शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

मुँह का कब्ज और डायरिया अर्थात् मनमोहन और दिग्विजय

मित्रों,इस दुनिया में यूँ तो लोगों के वर्गीकरण के कई आधार हो सकते हैं। उनमें से ही एक के अनुसार इस दुनिया में इस समय दो तरह के लोग रहते हैं-एक जो बहुत ज्यादा बोलते हैं और दिन-रात बेवजह भूँकते रहते हैं और दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग आते हैं जो इतना कम बोलते हैं कि कभी-कभी तो खुदा के फजल से बंदों को ऐसा भी गुमाँ हो जाता है कि उसके मुँह में किबला जुबान है भी कि नहीं। इनमें से पहली जमात की रहनुमाई इन दिनों कर रहे हैं मध्य प्रदेश के पूर्व वजीरे आला,जब बोले तो गड़बड़झाला,ऊपर से नीचे तक माशाअल्लाह जहर का हाला,बकवासे आजम श्री दिग्विजय सिंह और दूसरी जमात के रहनुमा हैं चुप्पा सम्राट,घोटाला-पुरूष,यंत्र-मानव,कृत्रिम बुद्धि के पारावार,सोनिया गाँधी के प्रिय (कु)पात्र,अनर्थशास्त्र के परम-विद्वान,सल्तनते भ्रष्टाचार (हिंद) के मौजूदा वजीरे आजम श्री मनमोहन सिंह।
                मित्रों,इनमें से एक कहता है कि चाहे मुझे कितना भी छेड़ लो,कितनी भी गुदगुदी कर लो,कैसे भी आरोप लगा लो मैं तो बोलूंगा ही नहीं,मुँह खोलूंगा ही नहीं। जनाब फरमाते हैं कि उनकी चुप्पी के चलते ही हम जनता के सवालों की इज्जत-आबरू बची हुई है,अन्यथा ईधर उन्होंने मुँह खोला नहीं कि हमारे सवालों का बलात्कार ही हुआ समझिए। माना कि कभी-कभी चुप रहना बेहतर होता है लेकिन कोई हमेशा चुप ही रहे तो इसे गुण नहीं बल्कि अवगुण ही माना जाना चाहिए और फिर राजनीति तो वकालत की तरह बोलनेवालों का ही पेशा है। जनाब को जब चुप ही रहना था तो क्यों बने भारत के प्रधानमंत्री,किसके कहने पर बने,हमने तो नहीं कहा था? मान लीजिए आप एक अधिवक्ता हैं और कोई आलतू-फालतू-सा मुकदमा लड़ रहे हैं फिर भी आप जज से ऐसा तो नहीं कह सकते कि मैं तो चुप ही रहूंगा,मैं तो बोलूंगा ही नहीं। फिर तो आपसे जज यही कहेगा न कि मेरे बाप जब आपको चुप ही रहना था तो आप वकील बने ही क्यूँ? आपसे मैंने तो नहीं कहा था कि आप इसी पेशे में आईए। आपके बिना इस क्षेत्र में सुखाड़ की स्थिति तो नहीं थी कि आप आए और बहारें आईं। इतना सुनाने के बाद वह जज आपको बाईज्जत बाहर निकाल देगा।
           मित्रों,राजनीति कोई खाला का घर नहीं है कि कोई भी आकर कोई भी पद ग्रहण कर ले। राजनीति में जज होती है जनता और वकील होते हैं सत्ता पक्ष और विपक्ष। भारत में सत्ता पक्ष का नेतृत्वकर्ता होता है प्रधानमंत्री। तो हम भी लगे हाथों पूछ ही लेते हैं कि श्री मनमोहन सिंह जी से कि जब चुप्पी ही साधे रखनी थी तो रिटायरमेंट की इस नाजुक उम्र में घर में ही रहते राजनीति में क्यों आए? अच्छा होता घर में खाट पर पड़े-पड़े चुपचाप ताईजी की डाँट-फटकार सुनते रहते। यहाँ तो ताऊ घोटाले आप करेंगे तो जवाब भी आपको ही देना पड़ेगा। यहाँ तक कि ताईजी भी जवाब नहीं दे सकतीं। फिर दिग्विजय सिंह कौन होते हैं जवाब देनेवाले? क्या वे कोयला घोटाला होने के समय कोयला मंत्री थे या किसी तरह इस कुकर्म में मुलब्बिस थे? अगर नहीं तो फिर क्यों जनाब बेगाना शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन रहे हैं। खुदा कसम दीवाने तो हमने भी कम नहीं देखे हैं लेकिन शौकिया दीवाना पहली बार देखा है। फटा देखा नहीं कि डाल दिया पाँव और एक नहीं दोनों। अभी तक तो भारत के लोगों को जब कभी-कभी डायरिया होता था तो उनको दस्त होते थे और जाहिर है कि डायरिया पेट में होता था मगर जनाब को तो बारहों मास मुँह का डायरिया हुआ रहता है।
                    मित्रों, काफी लंबी चुप्पी के बाद राघोगढ़ के साहिबे आलम ने अपना गंदा मुँह खोला है और जनाब जनाब ने मुँह क्या खोला है जमकर उल्टी की है। गंध मचा दिया है एकदम। जनाब ने सीधे-सीधे उस संवैधानिक संस्था के ऊपर निहायत बेहूदा और बेसिर-पैर के आरोप लगाए हैं जिसको कभी संविधान निर्माता डॉ. अंबेदकर ने भारत के सरकारी खजाने का पहरेदार कहा था। जनाब शायद यह चाहते हैं कि उनकी पार्टी की सरकार रोज-रोज घोटाले करती रहे और सीएजी इस ओर से आँखें मूँदे ले और अपना संवैधानिक जिम्मेदारी का पालन नहीं करे। हम उनसे पूछते हैं कि उनकी पार्टी की सरकार ऐसे गुनाह करती ही क्यों है जिससे सीएजी को उसकी कान पकड़ने और विपक्ष को उमेठने का मौका मिलता है? क्यों उनकी पार्टी की सरकार हमेशा साँप की तरह टेढ़े-मेढ़े रास्ते से चलती है? क्यों वह सीधी राह पर नहीं चलती? क्या जनाब दिग्विजय सिंह अन्तर्यामी हैं? क्या उनको यह पता चल जाता है कि कौन,कब,क्या सोंच रहा होता है? देश में कौन हत्या की योजना बना रहा है,कौन बलात्कार करनेवाला है या कौन बम फोड़ने की सोंच रहा है? अगर ऐसा है तो फिर उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी ही क्यों पड़ी? क्यों वे मुख्यमंत्री रहते हुए मध्य प्रदेश की जनता के मन को नहीं पढ़ सके? वैसे भी यह एक भविष्यगत प्रश्न है कि भारत के वर्तमान सीएजी श्री विनोद राय रिटायर होने के बाद क्या करेंगे? वे घर में बैठकर नाती-पोतों को गुलाटी खिलाएंगे या फिर चनाचूड़ का व्यवसाय करेंगे या फिर राजनीति करेंगे। उन्होंने अभी तक तो एक बार भी नहीं कहा कि उनकी राजनीति में अभिरुचि भी है। क्या बिना किसी प्रमाण के एक अतिमहत्त्वपूर्ण संवैधानिक संस्था पर बदबूदार कीचड़ उछालने से संविधान और संसद का सम्मान बढ़ता है? जब यही काम टीम अन्ना कर रही थी तब तो बतौर दिग्विजय ऐसा नहीं हो रहा था। वैसे दिग्विजय जी तो इस समय राजनीति में ऐसी अंधी गली आ फंसे हैं कि कम-से-कम उनको तो मान या अपमान से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन देश और देश की जनता को तो संवैधानिक संस्था के अपमान से फर्क पड़ता है। क्या विडंबना है कि जिसे बोलना चाहिए वह चुप है और जिसके शब्दों से H2S गैस की तरह दुर्गन्ध आती है वह बस बोले ही जा रहा है,बस बोले ही जा रहा है। कोई है ऐसा जाबाँज,ऐसा हुनरमंद जिसके पास मनमोहन की जुबान पर लगे ताले की चाबी हो ताकि उसी ताले को खोलकर दिग्विजय की जुबान पर जड़ दिया जाए और चाबी को आमेजन दरिया में फेंक दिया जाए।   
             

बुधवार, 29 अगस्त 2012

बलात्कार की नई राजधानी बनता बिहार

मित्रों,अभी तक जिस तरह की घटनाएँ दिल्ली और मुम्बई में ही ज्यादा देखने को मिलती थी न जाने कैसे और क्यों अब बिहार में भी देखने को मिल रही हैं। बिहार में पिछले कुछ महीनों से महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। अगर आपके साथ कोई स्त्री है और आप बिहार की राजधानी पटना की सड़कों पर चहलकदमी कर रहे हैं तो सचेत रहिए आपके साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है। अभी कल ही पटना के आलमगंज थाना क्षेत्र में बोलेरो पर सवार 7 लोगों ने अपने मामा और भाई के साथ मोटरसाइकिल से जा रही नाबालिग लड़की का अपहरण कर लिया। पटना में चलती कार में उठाई गई लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के कई मामले पहले भी सामने आ चुके हैं। कल ही एक अन्य घटना में किऊल जंक्शन के प्लेटफॉर्म न. 5 पर खड़ी ट्रेन में ही 3 फटेहाल मनचलों ने छत्तीसगढ़ की एक लड़की की ईज्जत को तार-तार कर दिया। इसी तरह परसों भागलपुर के मेही आश्रम में दो साध्वी बहनों के साथ आश्रम के ही साधुओं ने ही सामूहिक दुष्कर्म की घटना को अंजाम दे दिया।
             मित्रों,ऐसी घटनाएँ बिहार में इन दिनों रोज-रोज ही घट रही हैं इसलिए इस आलेख में मैं कितने का जिक्र करूँ? क्या घर और क्या बाहर महिलाएँ कहीं भी सुरक्षित नहीं रह गई हैं। एक घटना में तो इसी 22 अगस्त को गया जिले में एक महिला जो वार्ड सदस्य भी है को पैसे के लालच में स्वयं उसके बेटे ने ही अपने चचेरे भाइयों के साथ मिलकर बाल काटकर और नंगा करके गांव में घुमा दिया। अब इससे ज्यादा जघन्य अपराध और क्या हो सकता है? क्या अमीर क्या गरीब,क्या अगड़े और क्या पिछड़े हरेक वर्ग के लोग महिला प्रताड़ना की घटनाओं में शामिल पाए जा रहे हैं। महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव लोगों के मन से ही विलुप्त होता जा रहा है। न जाने कैसा उन्माद हरेक इन्सान के दिलो-दिमाग पर तारी होता जा रहा है?
               मित्रों,ऐसा क्यों हो रहा है न सरकार समझ पा रही है और न ही प्रशासन ही समझ पा रहा है। कानून का डंडा हरगिज नहीं रोक सकता ऐसी घटनाओं को। अगर ऐसा होना होता तो रोजाना के अखबार इस तरह की जघन्य घटनाओं की खबरों से भरे पड़े नहीं होते। खोट कानून में नहीं है अलबत्ता कानून लागू करनेवालों में जरूर कमी है। आखिर वे भी तो इसी समाज से आते हैं। लेकिन सबसे बड़ी गिरावट जो पिछले 20-25 सालों में आई है वह है हमारी सोंच में और सबसे बड़ा बदलाव आया है हमारी जीवन-शैली में। हमने वास्तविक भगवान को उसके आधिकारिक पद से अपदस्थ कर पैसे को ही भगवान बना दिया है और मान लिया है। पहले जब तक लोग भगवान को ही भगवान मानते थे तब तक उनके मन में हमेशा यह डर रहता था कि उनका भगवान उन्हें कभी-न-कभी किसी-न-किसी प्रकार से कुकर्मों के लिए दंडित करेगा। आज जबकि पैसे को ही भगवान बना दिया गया है तो जिनके पास पैसा है वे अपने-आपको ही भगवान समझने लगे हैं और यह मानने लगे हैं कि पैसा इन्सान की सारी कमियों को ढँक देता है। साथ ही जिनके पास नहीं है वे येन केन प्रकारेण शीघ्रातिशीघ्र ज्यादा-से-ज्यादा पैसा कमा लेना चाहते हैं। नतीजतन हमारा तेज गति से नैतिक क्षरण हो रहा है और हम जो करते हैं हमारे बच्चे वही सीखते हैं। संस्कृत में एक सूक्ति है-महाजनो येन गतः स पंथाः। अर्थात् महान या समाज के माननीय लोग जिस मार्ग पर चलते हैं अन्य लोग उसी का अनुशरण करते हैं। समाज के ऊपरी वर्ग का अगर नैतिक पतन होता है तो निचला तबका भी सर्वथा अप्रभावित नहीं रह पाता। समाज के नैतिक क्षरण को रोका जा सकता है लेकिन यह काम है बड़ा मुश्किल;इस उपभोक्तावादी और भोगवादी युग में तो और भी कठिन। इसके लिए समाज को और व्यक्ति को निरा भौतिकवाद से अध्यात्मवाद की ओर उन्मुख करना पड़ेगा। हमारी पाठ्य-पुस्तकों में तो आज भी नैतिक शिक्षा की सामग्री अटी-पटी पड़ी है लेकिन हमारे जीवन से,नित्य-कर्म से नैतिकता गायब-सी हो गई है। मैंने गायत्री परिवार से जुड़े ऐसे कई समृद्ध लोगों को देखा है जो दैनिक जीवन में परले दर्जे के धूर्त हैं। ऐसे में एक मार्ग एकला चलो रे का भी हो सकता है। अगर प्रत्येक व्यक्ति अकेले भी धर्म के मार्ग पर चलने का उद्यम करने को उद्धत होता है तो एक बार फिर से समाज का नैतिक उत्थान संभव है। फिलहाल ऐसा हो पाना संभव नहीं तो असंभव भी नहीं लगता भले ही कितना भी कठिन क्यों न हो। कोशिश करने पर हो सकता है निकट-भविष्य में बिहार का समाज नैतिक पतन के निम्नतम बिन्दु को छूने के बाद फिर से उत्थान की ओर महाप्रयाण करे। मेरे हिसाब से तो महान बिहार का महान समाज नैतिक पतन के निम्नतम बिन्दु तक पहुँच भी चुका है।              

सोमवार, 27 अगस्त 2012

देशहित में किए जा रहे हैं घोटाले

मित्रों,बात बहुत पुरानी है मेरे जन्म के समय की लेकिन क्या करूँ देशहित में हम अपने मन में दबाए हुए थे। दरअसल इससे पहले देश की हालत कुछ अच्छी नहीं थी। कोई भी काम देशहित में नहीं हो रहा था। अब चूँकि देश में प्रत्येक काम देशहित में हो रहा है यहाँ तक कि घोटाले-महाघोटाले भी देशहित में हो रहे हैं इसलिए मैंने भी सोंचा कि चलिए अब भेद खोल ही देते हैं। दरअसल बात यह है कि जब मेरा जन्म हुआ तब पंडित जी ने पोथी-पत्रा देखकर यह महान भविष्यवाणी की थी कि यह बालक देशहित में जन्मा है इसलिए बड़ा होकर यह अपने सारे काम देशहित में ही करेगा। पंडित जी तो भरी जवानी में अपनी झगड़ालु मगर खूबसूरत पत्नी को विधवा बनाकर दुनिया से खिसक लिए लेकिन आगे चलकर उनकी भविष्यवाणी एकदम सटीक साबित हुई। दरअसल मैं आज एक नेता हूँ और वह भी केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी का। आलाकमान का चहेता हूँ सो मुझे केंद्र में कैबिनेट मंत्री बना दिया गया है और हर तरह की छूट भी दी गई है। बस मुझे इतना ही ध्यान में रखना होता है कि मैं जो कुछ भी करूँ वह देशहित में हो। सो मैं अपने हरेक उल्टे-सीधे काम को चुटकियों में देशहित में किया गया ठहरा देता हूँ। वास्तव में मेरी पूरी जिन्दगी ही देशहित में बीती है। देशहित में ही मैंने कई जरूरतमंद अबलाओं का उद्धार किया है और महिला-सशक्तीकरण के काम को नई गति और नया आयाम दिया है। देशहित में ही मैंने अनगिनत हत्याएँ करवाई,अनगिनत बलात्कार किए और डाके डलवाए-अपहरण करवाए। अब आप ही बताइए कि अगर मैंने यह सब करके अपने हुनर को प्रदर्शित नहीं किया होता तो क्या मुझे सत्तारूढ़ पार्टी ने लोकसभा का टिकट दिया होता? फिर कैसे मुझे देशहित में प्रत्येक कर्म करने का सुअवसर मिलता?
                       मित्रों,आप ही सोंचिए कि अगर 2-जी घोटाला नहीं हुआ होता तो जनता कैसे राजा बनती और फोनकॉल कैसे सस्ता होता? फिर भी देखिए मूर्खों को कहते हैं कि राजा ने घोटाला किया। राजा ने तो भिखारी को भी टेलीफोन का राजा बना दिया और देशहित में फिर जेल भी गया। इसी तरह अगर कोयला घोटाला नहीं हुआ होता तो देश को सस्ती बिजली कैसे मिलती (मुझे तो मुफ्त में ही मिल जाती है इसलिए मेरे लिये तो सस्ती ही हुई न?)। इसी तरह अगर देश में राष्ट्रमंडल घोटाला नहीं होता तो देश की जनता सवा लाख की घटिया कुर्सी पर कैसे बैठती? देश के लोग नासमझ हैं वास्तविकता को समझना ही नहीं चाहते। घोटाला मतलब देशहित और इसके सिवा और कुछ नहीं। मेरा बैंक अकाउंट इन दिनों देशहित में लबालब भरा हुआ है। क्या करूँ पूरी दुनिया में घूम-घूमकर बैंकों में खाता खोलता फिर रहा हूँ। साथ ही दिखावे के लिए देशहित के भी कुछ काम कर लेता हूँ जिससे पूरी यात्रा देशहित में हो जाए। विदेशों में विकास के नए-नए तरीकों की खोज होती रहती है। देश में वापस आते ही देशहित में उनकी योजना बनाता हूँ और फिर देशहित में एक और घोटाला सम्पन्न कर लेता हूँ।
                                      मित्रों,अब तक तो मेरा देशहितवाला तर्क खूब काम करता रहा है लेकिन अब यह सोशल मीडियावाला सब गलत-सलत अफवाह फैलाकर हमारी देशहित वाली महान थ्योरी को फ्लॉप करवाने में भिड़ गया है। बड़ी माथापच्ची की हमने कि देशहित में इस नामुराद से कैसे निबटा जाए। मौका मिल ही नहीं रहा था अब असम दंगा को लेकर मची भगदड़ ने हमको वह सुनहरा मौका भी दे दिया है। सो हमने सोशल मीडिया को पूरी तरह देशहित के खिलाफ खतरा घोषित करने का अभियान ही छेड़ दिया है और इत्मिनान रखिए बहुत जल्दी हमारी गोबयल्स सेना इसे इतना बदनाम कर देगी कि हम आराम से इस बिगड़ैल को पूरी तरह से रास्ते पर ले आएंगे। फिर इस पर भी देशहित में वही सब दिखेगा जो कुछ हम देखना और दिखाना चाहेंगे। क्या करें हम देशहित के अलावा और कुछ कर ही नहीं न सकते हैं क्योंकि आप तो जानते हैं कि हमारा जन्म ही देशहित में हुआ है। उस मुए पंडित से भी बड़ी भविष्यवाणी अब हम करते हैं आखिर हमारी आपबीति का अंत भी तो शुरुआत की तरह ही धमाकेदार होना चाहिए न. मेरी भविष्यवाणी यह है कि मैं जीने की तरह मरूंगा भी देशहित में ही घोटालों द्वारा अर्जित रुपए को गिनता हुआ। अब जब दो-दो लाख करोड़ रुपये का महाघोटाला होगा तो उसे गिनने में कम-से-कम 20-30 साल तो लगेगा ही न।

रविवार, 26 अगस्त 2012

माटी का शेर निकला सोशल मीडिया


मित्रों,मुझे ज्वलंत मुद्दों पर लिखने का शौक तभी से है जबसे मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में आया। वर्ष 2007 के 1 सितंबर को जब मैंने पटना,हिन्दुस्तान ज्वाइन किया उससे पहले ही मेरे कई आलेख भोपाल और नोएडा के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे। हिन्दुस्तान में भी कोशिश की लेकिन मेरे जैसे प्रशिक्षु पत्रकार को कहाँ इस विशालकाय अखबार में स्थान मिलनेवाला था? मन कचोटता,मन में नए-नए विचार उमड़ते और शब्दों का रूपाकार ग्रहण करने लगते। कई बार दिल्ली स्थित महामेधा आदि छोटे अखबारों को ई-मेल भी किया परन्तु किसी ने मेरी ओर दृष्टिपात तक नहीं किया। एक आलेख जरूर दिसंबर,2009 की योजना पत्रिका में प्रकाशित हुई और मुझे मेहनताना के तौर पर 800 ऱू. का चेक भी मिला। अंत में तबके मेरे सहकर्मी और मेरे प्रति बड़े भाई जैसा स्नेह रखनेवाले वीरेन्द्र यादव ने मुझे ब्लॉगों की दुनिया से अवगत कराया। अंधा क्या मांगे दो आँखें। लगा जैसे मुझे अपने जीने का उद्देश्य प्राप्त हो गया। मैंने झटपट blogspot.com पर ब्रज की दुनिया नाम से एक वेबसाईट बना डाली और सबसे पहले प्रायोगिक तौर पर सिर्फ यह देखने के लिए कि क्या सचमुच मैं जो कुछ भी यहाँ लिखूंगा वह ऑनलाइन हो जाएगा,जिन्दगी एक जुआ शीर्षक से छोटी-सी बतकही डाल दी। फिर तो जैसे लेखन का सिलसिला ही चल पड़ा। मेरा मिशन कभी भी पैसा कमाना नहीं था और न ही यहाँ लिखने से पैसा मिलने ही वाला था बल्कि मेरा मिशन था एक सोये हुए राष्ट्र की आत्मा को जागृत करना,उसे झकझोरना और दुनिया को खूबसूरत बनाना। बाद में मैं blogspot.com के अलावे media club of india,indyarocks.com,जनोक्ति,जागरण जंक्शन और नवभारत टाइम्स डॉट कॉम पर भी लिखने लगा,स्वान्तः सुखाय, सर्वजन हिताय;पूरी तरह से निःशुल्क।
                      मित्रों,मेरे आलेख इस बात के गवाह हैं कि मैंने कभी सांप्रदायिक या जातिवादी दृष्टिकोण से कोई भी आलेख नहीं लिखा। मैंने जो भी लिखा दिमाग से नहीं दिल से लिखा। बाद में मेरे आलेख देश के लगभग सभी प्रमुख हिन्दी समाचार-पत्रों में प्रकाशित भी किए गए लेकिन मुझे इसका कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ। मैं देशहित और जगतहित में अनवरत लिखता गया,बस लिखता गया। यहाँ मैं blogs in media वेबसाईट के संचालक श्री बी.एस.पाबला जी का आभार प्रकट करना चाहूंगा जिन्होंने मुझे समय-समय पर देश के विभिन्न अखबारों में छपनेवाले मेरे आलेखों के बारे में जानकारी दी। मैं खुश था कि अब मेरी लेखनी किसी संपादक या प्रकाशक की कृपादृष्टि की मोहताज नहीं है। अब मैं खुद ही अपना प्रकाशक भी था और संपादक भी। मैंने हमेशा भारत और विश्व में व्याप्त राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक अव्यवस्थाओं और विद्रुपताओं पर करारा प्रहार किया। सिर्फ समस्याएँ नहीं गिनाईं वरन् समाधान भी प्रस्तुत किए। लगा जैसे मेरे कलमरूपी आजाद पंछी को उड़ने के लिए अनंत आकाश मिल गया है जहाँ वह निर्बाध उड़ान भरने लगा। हालाँकि इसी बीच केंद्र की वर्तमान नाकारा और नालायक सरकार की ओर से सोशल मीडिया के हम आजाद पंछियों के पर कतरने के प्रयास भी शुरू हो गए थे लेकिन तब से न जाने किस कारण से उसके प्रयास बेकार जा रहे थे। फिर पिछले दिनों प्रदेश की कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों की वजह से असम में दंगे होने लगे और धीरे-धीरे उसकी आँच पूरे देश में पहुँचने लगी। अब दुर्योधनरूपी केंद्र सरकार को जैसे श्रीकृष्णरूपी सोशल मीडिया को बांधने का बहाना मिल गया। सैंकड़ों ऐसी वेबसाईटें जो सरकार की नीतियों की प्रबल विरोधी थीं को तत्काल प्रभाव से प्रतिबंधित कर दिया गया। खुद मेरे ब्लॉग से आज 25-08-2012 को भारत में बकरीद के दिन खुलेआम सड़कों पर काटी जा रही गायों की तस्वीरें हटा दी गईं हैं एक साथ brajkiduniya.blogspot.com,bhadas.blogspot.com और नवभारत टाईम्स रीडर्स ब्लॉग डॉट कॉम के ब्लॉग से। भड़ास और ब्रज की दुनिया ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम पर तो मैंने फिर से तस्वीरें लगा भी दी है लेकिन नवभारत टाइम्स के ब्लॉग पर उसकी जगह को पूर्ववत खाली ही छोड़ दिया है।
                    मित्रों,हो सकता है कि निकट भविष्य में सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय के लिए सदैव तत्पर मेरे ब्लॉग को ही पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया जाए। आज मेरे ब्लॉग से तस्वीरों को जिस प्रकार हटा दिया गया है उससे मुझे घोर निराशा हुई है। मुझे निराशा अपनी केंद्र की सरकार की ओर से नहीं हुई है क्योंकि ये लोग ऐसे ही हैं जो स्थितियों में बदलाव के लिए प्रयास नहीं करते बल्कि येन केन प्रकारेण अपने आलोचकों का मुँह बंद कर देना चाहते हैं। मुझे निराशा हुई है सोशल मीडिया वेबसाइटों के संचालकों से। कहाँ तो जनाब दुनियाभर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अमेरिकी ठेकेदार,झंडाबरदार और रक्षक बने फिरते थे और कहाँ तो महाभ्रष्ट और महाबेकार साबित हो चुकी भारत की केंद्र सरकार ने जरा-सी घुड़की क्या दिखाई कि जनाब झुकने के बदले सीधे पेट के बल रेंगने लगे। जिनको हमने असली शेर समझा था वे तो मिट्टी के शेर निकले और वह भी भुरभुरी मिट्टी के बने हुए। निकट भविष्य में मेरा ब्लॉग प्रतिबंधित होने से बचता है या नहीं अभी कहा नहीं जा सकता लेकिन अगर ऐसा हुआ तो मैं कहाँ और कैसे लिखूंगा पता नहीं। मगर अब तो तब का शौक आदत बन चुकी है। इतना तो निश्चित है कि अब मैं बिना लिखे रह ही नहीं सकता सो विकल्प तो ढूंढना ही पड़ेगा।
                     मित्रों,मैं अंत में अपनी विश्वासघातिनी और महाघोटालेबाज केंद्र सरकार से जानना चाहता हूँ कि क्या इस समय देश में किसी तरह का आपातकाल लगा हुआ है? फिर वह क्यों और कैसे हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19.(1)(क) में दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को हमसे छीन सकती है? क्या हमने अपने इन अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया है? अगर नहीं तो फिर यह जुल्म क्यों और अगर हाँ तो वह हम पर मुकदमा क्यों नहीं चलाती और हमें अदालत से सजा क्यों नहीं दिलवाती? साथ ही मैं भारत के सर्वोच्च न्यायालय जिसे संविधान द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक बनाया गया है से निवेदन करता हूँ कि वह भारत सरकार द्वारा अपने नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किए जा रहे प्रहार पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई करे अन्यथा निकट-भविष्य में लोकतंत्र इस महाभ्रष्ट सरकार का बंधक हो जाएगा और भारत में केंद्र सरकार की तानाशाही कायम हो जाएगी। साथ ही भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू से भी मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि वे हम जैसे छोटे पत्रकारों के अधिकारों के रक्षार्थ अविलंब समुचित कदम उठाएँ।                                           

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

भारत में गोहत्या का औचित्य

मित्रों,हमारी वर्तमान केंद्र सरकार किसी अजायबघर से कम नहीं है। इसके सारे-के-सारे मंत्री अजीब और अद्भुत हैं और इसलिए अजायबघर में रखे जाने के सबसे पहले हक़दार भी हैं। इन्हीं में से एक जो हिन्दू तो हैं ही ब्राह्मण भी हैं इन दिनों गोवध को उचित साबित करने में लगे हुए हैं। उनका कहना है कि गोवध देशहित में है और इसके चलते कमजोर वर्ग के लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है। श्रीमान् जो इस समय सत्ता का निर्बाध आनंद ले रहे हैं और जिनका नाम भी आनंद शर्मा है का यह भी कहना है कि बूढ़ी गायों-भैंसों को घर में पालकर क्या फायदा? वे जब उत्पादक नहीं रह गयी हैं अर्थात् जब न तो दूध ही दे सकती हैं और न तो बच्चा ही पैदा कर सकती हैं तो फिर उनको मारकर खा जाना ही अच्छा है। श्रीमान् ने कितनी बार गोमांस का स्वाद चखा है यह उन्होंने नहीं बताया जबकि बताना चाहिए था;तब हम भी जान पाते कि आखिर वे कितने आधुनिक हिन्दू हैं या किस ग्रेड के आधुनिक हिन्दू हैं। खैर यह नहीं बताया तो कोई बात नहीं वे यही बता दें कि क्या उनके माता-पिता जीवित हैं? अगर हाँ तो मंत्रीजी ने उन्हें क्यों जिन्दा रखा है जबकि वे दोनों भी तो अब अनुत्पादक हो चुके हैं? मंत्रीजी उनको भी मारकर खा क्यों नहीं जाते? उनके शरीर को इससे काफी अच्छी मात्रा में सल्फर, कैल्शियम, प्रोटीन आदि तो प्राप्त हो जाता ही मुफ्त में मांस चाभने का सुअवसर भी मिल जाता। गोमाता और भैंसमाता का मल-मूत्र तो फिर भी सर्वोत्तम कोटि का खाद होता है मंत्रीजी के माता-पिता का तो मल-मूत्र भी किसी काम का नहीं होता। फिर उनके ऊपर मंत्रीजी धन और श्रम का अपव्यय क्यों कर रहे हैं?क्या उनका ऐसा करना किसी भी तरह से देशहित में है,अगर है तो कैसे;क्या मंत्रीजी बताएंगे?जहाँ तक कमजोर तबके के लोगों को रोजगार मिलने का प्रश्न है तो इससे बड़ा झूठ कोई हो ही नहीं सकता। हाँ,अल्पसंख्यक मुसलमानों को जरूर इससे लाभ प्राप्त हो रहा है,रोजगार मिल रहा है और गोमांस भी खाने को मिल रहा है।
                   मित्रों,जहाँ तक हिन्दू धर्म जिससे माननीय आनंद शर्मा भी आते हैं में हजारों सालों से माँ की तरह दूध पिलाकर मानवता की अमूल्य सेवा करनेवाली गाय के महत्त्व का सवाल है तो हम सभी जानते हैं कि गाय को हिन्दू धर्म में काफी सम्मानित स्थान प्राप्त है और हम उसे माँ अर्थात् गोमाता कहकर पुकारते हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गोसेवा के पुण्य का प्रभाव कई जन्मों तक रहता है। पौराणिक काल में ही गोसेवा को धर्म के साथ जोड़ दिया गया। श्रीमद्भागवत् पुराण में हम पाते हैं कि भगवान् गोपाल श्रीकृष्ण ने इन्द्रपूजा बंद कराकर गोपूजा आरंभ कराई। हमारे गांवों में आज भी ऐसी मान्यता है कि गाय को पहली रोटी खिला देने से सभी देवी-देवताओं को भोग लग जाता है। पुराणों में गायों को धर्म और पृथ्वी का प्रतीक माना गया है। दुनिया के सबसे प्राचीन धर्मग्रन्थ ऋग्वेद में गाय को अघन्या अर्थात वध न करने योग्य कहा गया है। विभिन्न रूपों में गौ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में 176 बार किया गया है। गौ शब्द तब धन का पर्यायवाची था और धनी व्यक्ति को गोमत कहा जाता था। गायों का महत्त्व तब इतना अधिक था कि युद्ध के शब्द भी गाय से ही बने,जैसे-गविष्टि। इतना ही नहीं समय को मापने  के लिए भी गाय से ही शब्द बने,जैसे-गोसु,गव्यत,गव्यु और गोधुली। तब राजा को गोप और गोपति संज्ञा दी जाती थी। पुत्री के लिए दुहित्री शब्द का प्रयोग किया जाता था। देवताओं की 4 श्रेणियों में से एक श्रेणी को गोजात कह कर पुकारते थे अर्थात् गाय से उत्पन्न। वैदिक लोगों को भारत में जब पहली बार भैंस के दर्शन हुए तो उन्होंने उसे भी गौदी या गवाला कहा। ऋग्वेद में एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द है-गोत्र,ऋग्वेद में जिसका अर्थ है-गोरक्षक।
                  मित्रों,हिन्दू शास्त्रों की चर्चा तो बहुत हो चुकी अब कुछ इतिहास की बात भी कर लेते हैं। भारत में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर को आप किस रूप में जानते हैं,रूढ़िवादी मुस्लिम के रूप में न? परन्तु उसी बाबर के शासनकाल में ही भारत में गोवध पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। बाद में हुमायूँ,अकबर,जहाँगीर,शाहजहाँ,औरंगजेब और यहाँ तक कि अहमदशाह के शासनकाल तक भारत में गोहत्या पूरी तरह से प्रतिबंधित थी। इतिहास का यह एक महत्वपूर्ण और सुनहरा अध्याय यह भी है कि मैसूर के शासक हैदर अली और टीपू सुल्तान ने गोवध में लिप्त लोगों के लिए सजा का भी प्रावधान कर रखा था। सजा भी कोई ऐसी छोटी-मोटी नहीं। अगर कोई व्यक्ति गोहत्या के आरोप में पकड़ा जाता तो उसके दोनों हाथ काट लिए जाते थे। इतिहास में सिर्फ हिन्दू शासकों ने ही नहीं बल्कि मुस्लिम शासकों ने भी गायों को कितना सम्मान दिया और अपनी बहुमत प्रजा हिन्दुओं की भावनाओं का किस कदर ख्याल रखा यह इन चंद उदाहरणों से आप भी अवश्य समझ गए होंगे।
             मित्रों,आधुनिक काल में जब अंग्रेजों ने 1757 ई. में बंगाल पर अधिकार कर लिया तब लॉर्ड क्लाईव ने भारत में पहली बार आधिकारिक तौर पर 1760 ई. में गोवध के लिए एक स्लाउटर हाउस (वधशाला) खोला। कोलकाता में स्थित इस वधशाला की क्षमता प्रतिदिन 30 हजार गाएँ काटने की थी। संभवतः उसी दौर में गायों को बचाने के लिए हिन्दू समाज के सुधारवादी नेताओं ने गोशालाएँ बनवाने का आंदोलन शु़रू किया।
                              मित्रों,गाय को भारतीय कृषि की रीढ की हड्डी माना जाता है। कृषि ही अर्थव्यवस्था का आधार थी इसी वजह से राबर्ट क्लाइव ने ध्यान केंद्रित किया क्योंकि वह भारतीय कृषि को विनष्ट करना चाहता था। आजादी की लड़ाई के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी ने एक बार नहीं बल्कि सैकड़ों बार कहा कि आजाद भारत में गोहत्या पर प्रतिबंध होगा। परंतु आजादी के बाद गायों के साथ-साथ हिन्दू समाज के साथ भी धोखा किया गया और गोवध के प्रश्न को समान नागरिक संहिता की ही तरह भविष्य के नेताओं पर छोड़ दिया गया। तब से गोवध के मामले का कुछ ऐसा राजनीतिकरण हुआ और अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीति पर इतना अधिक जोर दिया गया कि गांधीजी और संविधान की इस भावना का पालन आज स्वतंत्रता के 65 साल बाद तक भी नहीं किया गया है और जिस तरह से हिन्दू जनमानस सोया हुआ है शायद कभी गोवध को रोकने के लिए कानून बन ही नहीं पाए।
                   मित्रों,यह कितनी बड़ी बिडम्बना है कि ब्रिटिश काल से भी कई गुणा ज्यादा संख्या में गाएँ आज के स्वाधीन भारत में काटी जा रही हैं और फिर भी भारत के 90 करोड़ हिन्दू मूक बने हुए हैं। आज के भारत में गोशालाओं से भी कहीं ज्यादा 3600 गोवधशालाएँ हैं जिनमें रोजाना हजारों गाएँ काटी जा रही हैं। गोमाता के खून से भारत की धरती लाल हुई जा रही है और आश्चर्यजनक रूप से आनन्द शर्मा जैसे हिन्दू इसे रोकने की कोशिश करने के बदले उल्टे इसे उचित ठहराने में लगे हुए हैं। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानव का पाचन तंत्र शाकाहार के लिए डिजाइन किया गया है और गोमांस भक्षण तो स्वास्थ्य के लिए और भी अधिक नुकसानदायक है। इससे फीताकृमि के जानलेवा संक्रमण का भी खतरा रहता है फिर भी भारत के कुछ अहिन्दू लोग इसे बड़े चाव से खाते हैं। मैंने खुद भी नंगी आँखों से दिल्ली के बटाला हाऊस इलाके में हजारों गायों को मुसलमानों के घर-घर में बकरीद के दिन कटते देखा है।
                                    मित्रों,भारत एक हिन्दू देश तो नहीं है और मैं ऐसा चाहता भी नहीं हूँ परंतु एक हिन्दूबहुल देश तो है ही और इसलिए अल्पसंख्यकों को हिन्दू भावनाओं का आदर करना ही चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो फिर वे कैसे और किस मुँह से हिंदुओं से उनकी भावनाओं का ख्याल रखने की उम्मीद करते हैं? यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि मैं अपने देश के पड़ोसी पाकिस्तान की तरह अल्पसंख्यकों को बेवजह तंग करने वाले ईशनिंदा कानून जैसे कानून तो नहीं चाहता हूँ परंतु अपने अल्पसंख्यक भाइयों से ऐसी उम्मीद रखना गलत भी नहीं मानता कि वे हमारी भावनाओं को सम्मान दें और ढिठाईपूर्वक हिन्दू अंतर्मन को चोट न पहुँचाएँ।
                                      मित्रों,अभी-अभी आपने देखा कि मैंने इस लेख के आरंभ में और मध्य में भी देश पर 50 सालों से भी ज्यादा समय तक और वर्तमान में भी सत्तासीन कांग्रेस पार्टी की गायों और तद् नुसार हिन्दुओं के प्रति नीतियों की आलोचना की है लेकिन मैं अब इस मुद्दे को अभी-अभी देश की जनता के समक्ष उठानेवाले और अगले चुनावों में भाजपा और राजग की ओर से प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार श्री नरेंद्र मोदीजी से भी ठोक-बजाकर पूछना चाहता हूँ कि जब केंद्र में 6 साल तक उनकी पार्टी की सरकार थी तब उन लोगों ने पूरे भारत में गोवध को पूर्णतः प्रतिबंधित क्यों नहीं कर दिया था?साथ ही मैं उनसे और उनके पूरे गठबंधन से इस बात की गारंटी भी चाहता हूँ कि अगर वे लोग अगले लोकसभा चुनावों में सत्ता में आ जाते हैं तो वे लोग गोहत्या पर पूरी तरह से रोक लगा देंगे और ऐसा करनेवालों के लिए वैसी ही सजा का प्रावधान करेंगे जैसी सजा का प्रावधान मानव-हत्या के लिए है।
नोट:आज 25-08-2012 को अब से कुछ देर पहले न जाने क्यों मेरे इस आलेख में लगी तस्वीर ब्लैंक कर दी गई थी। मैंने उसे फिर से लगा दिया है क्योंकि वह तस्वीर झूठी नहीं है। हो सकता है कि केंद्र सरकार के दबाव में गूगल इसे फिर से हटा दे। मैं केंद्र में बैठी नालायक सरकार से यह जानना चाहता हूँ कि क्या इस तस्वीर को हटा देने से भारत में गोहत्या का जघन्य कृत्य बंद हो जाएगा? क्या आँखें मूँद लेने से सच्चाई बदल जाएगी?

शनिवार, 18 अगस्त 2012

कॉरपोरेट युग में शर्मिन्दा श्रम

मित्रों,अर्थशास्त्र बताता है कि किसी भी तरह के उद्योग को स्थापित करने के लिए 4 आधारभूत तत्त्वों की आवश्यकता होती है-(1) भूमि,(2) पूँजी,(3) श्रम और (4) बाजार। बदलते समय के साथ इनका आनुपातिक महत्व भी घटता-बढ़ता रहता है। जब इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हुई तब वहाँ के श्रमिकों की दशा काफी ज्यादा ख़राब थी शायद जानवरों से भी ज्यादा ख़राब। धीरे-धीरे वहाँ के श्रमिक जागरूक हुए और अपना एक राजनीतिक दल लेबर पार्टी ही बना डाली जो आज भी वहाँ की मुख्य विपक्षी पार्टी है। इंग्लैंड की संसद ने समय-समय पर श्रमिकों के कल्याण के लिए कई कानून बनाए। धीरे-धीरे ऐसे कानूनों का निर्माण दुनिया के अन्य देशों में भी किया गया।
             मित्रों,हम सब यह जानते हैं कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का साम्यवाद के प्रति खासा झुकाव था। फिर भी उन्होंने न तो विकास का साम्यवादी मॉडल अपनाया और न ही पूरी तरह से पूँजीवादी मॉडल को ही स्वीकार किया। फिर भी आरंभ में भारत सरकार का झुकाव साम्यवाद और समाजवाद की ओर ही ज्यादा रहा और पूँजी पर श्रम को वरीयता दी गई। फिर 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ वक़्त ने करवट बदला और श्रम धीरे-धीरे पूरी दुनिया में हाशिए पर जाने लगा। पूरी दुनिया की सरकारें अधिक-से-अधिक विदेशी पूँजी देश में लाने की जद्दोजहद में श्रमिकों की अत्यावश्यक मांगों की भी अनदेखी करने लगी और आज हमारे देश भारत में स्थिति ऐसी हो गई है कि देश में वर्तमान श्रम-कानूनों का मतलब ही नहीं रह गया है। भारतीय श्रम-कानूनों से बचने के लिए कोई भी कम्पनी या राज्य/केंद्र सरकार (जिनमें बिहार सरकार अव्वल कही जा सकती है) पुरानी सेवा-शर्तों पर श्रमिकों की बहाली करती ही नहीं है बल्कि संविदा (कांट्रेक्ट) के आधार पर करती है और नियुक्ति के समय ही कर्मचारियों से लिखवा लेती  है कि उसको सरकारी कानूनों से कुछ भी लेना-देना नहीं है और वह नियोक्ता की सारी सेवा-शर्तों को मानता है। मुझसे भी तब ऐसे कागजात पर हस्ताक्षर करवाया गया था जब मैंने 2007 में पटना,हिंदुस्तान ज्वाईन किया था। आज हम पत्रकारों को भी सरकार द्वारा समय-समय पर स्थापित वेतन आयोगों के लाभ नहीं दिए जा रहे हैं और सरकार जान-बूझकर अंधी-बहरी बनी हुई है।
               मित्रों,आज से नहीं बल्कि दशकों से श्रमिक सरकार और संसद से ऐसी मांग करते आ रहे हैं कि ऐसा कानून बनाया जाए जिससे संविदा पर नियुक्त श्रमिकों/कर्मियों को भी श्रम-कानूनों का लाभ मिले परन्तु उनकी न तो सरकार ही सुन रही है और न तो संसद ही। उल्टे सरकार खुद भी बड़े पैमाने पर संविदा के आधार पर श्रमिकों और कर्मचारियों की भर्ती कर रही है और कथित रूप से पैसे बचा रही है। उदाहरण के लिए बिहार में संविदा पर बहाल प्राथमिक शिक्षकों को मात्र 6000 रू. मासिक और माध्यमिक शिक्षकों को मात्र 8000 रू. का मानदेय दे रही है। अब शिक्षक बेचारा खाएगा क्या और बचाएगा क्या? स्थिति कुल मिला कर इतनी भयावह है कि आज की तारीख में सार्वजानिक क्षेत्र में 55% श्रमिक संविदा पर नियुक्त हैं। अब मानेसर के मारुति प्लांट को लें तो वहाँ भी पुरानी सेवा शर्तों पर बहाल अथवा स्थायी श्रमिकों और संविदा पर बहाल श्रमिकों के वेतन में काफी अंतर है। जहाँ स्थायी श्रमिकों को 17000 रू. प्रति माह दिया जाता है वहीं संविदा पर बहाल श्रमिकों को मात्र 7000 रू./माह जबकि काम दोनों एक ही करते हैं और बराबर ही करते हैं। क्या कोई व्यक्ति 7000 रू./माह में घर से बाहर रहकर अपने परिवार को भरपेट रोटी-दाल भी दे सकता है,शिक्षा-दीक्षा तो दूर की कौड़ी रही। जब श्रमिकों ने वेतन बढ़ाने को कहा तो उनसे सिर्फ वार्ता की गई। मालूम हो कि यहाँ संविदा पर बहाल मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों की संख्या की लगभग एक तिहाई है। अक्टूबर 2011 से 25 बार वार्ताएँ की गई लेकिन कोई भी मांग नहीं मानी गई। हाँ,इस बीच काम के घंटे जरूर दो गुने-तक कर दिए गए। अब ऐसी स्थिति में अगर श्रमिकों को बोनस में वक़्त-बेवक्त गालियाँ भी दी जाए और विरोध करने पर निकाल बाहर कर दिया जाए तो उनके पास सिवाय मरने-मारने के और विकल्प भी क्या बचता है? अनशन-धरना पर बैठने पर हरियाणा पुलिस पीटती है और ऐसा वह हीरो-हौंडा के श्रमिकों के साथ बखूबी कर चुकी है। इसलिए गुस्से में श्रमिकों ने आगजनी शुरू कर दी और कदाचित दुर्घटनावश इसमें एक सुपरवाईजर सह मानव संसाधन विभाग पदाधिकारी मारा गया। वैसे आजकल सारी कंपनियों का मानव संसाधन अधिकारी बस इतनी ही कोशिश करता है कि श्रमिकों से किस तरह कम-से-कम वेतन में काम लिया जाए इसलिए उसके प्रति श्रमिकों का रोष भी सर्वाधिक होता है।
             मित्रों,मेरा दावा है कि आप बिना संगणक के हिसाब नहीं लगा सकते हैं कि एक साधारण श्रमिक और मुकेश अंबानी के वेतनों में कितने गुना का अंतर है?उस पर तुर्रा यह कि अख़बार आजकल बड़े उत्साह से छापते हैं कि फलाँ उद्योगपति अब से अपनी कंपनी से मात्र 20 या 40 करोड़ सालाना का ही वेतन लेगा। कम होने पर भी क्या इतना वेतन लेना वो भी ऐसे देश में जहाँ की 80% आबादी की रोजाना की आमदनी 20 रू. भी नहीं हो,क्या उचित है?हम देखते हैं कि एक तरफ तो टाटा कंपनी का मुनाफा लगातार बढ़ता जा रहा है और वह भारत की सबसे बड़ा व्यापारिक समूह बन गई है वहीं दूसरी ओर वह न केवल अपनी खानों में श्रमिकों और कर्मियों का वेतन ही आधा से कम कर दे रही है बल्कि उन की छुट्टियों में भी भारी कटौती कर दे रही है;वहीं टाटा मोटर्स,जमशेदपुर के श्रमिकों के वेतन में भी जानलेवा महंगाई को देखते हुए समुचित वृद्धि करने के बदले भारी कमी कर दे रही है। फिर भी रतन टाटा भारत समेत दुनिया भर की सरकारों की आँखों के तारे बने हुए हैं,भारत के अनमोल रतन। क्या इसी को पूंजीवादी या कॉरपोरेटी नैतिकता या उदारता कहते हैं? कितनी बड़ी बिडम्बना है कि एक तरफ जहाँ कंपनियों के मुनाफे का ग्राफ 90 डिग्री का कोण बनाता रहता है कम्पनियाँ धनपशु बनकर निर्लज्जतापूर्वक श्रमिकों के वेतनों में कटौती करने पर तुली रहती है। क्या लाभ कमाने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए?या लाभ में से मजदूरों को भी अनुपातिक लाभ नहीं देना चाहिए?क्या अपनी जिंदगी को ज्यादा खुशहाल बनाने के लिए दूसरों की ज़िंदगियाँ तबाहकर देना एक आपराधिक कृत्य नहीं है?उनको इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि श्रमिक कैसे जीएगा? नहीं तो क्या कारण है कि कुल मिलाकर भारी लाभ में चल रहे राज्यसभा सदस्य और उद्योगपति विजय माल्या की विमानन कंपनी के पायलटों को भी वेतन पाने के लिए भी बार-बार हड़ताल करनी पड़ रही है?क्या श्रमिक ईन्सान नहीं होते और उनको भी अपने धनवान मालिकों की तरह ईज्जतभरी गुणवत्तापूर्ण ज़िन्दगी जीने का अधिकार नहीं है?अगर है तो फिर हमारी आम आदमी की सरकार ने क्यों उन्हें पूँजी के हाथों पिटने और मर जाने के लिए बेसहारा छोड़ दिया है?क्यों भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में मत्स्य न्याय अस्तित्व में है?श्रमिकों के नाम पर राजनीति करनेवाले भारतीय कम्युनिस्टों की तो बात ही करना बेकार है। ये लोग अगर सरकार और पूँजी के दलाल नहीं हो जाते तो मजदूरों की स्थिति इतनी ख़राब भी नहीं होती।अभी-अभी कोयला घोटाले में ज्योति बसु के बेटे चन्दन बसु का नाम आ रहा है।वास्तव में भारत के सारे कम्युनिस्ट चिथड़ा ओढ़कर मलाई खाने में लगे हैं।
                    मित्रों,सोवियत संघ के पतन के बाद सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में श्रम का महत्व घटा है और पूँजी का महत्त्व बढ़ा है। अभी परसों ही श्रमिकों के साथ दुनिया में दो दर्दनाक घटनाएँ घटी हैं। पहली भारत में और दूसरी दक्षिण अफ्रिका में। भारत में जहाँ मारुति के मानेसर संयंत्र के 550 श्रमिकों को एकबारगी बर्खास्त करने की नोटिस दी गयी है जबकि इनमें में कई लोग घटना के दिन शहर में भी नहीं थे। वहीं दूसरी घटना में दक्षिण अफ्रिका में हड़ताल कर रहे हजारों निहत्थे मजदूरों पर वहाँ की पुलिस ने गोलियाँ चलाई है और इस तरह चलाई है जैसे कि निशानेबाजी की कोई प्रतियोगिता चल रही हो। परिणामस्वरुप क़म-से-कम 34 मजदूर मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हो गए हैं। अच्छा होता अगर भारत सरकार या हरियाणा सरकार भी इन बर्खास्त किए गए 550 मजदूरों को गोलियों से उड़ा ही देती वे कम-से-कम इस प्राणघातक महंगाई में बेरोजगार होकर और बलवाई होने का कलंक माथे पर लेकर तिल-तिल कर रोज-रोज मरने से तो बच जाते।

