सोमवार, 22 सितंबर 2014

बिहार की उच्च शिक्षा के श्राद्ध-कर्म में आप सादर आमंत्रित हैं

22 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों, मैं आपसे पहले भी अर्ज कर चुका हूं कि हमारे बिहार का कबाड़ा करने में जवाब नहीं। जब नेपाल की सरकार ने बिहार में बाढ़ लाने से मना कर दिया तो बिहार सरकार ने राजधानी पटना को ही जलमग्न करवा दिया। आखिर राहत के लिए तैयार सामग्री को कहीं-न-कहीं तो खपाना ही था। वो तो भला हो कश्मीर का वरना बिहार के कई अन्य ईलाकों को भी जलमग्न करना पड़ता।
मित्रों,अब बिहार की शिक्षा को ही लीजिए। बिहार की प्राथमिक शिक्षा का तो पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही गला घोंट चुके थे लेकिन बिहार की उच्च शिक्षा अभी तक साँस लिए जा रही थी। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अब बहुत कम शिक्षक बच गए थे लेकिन दुर्भाग्यवश जो शिक्षक अभी तक रिटायर होने से बचे हुए थे उनमें से कई वास्तव में ज्ञानी थे। अब बिहार सरकार कोई नरेंद्र मोदी तो है नहीं कि वो कहे कि डिग्री के लिए नहीं ज्ञान के लिए पढ़ो। बल्कि उसका तो साफ तौर पर मानना है कि पढ़ो ही नहीं। हम साईकिल दे रहे हैं उसकी सवारी गांठो,हम पैसे दे रहे हैं उससे सिनेमा देखो या इंटरनेट पैकेज भरवाओ,हम पोशाक राशि दे रहे हैं उससे अच्छी-अच्छी पोशाक बनवाओ लेकिन पढ़ो मत। परीक्षाओं में हमने कदाचार की पूरी छूट दे रखी है इसलिए ज्ञान के पीछे,पढ़ाई के पीछे नहीं भागो डिग्री के पीछे भागो। नौकरी झक मारकर तुम्हारे पीछे आएगी। दूसरे राज्यों में अगर प्रतियोगिता परीक्षा के कारण नौकरी नहीं मिली तो हम हैं न। हाँ,इंटर और मैट्रिक की परीक्षा में खूब कागज काले करो और हमारे दिए पैसों में से कुछ बचाकर भी रखो क्योंकि जो शिक्षक तुम्हारी कॉपियाँ देखेंगे उनको भी कहाँ कुछ अता-पता है। वे तो तराजू पर तुम्हारी कॉपियाँ तौल कर ही या फिर तुमसे पैसे लेकर ही तुमको नंबर देंगे। चाहे तुम आईआईटी और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं में पास भी कर जाओ मगर हमारे परीक्षक तो तुमको केमिस्ट्री में 8 और गणित में 5 नंबर ही देंगे। देखा नहीं इसलिए तो हमने मुहम्मद बिन तुगलक से प्रेरित होकर पहले प्राथमिक विद्यालयों में नंबर के आधार पर शिक्षकों को बहाल किया और अब महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की बहाली भी नंबर के आधार पर करने जा रहे हैं।
मित्रों,हमारे मुख्यमंत्री मांझी जी जो कुछ भी बोलते रहते हैं यह भी कह सकते हैं कि गुजरात में भी तो मोदी ने स्कूल टीचर इसी तरह से बहाल किए थे। मगर गुजरात में इस तरह से मस्ती की पाठशाला तो नहीं चलती,परीक्षाएँ ओपेन बुक सिस्टम के आधार पर तो नहीं ली जातीं? बल्कि वहाँ तो वास्तव में ज्ञान के लिए शिक्षा दी जाती है डिग्री के लिए नहीं। अब आप हमारे बैच को ही लीजिए। मैं अपने बैच में प्रतिभा खोज परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम आया था। हमेशा ज्ञान के पीछे भागा। जबतक किसी प्रश्न का उत्तर नहीं पा जाता बेचैन रहा करता लेकिन जब मैट्रिक का रिजल्ट आया तो हमारी कक्षा का सबसे भोंदू विद्यार्थी जिसने वाकई विद्या की अर्थी ही निकाल दी थी और जिसको ए,बी,सी,डी और पहाड़ा तक का पता नहीं था उस रंजीत झा को सबसे ज्यादा अंक प्राप्त हुए थे क्योंकि उसकी बोर्ड में पैरवी थी। अब आप ही बताईए कि अगर मुझे और रंजीत को शिक्षक बना दिया जाए तो कौन अच्छा पढ़ाएगा? आप कहेंगे कि आप लेकिन बिहार सरकार तो कह रही है कि रंजीत झा छात्रों के उज्ज्वल भविष्य के लिए ज्यादा बेहतर साबित होगा भले ही रंजीत झा कभी कक्षा में जाए ही नहीं।  जिसने मैट्रिक,इंटर,बीए और पीजी की परीक्षाओं में जितना ज्यादा कदाचार किया उसके बिहार में असिस्टेंट प्रोफेसर बनने की संभावना उतनी ही ज्यादा है।
मित्रों,मेरे ममेरे भाई संतोष को भले ही कुछ नहीं आता हो,थीटा और बीटा के चिन्हों को भी वो पहचान नहीं पाए लेकिन हमारी बिहार सरकार को तो महाविद्यालय में गणित शिक्षक के तौर पर वही चाहिए भले ही सिर्फ कॉलेजों के स्टाफ रूम की शोभा बढ़ाने के लिए। लगता है कि बिहार सरकार इसलिए खुली प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली नहीं करना चाहती क्योंकि उसको लगता है कि अगर आईए,बीए में ज्यादा-से-ज्यादा नंबर पानेवाले परीक्षा में असफल हो गए तो वह असफलता बिहार की शिक्षा,परीक्षा और मूल्यांकन प्रणाली की असफलता होगी। इससे बिहार की शिक्षा और परीक्षा-प्रणाली की पोल भी खुल जाने का खतरा है। फिर हमलोगों के जैसे ज्ञानी मानव अगर प्रोफेसर बन गए तो विद्यार्थियों में विद्रोह और सरकार के विरोध की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा और हमारे महाविद्यालय और विश्वविद्यालय वास्तव में मस्ती की पाठशाला बन पाने से वंचित रह जाएंगे। विद्यार्थियों को पढ़ना पड़ेगा जिससे उनकी दिमागी हालत पर बुरा असर भी पड़ सकता है।
मित्रों,कहने का मतलब यह है कि बिहार लोक सेवा आयोग के माध्यम से बिहार सरकार ने बिहार में महाविद्यालय और विश्वविद्यालय शिक्षकों की बहाली के लिए जो अधिसूचना जारी की है और जो कार्यक्रम तय किए हैं वास्तव में वह बिहार की उच्च शिक्षा का श्राद्ध-कर्म कार्यक्रम है जिसमें आप सभी सादर आमंत्रित हैं।-मान्यवर,बड़े ही हर्ष के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि बिहार की उच्च शिक्षा का डिग्री का दौरा पड़ने से दिनांक 13 सितंबर,2014 को आकस्मिक निधन हो गया है। श्राद्ध-कर्म के लिए कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित किए गए हैं जिसमें आप सभी येन-केन-प्रकारेण उच्च प्राप्तांकधारी आमंत्रित हैं-
क्षौर-कर्म-              दिनांक 20-11-2014 के पाँच बजे शाम तक
बाँकी के एकादशा,द्वादशा को पिंडदान और महाभोज के बारे में आपको जानकारी भविष्य में दी जाएगी।
दर्शनाभिलाषी-महाठगबंधन के सभी सदस्य,
आकांक्षी-जीतनराम मांझी,मुख्यमंत्री,बिहार।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 21 सितंबर 2014

