बुधवार, 30 जून 2010

भारत एक विफल राष्ट्र

कवि प्रदीप ने १९५४ में ही भारत के भविष्य के कर्णधारों को सचेत किया था जागृति फिल्म के एक गाने के माध्यम से.गीत के बोल थे हम लायें हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के.परन्तु बच्चों ने देश का साज-संभाल कुछ इस तरह से किया कि गांधी समेत सभी जीवित और मृत स्वतंत्रता सेनानियों की आत्माएं पछता रही होंगी कि उन्होंने क्यों देश को आजाद कराया.संविधान में वर्णित सारे मौलिक अधिकार और आदर्श धरे-के-धरे रह गए.बगुलों ने श्वेत वस्त्र धारण कर हंसों का रूप ग्रहण कर लिया और देश की राजनीति को अपने कब्जे में कर लिया.राजनीति ही देश की समस्त शक्तियों का नियंत्रण करनेवाला यन्त्र है ऐसे में ऊपर-से-नीचे तक ज्यादातर शक्तिशाली पदों पर बगुलों की ही जाति से आनेवाले कौओं ने कब्ज़ा जमा लिया और देश को ही नोंच-नोंच कर खाने लगे.देश की वर्तमान स्थिति पर अगर निष्पक्षता से एक निगाह डालें तो सर्वत्र अराजकता-ही-अराजकता नजर आएगी.पहले शुरू करते हैं देश की आतंरिक शांति-व्यवस्था की स्थिति से.उत्तर में जम्मू और कश्मीर पिछले दो दशकों से सीमापार से संपोषित आतंकवाद की आग में झुलस रहा है.पूर्वोत्तर कभी मुख्यधारा में शामिल ही नहीं हो सका और असम से लेकर मणिपुर तक कहीं भी स्थिति शांतिपूर्ण नहीं है.अभी कुछ ही दिन पहले नगाओं ने मणिपुर जानेवाली सड़कों से होकर आवागमन को रोक दिया था और मणिपुर में भुखमरी जैसी विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई थी.लेकिन विगत एक-दो सालों में देश के समक्ष सबसे बड़ी समस्या बनाकर उभरी है माओवाद की समस्या.इसने तो भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर ही सवालिया निशान लगा दिया है.देश का लगभग आधा हिस्सा माओवादियों के कब्जे में जा चुका है और वहां उनकी समानांतर सत्ता चलती है.इसी तरह पाकिस्तान संपोषित आतंकवाद अब सिर्फ जम्मू-कश्मीर तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि दिल्ली से लेकर बंगलोर तक के पूरे क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा चुका है.इधर कुछ समय से पाकिस्तान ने आतंकवाद से भी ज्यादा गन्दा खेल-खेलना शुरू किया है और वह खेल है भारतीय अर्थव्यवस्था में नकली नोटों की घुसपैठ कराने का खेल.दुखद तो यह है कि हमारे ही भाई-बन्धु कुछ बैंककर्मी/अधिकारी धन के लालच में उनका साथ दे रहे हैं.लोकतंत्र के चारों स्तंभों में भ्रष्टाचार का घुन लग गया है और लोकतंत्र का महल कभी भी धराशायी हो सकता है.न्यायपालिका अपनी लेटलतीफी और भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हो चुका है.कानून गरीबों का दुश्मन और अमीरों की रखैल बनकर रह गया.व्यवस्थापिका में सदस्यों की एक बड़ी संख्या आपराधिक तबके से आती है.कार्यपालिका पूरी तरह अक्षम और भ्रष्ट है.यहाँ तक कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मानी जानेवाली पत्रकारिता भी कार्यपालिका के दबाव और बाजारीकरण व मुनाफाखोरी के प्रभाव में आकर अपने कर्त्तव्य से विमुख हो चुकी है.सरकार इन दिनों अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि-दर पर न्योछावर हुई जा रही है.लेकिन यह विकास किसका हो रहा है?अम्बानियों और मित्तलों का पैसा एक-दो सालों में ही डेढ़ गुना और दो गुना हो जा रहा है.सिर्फ इन दो परिवारों के पास आज लगभग ३ लाख करोड़ रूपये से भी ज्यादा की पूँजी है.क्या गाँव के नुक्कड़ पर पान की छोटी-सी दुकान चलाने वाले राम नारायण या अब्दुल अंसारी का पैसा भी इसी तरह से बढ़ पा रहा है? नहीं, बिलकुल नहीं.उल्टे तेज मुद्रास्फीति के कारण उसकी पूँजी क्षरित हो रही है.किसानों की हालत तो इतनी ख़राब है कि कर्ज के मकडजाल से छुटकारा पाने के लिए प्रत्येक ३ घन्टे में १ किसान मौत को गले लगा रहा है.आजादी के बाद खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए हमने जो भी इंतजाम किये सब लाभ की जगह नुकसानदायक ही सिद्ध हुए हैं.हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जाति और धर्म की राजनीति करनेवाली सरकारों ने परिवार नियोजन जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है और भारत जैसे गरीब देश की जनसंख्या में प्रत्येक वर्ष २ करोड़ से भी ज्यादा नए लोग जुड़ जा रहे हैं.परिणाम यह है कि जितनी तेज गति से हमारी जी.डी.पी. बढती है देश में गरीबों की कुल जनसंख्या भी उसी रफ़्तार में बढ़ जाती है. कुल मिलाकर देश की आतंरिक स्थिति खतरनाक हो चुकी है और दिल्ली के प्रभाववाला शासित क्षेत्र क्रमशः छोटा होता जा रहा है.ईमानदारी सबसे अच्छी की जगह सबसे बुरी नीति बन गई है.लोगों का सरकार,संविधान,कानून और पत्रकारिता पर से विश्वास उठता जा रहा है.हमारे पुलिस और अर्द्धसैनिक बल पैसों के लालच में आकर अपने हथियार और गोलियां माओवादियों और अन्य अपराधियों के हाथों बेच रहे हैं.आतंरिक स्थिति नाजुक होने के साथ ही विदेश नीति के मोर्चे पर भी भारत एक विफल राष्ट्र है.हमारी विदेश नीति अब अमेरिका से संचालित होती है मानों भारत अमेरिका का ५१वाँ राज्य हो.अब कवि प्रदीप इस दुनिया में नहीं हैं.कहाँ तो उन्होंने १९५४ में देश के बच्चों को इस बात को लेकर सचेत किया था कि दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है इसलिए प्रत्येक कदम सोंच-समझकर उठाना और कहाँ देश के शासन-प्रशासन के संचालकों ने देश को ही बारूद के ढेर पर बिठा दिया है.सरदार पटेल ने ५०० से भी अधिक टुकड़ों में बंटे देश को एक बनाया था लेकिन हमारे नीति निर्माता और नीति संचालक अपने-अपने हिस्से के हिंदुस्तान को बेचने में लगे हैं.

