मित्रों,हम भारतीय बहुत ही स्वप्नदर्शी हैं। हमारी आँखों में एकसाथ कई-कई सपने हमेशा तैरते रहते हैं और इस हकीकत को देश में कोई अगर सबसे बेहतर जानता है तो वह है नेता। यही कारण है कि वह कभी गरीबी मिटाने तो कभी बेरोजगारी दूर करने तो कभी भोजन की गारंटी देने का झूठा वादा करके हमारे सपनों को मीठी थपकी देता रहता है। यह वह कौम है जो पिछले 65 सालों से हमारे सपनों के साथ खिलवाड़ करता रहा है और जब तक हम उसके दिखाए सपने से बाहर आते हैं वह हमारे सूबे और वतन को बहुत-कुछ लूट चुका होता है। शायद इसलिए हमारे नेताओं पर हमारे विश्वास का ग्राफ हमारे देश के इन दिनों के विकास-दर की तरह लगातार गोंतें खाता जा रहा है।
मित्रों,सपनों का सौदागर तो इस बार भी भ्रष्टाचार को मिटाने का सपना अपनी गठरी में लेकर हमारे सामने हाजिर था। परन्तु इस बार परंपरा से अलग सपनों का सौदागर कोई राजनेता नहीं था बल्कि एक प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता था जिसका नाम था अन्ना हजारे। वह और उसकी टीम पिछले डेढ़ सालों से जनता को बार-बार भ्रष्टाचारमुक्त भारत के सुनहरे सपने दिखा रही थी। भ्रष्टाचार से हताश-परेशान लोग उसके झांसे में आ भी रहे थे। वह कभी वन्दे मातरम का नारा ऊँची आवाज में लगाता तो कभी जनता की सहायता से व्यवस्था को बदल देने के दावे करता। इस बार पहले उसके शागिर्दों ने आमरण अनशन शुरू किया और शुरू भी किया तो इस ऐलान के साथ कि वे देश के लिए बलिदान देना चाहते हैं। लोग उसमें और उसकी टीम में शहीदे आज़म भगत सिंह की छाया देखने लगे थे कि तभी उसने अचानक यू टर्न लेते हुए अपना आमरण अनशन तोड़ दिया और सियासत में उतरने की घोषणा कर दी। हालाँकि अभी भी लग ऐसा रहा था कि इस मामले में टीम अन्ना के अन्य सदस्य अन्ना की नहीं सुन रहे थे और अन्ना हजारे स्वयं अभी भी पार्टी बनाकर सियासत में उतरना नहीं चाहते थे। जनता को जोर का झटका लगा वो भी धीरे-से नहीं बल्कि जोर से। भला ऐसा कैसे संभव है कि कल तक जो लोग राजनीति और राजनेताओं से सख्त नफरत करता था आज उनमें से ही एक हो जाना चाहते हैं? क्या यह सारा नाटक,आन्दोलन का तमाम तामझाम,बलिदानी तेवर सिर्फ इसलिए था ताकि संसद में चंद कुर्सियाँ पाई जा सके? क्या सिर्फ इन मुट्ठीभर लोगों के सांसद बन जाने से (अगर वे चुनाव जीत जाते हैं तो) व्यवस्था सचमुच बदल जाएगी?
