शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

लोकतंत्र की विडंबना हैं बिहार-उत्तर प्रदेश

मित्रों,इन दिनों उत्तर प्रदेश में चुनावी मौसम चल रहा है और कांग्रेस,सपा और आधुनिक मुद्राराक्षस पीके की तरफ से फिर से बिहार को दोहराने का प्रयास चल रहा है.कांग्रेस एक बार फिर से अपनी बर्बादी की कीमत पर प्रधानमंत्री को नीचा दिखाना चाहती है.आजकल कांग्रेस की बस इतनी ही रणनीति और ध्येय रह गया है.यह कांग्रेस न तो नेहरूवाली है और न ही इंदिरा-राजीव या नरसिंह राव वाली बल्कि यह इटलीवाली है जो जब १० साल तक सत्ता में थी तब भी देश को सिर्फ नुकसान पहुँचा रही थी और जब अब विपक्ष में है तब भी नुकसान पहुँचा रही है.वास्तविकता तो यह है कि यह सोनिया वाली इटालियन कांग्रेस भारतविरोधी ताकतों के हाथों का मोहरा बनकर रह गयी है.
मित्रों,आज एक समय में विश्व इतिहास और गणतंत्र का पालना रहे बिहार और उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र की क्या हालत है?कल जब बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की पुण्यतिथि पर पुष्पांजलि अर्पित कर रहे थे तब एक युवक जो पटना जिले का ही रहनेवाला था उनसे मिलने की कोशिश कर रहा था.बेचारे की बहन की ईज़्ज़त को दबंगों ने तार-तार कर दिया था और पुलिस केस दर्ज करने के लिए पैसे मांग रही थी.एक भाई जिसकी ज़िन्दगी को एक गाली बना दिया गया हो उसको मुकदमा दर्ज तक करवाने के लिए मुख्यमंत्री के यहाँ फरियाद लगानी पड़े इससे बड़ी विडंबना उस लोकतंत्र के लिए और क्या हो सकती है जिसको किताबों में जनता का,जनता द्वारा और जनता के लिए शासन बताया जाता है.
मित्रों,उत्तर प्रदेश की स्थिति तो और भी विचित्र है.वहाँ तो बलात्कार को मामूली ग़लती माना जाता है और ऐसी ग़लती मंत्री भी करते रहते है.हास्यस्पद तो यह है कि मंत्री का नाम प्रजापति है यानी प्रजा के रक्षक. वहाँ तो मंत्री के ऊपर केस दर्ज करवाने के लिए पीडिता को सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ता है.जाहिर है कि इन दिनों उत्तर प्रदेश में गुण्डों का,गुण्डों द्वारा और गुण्डों के लिए शासन है.
 मित्रों,पता नहीं आज कर्पूरी या लोहिया जीवित होते तो क्या प्रतिक्रिया करते लेकिन इतना तो तय है कि इस समय जो शासन बिहार और उत्तर प्रदेश में है वो किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र नहीं है.बिहार में भ्रष्टतंत्र है और उत्तर प्रदेश में गुंडातंत्र.बिहार के लोग तो गलती कर चुके हैं मगर क्या उत्तर प्रदेश के लोग भी वही गलती करने की गलती करेंगे? इसी तरह से बिहार में भी बिहारी और बाहरी का वितण्डावाद खड़ा किया गया था लेकिन आज आम बिहारी कहाँ है और उसकी ईज़्ज़त कहाँ है?थाने के बाहर उसको नंगा करके खड़ा कर दिया गया है कथित सू शासन की उपलब्धि के रूप में. शायद अगली बार सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद भी कार्रवाई तो दूर एफआईआर तक दर्ज न हो.

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

पहले बीएसईबी, अब बीएसएससी, नेक्स्ट?



मित्रों,कई साल पहले २०११ की बात है.तब हमें बिहार सचिवालय सहायक परीक्षा जो बीएसएससी लेती थी देने बेगुसराय जाना था.एक दिन पहले ही हम बेगुसराय पहुँच गए.परीक्षा अच्छी जानी थी सो गयी.आखिर हम आईएएस के साक्षात्कार तक फेस किए अभ्यर्थी थे.उधर से वापस हाजीपुर आने में हमारी हालत ख़राब हो गयी.ट्रेन में इतनी भीड़ कि पेशाब करने तक जाना मुश्किल ही नहीं असंभव जैसा था.किसी तरह से हम हाजीपुर पहुंचे.
मित्रों,परीक्षा के कुछ ही दिन बाद हमारा एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से मिलने जाना हुआ.हमने जब उनसे बताया कि हमने ये परीक्षा दी है जो काफी अच्छी भी गयी है तो उन्होंने सीधे-सीधे कहा कि आप कतई पास नहीं होने जा रहे हैं क्योंकि सारी सीटें बेचीं जा चुकी हैं.जब रिजल्ट आया तो उनका कहा सच साबित हुआ.मैं क्या करता?हाथ में कलम थी मन में गुस्सा सो बिहार कर्मचारी आयोग है या बिहार कुर्मी चयन आयोग शीर्षक से एक आलेख ब्रज की दुनिया पर लिख डाला.
मित्रों,जाहिर था कि आयोग में सारा खेल सीएम की मर्जी से खेला जा रहा था इसलिए कोई प्रभाव नहीं हुआ.लेकिन वो कहते हैं न कि पाप का घड़ा एक-न-एक दिन भर जाता है सो एक दिन इंटर आर्ट्स की बिहार टॉपर का मामला मीडिया के सामने आ गया और सामने आ गयी सुशासन की मखमली कालीन के नीचे छिपी हुई सड़ांध.जाँच की आंच बोर्ड के अध्यक्ष लालकेश्वर तक पहुँच गयी और पता चला कि नीतीश के लाल सह दलाल लालकेश्वर के सर पर स्वयं सुशासन बाबू का हाथ था.धीरे-धीरे घोटाले में जेल गए सारे लोग सरकार की मिलीभगत से बाहर भी आने लगे हैं.लालकेश्वर भी आ जाएँगे और मीडिया चीखती-चिल्लाती रह जाएगी.
मित्रों,बीएसईबी के बाद पाप का घड़ा भरा बीएसएससी का.इंटरस्तरीय परीक्षा से पहले ही उत्तर सोशल मीडिया पर वाईरल हो गया.इस बार भी सचिव तक घोटाले के तार पहुँच चुके हैं और श्रीमान जेल भेजे जा चुके हैं लेकिन सवाल उठता है कि हर डाल पर उल्लुओं को बिठाया किसने है?पूर्व मुख्यमंत्री मांझीजी कई बार कह चुके हैं कि बिहार में धडल्ले से अध्यक्ष और सचिव की कुर्सियां बेचीं जाती हैं.कहते हैं कि अगलगी में कुत्ते नहीं जलते ठीक उसी तरह जब कोइ घोटाला उजागर होता है तो अध्यक्ष या सचिव को कुछ दिनों के लिए पकड कर अन्दर कर दिया जाता है और सुशासन बाबू का बाल भी बांका नहीं होता. पता नहीं अगली बार किस विभाग के पाप का घड़ा भरकर फूटनेवाला है? जस्ट वेट एंड वाच.

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

शुभस्य शीघ्रम मोदी जी.


मित्रों,दूरदर्शी सरकार का दूरंदेशी बजट आ चुका है.बजट में एक तर खेती-किसानी को फिर से लाभकारी व्यवसाय बनाने पर जोर दिया गया है तो वहीँ दूसरी ओर देश की आधारभूत संरचना के विकास के साथ-साथ रोजगार-सृजन पर भी पर्याप्त बल दिया गया है.लेकिन अगर आम बजट की सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है तो वो एक खास प्रावधान के लिए जो इस सरकार को निश्चित रूप से पूर्ववर्ती सरकारों से अलग करता है और वह प्रावधान यह है कि अब देश के राजनैतिक दलों को २००० रु. से ज्यादा चंदा लेने पर उसका हिसाब देना होगा.यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूं कि अब तक यह सीमा २०००० रु. की थी और हमारे देश में राजनैतिक दलों को मिलनेवाले चंदे में से ८५ प्रतिशत २०००० रु. से कम होते हैं.यहाँ मैं आपको यह भी बता दूं कि बहुजन समाज पार्टी तो शत-प्रतिशत चंदा २०००० रु. से कम की राशि में प्राप्त करती है अर्थात हिसाब देने की जरुरत ही नहीं.
मित्रों,लेकिन सवाल उठता है कि राजनैतिक दलों को २००० रु. तक का चंदा नकद में और बिना हिसाब-किताब के लेने की छूट दी ही क्यों जाए जबकि सरकार पूरे आर्थिक कारोबार को यथासंभव कैशलेस बनाना चाहती है?रास्ता बतानेवाले को आगे तो चलना पड़ेगा.भ्रष्टाचार की गंगा को अगर सुखाना है तो पहले गंगोत्री को भ्रष्टाचारविहीन करना होगा और वह गंगोत्री हैं राजनैतिक दल.पहले ही केंद्र सरकार की सिफारिश पर चुनाव आयोग ऐसे सैंकड़ों पंजीकृत राजनैतिक दलों की मान्यता रद्द कर चुका है जिन्होंने कभी चुनाव ही नहीं लड़ा और जिनका धंधा ही चंदा लेकर कालेधन को सफ़ेद बनाना था.
मित्रों,अगर दिल पर हाथ रखकर कहें तो आज से चार-पांच साल पहले हम भ्रष्टाचार को लेकर पूरी तरह से निराश हो चुके थे और ऐसा मानने लगे थे कि चंदा प्राप्त करने के मामले में सारे राजनैतिक दल एक-से हैं.हमने मान लिया था कि इस मामले में कभी पारदर्शिता आ ही नहीं सकती क्योंकि ऐसा भी कहीं होता है कि बिल्ली खुद ही अपने गले में घंटी बांध ले.लेकिन सौभाग्यवश वर्तमान केंद्र सरकार ने इस दिशा में प्रचलित मान्यता को विखंडित करने का साहस किया है.लेकिन क्या २०००० की सीमा को २००० में बदल देना काफी होगा?क्या ऐसा कर देने से सारी पार्टियाँ ईमानदार हो जाएंगी? नहीं ऐसा लगता तो नहीं है.फिर क्यों नहीं राजनैतिक दलों के चंदों को पूरी तरह से कैशलेस कर दिया जाए?सौभाग्यवश कमोबेश बांकी के सारे दल भी इस मामले में सरकार का समर्थन कर रहे हैं.तो फिर देरी किस बात की है?शुभस्य शीघ्रम.पता नहीं फिर ऐसा अवसर आए न आए.
मित्रों,इतना ही नहीं सरकार को चाहिए कि राजनैतिक दलों के लिए न सिर्फ आय का शत-प्रतिशत ब्यौरा देना अनिवार्य कर दे बल्कि व्यय का हिसाब देना भी जरूरी कर दिया जाए.जनता को पता तो चले कि राजनैतिक दल चंदे में प्राप्त भारी-भरकम राशि का करते क्या हैं.