रविवार, 12 अगस्त 2012

नीरो का रोम और सोनिया का भारत

मित्रों,बात बहुत पुरानी नहीं है इसलिए आपको भी याद होगी। वर्ष 2004 में घटी थी यह महान घटना। तब प्रधानमंत्री की कुर्सी को लात मारते हुए और कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं को दरकिनार कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने एक पूर्व नौकरशाह मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया था और अकस्मात् मीडिया ने उन्हें सिर-माथे पर बिठा लिया था। कोई उन्हें "त्याग की देवी" की उपाधि से विभूषित कर रहा था तो कोई अपनी पत्रिका के आमुख पर हंसती हुई सोनिया की तस्वीर के साथ बहुत-ही मोटे-मोटे अक्षरों में लिख रहा था "सोनिया ब्लौसौमिंग"। सबको न जाने क्यों लग रहा था कि अब भारत का वारा-न्यारा होकर रहेगा। देश के दरवाजे पर अब बदलाव दस्तक देने ही वाला है। खास आदमी की जगह आम आदमी की पार्टी जो सत्ता में आ गई थी।
             मित्रों,आज सोनिया के उस महान त्याग को 8 साल बीत चुके हैं। देश में खूब बदलाव हुआ है लेकिन धनात्मक की जगह ऋणात्मक। लगता है जैसे भारत के लिए समय की घड़ी उल्टी दिशा में चल पड़ी है। इन आठ सालों में देश की ऐसी की तैसी हो गई है। अर्थव्यवस्था पातालवासिनी होने को व्याकुल है तो कमजोर मानसून में भी घोटालों की बाढ़-सी आई हुई है। कांग्रेस अध्यक्षा और उनकी सरकार के मंत्रियों को देश की जनता के बैंक बैलेंस की चिंता होने के बदले (वोट) बैंक बैलेंस की चिंता है। अर्थव्यवस्था से लेकर आतंरिक सुरक्षा और बाह्य सुरक्षा प्रत्येक मोर्चे पर भारत और भारतीय संप्रभुता की हार हो रही है परन्तु सोनिया गाँधी एंड (फेमिली) कम्पनी उनके मूल देश के अब तक के महानतम शासक नीरो की तरह चैन (सत्ता) की बंशी बजाने में तल्लीन है। सत्ता लोलुपता की लाईलाज बीमारी से वे इस कदर ग्रसित हो गई हैं कि अपने कथित प्राणप्रिय पति द्वारा किए गए वादे और समझौते भी याद नहीं रहे। तभी तो उन्होंने (चाहे तो उनकी सरकार भी कह सकते हैं बात एक ही है) कल उच्चतम न्यायालय में यह झूठ बोला कि अब बांग्लादेशी घुसपैठियों को पहचानना संभव ही नहीं है। क्यों नहीं है और कैसे नहीं है? जो चीज म्यांमार के लिए संभव है वही सोनिया के लिए असंभव क्यों और कैसे है? मैं बताता हूँ रास्ता। मुझे पता है लेकिन आश्चर्य है कि सोनिया एंड कंपनी को पता नहीं है! सीधी बात है कि जिन बांग्लाभाषियों के पास 1971 के पूर्व के आवासीय प्रमाण हैं वे भारतीय बंगाली हैं (स्व. राजीव गाँधी द्वारा 1985 में किए गए समझौते के अनुसार भी) और जिनके पास नहीं हैं वे बांग्लादेशी घुसपैठी हैं। हो सकता है ऐसा करने से कुछ निर्दोष भी इसकी चपेट में आ जाएँ। लेकिन ऐसा करना ही पड़ेगा और कोई ऐसा विकल्प नहीं है जिससे भारत का भला होता हो। अगर आप ऐसा नहीं करती हैं तो 'कूदे बैल न कूदे तंगी' की तर्ज पर जो बांग्लादेशी परसों तक असम को जला रहे थे और जिन बांग्लादेशियों ने कल मुम्बई को जलाया है,आने कल में वही दिल्ली,कोलकाता और कटिहार को भी जला कर रख देंगे। फिर भी अगर आपको इस दिशा में कुछ भी करना नहीं है तो बना लीजिए चाहे जो भी बहाने बनाने हैं। आपकी आराम फरमाती सरकार फरमाती है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम मतदाता सूचियों से हटाना असंवैधानिक होगा। तो क्या उनको विशेष अभियान चलाकर भारत का