सोमवार, 29 जनवरी 2024

बिहार में दोषी कौन, नीतीश, लालू या कांग्रेस?

मित्रों, कई दशक बीत गए. पिताजी डॉ. विष्णुपद सिंह आर.पी.एस. कॉलेज, महनार, वैशाली के प्रधानाचार्य के पद से रिटायर हो चुके थे. बचे हुए शिक्षकों में प्रधानाचार्य बनने के लिए बड़ी मारा-मारी थी. तभी हमने सुना कि महाविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक गिरी चाचा ने प्रधानाचार्य बनने के बाद पहनने के लिए कोट भी सिलवा लिया है हालांकि वरीयता क्रम के अनुसार उनके प्रधानाचार्य बनने में अभी देरी थी. मित्रों, ठीक इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी साल २०१३-१४ से अचकन सिलाए बैठे हैं इस प्रतीक्षा में कि जब वो प्रधानमंत्री बनेंगे तब इसको पहनेंगे. इस तरह की एक और घटना महनार में रहते हुए हमें देखने को मिली थी. एक अधेड़ उम्र का बढ़ई बाल-बच्चेदार होते हुए भी शादी करने के लिए बेहाल था. महनार के माली टोला के युवकों ने एक बार उसको शादी करवा देने का लालच दिया. उन युवकों में से ही एक युवक को दुल्हन बना दिया गया. जमकर दावत हुई और सुहागरात के दिन जो होना था वही हुआ. जब पोल खुली तब बढ़ई ने लोगों को जमकर गाली दी. मित्रों, माननीय नीतीश जी की हालत न सिर्फ गिरी चाचा से बल्कि उस बुजुर्ग बढ़ई से भी मिलती है. कोई भी उनको प्रधानमंत्री बनाने के सपने दिखाकर बेवकूफ बना जाता है जबकि उनके पास सिर्फ १६ सांसद है हालाँकि बिहार के पड़ोसी झारखण्ड में निर्दलीय भी मुख्यमंत्री हो चुका है. मान लिया कि नीतीश जी को प्रधानमंत्री के पद के झूठे सपने दिखाकर धोखा दिया गया लेकिन उनको चने के झाड़ पर चढ़ने को किसने कहा था? क्या वो भी राहुल गाँधी की तरह पप्पू हैं? मित्रों, मैं यह नहीं कहता कि कल की नीतीश की पल्टी के लिए सिर्फ नीतीश जी ही दोषी हैं. उनको झूठे सपने दिखाकर मूर्ख बनानेवाले भी कम दोषी नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा दोषी खुद नीतीश जी हैं इसमें कोई सन्देह नहीं. आखिर २०२० का विधानसभा चुनाव उन्होंने भाजपा के साथ रहकर जीता था फिर उनको जनमत का अपमान करने का अधिकार किसने दिया था? इसी तरह उन्होंने २०१७ में भी जनमत को ठेंगा दिखाया था जो गलत था. खैर लौट के बुद्धू घर को आए और उम्मीद करता हूँ कि अब वो पलटी नहीं मारेंगे. शायद!