मित्रों,इससे पहले भी कभी साम्यवाद,तो कभी समाजवाद तो कभी हिंदुत्ववाद के नाम पर हमें ठगा जाता रहा है। आज राजनीति समाजसेवा का साधन नहीं रहकर एक गन्दा पेशा बन चुकी है। क्या कोई इस गंदे पेशे में आकर भी शुद्ध रह सकता है? असंभव तो यह भी नहीं है लेकिन देश का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य हमें इस बात की ईजाजत भी नहीं देता कि हम टीम अन्ना की बातों पर आँख मूंदकर भरोसा कर लें। इस समय कांग्रेस की हालात देश की अर्थव्यवस्था की ही तरह काफी पतली है और उसके अगले चुनावों में हार जाने के पूरे आसार हैं। वह तभी चुनाव जीत सकती है जब कोई तीसरी शक्ति बीच में आकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा के वोट काट ले और वह शक्ति बनने जा रही है जाने-अनजाने में टीम अन्ना। चाहे वह कांग्रेस से अंदरखाने मिली हुई हो अथवा नहीं मिली हुई हो उसके द्वारा राजनीतिक पार्टी के गठन और उसके झंडे तले चुनाव लड़ने से अगर किसी को थोड़ा या बहुत फायदा होने जा रहा है तो वह है महाभ्रष्ट कांग्रेस पार्टी। कुछ इसी तरह बिना होश और भरपूर जोश वाली लड़ाई 1995 में बिहार विधानसभा के चुनाव में आनंद मोहन ने छेड़ी थी और अंततः उससे लाभ उठाया था उनके कथित महाशत्रु लालू प्रसाद यादव ने।
मित्रों,मैं बार-बार टीम अन्ना से अनुरोध करता रहा हूँ कि वह पहले जनता के बीच जाकर सामाजिक कार्यक्रम चलाए फिर आन्दोलन में उतरे। मैंने उससे यह भी अनुरोध किया था कि वह राजनीति में नहीं आए परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। मैंने उसकी भ्रष्टाचार के अंत के प्रति निष्ठा पर संदेह भी व्यक्त किया था (देखें मेरा आलेख "अन्ना तुम गद्दार तो नहीं हो" ब्रज की दुनिया ब्लॉग पर)। लेकिन सब व्यर्थ! अंत हुआ वही जो नहीं होना चाहिए था। अब अचानक हम जैसे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के अहितचिंतकों को ऐसा लग रहा है जैसे सबकुछ एकबारगी समाप्त हो गया है। बड़ी मुश्किल से तो जनता ने इस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर टीम अन्ना पर विश्वास किया था अब निकट-भविष्य में शायद ही वह किसी अन्ना-सदृश व्यक्ति पर विश्वास करे। टीम अन्ना का राजनीति का हिस्सा बन जाना वस्तुतः एक महान आन्दोलन मात्र की उसके जनक द्वारा हत्या नहीं है बल्कि यह जनता के इस पुनीत विश्वास की भी अकाल-मृत्यु है कि भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है,यह उस जन-आस्था का देहांत है जो यह मानने लगी थी कि अब सत्ता बदलेगी या नहीं लेकिन व्यवस्था बदलेगी। आईये इस पवित्र और महान जनविश्वास की जघन्य हत्या पर हम दो सौ वर्षों का मौन धारण करें। आप भी मेरे साथ स्वर-में-स्वर मिलाते हुए नारा लगाईये-जब तक सूरज चांद रहेगा,अन्ना आन्दोलन तू बदनाम रहेगा। अंत में अन्ना स्टाईल में-वन्दे कुर्सियम.
मित्रों,सपनों का सौदागर तो इस बार भी भ्रष्टाचार को मिटाने का सपना अपनी गठरी में लेकर हमारे सामने हाजिर था। परन्तु इस बार परंपरा से अलग सपनों का सौदागर कोई राजनेता नहीं था बल्कि एक प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता था जिसका नाम था अन्ना हजारे। वह और उसकी टीम पिछले डेढ़ सालों से जनता को बार-बार भ्रष्टाचारमुक्त भारत के सुनहरे सपने दिखा रही थी। भ्रष्टाचार से हताश-परेशान लोग उसके झांसे में आ भी रहे थे। वह कभी वन्दे मातरम का नारा ऊँची आवाज में लगाता तो कभी जनता की सहायता से व्यवस्था को बदल देने के दावे करता। इस बार पहले उसके शागिर्दों ने आमरण अनशन शुरू किया और शुरू भी किया तो इस ऐलान के साथ कि वे देश के लिए बलिदान देना चाहते हैं। लोग उसमें और उसकी टीम में शहीदे आज़म भगत सिंह की छाया देखने लगे थे कि तभी उसने अचानक यू टर्न लेते हुए अपना आमरण अनशन तोड़ दिया और सियासत में उतरने की घोषणा कर दी। हालाँकि अभी भी लग ऐसा रहा था कि इस मामले में टीम अन्ना के अन्य सदस्य अन्ना की नहीं सुन रहे थे और अन्ना हजारे स्वयं अभी भी पार्टी बनाकर सियासत में उतरना नहीं चाहते थे। जनता को जोर का झटका लगा वो भी धीरे-से नहीं बल्कि जोर से। भला ऐसा कैसे संभव है कि कल तक जो लोग राजनीति और राजनेताओं से सख्त नफरत करता था आज उनमें से ही एक हो जाना चाहते हैं? क्या यह सारा नाटक,आन्दोलन का तमाम तामझाम,बलिदानी तेवर सिर्फ इसलिए था ताकि संसद में चंद कुर्सियाँ पाई जा सके? क्या सिर्फ इन मुट्ठीभर लोगों के सांसद बन जाने से (अगर वे चुनाव जीत जाते हैं तो) व्यवस्था सचमुच बदल जाएगी?
मित्रों,इससे पहले भी कभी साम्यवाद,तो कभी समाजवाद तो कभी हिंदुत्ववाद के नाम पर हमें ठगा जाता रहा है। आज राजनीति समाजसेवा का साधन नहीं रहकर एक गन्दा पेशा बन चुकी है। क्या कोई इस गंदे पेशे में आकर भी शुद्ध रह सकता है? असंभव तो यह भी नहीं है लेकिन देश का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य हमें इस बात की ईजाजत भी नहीं देता कि हम टीम अन्ना की बातों पर आँख मूंदकर भरोसा कर लें। इस समय कांग्रेस की हालात देश की अर्थव्यवस्था की ही तरह काफी पतली है और उसके अगले चुनावों में हार जाने के पूरे आसार हैं। वह तभी चुनाव जीत सकती है जब कोई तीसरी शक्ति बीच में आकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा के वोट काट ले और वह शक्ति बनने जा रही है जाने-अनजाने में टीम अन्ना। चाहे वह कांग्रेस से अंदरखाने मिली हुई हो अथवा नहीं मिली हुई हो उसके द्वारा राजनीतिक पार्टी के गठन और उसके झंडे तले चुनाव लड़ने से अगर किसी को थोड़ा या बहुत फायदा होने जा रहा है तो वह है महाभ्रष्ट कांग्रेस पार्टी। कुछ इसी तरह बिना होश और भरपूर जोश वाली लड़ाई 1995 में बिहार विधानसभा के चुनाव में आनंद मोहन ने छेड़ी थी और अंततः उससे लाभ उठाया था उनके कथित महाशत्रु लालू प्रसाद यादव ने।
मित्रों,मैं बार-बार टीम अन्ना से अनुरोध करता रहा हूँ कि वह पहले जनता के बीच जाकर सामाजिक कार्यक्रम चलाए फिर आन्दोलन में उतरे। मैंने उससे यह भी अनुरोध किया था कि वह राजनीति में नहीं आए परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। मैंने उसकी भ्रष्टाचार के अंत के प्रति निष्ठा पर संदेह भी व्यक्त किया था (देखें मेरा आलेख "अन्ना तुम गद्दार तो नहीं हो" ब्रज की दुनिया ब्लॉग पर)। लेकिन सब व्यर्थ! अंत हुआ वही जो नहीं होना चाहिए था। अब अचानक हम जैसे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के अहितचिंतकों को ऐसा लग रहा है जैसे सबकुछ एकबारगी समाप्त हो गया है। बड़ी मुश्किल से तो जनता ने इस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर टीम अन्ना पर विश्वास किया था अब निकट-भविष्य में शायद ही वह किसी अन्ना-सदृश व्यक्ति पर विश्वास करे। टीम अन्ना का राजनीति का हिस्सा बन जाना वस्तुतः एक महान आन्दोलन मात्र की उसके जनक द्वारा हत्या नहीं है बल्कि यह जनता के इस पुनीत विश्वास की भी अकाल-मृत्यु है कि भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है,यह उस जन-आस्था का देहांत है जो यह मानने लगी थी कि अब सत्ता बदलेगी या नहीं लेकिन व्यवस्था बदलेगी। आईये इस पवित्र और महान जनविश्वास की जघन्य हत्या पर हम दो सौ वर्षों का मौन धारण करें। आप भी मेरे साथ स्वर-में-स्वर मिलाते हुए नारा लगाईये-जब तक सूरज चांद रहेगा,अन्ना आन्दोलन तू बदनाम रहेगा। अंत में अन्ना स्टाईल में-वन्दे कुर्सियम.
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