मंगलवार, 29 जून 2010

सपनों का पेटेंट

कल का दिन हिमाचल प्रदेश के लोगों के लिए खास दिन था.अवसर था लेह-मनाली मार्ग पर रोहतांग सुरंग के शिलान्यास का.गांधी-नेहरु परिवार की वर्तमान मुखिया सोनिया गांधी ने अपने कर-कमलों द्वारा इस महत्वपूर्ण परियोजना की नींव डालने के बाद अपनी ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा कि यह परियोजना उनके पति स्वर्गीय राजीव गांधी का एक सपना था जिसे उन्होंने पूरा किया.शायद इस सुरंग का नाम भी भविष्य में राजीव गांधी के नाम पर राजीव गांधी सुरंग हो जाए.जब भी कांग्रेस सत्ता में आती है उसे गांधी-नेहरु परिवार के मर चुके लोगों के सपने याद आने लगते हैं और फ़िर उस सड़क,भवन या फ़िर सुरंग आदि का नाम परिवार के किसी मृत व्यक्ति के नाम पर रख दिया जाता है.जवाहर सुरंग, इंदिरा गांधी स्टेडियम वगैरह-वगैरह लाखों उदाहरण हैं.क्या रोहतांग सुरंग सिर्फ राजीव गांधी का ही सपना था?उस इलाके की हरेक आँखों ने यह सपना कभी खुली तो कभी बंद आँखों से नहीं देखा था.कांग्रेस का मानना है कि राजीव जी ने बेशुमार सपने देखे.शायद वे दिन-रात सिर्फ सपने ही देखते रहते थे वरना इतने छोटे से राजनीतिक जीवन वे इतने सारे सपने कैसे देख गए?वैसे भी सपने देखने में कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता.राजीव ने जो सपने देखे हो सकता है वही सपना भैंस चरानेवाले राम खेलावन ने भी देखा हो.लेकिन वे छोटे लोग हैं और छोटे लोगों के पास सिर्फ सपने होते हैं सामर्थ्य नहीं कि जिससे वे अपने सपनों को हकीकत में बदल सकें और उन सपनों को अपना नाम दे सकें जैसा कि कांग्रेस कर रही है.इतिहास के साथ-साथ शिलान्यास और उद्घाटन पट्ट भी इस बात के गवाह हैं कि कांग्रेस के राज में जब भी कोई अच्छा काम होता है तो उसे वे गांधी-नेहरु परिवार के किसी नेता का सपना कहकर उनका नाम दे देती है.वर्तमान सरकार अपने प्रत्येक काम को राजीव गांधी का सपना बताती है यानी यह राजीव गांधी के सपनों के साकार होने का युग है.जब राजीव सत्ता में थे तो वह इंदिरा और जवाहर के सपनों के सच होने का काल था.ऐसा भी नहीं है कि राजीव जी ने सिर्फ अच्छे सपने ही देखे हों लेकिन कांग्रेस उनके बुरे सपनों को बखूबी छिपा लेती है.क्या बोफोर्स घोटाला या एंडरसन को अमेरिका भेजना उनका सपना नहीं था?या फ़िर सिखों का कभी न भुलाया जा सकनेवाला नरसंहार उनका सपना नहीं था या श्रीलंका में शांति सेना भेजना भी तो उन्हीं का सपना था.लेकिन कांग्रेस इन्हें उनका सपना मानने को तैयार नहीं है.यानी चित्त भी उसका और पट्ट भी उसका.वर्तमान काल में कांग्रेस जिस तरह हरेक निर्माण पर राजीव गांधी के नाम का ठप्पा लगाती जा रही है उससे तो ऐसा लगता है मानों भारतीयों की आँखों में तैरने वाले सारे अच्छे सपने सिर्फ राजीव गांधी के सपने हैं.मानों उन सपनों का उन्होंने जैसे पेटेंट करवा लिया था.लोकतंत्र में तानाशाही शासन की तरह की व्यक्ति पूजा को बढ़ावा देना अच्छा नहीं माना जा सकता.लेकिन कांग्रेस को तो आदर-सम्मान और पूजा के लायक एक ही परिवार सूझता है और वो है गांधी-नेहरु परिवार.देश में आज भी ईमानदारों की कमी नहीं है लेकिन किसी निर्माण कार्य को उनका नाम नहीं मिलेगा.फ़िर राजीव गांधी के नाम जितने अच्छे काम दर्ज हैं उससे कहीं ज्यादा उनके नाम बुरे कामों से जुड़े हुए हैं.उनके कई काम तो ऐसे रहे जिनसे देश को भारी क्षति उठानी पड़ी आर्थिक भी और कूटनीतिक या सामरिक भी.फ़िर कैसे इस तरह के व्यक्ति को कांग्रेस जबरन आदरणीय बनाने का प्रयास कर रही है?उनके किस काम से हमारे बच्चे प्रेरणा लें?जनता को धोखा देने और सिखों का कत्लेआम कराने से!

शुक्रवार, 25 जून 2010

लोकतंत्र से राजतन्त्र की ओर जाता भारत

कहने को भारत में प्रजातंत्र है और यहाँ सत्ता वोटिंग मशीनों के द्वारा बदलती है न कि धनबल और बाहुबल के माध्यम से लेकिन स्थितियां वास्तविकता से कोसों दूर हैं.वास्तव में चुनावों में धनबल और बाहुबल का प्रयोग इतना बढ़ गया है कि साधारण आदमी चुनाव जीतने की बात तो दूर चुनाव लड़ने की भी नहीं सोंच सकता.राज्यसभा चुनावों में तो धनबल इतना हावी हो गया है कि यह बुद्धिजीवियों के बदले पूंजीपतियों का सदन बनता जा रहा है.व्यापक सन्दर्भ में अगर देखें तो सच्चाई तो यह है कि देश लोकतंत्र से ही दूर होता जा रहा है और राजतन्त्र की ओर अग्रसर है.कभी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता की सारी हदों को तोड़ते हुए कहा था कि इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया.दुर्भाग्य की बात है कि ३५ साल बाद भी हालात नहीं बदले हैं और केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी नेता मानते हैं कि सोनिया इज इंडिया एंड इंडिया इज सोनिया.तब कांग्रेसी लम्पट संजय गांधी में देश का भविष्य देख रहे थे आज अनुभवहीन और अक्षम राहुल उनकी नज़र में देश का भविष्य हैं.क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं?जनता खुद ही परिवारवाद को बढ़ावा दे रही है.देश में एक-से-एक नेता भरे पड़े हैं फ़िर भी जनता गांधी-नेहरु परिवार को वोट देती है.राजतन्त्र भी इसलिए बुरा था क्योंकि उसमें वंशानुगतता का गुण था.राजतन्त्र में राजा रानी के गर्भ से पैदा होता था अब भी पैदा हो रहा है.राजतन्त्र में राजा सिर्फ एक ही परिवार यानी राजपरिवार से आता था भारतीय लोकतंत्र में भी प्रधानमंत्री सिर्फ एक ही परिवार यानी नेहरु-गांधी परिवार से ही आता है.राजतंत्र में राजा को चाटुकार सामंत घेरे रहते थे फ़िर उन सामंतों के भी छोटे सामंत होते थे.आज भी नेहरु-गांधी परिवार को चाटुकार यानी रीढ़विहीन कांग्रेसी नेता घेरे रहते हैं और दिन-रात राज-काज की चिंता छोड़कर चापलूसी में लगे रहते हैं.वंशानुगतता का यह गुण सिर्फ नेहरु-गांधी परिवार पर ही लागू नहीं होता छोटे कांग्रेसी सामंतों के यहाँ भी उनके बाद उनकी राजनीतिक विरासत को उनके ही घर-परिवार के लोग सँभालते हैं.नवीन जिंदल,जतिन प्रसाद,अभिषेक मनु सिंघवी आदि बहुत से लोग इसके उदाहरण हैं.वंशानुगतता के इस गुण या अवगुण से सिर्फ कांग्रेस ही ग्रस्त हो ऐसा भी नहीं है उत्तर में लालू-मुलायम-रामविलास और दक्षिण में करूणानिधि परिवार अपने-अपने दलों में सर्वेसर्वा हैं.इनकी पार्टी वास्तव में इनके परिवारों की निजी संपत्ति है जिसे इन्होंने जनता को धोखा देने के लिए छद्म लोकतान्त्रिक स्वरुप दे दिया है.सबसे निचले स्तर के सामंतों में राजतंत्रीय गुण अपेक्षाकृत कम होता है क्योंकि निचले स्तर के चुनाव में स्थानीयता की प्रधानता होती है और जनता को भावनाओं के डंडे से हांक ले जाना आसान नहीं होता फ़िर भी कुछ-न-कुछ वंशानुगतता का गुण वहां भी पाया जाता है.एक विश्लेषण के अनुसार देश की पूरी राजनीति का संचालन सिर्फ ५००० परिवार और उससे जुड़े लोग कर रहे हैं.क्या सामंतवाद अथवा राजतन्त्र इससे अलग होता था?इतना ही नहीं तब भी अधिकतर राजाओं और सामंतों का देश और देश की जनता से कोई लेना-देना नहीं होता था और वे भोग-विलास में लगे रहते थे.आज भी कमोबेश वही स्थिति है नेता सुख भोगने और धन अर्जित करने में लगे हैं.यह किस तरह सामंतवाद से अलग है और अगर प्रजातंत्र है तो कैसे है?अंत में मैं कहना चाहूँगा कि इन परिस्थितियों के लिए सिर्फ नेता ही दोषी नहीं हैं उनसे ज्यादा दोषी जनता है.जहाँ राजतन्त्र में यथा राजा तथा प्रजा का नियम लागू होता था प्रजातंत्र में यथा प्रजा तथा राजा का नियम लागू होता है.अंततः नेताओं को चुनते तो हम मतदाता ही हैं.हम क्यों लालच में आकर अयोग्य उम्मीदवारों को वोट देते हैं और फ़िर पॉँच सालों तक रोते रहते हैं?पॉँच साल बाद फ़िर से वही गलती दोहराते हैं और फ़िर से पॉँच साल तक अरण्य-रोदन.यह हमारे ही हाथों में है कि देश में वास्तविक प्रजातंत्र कैसे आये और देश पर से चंद परिवारों और धनबलियों व बाहुबलियों का  राज कैसे समाप्त हो.फ़िर हम क्यों नहीं अपने स्वार्थ में मतदान करने के बदले देशहित को ध्यान में  रखते हुए मतदान करते हैं?

रविवार, 20 जून 2010

चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों


६० का दशक हिंदी फिल्मों के इतिहास में अपने खूबसूरत गानों और कर्णप्रिय संगीत के लिए जाना जाता है.इसी दशक में एक फिल्म आई थी गुमराह.इस फिल्म में एक इज्ज़तदार घराने की बहू की ज़िन्दगी में उसका पुराना प्रेमी दोबारा आ धमकता है.संयोग से उसकी अपनी पूर्व प्रेमिका के पति से मित्रता हो जाती है और वह पूर्व प्रेमिका के घर पर भोजन के लिए निमंत्रित किया जाता है .जहाँ जिद किये जाने पर वह यह गाना सुनाता है.फिल्म में तो गाने की सिचुएशन एक ही बार की बन पाई लेकिन हमारे देश की राजनीति में इस गाने की सिचुएशन बार-बार बन रही है.कारण है राजनीतिक दलों और नेताओं का अवसरवादी रवैय्या.कुर्सी के लिए बेमेल गठबंधन किये जा रहे हैं.आश्चर्य की बात है कि इस गाने की सिचुएशन सबसे ज्यादा उस पार्टी के साथ बन रही है जो अपने को पार्टी विथ डिफ़रेंस कहती है.जी,हाँ मैं बात कर रहा हूँ भाजपा की.सबसे पहले उसने कई साल पहले उत्तर प्रदेश में मायावती से हाथ मिलाया.एकदम बेमेल गठबंधन.एक दल दलितवादी और एक हिंदूवादी.गठबंधन कुछ महीने से ज्यादा नहीं चल पाया और दोनों दल एक बार फ़िर अजनबी बन गए.अभी कुछ दिन पहले झारखण्ड में भी इस दल की गठबंधन सरकार टूटी है.शिबू सोरेन ने लोकसभा में यू.पी.ए. के पक्ष में वोट दल दिया.ऐसे में यह स्वाभाविक था कि भाजपा नाराज होती.नाराज भाजपा ने झारखण्ड सरकार से समर्थन वापस ले लिया.लेकिन इसी बीच सोरेन ने उसके सामने मुख्यमंत्री की कुर्सी का टुकड़ा फेंक दिया.भाजपा एक महीने तक एक बहुत ही सम्मानित जानवर जिसका नाम लेकर उसके अध्यक्ष कुछ ही महीने पहले विवादों में फंस गए थे की तरह टुकड़े के पीछे लार टपकती दौड़ती रही.अंततः एक महीने बाद थक कर बैठ गई और फ़िर शिबू के लिए यही गाना गाने लगी.अब बिहार और झारखण्ड ठहरे जुड़वाँ भाई भले ही दोनों भाइयों के बीच ज़माने के चलन के अनुसार बंटवारा हो गया हो सो झारखण्ड को जैसे ही अस्थिरता की बीमारी लगी बिहार भी इस रोग से प्रभावित होने लगा.बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश को पहले से ही ग़लतफ़हमी की बीमारी है.बीमारी क्या है कि लालू-राबड़ी जब इस आवास में रहते थे तो उन्होंने गाय-भैंस पाल रखी थी.नीतीश जी को जानवर पालना पसंद नहीं था सो ग़लतफ़हमी पाल ली. वे समझते हैं कि बिहार की सरकार सिर्फ उनकी बदौलत काम कर रही है.बांकी कोई कुछ नहीं कर रहा.सो जीवन-साथी भाजपा से लड़ बैठे.जाने आगे बिहार की राजनीति क्या करवट ले.लेकिन लक्षण अच्छे नहीं हैं और यहाँ भी यह गाना गाया जा सकता है.अब दो का झगड़ा होगा तो फायदा तो तीसरे ही उठाएंगे सो लालू और पासवान ताक लगाये बैठे हैं कब उनके कानों में यह गाना गूंजना शुरू होता है.कुछ लोग बीच-बचाव में भी लगे हैं तो शिवानन्द तिवारी जैसे घरतोड़क आग में किरासन डालने में भी लगे हैं.तिवारीजी का रिकार्ड रहा है कि इन्होंने जिसकी पीठ पर भी हाथ फेरी वो बर्बाद हो गया है.पहले ये लालू की पीठ पर हाथ फेर चुके हैं.देखना है कि बिहार में एन.डी.ए. का सफलतापूर्वक चल रहा गठबंधन आगे चल पता है कि नहीं और कब हमें यह गाना सुनने को मिलता है.नीतीश ने तो गाना शुरू भी कर दिया है भाजपा कब तक गाना गाने से बचेगी?शायद इसी बात पर बिहार का भविष्य भी निर्भर करेगा.

शुक्रवार, 18 जून 2010

रूको नहीं तुम बढ़ते जाओ

 रूको नहीं तुम बढ़ते जाओ,
उत्तुंग शिखर पर चढ़ते जाओ.

आयेंगे अभी कई चौराहे,
बंद गली वाली कई रहें;
खोजो राह या राह बनाओ
रूको नहीं तुम बढ़ते जाओ,
उत्तुंग शिखर पर चढ़ते जाओ.

जीवन है यह अति संक्षिप्त,
रहो सदा कर्त्तव्य में लिप्त;
जिनका नहीं कोई संगी-साथी
उनको मित्र तुम मित्र बनाओ
रूको नहीं तुम बढ़ते जाओ,
उत्तुंग शिखर पर चढ़ते जाओ.

बुधवार, 16 जून 2010

कटघरे में न्याय


अपराधियों को कटघरे में खड़ा करने वाली न्याय-प्रणाली इन दिनों हमारे देश में खुद ही कटघरे में है.पहले विश्व इतिहास की सबसे भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस दुर्घटना मामले में और उसके बाद बहुचर्चित कुडको हत्याकांड में आये फैसलों ने हमारी न्याय-प्रणाली पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है.भोपाल दुर्घटना ने पूरे एक शहर को तबाह कर दिया था.फ़िर भी न्यायालय ने निर्णय देने में २४ साल लगा दिए.इन चौबीस सालों में पहले तो हमारे राजनेताओं ने मुख्य अभियुक्त एंडरसन को अमेरिका भगा दिया और बाद में भी हम उसे न्याय के कटघरे में खड़ा नहीं कर पाए.जो अभियुक्त उपस्थित थे उन्हें भी मात्र दो साल की सजा मिल पाई.आगे वे जब उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में जायेंगे तो अगर सजा कम या निरस्त नहीं हुई तब जाकर उन्हें दो साल के लिए जेल भेजा जा सकेगा.इस प्रक्रिया में भी शायद एक और दशक लग जाए.इतना ही नहीं इस मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट ने मुक़दमे की धारा बदलने का आदेश दिया जिससे सजा १० साल के बदले साल ही मिल पाई.जब भी किसी बड़े आदमी से जुड़े मामले उच्च या उच्चतम न्यायालय में लाये जाते हैं तो हमेशा उन्हें राहत मिल जाती है.आखिर क्या रहस्य है इसका?क्या वहां भी पैसों का लेन-देन करके फैसले नहीं लिए जाते?दिनाकरन जैसे जजों को भ्रष्टाचार सिद्ध हो जाने पर भी हटाया नहीं जा सकता क्योंकि हमारे संविधान में उन्हें हटाने का सिर्फ एक ही रास्ता बताया गया है और वह महाअभियोग का मार्ग जो इतना कठिन है कि आज तक किसी को इस तरीके से हटाया ही नहीं जा सका है.क्या संविधान में संशोधन नहीं किया जाना चाहिए और ऐसा प्रावधान नहीं किया जाना चाहिए जिससे भ्रष्ट जजों को हटाना असंभव रह जाए?हमारी न्याय प्रक्रिया बहुत ही उलझाऊ है.औसतन एक मुकदमें के निपटारे में १५ साल लग जा रहा है.लम्बा समय लगने के कारण न्याय पाना काफी खर्चीला भी है जिसका बोझ कोई गरीब या निम्न मध्यवर्गीय परिवार नहीं उठा सकता.ऐसे में न्यायपालिका की विश्वसनीयता ही खतरे में है.झारखण्ड के बहुचर्चित कुडको हत्याकांड में कल ३६ साल बाद शिबू शोरेन को साक्ष्य के  अभाव में बरी कर दिया गया.जब इतने लम्बे समय तक मुकदमा चलेगा तो तो गवाह ही जीवित रहेंगे ही पीड़ित.कभी-कभी तो निर्णय आने तक सभी अभियुक्त भी परलोक सिधार चुके होते हैं.इस तरह तो शायद कसाब जैसा अपराधी भी बरी हो जाए.क्या अर्थ है ऐसे न्याय का?क्या औचित्य है न्यायालय और कानून का और क्या मतलब है लोकतंत्र का?कभी-कभी तो देखने में आता है कि किसी कर्मचारी को ७५० रूपये के लिए न्याय पाने में २०-२५ साल लग गए.इतने सालों बाद वह ७५० रूपये लेकर भी क्या करेगा?क्या मिलेगा अब इतने पैसे में?इतना ही नहीं भारत दुनिया का ऐसा एकमात्र देश है जहाँ न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं?यानी उम्मीदवार ही उम्मीदवार को चुनता है.सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की गलत व्याख्या करके यह अधिकार जबरन अधिकृत कर लिया है.कुल मिलाकर न्यायपालिका में और न्यायप्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है और इस काम विलम्ब की अब कोई गुंजाईश नहीं रह गई है.साथ ही आवश्यकता है इस तरह की व्यवस्था करने की जिससे उद्योगों पर समुचित निगरानी रखी जा सके और ऐसी व्यवस्था करने की जिससे पुलिस जैसी जाँच एजेसियाँ सही तरीके से अपना काम करें.हमारा पूरा तंत्र सड़-गल गया है और पूरे देश को भ्रष्टाचार की दीमक चट करती जा रही है.भ्रष्टाचार को पूरी तरह से रोकने के लिए भ्रष्टाचार से सम्बंधित कानून को सख्त बनाना होगा और यह सुनिश्चित भी करना होगा कि उन्हें समय पर समुचित दंड मिल सके.जब कानून का पालन ही संभव नहीं तो ऐसे कानून के होने या न होने का क्या मतलब?देश में निरंतर आक्रामक तरीके से बढ़ रहे भ्रष्टाचार के बारे में निदा फाजली ने क्या खूब कहा है-हाथ में नक्शा लेकर था बच्चा हैरान,चट कर गई दीमक कैसे उसका हिंदुस्तान.

सोमवार, 14 जून 2010

जाकी रही भावना जैसी सत्ता मूरत देखी तिन तैसी


इस पंक्ति  के रचयिता तुलसीदास जी का दूर-दूर तक सत्ता से कोई लेना-देना नहीं था.शायद इसलिए उन्होंने इस पंक्ति को राम के सन्दर्भ में लिखा था.वैसे यह पंक्ति राम और उनके भक्तों तथा अभक्तों के बारे में आज भी उतनी ही सही है जितनी मध्यकाल में थी लेकिन उससे भी ज्यादा यह सत्ता और उसके भक्तों पर सटीक बैठती है.समय बदला,युग ने करवट ली.अब राम को कोई नहीं पूछता सब-के-सब सत्ता की उपासना में लगे हैं.सत्ता ही अब भगवान है और राम वास्तविक सत्ता होते हुए भी व्यावहारिक सत्ता नहीं हैं.सत्ता के सारे भक्तों के लिए सत्ता को परिभाषित करने के अलग-अलग आधार हैं.मायावती जी के लिए यह माया जोड़ने और रूपयों की माला पहनने का साधन है.लालू के लिए सत्ता अफसरों से खैनी चुनवाने, अनपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री बनवाने और घोटालों पर नए-नए शोध करने का माध्यम है.नरेन्द्र मोदी के लिए सत्ता का अर्थ है सड़कों पर पहले खून बहवाना और बाद में तेज आर्थिक विकास करना.सत्ता को लेकर सबसे मौलिक सोंच रखते हैं हमारे प्रधानमंत्रीजी.त्रेता में भरत ने राम की अनुपस्थिति में उनकी चरणपादुका को गद्दी पर रखकर और उसका प्रतिनिधि बनकर अयोध्या पर शासन किया था ठीक उसी तरह मनमोहन जी भी वंशवाद के ध्वजवाहक युवराज राहुल के लिए शासन कर रहे हैं.उनके लिए सत्ता का मतलब है छाया शासन.बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए सत्ता थोक में झूठा शिलान्यास करना और राज्य के हरेक गाँव में,प्रखंडों में,विद्यालयों में और जिला/राज्य कार्यालयों में घोटालेबाजों की फ़ौज तैयार करने का नाम है.इतना ही नहीं उनके लिए पहले सूचना के अधिकार के क्रियान्वयन के नाम पर वाहवाही लूटना और बाद में इस अधिकार के पर क़तर देना भी सत्ता है.उधर करूणानिधि के लिए परिवारवाद ही सत्ता है और शरद पवार के लिए महंगाई कम करने के नाम पर उसे और भी बढ़ा देना सत्ता है.पवार साहब के लिए आई.पी.एल. में मुफ्त की हिस्सेदारी भी सत्ता की परिभाषा के दायरे में आता है.कुल मिलाकर हरि के हजार नाम की तरह सत्ता के भक्तों के लिए भी सत्ता के बहुत से नाम हैं,बहुत से रूप हैं लेकिन इस भगवान का सबसे ज्यादा प्रभाववाला नाम और रूप है प्रधानमंत्री बन जाना.यह बड़े ही दुःख की बात है कि कहीं भी विधिवत इस सर्वशक्तिमान का मंदिर नहीं है लेकिन संतोष की बात यह है कि हर कोई फ़िर भी सत्ता की उपासना में ही लगा है.सत्ता ही आज का सबसे बड़ा सत्य है.सत्ता ही समस्त गतिविधियों का आधार है.सत्ता के लिए समीकरण बिठाना पड़ता है,समीकरण हल करने पड़ते हैं.आम नागरिक भी इससे नहीं बच पाता.हर किसी की महत्वाकांक्षाएं भी अलग-अलग होती हैं.कोई घर में सत्ता स्थापित कर ही संतुष्ट हो लेता है तो कोई एक बार पी.एम. बनकर भी संतुष्ट नहीं होता और दोबारा बनने के चक्कर में लगा रहता है.सत्ता भी माया है और माया से कौन बचा है-माया महाठगनी हम जानी-------कबीर तो इसे ५०० साल पहले ही समझ गए थे.सत्ता है तो सबकुछ है और सत्ता छिन गई तो आपकी कीमत कुछ भी नहीं.अब देखिये न सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति मिखाईल गोर्वाच्योव जिनसे एक समय अमेरिका भी डरता था,को सड़क पर किसी ने एक थप्पड़ जमा दिया और वे कुछ नहीं कर सके सिवाय गाल सहलाते रहने के.सत्ता हाथ से निकाल जाने पर यही होता है.इसलिए आईये हम सब भी सत्ता प्राप्ति का प्रयास करें निर्विघ्न सत्ता की प्राप्ति का.अपने मतलब और अपनी परिभाषा वाली सत्ता को प्राप्त करने का जिससे हमारा जीवन भी सार्थक हो सके.साथ ही हम ऐसा इंतजाम भी कर लेने होगा  कि जिससे सत्ता आये तो जाए नहीं ताकि हमें गोर्वाच्योब की तरह कोई थप्पड़ न मार पाए.

गुरुवार, 10 जून 2010

भोपाल कांड पर श्वेत-पत्र जारी करे केंद्र

७ जून २०१० यूं तो एक तारीख भर है लेकिन यह तारीख सिर्फ तारीख नहीं रह गई है और बन गई है भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर लगा बदनुमा दाग जिसे अब किसी भी उपाय से नहीं छुड़ाया जा सकेगा.२६ साल के लम्बे इंतजार के बाद प्रत्यक्ष तौर पर १५ हजार और अप्रत्यक्ष रूप से एक लाख से भी ज्यादा भोपालवासियों की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों को भोपाल की निचली अदालत ने सिर्फ दो साल की सजा सुनाई.इतने लम्बे समय से न्याय के लिए लड़ रहे परिजनों को खो चुके और दुर्घटना में विकलांग हो चुके लोगों को आख़िरकार न्याय नहीं मिल सका.केंद्र सरकार ने फ़िर से एक कमिटी बना दी है जो पूरे मामले पर विचार करेगी.वैसे भी यह सरकार कमिटी सरकार है जो देश का शासन-प्रशासन चलाने के बदले सिर्फ कमिटी बना रही है.मुद्दा सामने आने पर कमिटी बना दी और मामले को भूल गए.लेकिन वो कहते हैं न कि राजनीति में मुद्दे और मुर्दे मरकर भी नहीं मरते और मौका मिलते ही सच उगलने लगते हैं.भोपाल गैस दुर्घटना के मुर्दे भी जीवित होने लगे हैं.इनमें से पहला मुर्दा हैं  भोपाल का तत्कालीन डी.एम. मोती सिंह और उनके द्वारा उगला गया सच कांग्रेस के गले की हड्डी बनता जा रहा  है.जनता भी सच सामने आने के बाद सन्नाटे में है.वह सच यह है कि यूनियन कारबाईड के अध्यक्ष एंडरसन चोरी छुपे भारत से अमेरिका नहीं भागा था बल्कि मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने खुद उसकी जमानत और दिल्ली प्रस्थान की व्यवस्था की थी.कितना घिनौना सच है कि जिसकी लापरवाही ने पूरे एक शहर को तबाह कर दिया सरकार उसे गिरफ्तार करने के बदले भागने के लिए सुविधा उपलब्ध करा रही थी लेकिन यह सच पूरा सच नहीं है क्योंकि सच तो उस बर्फ की शिला के समान होती है जिसका सिर्फ दसवां हिस्सा ही पानी के बाहर होता है और बांकी पानी के भीतर ढंका रहता है.भारतीय जनता के मन में कई तरह के संदेह उठने लगे हैं.यह एक तथ्य है कि ७ दिसंबर 1984 को जिस दिन या यह कहना ज्यादा सही होगा कि जिस काल-खंड में एंडरसन भागा राजीव गांधी भारत में सर्वशक्तिमान की स्थिति में थे और अर्जुन सिंह उनके सिपहसलार मात्र थे, हुक्म के गुलाम से ज्यादा कुछ भी नहीं.यह उनके बस की बात नहीं थी कि वे एंडरसन जैसी बड़ी हस्ती को भगा दें.फ़िर एंडरसन दिल्ली आया और आज तक के पास मौजूद क्लिप्स के अनुसार वह संसद भवन के पास किसी दफ्तर में भी गया.ऐसे में यह संदेह भी उत्पन्न होता है कि क्या उसने बड़े नेताओं और हुक्मरानों से बातचीत भी की.उसके बाद वह संसद भवन के पास से गाड़ी में बैठकर हवाई अड्डे की ओर लिए रवाना हो गया.बिना केंद्र सरकार की सहमति या मर्जी के वह कैसे बाकायदा हवाई जहाज से अमेरिका के लिए रवाना हो सकता है.किसी भी क्लिप में उसके चहरे पर अपराध-बोध तो क्या उदासी तक के भाव भी नहीं हैं.भागते समय वह इतना खुश क्यों था?अगर उसने नेताओं से बातचीत की तो  क्या बात हुई थी उसकी?कहीं पैसों का सौदा तो नहीं हुआ था?सुप्रीम कोर्ट ने किन दशाओं में मुकदमे की धाराएँ बदल दी.जज घूसखोर तो नहीं था या फ़िर उस पर केंद्र सरकार का कोई दबाव तो नहीं था?1989 की वी.पी. सिंह की सरकार भी क्या पैसों पर बिक गई थी जिसने बहुत कम मुआवजे पर यूनियन कार्बाईड के साथ समझौता कर लिया?२६ सालों में केंद्र में रही विभिन्न सरकारों ने एंडरसन को भारत लाने के लिए क्या किया?सवाल बहुत से हैं जो जनता के मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं और जिनका जवाब सिर्फ केंद्र सरकार दे सकती है.वैसे भी केंद्र में १९८४ की तरह ही अभी कांग्रेस की सरकार है और उसे मामले पर पड़ी धुंध को हटाने के लिए अविलम्ब श्वेत-पत्र जारी करना चाहिए जिससे पूरा सच सामने आ सके और जनता का लोकतंत्र और सरकार में विश्वास और भी पुख्ता हो.केंद्र को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सच को छुपाने से जनता का भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास कमजोर होगा जो कहीं से भी देशहित में नहीं होगा.

सोमवार, 7 जून 2010

कहाँ आ गए हम कहाँ जा रहे थे

हमारे देश की अर्थव्यवस्था विकास की पटरी पर सरपट भाग रही है.टी.वी. और डी.वी.डी. अन्य कई वस्तुओं के साथ आधुनिक जीवन शैली का पर्याय बन गई हैं.शायद ही कोई ऐसा घर हो जहाँ इन्होंने अपना सम्मानजनक स्थान न बना लिया हो.लेकिन कल महाराष्ट्र के ऐतिहासिक शहर नांदेड में लोग इन्हें घरों से निकाल-बाहर करते देखे गए.देखते-देखते चौराहा टूटे-फूटे टी.वी. और डी.वी.डी. के सेटों से पट गया.लोगों का कहना था कि इनदोनों की वजह से उनका जीना मुहाल हो गया है.बच्चे बिगड़ने लगे हैं और पढाई-लिखाई करना भूलने लगे हैं.ऐसी घटनाएँ पश्चिमी देशों में अक्सर घटती रहती हैं लेकिन भारत में शायद इस तरह की यह पहली घटना है.आधुनिक तकनीकी विकास ने एक ओर जहाँ हमारे जीवन को आसान बनाया है वहीँ इसने कुछ इस तरह की स्थितियां उत्पन्न कर दी है कि धरती पर मानव के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है.कुछ लोग कह सकते हैं कि इसमें इन वस्तुओं का क्या कसूर?इनका उपयोग करना तो मानव के हाथों में ही है.वह चाहे इसका सदुपयोग करे या दुरुपयोग.लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि एक तो अधिकांश मनुष्यों का मानसिक स्तर इतना ऊंचा नहीं होता कि वे इनका विवेकपूर्ण उपयोग कर सके वहीँ दूसरी ओर कोई भी आराम की ज़िन्दगी को त्यागना नहीं चाहता.फ़िर बच्चों का कहना ही क्या उन्हें तो बस आनंद चाहिए चाहे वो टी.वी. देखने से आये या फ़िर वीडियो गेम खेलने से.हमें अक्सर इस तरह की ख़बरें पढने और देखने-सुनने को मिल जाती हैं कि कोई बच्चा लगातार इतनी देर तक गेम खेलता रहा कि उसकी मौत ही हो गई.बच्चों को जैसे वीडियो गेम खेलने का नशा हो जा रहा है. इस विषय में दुनिया के विभिन्न देशों में कराये गए अलग-अलग सर्वेक्षणों का निष्कर्ष बस एक है कि जो बच्चे जितना ज्यादा टी.वी. देखते हैं और जितना ज्यादा समय गेम खेलने में गुजारते हैं वे पढाई में उतने ही बुद्धू होते हैं.शायद इसलिए टी.वी. को बुद्धू बॉक्स भी कहा जाता है. माना कि टी.वी., डी.वी.डी. और मोबाइल आदि हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन चुके हैं लेकिन इनका दुष्प्रभाव इनसे होनेवाले फायदों से काफी ज्यादा है.स्थिति ऋणात्मक असंतुलन की है.मोबाइल से होनेवाली हानियाँ तो खतरनाक भी हैं.अलबर्ट आईन्स्तिन ने मौन तपस्वी मधुमक्खियों के बारे में कहा था कि इनके धरती से समाप्त होने के कुछ ही मिनटों के भीतर धरती से मानव का नामोनिशान भी मिट जायेगा.लेकिन उन्होंने यह नहीं सोंचा होगा कि ऐसी स्थिति इतनी जल्दी आ जाएगी. मधुमक्खियों का अस्तित्व आज मोबाइल टावरों से निकलनेवाली रेडियो तरंगों के कारण खतरे में  है.मानव पर इन तरंगों के असर का समुचित अध्ययन होना अभी बांकी है लेकिन इसने मधुमक्खियों के साथ-साथ पक्षियों पर भी असर डालना शुरू कर दिया है और उनके अंडे पतले होने शुरू हो गए हैं.लगता है कि अगली बारी उन्ही की है.ऐसे में किस तरह इस बात पर विश्वास किया जाए कि इन तरंगों का मानव शरीर और मस्तिष्क पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ रहा होगा?हम किस तरफ जा रहे हैं?कृषि के आधुनिकीकरण ने पहले ही हमारी जमीन को ऊसर बनाकर रख दिया है.जल के परंपरागत संरक्षण के साधनों की सरकारी और निजी उपेक्षा के चलते भारत के अधिकांश इलाकों में भूमिगत जल खतरनाक स्तर तक पहुँच गया है.खेती पर तो संकट के बदल मंडरा ही रहे हैं पीने के पानी की भी कमी होनेवाली है.वैसे भी कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग से पानी पहले ही जहरीला हो चुका है.पशुओं से दूध दूहने के लिए लगनेवाले ईन्जेक्शन के चलते प्राकृतिक सफाई कर्मी कहलानेवाले गिद्ध अब लुप्तप्राय प्राणियों की श्रेणी में आ चुके हैं.उद्योगों ने हमारी स्वच्छ और पवित्र नदियों को गंदे नालों में बदलकर रख दिया है. क्या हम विकास के इस अंधे रास्ते पर कुछेक कदम वापस नहीं लौट सकते?मैं जानता हूँ कि कुछ लोग कहेंगे कि विकास की गाड़ी में रिवर्स गियर नहीं होता.उनकी बात कहीं से भी सही नहीं है.सबकुछ हमारे हाथों में है.हमें रिवर्स गियर लगाना ही पड़ेगा अन्यथा धरती से हमारा अस्तित्व  ही समाप्त हो जाएगा और समाप्त न भी हो तो जीवन कठिन तो हो ही जायेगा.वैसे भी प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था एक-न-एक दिन पूर्ण सांद्रता की स्थिति में पहुँचती है.शायद यूरोप और अमेरिका में ऐसी स्थिति आ भी चुकी है.कहीं-न-कहीं जाकर हमारी औद्योगिक प्रगति भी रूकेगी ही?अगर पर्यावरणीय परिवर्तन और मानसून की यही दशा रही तो सबसे पहले तो बहुत जल्दी अगले कुछेक सालों में ही हमारे सामने खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने वाला है और इसके लिए जिम्मेदार होगा हमारा कथित विकास.कोई ज्यादा साल नहीं,यही कोई ४०-५०  साल हुए जब भारत में इन आधुनिक साधनों का कोई अता-पता तक नहीं था.क्या तब हमारा जीवन आज से ज्यादा सुखी नहीं था?क्या आवश्यकता है हमें पश्चिमी अर्थव्यवस्था और जीवन-शैली की नक़ल करने की? क्या हम भावी मानवता के हित में आधुनिक जीवन-शैली और आधुनिक कृषि का परित्याग कर फ़िर से पुरानी जीवन-शैली नहीं अपना सकते?इन्सान के लिए पूरी तरह असंभव कुछ नहीं होता.अब हमें निर्णय लेना ही होगा.टालने का समय समाप्त हो चुका है.हमें बहुत जल्द निर्णय लेना होगा कि हम अपनी आगे आनेवाली पीढ़ी को कैसी जिंदगी विरासत में देना चाहते हैं?मधुमक्खियों की गुंजार और पक्षियों के कलरव और स्वच्छ जल और वायु से युक्त जीवन या फ़िर वास्तव में जीवन से रहित जीवन.अब यह हम पर निर्भर है कि हम स्वेच्छा से जीवन शैली बदलते हैं या फ़िर प्रकृति के हाथों बाध्य होकर इसके अलावे तीसरा विकल्प भी है जो हमें महाविनाश की ओर ले जायेगा.