एक था पप्पू!

20 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,मैं वैसे तो कई पप्पुओं को जानता हूँ लेकिन इनमें से एक पप्पू ऐसा है जो इन दिनों पूरे बिहार को पप्पू बनाने की कोशिश कर रहा है। मैं बात कर रहा हूं श्रीमान राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव जी की। मैंने पहले पहल इन श्रीमान का नाम तब सुना जब पप्पू यादव जी निर्दलीय विधायक हुआ करते थे और किसी दारोगा जी की मूँछें इनको इतनी पसंद आ गई थीं कि इन्होंने उनको जड़ से उखाड़ ही लिया था। बाद में पप्पू जी लालू जी के द्वारा स्थापित यादव राज के प्रतीक बनकर उभरे और इस दौरान इनकी अदावत हुई एक और बाहुबली निर्दलीय विधायक आनंद मोहन के साथ। तब इन दोनों की मुठभेड़ की खबरों से बिहार के अखबार पटे रहते थे। यह वही समय था जब पूरा बिहार आरक्षण की जातीय आग में जल रहा था। यात्रियों को बसों से उतार-उतारकर उनकी जातियाँ पूछकर पीटा जा रहा था। एक बार फिर से पप्पू जी तब चर्चित हुए जेल में होते हुए भी सैर-सपाटा करते हुए पाए गए। इस बीच पप्पू यादव पूर्णिया से निर्दलीय सांसद बन बैठे और पूरा पूर्णिया जिला उनकी कृपा से राजपूत और यादव जातियों के बीच वर्चस्व का अखाड़ा बन गया। पूर्णिया के मरंगा गांव में एक धक्का सिंह नामक व्यक्ति का लाईन होटल था। एक दिन पप्पू जी के आदमी वहाँ चाय-पानी के लिए पहुँचे और उसका नाम पूछा। नाम सुनकर उनको लगा वो राजपूत होगा और बिना किसी दुश्मनी या बकझक के उन्होंने उसको राजपूत समझकर गोली मार दी। बाद में जब पता चला कि वह धक्का सिंह तो यादव है तब उसे लेकर पटना भागे और इस तरह बेचारे धक्का सिंह जी जान बच गई। उन दिनों इस जातीय झगड़े का मुख्य अखाड़ा था पूर्णिया बस स्टैंड।
मित्रों,तब तक एक बार मैं पप्पू यादव जी का 15 अगस्त,1993 के दिन पटना के सब्जीबाग में भाषण भी सुन चुका था। बड़ा बेकार-सा भाषण देते थे वे लेकिन तब तक मैं उनसे सीधे-सीधे प्रभावित नहीं था। वह गुंडा या अपराधी है तो मुझे क्या तब तक मेरे मन में पप्पू यादव को लेकर यही भाव रहता था लेकिन तब मैं यह नहीं जानता था कि इस व्यक्ति के कारण मेरी जिन्दगी तबाह हो जानेवाली है। हुआ यह कि वर्ष 1993 में पॉलिटेक्निक की प्रवेश परीक्षा में बैठा और पास हो गया लेकिन रैंक अच्छा नहीं आया। सो मेरा नामांकन दरभंगा पॉलिटेक्निक में सिविल इंजीनियरिंग में हो गया। दरभंगा पॉलिटेक्निक में जातीय तनाव जैसा कुछ नहीं था इसलिए वहाँ मेरा समय शांति से गुजरा। इसके कुछ महीने बाद ही इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में सीटें खाली हुईँ और तब मैं दरभंगा छोड़कर पूर्णिया पॉलिटेक्निक में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने पहुँचा लेकिन वहाँ का तो माहौल ही अलग था। वहाँ के अधिकतर विद्यार्थी यादव जाति से आते थे और वे सारे यादव विद्यार्थी कथित रूप से पप्पू यादव के आदमी थे। पहले दिन ही मुझसे वहाँ के छात्रसंघ के अध्यक्ष जयराम यादव ने मेरी जाति पूछी और राजपूत सुनते ही नाराज होकर गालियाँ देने लगा। मैं भौंचक्का था कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। हॉस्टल में रहना है तो ठीक वरना 500 रुपया वार्षिक रंगदारी टैक्स देना होगा।
मित्रों,मेरे साथ यादव जाति से आनेवाले विद्यार्थी लगातार काफी बुरा सलूक करते थे जो मेरे लिए नाकाबिले बर्दाश्त था। मैंने भी विरोध किया और अपने स्थानीय मित्र राजकुमार पासवान को साथ लेकर कॉलेज जाने लगा। कक्षा के दौरान ही जाति के आधार पर बंटे छात्रों के बीच अक्सर मारपीट होने लगती। यादव जाति के छात्र बहुधा प्रोफेसरों को भी अपमानित कर डालते थे। इस बीच पूर्णिया में रोजाना हत्याएँ होती थीं। उस समय पूर्णिया में दो आपराधिक गिरोह थे  जिनमें से एक का नेतृत्त्व पप्पू यादव कर रहे थे और दूसरे का नेतृत्त्व था वर्तमान बिहार सरकार में समाज कल्याण मंत्री लेशी सिंह के पति स्व. बूटन सिंह के हाथों में। कभी पप्पू यादव के लोग बूटन सिंह के लोगों को मार देते तो कभी बूटन सिंह के लोग पप्पू यादव के लोगों को। ज्यादातर हत्याएँ पूर्णिया कोर्ट के आसपास होती थीं। पूर्णिया पॉलिटेक्निक के पास ही मरंगा गांव था जो यादवों का गढ़ था इसलिए भी पूर्णिया पॉलिटेक्निक में यादवों का वर्चस्व था। एक बार तो मैंने खुद कचहरी के सामने से पप्पू यादव को अपने आदमी वीरो यादव की लाश के साथ जुलूस निकालते भी देखा था। धड़ाधड़ पूरे शहर की दुकानों के शटर बंद हो गए थे।
मित्रों,धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बन गई कि या तो मैं हत्या करता या फिर पूर्णिया पॉलिटेक्निक में ही मेरी हत्या हो जाती। मैं सीधा-सच्चा आदमी था इसलिए मैंने पॉलिटेक्निक में दो सालों की पढ़ाई कर लेने के बाद भी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और इस तरह मेरी जिन्दगी तबाह हो गई। अगर मेरी पढ़ाई पूरी हो गई होती तो मैं आज इंजीनियर होता और आराम की जिन्दगी जी रहा होता लेकिन पप्पू यादव के रंगदारी राज के चलते मेरा कैरियर चौपट हो गया। बाद मेें पप्पू यादव के लोगों ने बूटन सिंह और पूर्णिया के विधायक अजीत सरकार की हत्या कर दी। बाद में पप्पू यादव विभिन्न जेलों में भी रहे मगर फिर कानून की कमजोरियों का लाभ उठाकर बरी भी हो गए।
मित्रों,वही पप्पू यादव आज फिर से सहरसा-मधेपुरा में गरीबों के मसीहा होने का ढोंग कर रहे हैं। मेरा सीधे-सीधे मानना है कि यह व्यक्ति कल भी एक रंगदार था,आज भी है और कल भी रहेगा। यह सिर्फ गरीबों के नाम पर उनको उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा कर सकता है उनका भला नहीं कर सकता। यह आदमी जातीय वैमनस्यता फैलाकर समाज को पथभ्रष्ट कर सकता है समाज को सही दिशा नहीं दिखा सकता। यह हमारे बिहार की त्रासदी है कि इस तरह का गिरा हुआ आदमी बार-बार चुनाव जीत जा रहा है। चाहे अपराधी को प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ही क्यों न बना दिया जाए वह मूलतः अपराधी ही रहेगा, देश और समाज को त्रास ही देगा। आपने इस छुटभैय्ये अपराधी को पहले विधायक बनाया फिर एमपी। आपने इस दौरान इसमें क्या परिवर्तन देखा? यह पहले छोटा अपराधी था बाद में बड़ा अपराधी बन गया। अब यह मंत्री-मुख्यमंत्री बनना चाहता है। अगर यह पप्पू यादव जनता को धोखे में रखने में कामयाब हो गया तो निश्चित रूप से इस बार एक-दो नहीं बल्कि सैंकड़ों-हजारों ब्रजकिशोर सिंह को अपनी पढ़ाई अधूरी ही छोड़नी पड़ेगी। इसलिए आपलोगों से मैें हाथ जोड़कर अनुरोध करता हूँ कि इस रंगे सियार की बातों में,झाँसे में आने की भूल कदापि नहीं कीजिएगा। क्या विडंबना है कि जिसको मरते दम तक जेल में होना चाहिए वह व्यक्ति संसद की शोभा बढ़ा रहा है? जिसके हाथ सैंकड़ों अपराधी-निरपराध लोगों के खून से रंगे हुए हैं वह देश के लिए कानून बना रहा है और गंभीर-से-गंभीर मुद्दों पर विचारों की नफासत दिखा रहा है?? यह प्रश्न-चिन्ह वास्तव में हमारे मतदाताओं के विवेक पर लगा प्रश्न-चिन्ह है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

क्या फलदायी होगी बिहार के सीएम की लंदन-यात्रा?

21-09-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,किसी शायर ने क्या खूब कहा है कि तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर! सरफरोशी की गर तमन्ना है तो सर पैदा कर!! यहाँ कौन सी जगह है जहाँ जलवा-ए-माशूक नही! शौके दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर!!
मित्रों,अब हम बोलेंगे तो बिहार के मुख्यमंत्री कहेंगे कि बोलता है। मगर करें क्या इनका रवैया ही कुछ ऐसा है कि हमको बार-बार बोलना ही पड़ जाता है। अब जब देसी व्यवसायी बिहार में फूटी कौड़ी भी लगाने को तैयार नहीं हैं तब बिहार के मुख्यमंत्री आज लंदन जा रहे हैं विदेशी निवेशकों से प्रत्यक्ष बातचीत करके उनको प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के लिए तैयार करने के लिए। बिहार का दुर्भाग्य है कि यहाँ के नेता-मंत्री बहुत बार विदेशी दौरे कर चुके हैं लेकिन उसका लाभ अभी तक बिहार को चवन्नी का भी नहीं हुआ है। कोई जापान जाकर खेती करना सीखता है तो कोई अमेरिका जाकर जलापूर्ति के तरीके।
मित्रों,अभी पिछले महीने ही बिहार के नगर विकास मंत्री सम्राट चौधरी सीवेज सिस्टम देखने और सीखने के लिए लंदन जाना चाहते थे लेकिन तब इन्हीं जीतनराम मांझी ने उनको जाने नहीं दिया था क्योंकि उस समय पूरा पटना पानी में डूबा हुआ था। आज जबकि पटना में बरसात के पानी का जल-स्तर उस समय से और भी ज्यादा हो गया है तब मुख्यमंत्री खुद लंदन के लिए रवाना हो गए हैं पूँजी निवेश को आकर्षित करने।
मित्रों,जबसे बिहार में सुशासन की सरकार आई है तभी से नीतीश जी भी बिहार में पूंजी आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं और लगातार कर रहे हैं लेकिन बिहार में चंद चवन्नी-अठन्नी के अलावा कुछ आया नहीं। अब हम आते हैं उस शेर पर जिसको हमने आलेख की शुरुआत में ही लिखा था। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर बिहार में पूंजी निवेश चाहिए तो बिहार को ऐसा बनाईए कि लोग खुद ही चुंबक की तरह खिंचें चले आएँ। बिजली दीजिए,सड़कें दीजिए,जमीन दीजिए और सबसे जरूरी है कि अच्छी कानून-व्यवस्था दीजिए। जहाँ के अधिवासी अपने घरों तक में असुरक्षित हों,जहाँ की पुलिस डाका के दौरान फोन करने पर भी घटनास्थल पर हफ्तों तक नहीं पहुँचे और जहाँ अपने जान और माल की सुरक्षा स्वयं करें का नियम चलता हो वहाँ कोई होशमंद तो क्या कोई पागल भी अपनी पूंजी नहीं लगाएगा।
मित्रों,हमारे बिहार में बिजली का जाना नहीं बल्कि आना खबर बनती है। कई-कई दिनों तक लोगों को बिजली के दर्शन तक नहीं होते,सड़कों की हालत तो ऐसी है कि कई बार कुछ सड़कों से गुजरते हुए ऐसा महसूस होता है कि हम बाधा दौड़ में भाग ले रहे हैं। बरसात में अगर सड़कों पर पड़े गड्ढ़ों की गहराई का अंदाजा नहीं हो तो यकीनन आप अगले ही पल में छोटे-छोटे तालाब में मछली पकड़ते नजर आएंगे। उद्योग लगवाना है तो जमीन भी चाहिए और बिहार में कहाँ मिलेगी हजार-500 एकड़ जमीन ईकट्ठे? सड़क-रेल लाईन बनाने के लिए तो कोई किसान जमीन देना नहीं चाहता फिर बिहार सरकार उद्योगों के लिए जमीन कहाँ से लाएगी। कानून-व्यवस्था के बारे में हम थोड़ा-सा संकेत पहले भी दे चुके हैं। बिहार में आप दो-चार करोड़ के सड़क-निर्माण या दस-बीस लाख के स्कूल-भवन-निर्माण का भी ठेका अगर लेते हैं तो आपको दर्जनों छुटभैये रंगदारों का सामना करना पड़ेगा। कभी-कभी तो नक्सली भी पहुँच जाते हैं लेवी मांगने और नहीं देने पर जेसीबी-ट्रैक्टर आदि को फूँक डालते हैं और पुलिस उनकी कोई सहायता नहीं करती बल्कि उल्टे सलाह देती है कि साब! काहे को झंझट में पड़ रहे हो? दे दो न दो-चार लाख रुपया।
मित्रों,जाहिर है कि बिहार के पास अभी ऐसी नजर नहीं है कि उसको शौके दीदार का सौभाग्य मिले। हमारे बिहार में एक कहावत है कि बिन मांगे मोती मिले,मांगे मिले न भीख। मतलब कि किसी राज्य में पूंजी निवेश होगा या नहीं यह उस राज्य की परिस्थिति और योग्यता पर निर्भर करता है। अगर आपने वह योग्यता पैदा कर ली है तो आपको पैसों के लिए गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा लोग खुद ही पैसे लेकर आपके पीछे भागेंगे वरना आप लंदन-न्यूयार्क घूमते रहिए कोई आपके ईलाके में फूटी कौड़ी भी नहीं लगाएगा। पता नहीं हमारे मुख्यमंत्री इस हकीकत से वाकिफ हैं भी या नहीं। वैसे सरकारी खर्च पर विदेश-यात्रा पर जाने के लिए कोई-न-कोई बहाना तो चाहिए ही था। राज्य की जनता के दिल को बहलाने के लिए मांझी यह ख्याल अच्छा है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

बुधवार, 17 सितंबर 2014

नए भारत के विश्वकर्मा को जन्म दिन की शुभकामनाएँ

17 सिंतबंर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,यह कितना बड़ा संयोग है कि आज एक तरफ तो देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा के पूजन का दिन है तो वहीं दूसरी ओर आज भारत के प्रधानमंत्री जिन्होंने नवीन और ऊर्जावान भारत के निर्माण का बीड़ा उठाया है उन नरेंद्र मोदी का जन्म दिन भी है। यह सही है कि लोकतंत्र की अपनी मजबूरियाँ होती हैं लेकिन फिर भी नरेंद्र मोदी अबतक जिस तरह से सरकार का संचालन किया है वह भारत के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करने के लिए पर्याप्त है।
मित्रों,मैंने भी मोदी मंत्रिमंडल के गठन के समय कुछ मंत्रियों को मंत्री बनाए जाने को लेकर आपत्ति की थी लेकिन कल यूपी के लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों के जो परिणाम आए हैं उनसे पता चलता है कि कहीं-न-कहीं मोदी जी को भी वोटबैंक का ख्याल रखना पड़ता है। जब तक हमारे देश की जनता मूर्ख है तबतक मोदी जी जैसा देश का भला चाहनेवाला,सिर्फ देश के लिए जीने और मरनेवाला व्यक्ति भी लाचार रहेगा।
मित्रों,क्या कारण है कि कोई राजपूत दलितों का लाख हितैषी होने पर भी उनका नेता,उनके वोटों का ठेकेदार नहीं बन पाता? क्या कारण है कि कोई यादव राजपूत मतों पर अपना दावा नहीं कर पाता? क्या कारण है कि कोई ब्राह्मण बनियों को नेतृत्व नहीं दे पाता? कारण बस एक ही है और वह हमारे मतदाताओं की अपरिपक्वता जो आज भी अपनी जाति के लोगों को अपना नेता मानते हैं भले ही वह दशकों से उनको धोखा देता आ रहा हो। मैंने लोकसभा चुनावों के समय भाजपा के लोजपा के साथ जाने का विरोध किया था लेकिन भाजपा नहीं मानी क्योंकि उसके समक्ष और कोई चारा ही नहीं था। बिहार के दुसाधों के लिए रामविलास पासवान ही एकमात्र नेता हैं और दुसाधों का वोट चाहिए तो रामविलास पासवान को साथ में रखना ही होगा चाहे उनपर भ्रष्टाचार के कितने भी आरोप क्यों न हों।
मित्रों,इसलिए नरेंद्र मोदी को भी कई दागियों को मंत्रिमंडल में रखना पड़ा। लेकिन वाहवाही की बात तो यह है कि नरेंद्र मोदी ने उनलोगों को मनमानी करने की छूट नहीं दी है बल्कि पूरी तरह से शिकंजे में करके रखा है। वास्तविकता तो यह है यह सरकार पूरी तरह से एक ही व्यक्ति पर केंद्रित है और वह हैं नरेंद्र मोदी। मोदी जानते हैं कि अगर सरकार की वाहवाही होगी तो वह भी उनकी ही होगी और अगर बदनामी होगी तो वह भी केवल उनकी ही होगी।
मित्रों,इसलिए शपथ-ग्रहण से पहले कामकाज शुरू कर देनेवाले भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं नरेंद्र मोदी। यह उनकी अच्छी नीतियों का ही परिणाम है कि इस समय महंगाई दर पाँच साल के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गई है,विकास-दर ने कुलांचे भरना शुरू कर दिया है,बिजली के उत्पादन में 22 प्रतिशत की तेज वृद्धि हुई है,पूँजी-निवेश के क्षेत्र में धन-वर्षा के आसार बनने लगे हैं,भारत के भिखारियों तक के अच्छे दिन आते हुए दिखाई देने लगे हैं,सरकार में गति आई है,कुशलता आई है और 5 सालों तक सरकारविहीन रहे भारत में एक काम करती हुई सरकार नजर आने लगी है।
मित्रों,वैश्विक स्तर पर भी पिछले 100 दिनों में भारत का सिर ऊँचा हुआ है। आज चीन के राष्ट्रपति भारत आ रहे हैं और 100 अरब डॉलर के निवेश के प्रस्ताव ला रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे देश के राष्ट्रपति इस समय वियतनाम में हैं और उन्होंने तेल खोज से संबंधित ऐसे प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं जो निश्चित रूप से चीन को नागवार गुजरेगा लेकिन नरेंद्र मोदी की तो पॉलिसी ही है कि न हम सिर झुकाकर बात करेंगे और न ही सिर पर चढ़कर बल्कि हम आँखों में आँखें डालकर बराबरी के स्तर पर बातचीत करेंगे फिर चाहे सामने रूस हो,अमेरिका हो या चीन हो।
मित्रों,हमारे प्रधानमंत्री पुराने पिट चुके ढर्रे पर काम करने के बिल्कुल भी पक्षधर नहीं हैं तभी तो उन्होंने योजना आयोग नामक बेकार हो चुकी संस्था को समाप्त कर दिया,कई कैबिनेट समितियों का अंत कर दिया और कई ऐसे मंत्रालयों को मिलाकर एक-एक मंत्री ऱख दिया जिनके कामकाज एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। फाइलों को अब पैसे देकर चलवाना नहीं पड़ता बल्कि फाइलें खुद ही चलती हैं स्वचालित मोड में। हमारे प्रधानमंत्री चाहते हैं कि चाहे रक्षा-क्षेत्र हो या इलेक्ट्रॉनिक्स या फिर उपभोक्ता वस्तुएँ सबका उत्पादन भारत में हो और भारत में न केवल इनका निर्माण हो बल्कि पूरी दुनिया में भारत के बने सामान छा जाएँ। उनकी मेक इन इंडिया योजना अगर सफल रहती है तो इससे हमारी अर्थव्यवस्था को तो पर लगेंगे ही साथ ही बेरोजगारी की समस्या का भी स्वतः समाधान हो जाएगा।
मित्रों,कृषि,शिक्षा,पुलिसिंग,न्यायपालिका,खेल,शासन-प्रशासन,आधारभूत संरचना आदि हरेक क्षेत्र में देश में आमूल-चूल परिवर्तन करने की जरुरत है और हमारे प्रधानमंत्री भी यही चाहते हैं कि अब देश सही मायनों में बदले। हमारे बिहार में एक कहावत है कि रास्ता बताओ तो आगे चलो। उनका अभी तक का काम तो यही बताता है कि वे न केवल देश को रास्ता दिखा रहे हैं बल्कि खुद उस रास्ते पर चल भी रहे हैं। जब गांधीनगर से नई दिल्ली आने लगे तो मुख्यमंत्री के रूप में प्राप्त वेतन को अपने चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के बीच बाँट दिया और आज जब माँ ने जन्मदिन के आशीर्वाद के तौर पर 5001 रु. दिया तो उसे भी वतन पर न्योछावर कर दिया। वे सचमुच सबका साथ लेकर सबके विकास पर चल रहे हैं। उनकी संवेदनाओं के दायरे में भारत के युवा,किसान,हस्तशिल्पी,इंजीनियर,डॉक्टर यहां तक कि भिखारी भी हैं,जीव-जंतु भी हैं। न तो रोम एक दिन में बना था और न तो सौ दिनों में एक बर्बाद देश दुनिया का सबसे समृद्ध राष्ट्र बन सकता है। शीघ्रता तो की जा रही है लेकिन शीघ्रता को भी तो समय चाहिए। न तो हमारे चाहने से समय से पहले वृक्ष फल देने लगेगा और न ही रातों-रात हजारों फैक्ट्रियाँ खुल जाएंगी,चुटकियों में हजारों किमी सड़कें बन जाएंगी और न तो भारत में सरप्लस बिजली का उत्पादन होने लगेगा। इसलिए आईए हम सभी प्रार्थना करें परमपिता परमेश्वर से कि भगवान करें कि नए भारत के स्वप्नद्रष्टा को इतनी शक्ति मिले,इतनी लंबी आयु मिले कि वह अपने सपनों को अपने हाथों अपनी आँखों से साकार होता हुआ देख सके। आमीन!!!!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

क्या अभी भी भारतीय सैनिकों पर पत्थर फेंकेंगे कश्मीरी?

16 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,रहीम कवि ने कहा है कि
रहिमन बिपदा हूँ भलि जो थोड़े दिन होय,
हित अनहित या जगत में जानि पड़े सब कोय।
कश्मीर के अधिकतर भागों में इन दिनों अचानक सांप्रदायिक सद्भाव कायम हो गया है। क्या मस्जिद,क्या मंदिर और क्या गुरूद्वारा हर जगह हिन्दू,मुसलमान और सिक्ख एकसाथ रह रहे हैं और एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं। काश ऐसी एकता बिना आपदा के आए हुए हमेशा बनी रहती! कश्मीर के जलने का बस एक ही कारण है कि कश्मीर मुसलमानबहुल है और मुसलमानों को अपने पंथ के अलावे अन्य कोई पंथ स्वीकार्य ही नहीं है। बाँकी पूरे भारत में जहाँ हिन्दू बहुमत में हैं हिन्दुओं को मुस्लिम सहित दूसरे पंथ के लोगों से कोई परेशानी नहीं है लेकिन मुस्लिमबहुल होने के कारण कश्मीर में पिछले 3 दशकों से अलगाववाद की हवा चल रही है। इसी अलगाववाद ने और इसी विचारधारा ने एक सदी पहले कहा था कि हिन्दू और मुस्लिम दो पंथ नहीं दो राष्ट्र हैं और इसलिए एक देश में एकसाथ नहीं रह सकते  और 1947 में भारत का झूठा धार्मिक और राजनैतिक विभाजन करवाया था जबकि वास्तविकता यह है कि 1947 में मुसलमानों के लिए अलग बने देश पाकिस्तान में जितने मुसलमान हैं आज भी हिन्दूबहुल भारत में उससे कहीं अधिक मुसलमान हैं और अपेक्षाकृत अधिक शांतिपूर्ण जीवन जी रहे हैं और सुखी और समृद्ध हैं। यह एक कटु सत्य है कि कुछ दिन पहले तक कश्मीरी लोग भारतीय सेना को देखते ही उन पर पत्थरबाजी करने लगते थे और 15 अगस्त और 26 जनवरी को भारत की शान तिरंगे को फहराने के बदले वे लोग जलाते हैं।
मित्रों,पिछले कई दिनों से कश्मीर में जबसे 109 सालों में सबसे भयानक प्राकृतिक आपदा आई है तभी से कश्मीर घाटी में न तो राज्य सरकार के तंत्र का कहीं अता-पता है और न ही उन अलगाववादियों का ही जो खुद के कश्मीर का वास्तविक रहनुमा होने का दावा करते हैं। इनमें दो पाकिस्तानपरस्तों यासीन मलिक और अहमद शाह गिलानी की तो जान भी उसी भारतीय सेना ने बचाई है जिस पर पत्थर फेंकने के लिए वे लोग कश्मीरियों को उकसाया करते हैं। आज अगर कश्मीरी इस भयंकर विपदा में भी महफूज हैं,जीवित हैं और स्वस्थ हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारे सैनिक बिना सोये,बिना थके दिन-रात उनकी जान बचा रहे हैं और दिन-रात उन तक खाने-पीने के सामान के अलावा दवाइयाँ पहुँचा रहे हैं। उस पर कहीं-कहीँ  कश्मीरियों ने सेना के हेलीकॉप्टर और जहाजों पर पत्थर फेंके हैं फिर भी कश्मीर में केंद्र सरकार और सेना की ओर से अभूतपूर्व तरीके से पूजा-भाव से राहत का काम किया जा रहा है। भारत सरकार के सारे वरिष्ठ अधिकारी इस समय दिल्ली छोड़कर कश्मीर में हैं और राहत-कार्यों की निगरानी कर रहे हैं। यहाँ तक कि भारत के प्रधानमंत्री ने देशवासियों से अपील की है कि वे 17 सितंबर को उनका जन्मदिन नहीं मनायें बल्कि जम्मू-कश्मीर के लिए योगदान करें।
मित्रों,टेलीवीजन पर इन दिनों आपदा-पीड़ित कश्मीरियों के जो बयान आ रहे हैं वे इस बात की तस्दीक करते हैं कि कश्मीरियों की इन दिनों अगर कोई मदद कर रहा है वह भारतीय सेना है। शायद यही कारण है कि इन दिनों श्रीनगर में लोगों को हिन्दुस्तानी सेना जिंदाबाद के नारे लगाते हुए देखा जा रहा है। यह एक अद्भुत क्षण है क्योंकि यह सब उस श्रीनगर में देखने को मिल रहा है जहाँ के लोग कुछ दिन पहले तक ही भारतीय सैनिकों को देखते ही पत्थर चलाने लगते थे। कश्मीरी तो कश्मीरी आपदा के समय घाटी में मौजूद पाकिस्तानी सांसदों को भी मानना पड़ा कि इस समय जहाँ देखिए वहाँ देवदूत की तरह मानवता की सेवा में सतत तत्पर सिर्फ भारतीय सैनिक ही दिखाई देते हैं।
मित्रों,सवाल उठता है कि क्या अब कश्मीरी भारतीय सेना पर पत्थर नहीं फेंकेंगे? हमने बचपन में एक कहानी पढ़ी थी कि गंगा स्नान करते वक्त एक साधू ने देखा कि एक बिच्छू पानी में डूब रहा है। साधू ने उसे अपनी हथेली पर उठा लिया लेकिन बिच्छू ने स्वभावतः डंक मारा। साधू दर्द से कराह उठा और बिच्छू उसके हाथ से छूटकर फिर से डूबने लगा। जब ऐसा कई बार हुआ तो लोगों ने साधू से कहा कि डूब जाने दीजिए इसे। तब साधू ने उत्तर दिया कि जब यह अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा है तो मैं क्यों छोड़ूँ? हो सकता है कि इस कहानी के बिच्छू की तरह कश्मीरी आपदा के टल जाने के बाद फिर से भारतीय सैनिकों पर पत्थर से प्रहार करने लगें लेकिन तब वे इंसान नहीं बिच्छू कहे जाएंगे, इस कहानी के बिच्छू। इंसानियत तो यही कहती है कि एक इंसान को दिल के बदले दिल और जान के बदले जान देनी चाहिए। इंसानियत यह भी कहता है कि जो लोग अहसानफरामोश होते हैं वे इंसानियत के नाम पर कलंक होते हैं। तो क्या कश्मीरी सचमुच बिच्छू हैं,इंसान नहीं हैं। यह हम साबित नहीं कर सकते। यह उनको ही साबित करना होगा और ऐसा सिर्फ और सिर्फ वे ही साबित कर सकते हैं। हम भारतीय तो हमेशा से उनको गले और सीने से लगाने को तैयार हैं मगर क्या वे ऐसा करने के लिए तैयार हैं? 1947 से लेकर अबतक जब-जब कश्मीर को कष्ट हुआ है भारत ने हमेशा उनके जख्मों पर मरहम लगाया है,भाई की तरह जान देकर भी सहायता की है। आज भी जल-प्रलय के समय पूरा भारत कश्मीरियों के साथ खड़ा है मगर अब आगे शेष भारत के साथ हाथ-से-हाथ मिलाकर खड़े होने की बारी कश्मीरियों की है। कश्मीरियों को यह साबित करना ही होगा कि वे कृतघ्न नहीं हैं और वे भी दिल के बदले दिल और जान के बदले जान देना जानते हैं।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 14 सितंबर 2014

यह मेरा हिन्दी दिवस नहीं है दोस्त!

14 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,पिछले कई दशकों से जबसे मैंने होश संभाला है मैं देखता आ रहा हूँ कि भारत और दुनियाभर के हिन्दी जन आज 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाते हैं। पता नहीं क्यों मनाते हैं? न तो इस दिन भारत में पहली बार हिन्दी बोली गई और न ही इस दिन हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा घोषित किया गया। अलबत्ता 14 सितंबर,1949 को हिन्दी के साथ धोखा जरूर किया गया था जब यह कहा गया कि हिंदी भारतीय गणतंत्र की राजभाषा तो होगी लेकिन तबसे जब यह इसके लायक हो जाएगी। लायक तो भारत 1947 में प्रजातंत्र के लिए भी नहीं था फिर क्यों लागू किया वयस्क मतदान वाले प्रजातंत्र को? संविधान के अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू होने की तारीख़ अर्थात् 26 जनवरी, 1950 ई. से लागू नहीं किया जा सकता था, अनुच्छेद 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही–सही क़सर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने पूरी कर दी, क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ़ कर दिया कि अंग्रेजों के शासन के खात्मे के बाद भी अंग्रेज़ी की हुक़ूमत देश पर अनन्त काल तक बनी रहेगी। इस प्रकार, संविधान में की गई व्यवस्था 343 (1) हिन्दी के लिए वरदान थी परन्तु 343 (2) एवं 343 (3) की व्यवस्थाओं ने इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। वस्तुतः संविधान निर्माणकाल में संविधान निर्माताओं में जन साधारण की भावना के प्रतिकूल व्यवस्था करने का साहस नहीं था, इसलिये 343 (1) की व्यवस्था की गई। परन्तु अंग्रेज़ीयत का वर्चस्व बनाये रखने के लिए 343 (2) एवं 343 (3) से उसे प्रभावहीन कर देश पर मानसिक ग़ुलामी लाद दी गई।
मित्रों,मैं तो हिन्दी दिवस उस दिन की याद में मनाऊंगा जब हिन्दी को वास्तव में भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा घोषित कर दिया जाएगा। जब हमारा संविधान कहेगा कि आज से और अभी से हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा है न कि यह कि हिन्दी भारतीय गणतंत्र की राजभाषा तो होगी लेकिन कब पता नहीं। यह हम हिन्दीभाषियों और हिन्दी भाषा के लिए हर्ष का विषय है कि इस समय भारत की बागडोर एक ऐसे प्रधानमंत्री के हाथों में है जो देश तो क्या विदेश में भी हिन्दी ही बोलता है। इतना ही नहीं वर्तमान केंद्र सरकार हिन्दी को लेकर काफी संवेदनशील भी है जिसका प्रमाण हमें तब मिला जब सी-सैट में हिन्दी भाषा के पक्ष में सरकार ने निर्णय दिया। परन्तु सच्चाई यह भी है कि वर्तमान केंद्र सरकार अभी संसद में इतनी ताकतवर नहीं है कि वह बेझिझक होकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का फैसला ले सके। इसलिए हम हिन्दी जनों को चाहिए कि आनेवाले विधानसभा चुनावों में एनडीए को भारी बहुमत से जिताकर राज्यसभा में भी उसका बहुमत स्थापित करें जिससे उसके पास यह बहाना नहीं रह जाए कि अगर हमारे पास दोनों सदनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने लायक बहुमत होता तो हम जरूर ऐसा करते। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह केंद्र सरकार हिन्दी की ताकत को बखूबी जानती है इसलिए यह जरूर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की ताकत दे सकती है।
मित्रों, हिंदी बहती नदी है और लगातार नई होती रहती है इसलिए उसका विकास भी हो रहा है लेकिन हम देखते हैं कि अभी भी हिन्दी में विज्ञान और इंजीनियरिंग की पुस्तकें कम हैं और अगर हैं भी तो उनकी भाषा ऐसी है जो हमारी रोज की बोलचाल की भाषा से बिल्कुल ईतर है इसलिए इस ओर ध्यान देना पड़ेगा। यह भी कटु सत्य है कि हम अब अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम से शिक्षा देना नहीं चाहते जिससे हिन्दी को भारी नुकसान हुआ है क्योंकि अपेक्षाकृत ज्यादा तेज दिमागवाले बहुमत युवा भले ही कामचलाऊ हिंदी जानते हों लेकिन वे हिंदी से प्रेम नहीं करते,अपने हिन्दी ज्ञान पर गर्व नहीं करते। ऐसे हालात में भला कैसे हिन्दी का कारवाँ आगे बढ़ेगा? यह भी सच है कि आजादी के पहले भी हिन्दी के लेखक और कवि गरीबी में दिन गुजारते थे और आज आजादी के 67 साल बाद भी मुफलिसी ही उनकी किस्मत है,जिंदगी है। बदलते परिवेश में हमें ऐसे प्रबंध करने होंगे जिससे इंटरनेट पर हिन्दी साहित्य उपलब्ध हो और इस तरह से उपलब्ध हों कि पढ़नेवालों को पढ़ने से पहले कुछ आर्थिक योगदान जरूर करना पड़े। तभी हिन्दी साहित्य बचेगा और हिन्दी के साहित्यकार बचेंगे क्योंकि आज के युवा किताबों के पन्ने पलटने में यकीन नहीं रखते बल्कि वे तो सीधे गूगल बाबा की शरण लेते हैं।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 13 सितंबर 2014