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

मेरे पिता स्व. डॉ. विष्णुपद सिंह

मित्रों, मेरे पिता स्व. डॉ. विष्णुपद सिंह को दुनिया से गए आज पूरे तीन साल हो चुके हैं. आज ही के दिन रात के ९ बजे उन्होंने स्थानीय गणपति अस्पताल में अंतिम सांस ली थी हालाँकि वे ५ जनवरी २०२१ से ही बेहोश थे. इन तीन सालों में मैं अपने ही पिता को शाब्दिक श्रद्धांजलि नहीं दे पाया जबकि गाहे-बेगाहे लिखना मेरी आदत रही है. दरअसल मेरे पिता मेरे सूर्य थे और उनका अस्त हो जाना जैसे मेरे जीवन में अकस्मात् शाम नहीं सीधे अर्द्धरात्रि ले आया. उस अँधेरे में मैं उन शब्दों को खोजता रहा जिन शब्दों द्वारा मैं अपने पिता के जीवन और मेरे जीवन में उनके महत्व को अभिव्यक्त कर सकूं. पिताजी को याद करते ही मेरा मन और मेरी लेखनी का भावुकता के मारे गला ही रूंध जाता और बात शुरू होने से पहले ही रूक जाती. मित्रों, मेरे पिता मेरे गुरु, मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक सबकुछ एक साथ थे. वो इस घनघोर कलियुग में भी घनघोर ईमानदार और आदर्शवादी थे. जाहिर है उनका और हमारा जीवन घनघोर अभावों में बीता. चाहते तो अपने ईमान का सौदा करके वैभवपूर्ण जीवन जी सकते थे लेकिन निहायत नरम, विनम्र और लचीले स्वभाव वाले मेरे पिता ने इस एक मुद्दे पर कभी समझौता नहीं किया. हमेशा कर्ज में रहे लेकिन देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण को चुकता करने में कभी कंजूसी नहीं की. पटना यूनिवर्सिटी के टॉपर होते हुए भी आरपीएस कॉलेज, चकेयाज, महनार जैसे देहात में शिक्षण किया. खुद का चूल्हा भले ही जले या न जले गरीब विद्यार्थियों की फीस बेफिक्र होकर अपनी जेब से भर देते यहाँ तक कि कर्ज लेकर भी. अपने ३५-४० साल लम्बे अध्यापन काल के आरंभिक १५ वर्षों तक जब तक कॉलेज सरकारी नहीं हुआ था मामूली वेतन पर काम किया पर विद्यार्थियों को फ्री में ट्यूशन, गेस और नोट्स देते रहे. उनके नोट्स गागर में सागर होते. होते भी क्यों नहीं पिताजी एक साथ अंकगणित, हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान जो थे, इतिहास के तो वो प्राध्यापक ही थे. मित्रों, उन्होंने एक साथ तीन पीढ़ियों को पढाया लेकिन उनका कॉलेज में कभी किसी से न तो झगडा हुआ और न ही बहस हुई. जब कभी छात्र आपस में मारा-मारी करने लगते तब पिताजी बिना कुछ कहे अपने कमरे से बाहर आकर बरामदे में खड़ा भर हो जाते क्षण भर में झगडा स्वतः बंद हो जाता. मित्रों, पिताजी अजातशत्रु थे फिर भी अपनी ससुराल में उनको जमीन का मुकदमा लड़ना पड़ा ठीक उसी तरह जैसे धर्मराज युधिष्ठिर को दुर्योधन से लड़ना पड़ा था. पिताजी विनम्र थे लेकिन दृढप्रतिज्ञ भी थे. जो धर्मयुद्ध मेरी नानी श्रीमती धन्ना कुंवर ने प्रारंभ किया था उसे उन्होंने अंजाम तक पंहुचा कर छोड़ा. साथ ही उन्होंने जिस तरह मेरी नानी का ख्याल रखा आज भी पूरे ईलाके में मिसाल है. मित्रों, मेरी पिताजी से कुछ शिकायतें भी हैं. उन्होंने कभी अपने परिवार और अपने परिवार के कल की चिंता नहीं की. साथ ही सिर्फ वो माँ को ही परिवार समझने लगे थे अपने एकमात्र पुत्र और पुत्रवधू की उन्होंने कभी क़द्र नहीं की. यही कारण था कि जब वे धराधाम से विदा हुए तब उनके सर पर अपनी छत नहीं थी और किराये के घर से ही उनका श्राद्ध हुआ और उनकी अटैची से सिर्फ ६०००० रू. ही निकले. फिर भी मैं अपने महान पिताजी को आज उनकी मृत्यु की तीसरी वार्षिकी पर अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ. मुझे आज भी इस बात का मलाल है कि वे बिना कुछ कहे अचानक बेहोश हो गए और फिर होश में नहीं आए. मैं ८ दिनों तक अस्पताल की कुर्सी पर बैठे-बैठे माता भगवती से उनके फिर से उठ खड़े होने की प्रार्थना करता रहा लेकिन वो नहीं माने वर्ना माता उनकी बात काट ही नहीं सकती. पिताजी आप न सिर्फ मेरे पिता थे बल्कि आदर्श और गुरु भी थे और हमेशा रहेंगे. पिताजी मैं आपकी कमी रोजाना महसूस करता हूँ और प्रत्येक क्षण आपको याद करता हूं. आपको कोटिशः नमन बाबू. जब तक आप जीवित थे आपकी ख़ुशी में ही मैंने अपनी ख़ुशी समझी और अपना सबकुछ आपको समर्पित कर दिया. अब आप नहीं हैं तो मैं आपको अपने उद्गार चंद शब्दों के माध्यम से समर्पित करता हूँ. जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए, अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिए....