मंगलवार, 29 जून 2021

सीखी कहाँ मोदी जू देनी ऐसी देन

मित्रों, इस सत्यकथा से आप भी अपरिचित नहीं होंगे. अकबर के नवरत्नों में से एक थे अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ानाँ जिनको हम रहीम कवि के नाम से भी जानते हैं. रहीम बहुत बड़े कृष्णभक्त तो थे ही बहुत बड़े दानी भी थे. उनका गोस्वामी तुलसीदास से निरंतर संवाद चलता रहता था. तो हुआ यूं कि रहीम जब भी दान करने बैठते तो जैसे-जैसे उनका हाथ ऊपर उठता उनकी आँखें झुकती जातीं. तुलसी को जब मालूम हुआ तो उन्होंने दोहा भेजकर पूछा- सीखी कहाँ नवाबजू देनी ऐसी देन, ज्यों-ज्यों कर ऊँचे उठे त्यों-त्यों नीचे नैन. रहीम कवि भी कम तो थे नहीं सो झटपट उत्तर दिया- देनहार कोई और है देत रहत दिन-रैन, लोग शक मुझ पर करें ता विधि नीचे नैन. मित्रों, अब न तो रहीम रहे और न ही तुलसी, अब तो मोदी जी का राज है और मोदी जी भी कम दानी तो हैं नहीं और दानी भी कैसे रोबिनहुडी. रोबिनहुड अमीरों से लूटकर गरीबों को देता था मोदी जी गरीबों को लूटकर अमीरों में बाँटते हैं. आप तो जानते होंगे कि मैं हवा में बात नहीं करता. हमारे पास आंकड़ों का एक पिटारा होता है. तो अब बात करते हैं आंकड़ों की. 2019 में केंद्र और राज्यों के कुल राजस्व का 65 फीसद हिस्सा खपत पर लगने वाले टैक्स से आया. वह टैक्स जो हर व्यक्ति चुकाता है और जिसके दायरे में सारी चीजें आती हैं. केंद्र की कमाई में इनकम टैक्स का हिस्सा 17 फीसद था. गरीबों के मसीहा मोदी जी के राज में बीते एक दशक (2010 से 2020) के बीच भारतीय परिवारों पर टैक्स का बोझ 60 से बढ़कर 75 फीसद हो गया. इंडिया रेटिंग्स के इस हिसाब में व्यक्तिगत आयकर और जीएसटी शामिल हैं. मसलन, बीते सात साल में पेट्रोल-डीजल से टैक्स संग्रह 700 फीसद बढ़ा है. यह बोझ जीएसटी के आने के बाद बढ़ता गया है जिसे लाने के साथ टैक्स कम होने वादा किया गया था. इस गणना में राज्यों के टैक्स और सरकारी सेवाओं पर लगने वाली फीस शामिल नहीं है. वे भी लगातार बढ़ रहे हैं. मित्रों, अब बात करते हैं कि केंद्र सरकार किस तरह अमीरों पर मेहरबान है. उत्पादन या बिक्री पर लगने वाला टैक्स (जीएसटी) आम लोग चुकाते हैं. कंपनियां इसे कीमत में जोड़कर हमसे वसूल लेती हैं. इसलिए कंपनियों पर टैक्स की गणना उनकी कमाई पर लगने वाले कर (कॉर्पोरेशन टैक्स) से होती है. इंड-रा का अध्ययन बताता है कि 2010 में केंद्र सरकार के प्रति सौ रुपए के राजस्व में कंपनियों से 40 रुपए और आम लोगों से 60 रुपए आते थे. 2020 में कंपनियां केवल 25 रुपए दे रही हैं और आम लोग दे रहे हैं 75 रुपए. याद रहे कि 2018 में कॉर्पोरेट टैक्स में 1.45 लाख करोड़ रुपए की रियायत भी दी गई है. मतलब गरीबों से लो और अमीरों को दो. मित्रों, महान अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केंज ने कहा था कि सरकार अगर चाहे तो बहुत कम समय में बहुत बड़ी आबादी को गरीब बना सकती है. महंगाई हमारे लिए नई नहीं है. कमाई और मांग बढ़ने से आने वाली महंगाई के कुछ समर्थक मिल जाएंगे. यद्यपि मौद्रिक पैमानों पर धन की आपूर्ति से कीमतें बढ़ती हैं लेकिन इस वक्त जब कमाई व कारोबार ध्वस्त है और सस्ता कर्ज सबकी किस्मत में नहीं है तब अगर भारी कराधान से सरकार ही महंगाई थोप रही है तो जरूर यह सरकार गरीबहितैषी नहीं है. यहाँ हम आपको बता दें खाद्य सामान की कीमत एक फीसद बढ़ने से खाने पर खर्च करीब 0.33 लाख करोड़ रुपए (क्रिसिल) बढ़ जाता है. खाद्य महंगाई बीते एक साल में 9.1 फीसद (कोविड पूर्व तीन फीसद पर थी) की दर से बढ़ी है. फल-सब्जी की मौसमी तेजी को अलग रख दें तो भी खाद्य तेल, मसाले, दाल, अंडे की कीमतों ने महंगाई की कुल दर को मीलों पीछे छोड़ दिया है. मित्रों, ऐसा तब हो रहा है जब सीएसओ के अनुसार 2020-21 में प्रति व्यक्ति आय 8,637 रुपए घटी है. सिर्फ निजी और असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी और वेतन कटौती के कारण आय में 16,000 करोड़ रुपए की कमी आई है. जबकि महामारी व महाबेरोजगारी के बीच दवाएं, पेट्रोल-डीजल, खाने के सामान पर टैक्स कम हो सकता था. बचत पर ब्याज दर में कटौती टाली जा सकती थी. भारत में खुदरा महंगाई में एक फीसदी की बढ़त से जिंदगी 1.53 लाख करोड़ रुपए महंगी (क्रिसिल) हो जाती है. एक बरस में खुदरा महंगाई की सरकारी (आधा- अधूरा पैमाना) सालाना दर 6.2 फीसद रही जो 2019 से करीब दो फीसद ज्यादा थी. अब यह 8 फीसद की तरफ बढ़ रही है. इसके चलते 97 फीसद निम्न और मध्यम वर्गीय आबादी एक साल में पहले के मुकाबले गरीब हो गई है. मित्रों, दूसरी तरफ भारत सरकार का पिछले एक दशक का सबसे बड़ा सुधार; बीमार कंपनियों को उबारने के बदले बैंकों का पैसा डूबा रहा है. इतना ही नहीं मोदी इस बहाने अपने चहेतों को जबरदस्त फायदा भी पहुंचा रहे हैं. इस नए निजाम के ताजा फैसले में लगभग 64,883 करोड़ रुपए की कर्जदार वीडियोकॉन के कथित उद्धार को मंजूर कर दिया गया, जिसमें 96 फीसद नुकसान शेयरधारकों और बैंकों को होगा. खरीदने वाले (वेदांता, अनिल अग्रवाल की समूह की कंपनी) को केवल 2,962 करोड़ रु देने होंगे. दूसरी तरफ बैंकों के अर्थात हमारे करीब 42,000 करोड़ रुपए डूबेंगे. ऐसा तब हुआ है जब वीडियोकॉन के मालिक वेणुगोपाल धुत किस्तों में ४५००० करोड़ देने को तैयार थे. जेट एयरवेज के ‘उद्धार’ में भी बैंक समेत लेनदारों को 90 फीसद का नुकसान (कुल बकाया 40,259 करोड़ रु.) होने की संभावना है. दीवान हाउसिंग के मामले में बचत कर्ताओं और बॉन्ड धारकों को 60 से 95 फीसदी तक का नुकसान उठाना पड़ सकता है. बैंकरप्सी की प्रक्रिया के तहत 2017 के बाद कर्ज की वसूली लगातार कम होती (44 से 25 फीसद) चली गई है. सनद रहे कि कोविड आने से पहले ही ‘उद्धार’ की प्रक्रिया बकाया कर्ज के 95 फीसद मुंडन तक पहुंच गई थी. मतलब जो भी दिवालिया कंपनियों को खरीद रहा है उसे जानबूझकर हजारों करोड़ उपहार में दिए जा रहे हैं और बैंकों का ९५ फीसदी तक पैसा डूब जा रहा है. मित्रों, इस आलेख को पढने के बाद अब तक आप यह समझ गए होंगे कि आजादी के बाद से भारत में अमीर और अमीर और गरीब और भी गरीब कैसे और क्यों होते जा रहे हैं फिर यह सरकार तो कथित रूप से चायवाले की सरकार ठहरी. जहाँ सरकार को करों में राहत देकर जनता की जेब में और ज्यादा पैसा डालना चाहिए वहां सरकार बस आम जनता को चायपत्ती समझ कर निचोड़े जा रही है, निचोड़े जा रही है और अपने खासम खास की झोली भरती जा रही है. आखिर मोदी यारों के यार जो ठहरे. वैसे आप चाहे तो महंगाई पर मोदी जी के पुराने भाषणों को फिर से सुन-पढ़ सकते हैं, परम संतोष मिलेगा. मित्रों, अंत में यही कहा जा सकता है कि गरीबों पे सितम, अमीरों पे करम ऐ जानेजहाँ ये जुल्म न कर, ये जुल्म न कर. मर जाएंगे हम तेरे सर की कसम, ऐ जानेजहाँ ये जुल्म न कर. ये जुल्म न कर.

शुक्रवार, 11 जून 2021

बंगाल की अंतर्कथा और राष्ट्रीय परिदृश्य

मित्रों, हुआ यूं कि मेरे गाँव में एक परिवार था. परिवार के सारे सदस्य मिलजुल कर रहते थे. फिर बड़े बेटे की शादी हुई. आंगन के अन्य पट्टीदारों ने सास-ससुर के खिलाफ बड़ी बहू के कान भरने शुरू कर दिए. लेकिन बड़ी बहू समझदार थी इसलिए उनकी दाल नहीं गली. फिर कुछेक साल बाद जब छोटे बेटे की शादी हुई तब उन्होंने फिर छोटी बहू के कान भरने शुरू कर दिए. संयोगवश छोटी थी कान की कच्ची सो उनकी बातों में आ गई. इस प्रकार एक खुशहाल परिवार लड़ाई का अखाडा बन गया. परेशान होकर ससुर और बड़े भाई ने बंटवारा कर दिया. जैसे ही बंटवारा हुआ पट्टीदार छोटे बेटे और बहू को तंग करने लगे. ऐसा लगने लगा जैसे उनको आँगन में रहने ही नहीं देंगे. मित्रों, कुछ ऐसा ही खेल बंगाल में कई दशकों से चल रहा है. पहले साम्यवाद और नक्सलवाद के नाम पर वामपंथियों ने बंगाल के अवर्णों को सवर्णों से अलग कर दिया. फिर बांग्लादेश से ला-लाकर घुसपैठियों को बंगाल में भर दिया और अवर्णों और मुसलमानों का सामाजिक समीकरण बनाकर तीन दशकों तक लगातार बंगाल को कुछ इस तरह से लूटा कि बंगाल बंगाल से कंगाल बन गया. मित्रों, फिर आई ममता जिसमें ममता एक छटांक भी नहीं थी. वो बस नाममात्र की हिन्दू थी. उनके लिए हिन्दू सिर्फ वोट बैंक थे. उधर बंगाल के मुसलमानों की तो जैसे लौटरी ही लग गई थी. कम्युनिस्ट जहाँ खुलकर मुस्लिम तुष्टिकरण करने से बचते थे ममता एक मुसलमान से भी ज्यादा मुसलमान थी. जो रोगी को भावे वही वैद फरमावे. मुसलमान अब खुलकर अपने दारुल इस्लाम के १४०० साल पुराने एजेंडे पर जुट गए. जाहिर था कि चाहे बंगाल हो या पाकिस्तान या बांग्लादेश सवर्ण हिन्दुओं का मुसलमानों से कम ही वास्ता पड़ता है लेकिन बहुत सारे दलित हिन्दू मुसलमानों के रैयत हैं इसलिए वे मुसलमानों के लिए सॉफ्ट टारगेट बन जाते हैं. मित्रों, जिस तरह नक्सलवाद के समय बहुत सारे हिन्दुओं ने मुसलमानों के साथ मिलकर कथित क्रांति के लिए बहुत सारे सवर्ण हिन्दुओं को मार डाला था दुर्भाग्यवश इस समय भी बहुत सारे हिन्दू तृणमूल कांग्रेस के बहकावे में आकर मुसलमानों के साथ मिलकर अपने हिन्दू भाईयों की हत्या कर रहे हैं. विडंबना यह है कि तब भी बंगाल में हिन्दू मारे जा रहे थे और अब भी हिन्दू ही मारे जा रहे हैं. वास्तव में इन दिनों बंगाल में नरभक्षी भेड़ियों का आतंकी राज चल रहा है. मित्रों, अब रही बात भाजपा की तो उसे तो बस राज भोगने और पैसा कमाने से मतलब है. हिंदुत्व वगैरह अटल-आडवाणी के समय जरूर पार्टी का मुख्य लक्ष्य था लेकिन आज की भाजपा के लिए हिंदुत्व सह उत्पाद भर है बाई प्रोडक्ट, मुख्य उत्पाद तो पैसा है. कदाचित यही कारण है कि भाजपा बंगाल में हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार, सामूहिक बलात्कार से आँखें मूंदें है. जब सपा के समय यूपी जल रहा था तब भी मोदी ने कोई कदम नहीं उठाया था इसलिए इस सरकार से तो कोई उम्मीद करना ही बेकार है. मित्रों, तो ये रही बंगाल की अंतर्कथा. लेकिन क्या आप जानते हैं हैं भीम आर्मी के माध्यम से ठीक यही प्रयोग पूरे भारत में करने के प्रयास किए जा रहे हैं? राष्ट्रिय स्तर पर अवर्ण हिन्दुओं को हिन्दुओं की मुख्य धारा से अलग करने के प्रयास किए जा रहे हैं. फिर इस कहानी के अंत में भी वही होगा जो उत्तर प्रदेश के नीरपुर, बिहार के बायसी और हरियाणा के मेवात में हो रहा है. धीरे-धीरे प्रत्येक हिन्दू की बारी आएगी, बचेगा कोई नहीं.