शुक्रवार, 4 जून 2010

माओवाद समर्थक बुद्धिजीवियों से चंद सवाल

कल मशहूर लेखिका अरुंधती राय ने माओवादियों का समर्थन करते हुए बयान दिया है कि उन्हें सरकार चाहे जेल में ही क्यों न डाल दे वे माओवादी हिंसा का समर्थन नहीं छोड़ेंगी.अरुंधती भारत में पैदा होनेवाली अकेली माओ नहीं हैं गांधी के इस देश में और भी कई माओ हैं.माओवादी हिंसा में चाहे उग्रवादी मारे जाएँ या फ़िर सुरक्षा बल का कोई जवान या फ़िर कोई आम आदमी मरेगा तो कोई भारतीय ही.हिंसा स्वयं एक समस्या है इसलिए यह कभी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती.हिंसक घटनाओं में सिर्फ एक आदमी नहीं मरता वास्तव में उसके साथ में मरते हैं उसके परिवार के सभी सदस्य भी, मरते हैं बच्चों के सपने और बूढों का बुढ़ापा भी.लेकिन इन छद्म साम्यवादियों को इससे क्या लेना-देना?इनका कोई अपना थोड़े ही झारखण्ड या छत्तीसगढ़ के जंगलों में विचारधारा की बन्दूक लिए भटक रहा है.एक मैनेजर पाण्डे को छोड़कर इन्होंने इस हिंसा-प्रतिहिंसा में कुछ भी नहीं खोया है.इनमें से कई बुद्धिजीवियों के बच्चे तो कथित पूंजीवादी देशों में पढ़ या नौकरी भी कर रहे हैं.पूंजीवादी डॉलर या पौंड तो इन्हें तहेदिल से कबूल है लेकिन पूंजीवाद इन्हें मौखिक रूप से ही सही पसंद नहीं है.स्वयं अरुधती को पूंजीवाद के जनक ब्रिटेन द्वारा दिया गया बुकर पुरस्कार बेहद भाया और यही वह पुरस्कार था जिसने उनकी पहचान भी बनाई वरना उन्हें कौन जानता था?क्या अरुंधती कभी गईं हैं जंगलों में माओवादियों की तरफ से बदूक चलाने या अपने परिवार के किसी सदस्य को भेजा है इस कथित वर्ग-संघर्ष में भाग लेने के लिए?शायद नहीं.मरेंगे तो गरीब आदिवासी.जिनके कन्धों पर किताबों का बस्ता होना चाहिए वे कंधे कच्ची उम्र में ही बन्दूक ढो रहे हैं और हत्या करना सीख रहे हैं.उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि सेना और अर्धसैनिक बल के जवान भी गरीब परिवारों से आते हैं.भला अमीर घरों के बच्चे क्यों ५-१० हजार की मामूली रकम के लिए अपने प्राण संकट में डालेंगे.कल अगर जिसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं है माओवादी युद्ध जीत भी जाते हैं तो उनकी स्थिति वही होगी जो युधिष्ठिर की महाभारत के युद्ध के बाद थी.चारों तरफ जो लाशें बिखरी पड़ी होंगी वे किसी गैर की नहीं होगी बल्कि अपनों की होगी.विचारधारा के नाम पर करोड़ों का क़त्ल करवाकर लेलिन-स्टालिन या फ़िर माओ ने क्या पा लिया?क्या उनके मन को शांति मिल गई?पूरी दुनिया को वे तलवार के बल पर साम्यवादी बना सके?कदापि नहीं.क्योंकि हिंसा से कुछ प्राप्त नहीं होनेवाला सिवाय दुःख के.सम्राट अशोक ने महसूस किया था इस दुःख को और बन गया था बौद्ध.क्यों सोविएत संघ ढह गया और रूस को पूंजीवाद की ओर मुड़ना पड़ा.माओ के चीन में क्या हो रहा है?मजदूरों को कम वेतन पर काम करने के लिए जबरन बाध्य किया जा रहा है जिससे वहां निर्मित होनेवाली वस्तुएं वैश्विक बाजार में सस्ती और स्पर्धी बनी रहे.हिम्मत है तो अरुंधती जी माओ के देश जाकर मजदूरों के सरकारी शोषण का विरोध करें.नहीं जा सकतीं क्योंकि वहां लोकतंत्र नहीं है बल्कि तानाशाही है.जिस तरह की बचकानी बातें वे भारत में कर रही हैं अगर माओ के देश में करतीं तो कब की फांसी पर चढ़ा दी गई होतीं या फ़िर गोली से उड़ा दी गई होतीं.अरुन्धतिजी लोकतंत्र आज ही नहीं बल्कि सभी कालों में सबसे बेहतर शासन प्रणाली थी और है.यह घोषणा मैं किसी साधारण स्थान से नहीं अपितु वैशाली की उस पवित्र धरती से कर रहा हूँ जहाँ के बारे में हर कालखंड में कवि कहते रहे है-वैशाली जन का प्रतिपादक गण का आदि विधाता;जिसे पूजता विश्व आज है उस प्रजातंत्र की माता.फ़िर भी मैं अरुंधती जी के साहस की प्रशंसा करता हूँ.वे साहसी तो हैं हीं लेकिन उनका साहस विध्वंसात्मक है दुर्योधन,माओ,लेलिन,स्टालिन और हिटलर की तरह का न कि गांधी की तरह निर्माणात्मक.मैं सभी माओ या माओवादसमर्थक बुद्धिजीवियों से विनम्र निवेदन करता हूँ कि अगर वे किसी भी तरह से भारत सरकार या भारतीय गणतंत्र की किसी भी राज्य सरकार से अगर वेतन-पेंशन सहित किसी भी तरह का लाभ ले रहे हैं तो इसका तुरंत परित्याग कर दे क्योंकि जब वे भारतीय लोकतंत्र और संविधान में ही विश्वास नहीं रखते या विश्वास नहीं रखनेवालों का समर्थन करते हैं तो उनका सरकार से लाभ प्राप्त करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं बनता.साथ ही मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने कितनी बार किसी मुद्दे पर गांधी की तरह सत्याग्रह किया है या फ़िर अनशन पर बैठे हैं.अगर उन्होंने ऐसा प्रयोग करके देखा ही नहीं है तब फ़िर उन्हें यह कहने का अधिकार किसने दे दिया कि आज की परिस्थितियों में गांधीवाद सफल विकल्प नहीं है?हिंसा न तो श्रीलंका में सफल हुई है और न ही अफगानिस्तान में और न ही दुनिया के किसी अन्य हिस्से में.भारत में भी हिंसक तत्वों को शर्तिया मुंह की खानी पड़ेगी.यह सार्वकालिक और शाश्वत सत्य है कि साध्य या परिणाम तभी पवित्र और अच्छा फल देनेवाला होता है जब साधन पवित्र हो.अंत में अरुन्धतिजी सहित सभी अतिवादी बुद्धिजीवियों को मेरा सुझाव है कि वे अहिंसक आन्दोलन छेड़ें और व्यापक पैमाने पर छेड़ें जिसमें गुमराह और हिंसा में विश्वास रखनेवाले तत्व भी शामिल हों क्योंकि मैं भी मानता हूँ कि हमारे लोकतंत्र में कई कमियां हैं जिन्हें दूर करने की जरूरत है.