बरान्निबोधत के वेद वाक्य पर पूरी निष्ठा के साथ अमल करता हुआ देश के लिए दिन-रात अपने पूरे सामर्थ्य से परिश्रम कर रहा है।