मतदाता बना देना संवैधानिक है और संविधानसम्मत है? असलियत तो यह है कि भारतीय संविधान के अनुसार 19 जुलाई,1948 के बाद पूर्वी पाकिस्तान या वर्तमान बांग्लादेश से भारत में प्रवर्जन करने वाला प्रत्येक अप्रवासी अवैध है अगर उसने बिना विहित प्रक्रिया के नागरिकता अर्जित कर ली है तब भी। दरअसल सोनिया जी को प्रत्येक उस कदम से सख्त नफरत है जिससे भारत का कुछ भी भला होता हो। वे और उनकी कंपनी ने अपने जहाज को डूबने से बचाने के लिए भारत के भविष्य की संभावनाओं को ही डूबाकर रख दिया है। सच्चाई यह भी है कि उनके जैसा शासक जब तक सत्ता में है कोई जरुरत नहीं है आई.एस.आई. या चीन को भारत को कमजोर या अस्थिर करने के किसी तरह के प्रयास करने की और तब तक वे भारत के एशिया में शक्तिशाली होकर उभरने की आशंका से बेफिक्र होकर कान में मोम डालकर सो सकते हैं।
                 मित्रों,चाहे कोई माने या न माने कड़वी सच्चाई तो यही है कि वर्ष 2009 में अपनी दूसरी पारी में सोनिया जी की सरकार ने अब तक जाति और धर्म का कार्ड खेलने के सिवाय ऐसा कुछ भी नहीं किया है,ऐसा कोई एक कदम भी नहीं उठाया है जिससे देश मजबूत होता हो। बल्कि उसने सिर्फ और सिर्फ वही किया है जिससे देश कमजोर होता हो और उनका खुद का बैंक बैलेंस और वोट बैंक बैलेंस मजबूत होता हो। जो सरकार यूपीए-1 में थोड़ा-बहुत अच्छा काम कर रही थी वही सरकार अब सिर्फ गूँ बनाने की फैक्टरी बनकर रह गई हैं। इस सरकार और इसके मंत्रियों के होने या न होने का कोई औचित्य हो नहीं बचा है। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं और सोनिया जी इससे पूरी तरह अप्रभावित बनी हुई हैं। ऐसा लग रहा है जैसे वे भारत की हैं ही नहीं बल्कि किसी शत्रु देश द्वारा भेजी गई हैं और भारत से अपना पुराना हिसाब गिन-गिनकर चुकता कर रही हैं। 2004 की हमारी कुलगौरव 2012 में कुलबोरनी बन गई है। उनको एक सामान्य और स्वार्थी स्त्री की तरह सिर्फ और सिर्फ अपने घर-परिवार की चिंता है देश की नहीं। कुछ इसी तरह के हालात को बयां करता अमर फिल्म अमरप्रेम का एक अमर गीत इस समय मुझे याद आ रहा है-मँझधार में नैया डोले तो माँझी जान बचाए,माँझी जब नाव डूबोए तो उसे कौन बचाए?
                  मित्रों,आपके पास कोई उत्तर है क्या इस प्रश्न का?है यक़ीनन है लेकिन आपको याद नहीं आ रहा है। जैसे हनुमान को तब तक अपनी शक्तियाँ याद नहीं आती थीं जब तक कोई उनको याद नहीं दिलाता था उसी तरह आप भी भूल गए हैं कि देश की डूबती नैया को सिर्फ आप ही डूबने से बचा सकते हैं। बस आपको करना यही है कि अगले लोकसभा चुनाव में देश की पतवार को इस विश्वासभंजक सोनिया के हाथों से छीन लेना है। हाँ,लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना है कि कहीं गलती से भी पतवार फिर से किसी कुलघातक के हाथों में न चली जाए।    
                    

3 टिप्‍पणियां:

Shanti Garg ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन और प्रभावपूर्ण रचना....
मेरे ब्लॉग

जीवन विचार
पर आपका हार्दिक स्वागत है।

Shanti Garg ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन और प्रभावपूर्ण रचना....
मेरे ब्लॉग

जीवन विचार
पर आपका हार्दिक स्वागत है।

Sanju ने कहा…

Very nice post.....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.

***HAPPY INDEPENDENCE DAY***