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

सोनियाजी सोनियाजी क्या हुआ आपको?

सोनियाजी सोनियाजी क्या हुआ आपको?
भूल गई अपने आपको राहुल-प्रियंका के बाप को?
सोनियाजी सोनियाजी क्या हुआ आपको?


आपके राजीव ने किया था 1985 में
असम के लोगों से समझौता;
बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस भेजने का
किया था वादा;
वोट बैंक तो याद रहा पर असम समझौता
याद नहीं रहा आपको?
सोनियाजी सोनियाजी क्या हुआ आपको?
भूल गई अपने आपको राहुल-प्रियंका के बाप को?

मुम्बई में आगजनी बरेली में दंगा;
हत्याएं कर रहा नक्सली लफंगा;
आसमान छू रही महंगाई है,
अर्थव्यवस्था धराशायी है;
समर्थकों की सहायक और
विरोधियों की शत्रु सी.बी.आई. है;
राज करना तो याद रहा पर
राजधर्म याद नहीं रहा आपको?
सोनियाजी सोनियाजी क्या हुआ आपको?
भूल गई अपने आपको राहुल-प्रियंका के बाप को?

राष्ट्रमंडल,2-जी,कोयला और
अंतरिक्ष घोटाला,
फिर भी लगा रहा आपकी
जुबान पर ताला;
क्या है रहस्य इसमें
क्या है गड़बड़झाला?
क्वात्रोची है क्या सचमुच
राजीव गाँधी का साला?
सच को हमसे छिपा लीजिए भले ही
ऊपरवाले से कैसे छिपाएंगी पाप को?
सोनियाजी सोनियाजी क्या हुआ आपको?
भूल गई अपने आपको राहुल-प्रियंका के बाप को?
सोनियाजी सोनियाजी क्या हुआ आपको?

