बुधवार, 30 जून 2010
भारत एक विफल राष्ट्र
कवि प्रदीप ने १९५४ में ही भारत के भविष्य के कर्णधारों को सचेत किया था जागृति फिल्म के एक गाने के माध्यम से.गीत के बोल थे हम लायें हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के.परन्तु बच्चों ने देश का साज-संभाल कुछ इस तरह से किया कि गांधी समेत सभी जीवित और मृत स्वतंत्रता सेनानियों की आत्माएं पछता रही होंगी कि उन्होंने क्यों देश को आजाद कराया.संविधान में वर्णित सारे मौलिक अधिकार और आदर्श धरे-के-धरे रह गए.बगुलों ने श्वेत वस्त्र धारण कर हंसों का रूप ग्रहण कर लिया और देश की राजनीति को अपने कब्जे में कर लिया.राजनीति ही देश की समस्त शक्तियों का नियंत्रण करनेवाला यन्त्र है ऐसे में ऊपर-से-नीचे तक ज्यादातर शक्तिशाली पदों पर बगुलों की ही जाति से आनेवाले कौओं ने कब्ज़ा जमा लिया और देश को ही नोंच-नोंच कर खाने लगे.देश की वर्तमान स्थिति पर अगर निष्पक्षता से एक निगाह डालें तो सर्वत्र अराजकता-ही-अराजकता नजर आएगी.पहले शुरू करते हैं देश की आतंरिक शांति-व्यवस्था की स्थिति से.उत्तर में जम्मू और कश्मीर पिछले दो दशकों से सीमापार से संपोषित आतंकवाद की आग में झुलस रहा है.पूर्वोत्तर कभी मुख्यधारा में शामिल ही नहीं हो सका और असम से लेकर मणिपुर तक कहीं भी स्थिति शांतिपूर्ण नहीं है.अभी कुछ ही दिन पहले नगाओं ने मणिपुर जानेवाली सड़कों से होकर आवागमन को रोक दिया था और मणिपुर में भुखमरी जैसी विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई थी.लेकिन विगत एक-दो सालों में देश के समक्ष सबसे बड़ी समस्या बनाकर उभरी है माओवाद की समस्या.इसने तो भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर ही सवालिया निशान लगा दिया है.देश का लगभग आधा हिस्सा माओवादियों के कब्जे में जा चुका है और वहां उनकी समानांतर सत्ता चलती है.इसी तरह पाकिस्तान संपोषित आतंकवाद अब सिर्फ जम्मू-कश्मीर तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि दिल्ली से लेकर बंगलोर तक के पूरे क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा चुका है.इधर कुछ समय से पाकिस्तान ने आतंकवाद से भी ज्यादा गन्दा खेल-खेलना शुरू किया है और वह खेल है भारतीय अर्थव्यवस्था में नकली नोटों की घुसपैठ कराने का खेल.दुखद तो यह है कि हमारे ही भाई-बन्धु कुछ बैंककर्मी/अधिकारी धन के लालच में उनका साथ दे रहे हैं.लोकतंत्र के चारों स्तंभों में भ्रष्टाचार का घुन लग गया है और लोकतंत्र का महल कभी भी धराशायी हो सकता है.न्यायपालिका अपनी लेटलतीफी और भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हो चुका है.कानून गरीबों का दुश्मन और अमीरों की रखैल बनकर रह गया.व्यवस्थापिका में सदस्यों की एक बड़ी संख्या आपराधिक तबके से आती है.कार्यपालिका पूरी तरह अक्षम और भ्रष्ट है.यहाँ तक कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मानी जानेवाली पत्रकारिता भी कार्यपालिका के दबाव और बाजारीकरण व मुनाफाखोरी के प्रभाव में आकर अपने कर्त्तव्य से विमुख हो चुकी है.सरकार इन दिनों अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि-दर पर न्योछावर हुई जा रही है.लेकिन यह विकास किसका हो रहा है?अम्बानियों और मित्तलों का पैसा एक-दो सालों में ही डेढ़ गुना और दो गुना हो जा रहा है.सिर्फ इन दो परिवारों के पास आज लगभग ३ लाख करोड़ रूपये से भी ज्यादा की पूँजी है.क्या गाँव के नुक्कड़ पर पान की छोटी-सी दुकान चलाने वाले राम नारायण या अब्दुल अंसारी का पैसा भी इसी तरह से बढ़ पा रहा है? नहीं, बिलकुल नहीं.उल्टे तेज मुद्रास्फीति के कारण उसकी पूँजी क्षरित हो रही है.किसानों की हालत तो इतनी ख़राब है कि कर्ज के मकडजाल से छुटकारा पाने के लिए प्रत्येक ३ घन्टे में १ किसान मौत को गले लगा रहा है.आजादी के बाद खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए हमने जो भी इंतजाम किये सब लाभ की जगह नुकसानदायक ही सिद्ध हुए हैं.हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जाति और धर्म की राजनीति करनेवाली सरकारों ने परिवार नियोजन जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है और भारत जैसे गरीब देश की जनसंख्या में प्रत्येक वर्ष २ करोड़ से भी ज्यादा नए लोग जुड़ जा रहे हैं.परिणाम यह है कि जितनी तेज गति से हमारी जी.डी.पी. बढती है देश में गरीबों की कुल जनसंख्या भी उसी रफ़्तार में बढ़ जाती है. कुल मिलाकर देश की आतंरिक स्थिति खतरनाक हो चुकी है और दिल्ली के प्रभाववाला शासित क्षेत्र क्रमशः छोटा होता जा रहा है.ईमानदारी सबसे अच्छी की जगह सबसे बुरी नीति बन गई है.लोगों का सरकार,संविधान,कानून और पत्रकारिता पर से विश्वास उठता जा रहा है.हमारे पुलिस और अर्द्धसैनिक बल पैसों के लालच में आकर अपने हथियार और गोलियां माओवादियों और अन्य अपराधियों के हाथों बेच रहे हैं.आतंरिक स्थिति नाजुक होने के साथ ही विदेश नीति के मोर्चे पर भी भारत एक विफल राष्ट्र है.हमारी विदेश नीति अब अमेरिका से संचालित होती है मानों भारत अमेरिका का ५१वाँ राज्य हो.अब कवि प्रदीप इस दुनिया में नहीं हैं.कहाँ तो उन्होंने १९५४ में देश के बच्चों को इस बात को लेकर सचेत किया था कि दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है इसलिए प्रत्येक कदम सोंच-समझकर उठाना और कहाँ देश के शासन-प्रशासन के संचालकों ने देश को ही बारूद के ढेर पर बिठा दिया है.सरदार पटेल ने ५०० से भी अधिक टुकड़ों में बंटे देश को एक बनाया था लेकिन हमारे नीति निर्माता और नीति संचालक अपने-अपने हिस्से के हिंदुस्तान को बेचने में लगे हैं.
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1 टिप्पणी:
aapka kahna aksharshah sahi hai.
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