शुक्रवार, 25 जून 2010
लोकतंत्र से राजतन्त्र की ओर जाता भारत
कहने को भारत में प्रजातंत्र है और यहाँ सत्ता वोटिंग मशीनों के द्वारा बदलती है न कि धनबल और बाहुबल के माध्यम से लेकिन स्थितियां वास्तविकता से कोसों दूर हैं.वास्तव में चुनावों में धनबल और बाहुबल का प्रयोग इतना बढ़ गया है कि साधारण आदमी चुनाव जीतने की बात तो दूर चुनाव लड़ने की भी नहीं सोंच सकता.राज्यसभा चुनावों में तो धनबल इतना हावी हो गया है कि यह बुद्धिजीवियों के बदले पूंजीपतियों का सदन बनता जा रहा है.व्यापक सन्दर्भ में अगर देखें तो सच्चाई तो यह है कि देश लोकतंत्र से ही दूर होता जा रहा है और राजतन्त्र की ओर अग्रसर है.कभी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता की सारी हदों को तोड़ते हुए कहा था कि इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया.दुर्भाग्य की बात है कि ३५ साल बाद भी हालात नहीं बदले हैं और केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी नेता मानते हैं कि सोनिया इज इंडिया एंड इंडिया इज सोनिया.तब कांग्रेसी लम्पट संजय गांधी में देश का भविष्य देख रहे थे आज अनुभवहीन और अक्षम राहुल उनकी नज़र में देश का भविष्य हैं.क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं?जनता खुद ही परिवारवाद को बढ़ावा दे रही है.देश में एक-से-एक नेता भरे पड़े हैं फ़िर भी जनता गांधी-नेहरु परिवार को वोट देती है.राजतन्त्र भी इसलिए बुरा था क्योंकि उसमें वंशानुगतता का गुण था.राजतन्त्र में राजा रानी के गर्भ से पैदा होता था अब भी पैदा हो रहा है.राजतन्त्र में राजा सिर्फ एक ही परिवार यानी राजपरिवार से आता था भारतीय लोकतंत्र में भी प्रधानमंत्री सिर्फ एक ही परिवार यानी नेहरु-गांधी परिवार से ही आता है.राजतंत्र में राजा को चाटुकार सामंत घेरे रहते थे फ़िर उन सामंतों के भी छोटे सामंत होते थे.आज भी नेहरु-गांधी परिवार को चाटुकार यानी रीढ़विहीन कांग्रेसी नेता घेरे रहते हैं और दिन-रात राज-काज की चिंता छोड़कर चापलूसी में लगे रहते हैं.वंशानुगतता का यह गुण सिर्फ नेहरु-गांधी परिवार पर ही लागू नहीं होता छोटे कांग्रेसी सामंतों के यहाँ भी उनके बाद उनकी राजनीतिक विरासत को उनके ही घर-परिवार के लोग सँभालते हैं.नवीन जिंदल,जतिन प्रसाद,अभिषेक मनु सिंघवी आदि बहुत से लोग इसके उदाहरण हैं.वंशानुगतता के इस गुण या अवगुण से सिर्फ कांग्रेस ही ग्रस्त हो ऐसा भी नहीं है उत्तर में लालू-मुलायम-रामविलास और दक्षिण में करूणानिधि परिवार अपने-अपने दलों में सर्वेसर्वा हैं.इनकी पार्टी वास्तव में इनके परिवारों की निजी संपत्ति है जिसे इन्होंने जनता को धोखा देने के लिए छद्म लोकतान्त्रिक स्वरुप दे दिया है.सबसे निचले स्तर के सामंतों में राजतंत्रीय गुण अपेक्षाकृत कम होता है क्योंकि निचले स्तर के चुनाव में स्थानीयता की प्रधानता होती है और जनता को भावनाओं के डंडे से हांक ले जाना आसान नहीं होता फ़िर भी कुछ-न-कुछ वंशानुगतता का गुण वहां भी पाया जाता है.एक विश्लेषण के अनुसार देश की पूरी राजनीति का संचालन सिर्फ ५००० परिवार और उससे जुड़े लोग कर रहे हैं.क्या सामंतवाद अथवा राजतन्त्र इससे अलग होता था?इतना ही नहीं तब भी अधिकतर राजाओं और सामंतों का देश और देश की जनता से कोई लेना-देना नहीं होता था और वे भोग-विलास में लगे रहते थे.आज भी कमोबेश वही स्थिति है नेता सुख भोगने और धन अर्जित करने में लगे हैं.यह किस तरह सामंतवाद से अलग है और अगर प्रजातंत्र है तो कैसे है?अंत में मैं कहना चाहूँगा कि इन परिस्थितियों के लिए सिर्फ नेता ही दोषी नहीं हैं उनसे ज्यादा दोषी जनता है.जहाँ राजतन्त्र में यथा राजा तथा प्रजा का नियम लागू होता था प्रजातंत्र में यथा प्रजा तथा राजा का नियम लागू होता है.अंततः नेताओं को चुनते तो हम मतदाता ही हैं.हम क्यों लालच में आकर अयोग्य उम्मीदवारों को वोट देते हैं और फ़िर पॉँच सालों तक रोते रहते हैं?पॉँच साल बाद फ़िर से वही गलती दोहराते हैं और फ़िर से पॉँच साल तक अरण्य-रोदन.यह हमारे ही हाथों में है कि देश में वास्तविक प्रजातंत्र कैसे आये और देश पर से चंद परिवारों और धनबलियों व बाहुबलियों का राज कैसे समाप्त हो.फ़िर हम क्यों नहीं अपने स्वार्थ में मतदान करने के बदले देशहित को ध्यान में रखते हुए मतदान करते हैं?
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