रविवार, 12 अगस्त 2012

नीरो का रोम और सोनिया का भारत

मित्रों,बात बहुत पुरानी नहीं है इसलिए आपको भी याद होगी। वर्ष 2004 में घटी थी यह महान घटना। तब प्रधानमंत्री की कुर्सी को लात मारते हुए और कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं को दरकिनार कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने एक पूर्व नौकरशाह मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया था और अकस्मात् मीडिया ने उन्हें सिर-माथे पर बिठा लिया था। कोई उन्हें "त्याग की देवी" की उपाधि से विभूषित कर रहा था तो कोई अपनी पत्रिका के आमुख पर हंसती हुई सोनिया की तस्वीर के साथ बहुत-ही मोटे-मोटे अक्षरों में लिख रहा था "सोनिया ब्लौसौमिंग"। सबको न जाने क्यों लग रहा था कि अब भारत का वारा-न्यारा होकर रहेगा। देश के दरवाजे पर अब बदलाव दस्तक देने ही वाला है। खास आदमी की जगह आम आदमी की पार्टी जो सत्ता में आ गई थी।
             मित्रों,आज सोनिया के उस महान त्याग को 8 साल बीत चुके हैं। देश में खूब बदलाव हुआ है लेकिन धनात्मक की जगह ऋणात्मक। लगता है जैसे भारत के लिए समय की घड़ी उल्टी दिशा में चल पड़ी है। इन आठ सालों में देश की ऐसी की तैसी हो गई है। अर्थव्यवस्था पातालवासिनी होने को व्याकुल है तो कमजोर मानसून में भी घोटालों की बाढ़-सी आई हुई है। कांग्रेस अध्यक्षा और उनकी सरकार के मंत्रियों को देश की जनता के बैंक बैलेंस की चिंता होने के बदले (वोट) बैंक बैलेंस की चिंता है। अर्थव्यवस्था से लेकर आतंरिक सुरक्षा और बाह्य सुरक्षा प्रत्येक मोर्चे पर भारत और भारतीय संप्रभुता की हार हो रही है परन्तु सोनिया गाँधी एंड (फेमिली) कम्पनी उनके मूल देश के अब तक के महानतम शासक नीरो की तरह चैन (सत्ता) की बंशी बजाने में तल्लीन है। सत्ता लोलुपता की लाईलाज बीमारी से वे इस कदर ग्रसित हो गई हैं कि अपने कथित प्राणप्रिय पति द्वारा किए गए वादे और समझौते भी याद नहीं रहे। तभी तो उन्होंने (चाहे तो उनकी सरकार भी कह सकते हैं बात एक ही है) कल उच्चतम न्यायालय में यह झूठ बोला कि अब बांग्लादेशी घुसपैठियों को पहचानना संभव ही नहीं है। क्यों नहीं है और कैसे नहीं है? जो चीज म्यांमार के लिए संभव है वही सोनिया के लिए असंभव क्यों और कैसे है? मैं बताता हूँ रास्ता। मुझे पता है लेकिन आश्चर्य है कि सोनिया एंड कंपनी को पता नहीं है! सीधी बात है कि जिन बांग्लाभाषियों के पास 1971 के पूर्व के आवासीय प्रमाण हैं वे भारतीय बंगाली हैं (स्व. राजीव गाँधी द्वारा 1985 में किए गए समझौते के अनुसार भी) और जिनके पास नहीं हैं वे बांग्लादेशी घुसपैठी हैं। हो सकता है ऐसा करने से कुछ निर्दोष भी इसकी चपेट में आ जाएँ। लेकिन ऐसा करना ही पड़ेगा और कोई ऐसा विकल्प नहीं है जिससे भारत का भला होता हो। अगर आप ऐसा नहीं करती हैं तो 'कूदे बैल न कूदे तंगी' की तर्ज पर जो बांग्लादेशी परसों तक असम को जला रहे थे और जिन बांग्लादेशियों ने कल मुम्बई को जलाया है,आने कल में वही दिल्ली,कोलकाता और कटिहार को भी जला कर रख देंगे। फिर भी अगर आपको इस दिशा में कुछ भी करना नहीं है तो बना लीजिए चाहे जो भी बहाने बनाने हैं। आपकी आराम फरमाती सरकार फरमाती है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम मतदाता सूचियों से हटाना असंवैधानिक होगा। तो क्या उनको विशेष अभियान चलाकर भारत का मतदाता बना देना संवैधानिक है और संविधानसम्मत है? असलियत तो यह है कि भारतीय संविधान के अनुसार 19 जुलाई,1948 के बाद पूर्वी पाकिस्तान या वर्तमान बांग्लादेश से भारत में प्रवर्जन करने वाला प्रत्येक अप्रवासी अवैध है अगर उसने बिना विहित प्रक्रिया के नागरिकता अर्जित कर ली है तब भी। दरअसल सोनिया जी को प्रत्येक उस कदम से सख्त नफरत है जिससे भारत का कुछ भी भला होता हो। वे और उनकी कंपनी ने अपने जहाज को डूबने से बचाने के लिए भारत के भविष्य की संभावनाओं को ही डूबाकर रख दिया है। सच्चाई यह भी है कि उनके जैसा शासक जब तक सत्ता में है कोई जरुरत नहीं है आई.एस.आई. या चीन को भारत को कमजोर या अस्थिर करने के किसी तरह के प्रयास करने की और तब तक वे भारत के एशिया में शक्तिशाली होकर उभरने की आशंका से बेफिक्र होकर कान में मोम डालकर सो सकते हैं।
                 मित्रों,चाहे कोई माने या न माने कड़वी सच्चाई तो यही है कि वर्ष 2009 में अपनी दूसरी पारी में सोनिया जी की सरकार ने अब तक जाति और धर्म का कार्ड खेलने के सिवाय ऐसा कुछ भी नहीं किया है,ऐसा कोई एक कदम भी नहीं उठाया है जिससे देश मजबूत होता हो। बल्कि उसने सिर्फ और सिर्फ वही किया है जिससे देश कमजोर होता हो और उनका खुद का बैंक बैलेंस और वोट बैंक बैलेंस मजबूत होता हो। जो सरकार यूपीए-1 में थोड़ा-बहुत अच्छा काम कर रही थी वही सरकार अब सिर्फ गूँ बनाने की फैक्टरी बनकर रह गई हैं। इस सरकार और इसके मंत्रियों के होने या न होने का कोई औचित्य हो नहीं बचा है। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं और सोनिया जी इससे पूरी तरह अप्रभावित बनी हुई हैं। ऐसा लग रहा है जैसे वे भारत की हैं ही नहीं बल्कि किसी शत्रु देश द्वारा भेजी गई हैं और भारत से अपना पुराना हिसाब गिन-गिनकर चुकता कर रही हैं। 2004 की हमारी कुलगौरव 2012 में कुलबोरनी बन गई है। उनको एक सामान्य और स्वार्थी स्त्री की तरह सिर्फ और सिर्फ अपने घर-परिवार की चिंता है देश की नहीं। कुछ इसी तरह के हालात को बयां करता अमर फिल्म अमरप्रेम का एक अमर गीत इस समय मुझे याद आ रहा है-मँझधार में नैया डोले तो माँझी जान बचाए,माँझी जब नाव डूबोए तो उसे कौन बचाए?
                  मित्रों,आपके पास कोई उत्तर है क्या इस प्रश्न का?है यक़ीनन है लेकिन आपको याद नहीं आ रहा है। जैसे हनुमान को तब तक अपनी शक्तियाँ याद नहीं आती थीं जब तक कोई उनको याद नहीं दिलाता था उसी तरह आप भी भूल गए हैं कि देश की डूबती नैया को सिर्फ आप ही डूबने से बचा सकते हैं। बस आपको करना यही है कि अगले लोकसभा चुनाव में देश की पतवार को इस विश्वासभंजक सोनिया के हाथों से छीन लेना है। हाँ,लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना है कि कहीं गलती से भी पतवार फिर से किसी कुलघातक के हाथों में न चली जाए।    
                    

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

चाँद

पूर्णमासी की रात में,
दूधिया आकाश में;
चाँदी-सा चमकता हुआ,
निकलता है चाँद।

रोटी-सा गोल-गोल,
भात-सा धवल श्वेत;
वृहत गोला नवनीत का,
प्रतीक प्रकाश की जीत का;
रजत रश्मियाँ लुटाता पल-पल;
जेठ की रात में,
मित्रों के साथ में;
सोते हुए मैदान में,
कहीं खेत-मध्य मचान में;
जब रह-रह के फूटते हैं हँसी के फव्वारे;
हँसते हुए आता है देता है साथ चाँद;

पूर्णमासी की रात में,
दूधिया आकाश में;
चाँदी-सा चमकता हुआ,
निकलता है चाँद।

मिलता नहीं कोई जिन्हें बोलने-बतियाने को,
दौड़ती है सारी दुनिया मारने-लतियाने को;
शीतलता देने मन को,
चीरकर विस्तृत गगन को;
प्रकट होकर रात्रि में मुलाकात करने को,
मीठी बात करने को,
दुःख-ताप हरने को;
आता है तब अपने विश्राम को त्याग चाँद;

पूर्णमासी की रात में,
दूधिया आकाश में;
चाँदी-सा चमकता हुआ,
निकलता है चाँद।

सोमवार, 6 अगस्त 2012

एक महान आन्दोलन की हत्या

मित्रों,हम भारतीय बहुत ही स्वप्नदर्शी हैं। हमारी आँखों में एकसाथ कई-कई सपने हमेशा तैरते रहते हैं और इस हकीकत को देश में कोई अगर सबसे बेहतर जानता है तो वह है नेता। यही कारण है कि वह कभी गरीबी मिटाने तो कभी बेरोजगारी दूर करने तो कभी भोजन की गारंटी देने का झूठा वादा करके हमारे सपनों को मीठी थपकी देता रहता है। यह वह कौम है जो पिछले 65 सालों से हमारे सपनों के साथ खिलवाड़ करता रहा है और जब तक हम उसके दिखाए सपने से बाहर आते हैं वह हमारे सूबे और वतन को बहुत-कुछ लूट चुका होता है। शायद इसलिए हमारे नेताओं पर हमारे विश्वास का ग्राफ हमारे देश के इन दिनों के विकास-दर की तरह लगातार गोंतें खाता जा रहा है।
                मित्रों,सपनों का सौदागर तो इस बार भी भ्रष्टाचार को मिटाने का सपना अपनी गठरी में लेकर हमारे सामने हाजिर था। परन्तु इस बार परंपरा से अलग सपनों का सौदागर कोई राजनेता नहीं था बल्कि एक प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता था जिसका नाम था अन्ना हजारे। वह और उसकी टीम पिछले डेढ़ सालों से जनता को बार-बार भ्रष्टाचारमुक्त भारत के सुनहरे सपने दिखा रही थी। भ्रष्टाचार से हताश-परेशान लोग उसके झांसे में आ भी रहे थे। वह कभी वन्दे मातरम का नारा ऊँची आवाज में लगाता तो कभी जनता की सहायता से व्यवस्था को बदल देने के दावे करता। इस बार पहले उसके शागिर्दों ने आमरण अनशन शुरू किया और शुरू भी किया तो इस ऐलान के साथ कि वे देश के लिए बलिदान देना चाहते हैं। लोग उसमें और उसकी टीम में शहीदे आज़म भगत सिंह की छाया देखने लगे थे कि तभी उसने अचानक यू टर्न लेते हुए अपना आमरण अनशन तोड़ दिया और सियासत में उतरने की घोषणा कर दी। हालाँकि अभी भी लग ऐसा रहा था कि इस मामले में टीम अन्ना के अन्य सदस्य अन्ना की नहीं सुन रहे थे और अन्ना हजारे स्वयं अभी भी पार्टी बनाकर सियासत में उतरना नहीं चाहते थे। जनता को जोर का झटका लगा वो भी धीरे-से नहीं बल्कि जोर से। भला ऐसा कैसे संभव है कि कल तक जो लोग राजनीति और राजनेताओं से सख्त नफरत करता था आज उनमें से ही एक हो जाना चाहते हैं? क्या यह सारा नाटक,आन्दोलन का तमाम तामझाम,बलिदानी तेवर सिर्फ इसलिए था ताकि संसद में चंद कुर्सियाँ पाई जा सके? क्या सिर्फ इन मुट्ठीभर लोगों के सांसद बन जाने से (अगर वे चुनाव जीत जाते हैं तो) व्यवस्था सचमुच बदल जाएगी?
           मित्रों,इससे पहले भी कभी साम्यवाद,तो कभी समाजवाद तो कभी हिंदुत्ववाद के नाम पर हमें ठगा जाता रहा है। आज राजनीति समाजसेवा का साधन नहीं रहकर एक गन्दा पेशा बन चुकी है। क्या कोई इस गंदे पेशे में आकर भी शुद्ध रह सकता है? असंभव तो यह भी नहीं है लेकिन देश का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य हमें इस बात की ईजाजत भी नहीं देता कि हम टीम अन्ना की बातों पर आँख मूंदकर भरोसा कर लें। इस समय कांग्रेस की हालात देश की अर्थव्यवस्था की ही तरह काफी पतली है और उसके अगले चुनावों में हार जाने के पूरे आसार हैं। वह तभी चुनाव जीत सकती है जब कोई तीसरी शक्ति बीच में आकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा के वोट काट ले और वह शक्ति बनने जा रही है जाने-अनजाने में टीम अन्ना। चाहे वह कांग्रेस से अंदरखाने मिली हुई हो अथवा नहीं मिली हुई हो उसके द्वारा राजनीतिक पार्टी के गठन और उसके झंडे तले चुनाव लड़ने से अगर किसी को थोड़ा या बहुत फायदा होने जा रहा है तो वह है महाभ्रष्ट कांग्रेस पार्टी। कुछ इसी तरह बिना होश और भरपूर जोश वाली लड़ाई 1995 में बिहार विधानसभा के चुनाव में आनंद मोहन ने छेड़ी थी और अंततः उससे लाभ उठाया था उनके कथित महाशत्रु लालू प्रसाद यादव ने।
               मित्रों,मैं बार-बार टीम अन्ना से अनुरोध करता रहा हूँ कि वह पहले जनता के बीच जाकर सामाजिक कार्यक्रम चलाए फिर आन्दोलन में उतरे। मैंने उससे यह भी अनुरोध किया था कि वह राजनीति में नहीं आए परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। मैंने उसकी भ्रष्टाचार के अंत के प्रति निष्ठा पर संदेह भी व्यक्त किया था (देखें मेरा आलेख "अन्ना तुम गद्दार तो नहीं हो" ब्रज की दुनिया ब्लॉग पर)। लेकिन सब व्यर्थ! अंत हुआ वही जो नहीं होना चाहिए था। अब अचानक हम जैसे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के अहितचिंतकों को ऐसा लग रहा है जैसे सबकुछ एकबारगी समाप्त हो गया है। बड़ी मुश्किल से तो जनता ने इस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर टीम अन्ना पर विश्वास किया था अब निकट-भविष्य में शायद ही वह किसी अन्ना-सदृश व्यक्ति पर विश्वास करे। टीम अन्ना का राजनीति का हिस्सा बन जाना वस्तुतः एक महान आन्दोलन मात्र की उसके जनक द्वारा हत्या नहीं है बल्कि यह जनता के इस पुनीत विश्वास की भी अकाल-मृत्यु है कि भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है,यह उस जन-आस्था का देहांत है जो यह मानने लगी थी कि अब सत्ता बदलेगी या नहीं लेकिन व्यवस्था बदलेगी। आईये इस पवित्र और महान जनविश्वास की जघन्य हत्या पर हम दो सौ वर्षों का मौन धारण करें। आप भी मेरे साथ स्वर-में-स्वर मिलाते हुए नारा लगाईये-जब तक सूरज चांद रहेगा,अन्ना आन्दोलन तू बदनाम रहेगा। अंत में अन्ना स्टाईल में-वन्दे कुर्सियम.        

बुधवार, 1 अगस्त 2012

बिहार में सुशासन-मिथक या यथार्थ

मित्रों,आपकी नजर में सुशासन का मतलब क्या है,शायद अच्छा शासन लेकिन बिहार सरकार की दृष्टि में सुशासन का यह मतलब कतई नहीं है.इस महान व ऐतिहासिक प्रदेश की सरकार दुनिया के सारे शब्दकोशों से विलग मानती है कि सुशासन का अर्थ है भ्रष्टाचार को छिपा लेना जिससे जनता और खासकर प्रदेश के बाहर की जनता की निगाहों में शासकीय कालीन के नीचे दबी गंदगी न आने पाए.
           मित्रों,राज्य सरकार द्वारा अपने पक्ष में जोरदार प्रचार-प्रसार करने के कारण शायद आपको यकीन नहीं आ रहा होगा परन्तु मेरा सच सोलहो आने सच है.जबसे प्रदेश में नीतीश सरकार का पदार्पण हुआ है "ऊपर से फिट फाट भीतर से सिमरिया घाट" वाला खेल चल रहा है.शासकीय पारदर्शिता की लौ को मद्धिम करने के प्रयास वर्ष २००५ से ही लगातार यत्नपूर्वक किए जा रहे हैं.इस दिशा में सरकार ने पहली कोशिश की सूचना के अधिकार के तहत अपील को मुश्किल बनाकर.संसद द्वारा पारित मूल अधिनियम के तहत जहाँ अपील करने पर कोई फीस नहीं देनी पड़ती है वहीं नीतीश सरकार ने देश के इस सबसे गरीब राज्य की जनता के लिए यह प्रावधान बिहार सूचना का अधिकार नियमावली २००६ के अंतर्गत कर दिया कि उसे अपील में जाने पर ५० रूपये की अतिरिक्त मोटी फीस अदा करनी पड़ेगी.जाहिर है कि सरकार सूचना प्राप्त करने की कोशिशों को हतोत्साहित करना चाहती थी.इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने लगातार दूसरी बार मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर आई.ए.एस. अधिकारी की नियुक्ति कर दी है.अब शायद राज्य में यह रवायत ही बन जाए कि राज्य का पूर्व मुख्य सचिव मुख्य सूचना आयुक्त होगा.ये पूर्व आई.ए.एस. अपीलकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाने से ज्यादा अपीलों को ख़ारिज (निरस्त) करने में ज्यादा यकीन रखते हैं.राज्य के पिछले सी.आई.सी. ए.के. चौधरी ने करीब ३०००० अपीलों को बिना किसी ठोस आधार के निरस्त कर दिया.यह स्वाभाविक है कि अगर किसी प्रबुद्ध नागरिक की अपील बेवजह ठुकरा दी जाती है तो वह शायद ही अपने समय,धन और श्रम की बर्बादी करके दोबारा सूचना मांगने का साहस कर पाएगा.
                मित्रों,दिखावे के लिए सरकार ने जानकारी नामक सेवा भी चला रखी है जिसके तहत फोन पर ही सूचना के अधिकार के तहत आवेदन स्वीकार किए जाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस प्रक्रिया के तहत कभी कोई भी जानकारी प्रार्थी को नहीं प्राप्त हो पाती क्योंकि तत्संबंधी तंत्र को विकसित ही नहीं किया गया है.वैसे मैंने तो सैंकड़ों बार इस नंबर १५५३११ पर फोन लगाने का प्रयास किया परन्तु फोन कभी लगा ही नहीं.जाने वे कौन लोग हैं और कैसे लोग हैं जिनका फोन मिल जाया करता है?
                मित्रों,अगर आप बिहार में रहते हैं तो रोजाना राज्य के प्रमुख अख़बारों में पढ़ते होंगे कि आज अमुक अधिकारी पर सूचना के अधिकार के तहत निर्धारित समय में सूचना उपलब्ध नहीं करवाने के कारण इतने रूपये का जुर्माना किया गया.परन्तु क्या वह जुर्माना उनसे सचमुच में वसूल भी किया जाता है?यक़ीनन नहीं किया जाता.जुर्माना आदि सब दिखावा है.उदाहरण के लिए वित्तीय वर्ष २०११-१२ में राज्य के विभिन्न अधिकारियों पर इस अधिनियम के तहत ८.३१ लाख रूपये का जुर्माना किया गया मगर वसूली की गयी सिर्फ ३२००० रूपये की.इसके लिए जिम्मेदार कौन है निश्चित रूप से राज्य सूचना आयोग जिसका मुखिया स्वयं एक पूर्व अधिकारी होने के नाते अपने मौसेरे भाइयों के खिलाफ (नया मुहावरा अफसर अफसर मौसेरे भाई) सख्त कदम नहीं उठाता और जुर्मानेवाली बात सिर्फ अख़बारों की सुर्खियाँ बनकर रह जाती हैं.प्रार्थी भी पढ़कर खुश हो लेता है कि जुर्माना तो हुआ.दिल को बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.
                  मित्रों,सूचना के अधिकार को कौनहारा घाट पहुँचाने के बाद अब राज्य सरकार ने एक अनोखी पहल करते हुए आदेश जारी किया है कि सरकारी व्यय से सम्बंधित एसी-डीसी बिल की जाँच महालेखाकार (ए.जी.) नहीं करेगा बल्कि खुद राज्य सरकार के कर्मचारी यानि कोषागार के अधिकारी करेंगे.यह तो वही बात हुई कि परीक्षार्थी खुद ही अपनी काँपियाँ जाँचें.इसे कहते हैं वास्तविक सुशासन.अद्भुत,चमत्कारिक आइडिया.न भविष्य में कहीं कोई आर्थिक अनियमितता पकड़ में आएगी और न ही सरकार को शर्मिंदगी ही उठानी पड़ेगी.परन्तु क्या इससे या ऐसा करने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा?क्या इससे उसे और भी बढ़ावा नहीं मिलेगा?जिस तरह शुतुरमुर्ग के बालू में सिर छिपा लेने से आसन्न खतरा टल नहीं जाता अथवा जैसे कबूतरी द्वारा आँखें बंद कर लेने से बिल्ला उसे छोड़ नहीं देता उसी प्रकार सरकार द्वारा ऑंखें बंद कर लेने से भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की सेहत पर कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता उलटे उनका मनोबल बढ़ता है.सरकार के इस कदम से हम यह सोंचने के लिए भी बाध्य होते हैं कि क्या यह उसी नीतीश कुमार की सरकार द्वारा उठाया गया कदम है जिन्होंने कभी खुलकर अन्ना आन्दोलन का समर्थन किया था?
                    मित्रों,इस आलेख को पढने के बाद आप यह समझ गए होंगे कि बिहार में सुशासन एक मिथक था और है और आगे भी मिथक ही बना रहेगा.सिर्फ सुशासन-सुशासन का शोर मचाने से या रट्टा लगाने से आज तक दुनिया में न तो कहीं सुशासन आया है और न ही भविष्य में कभी आनेवाला ही है.आज तक बिहार की किसी सरकार में न तो वास्तविक सुशासन लाने की ईच्छाशक्ति थी और न वर्तमान सरकार में ही है.