श्वेता बसु शिकार है या शिकारी?

13 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,पिछले दिनों मकड़ी,इकबाल जैसी प्रसिद्ध फिल्मों की हिरोइन श्वेता बसु को वेश्यावृत्ति करते हुए रंगेहाथों पकड़ा गया। तभी से बॉलीवुड में इस बात पर एकतरफा बहस छिड़ी हुई है कि श्वेता बसु ने जो कुछ भी किया है क्या वह सब भारत में और भारतीय लड़की के लिए करना सही है? यह बहस इसलिए एकतरफा है क्योंकि अभी तक किसी भी हिन्दी फिल्म या टेलीवीजन शख्सियत ने यह नहीं कहा कि श्वेता ने गलत किया बल्कि साक्षी तंवर और दीपिका पादुकोण ने उल्टे श्वेता को ही सही ठहराया है और कहा है कि उसके सामने और रास्ता ही क्या था?
मित्रों,तो क्या सचमुच श्वेता के सामने जिस्म बेचने के अलावा धनार्जन का और कोई रास्ता नहीं बचा था? क्या फिल्मी हीरोइनों के सामने हमेशा दो ही विकल्प होते हैं कि या तो वह फिल्मों में काम करे या फिर वेश्यावृत्ति करे? मैं नहीं मानता कि यह सच है। कोई भी अभिनेत्री अन्य महिलाओं की तरह ही बहुत सारे अन्य काम भी कर सकती हैं। अभिनय के लिए टीवी की विशाल दुनिया है तो वहीं फैशन,मॉडलिंग,ब्यूटी पार्लर,बूटिक,भोजनालय,रेस्टोरेंट,शिक्षण आदि बहुत सारे ऐसे व्यवसाय हैं जिनमें अभिनेत्रियाँ हाथ आजमा सकती हैं और ईज्जत के साथ पैसे कमा सकती हैं। लेकिन यहाँ कठोर संघर्ष करना पड़ेगा और एटीएम मशीन की तरह झटपट हाथों में पैसा नहीं आएगा।
मित्रों,हमारी युवा पीढ़ी के साथ सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि उनके पास धैर्य नहीं है। वे चाहते हैं कि पलक झपकते ही उनका बैंक अकाउंट पैसों से लबालब भर जाए। जबकि ऐसा कहानियों में तो संभव है लेकिन हकीकत में नहीं। मैंने वर्षों पहले अमेरिकन पॉप स्टार मैडोना जो हमारी कई हिन्दी फिल्म अभिनेत्रियों की घोषित आदर्श हैं का इंटरव्यू कहीं पढ़ा था जिसमें उन्होंने कहा था कि जब न्यूयार्क आने के बाद उनके पास पैसे नहीं थे तब उसने नौकरी नहीं खोजी थी बल्कि वासना के सौदागर को खोजा था और अपनी अस्मत बेचकर गुजारा किया था।
मित्रों,ऐसा यूरोप और अमेरिका की महिलाओं के लिए तो सही हो सकता है लेकिन भारत की स्त्रियों से हम ऐसी अपेक्षा नहीं रख सकते। बल्कि भारत की संस्कृति तो स्त्रियों से यह अपेक्षा रखती है कि उसे चाहे कितने भी कष्ट क्यों न उठाना पड़े अपनी ईज्जत और अपने सम्मान को बचाए। मैडोना और सनी लियोन श्वेता बसु,साक्षी तंवर या दीपिका पादुकोण जैसी विदेशी मानसिकतावाली महिलाओं के लिए तो उनका आदर्श हो सकती हैं लेकिन भारत की एक आम औरत के लिए नहीं। हरगिज नहीं।। भारत में प्राचीन काल से ही कौमार्य की अंतर्राष्ट्रीय नीलामी करने की परंपरा नहीं रही है बल्कि जान देकर भी उसकी रक्षा करने वाली पद्मिनियों के जौहर की प्रथा रही है और यही भारतीयता है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

भक्तराज हनुमान को तो बक्श देते ठगों!?

13-09-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हमारे बिहार में एक कहावत अरसे से प्रचलित है कि कमानेवाला लहरें गिनकर भी पैसे कमा लेता है। फिर धर्म के नाम पर लोगों को ठगना तो काफी आसान होता है। लोगों की आस्था और विश्वास के नाम पर ठगी का धंधा इस धरती पर अनादि काल से ही चलता आ रहा है और कदाचित आगे भी चलता रहेगा लेकिन हनुमान जी के नाम पर ठगी? बेचनेवालों ने अपना ईमान तो बेचा ही भक्तराज हनुमान को भी सोने का पानी चढ़ाकर बेच दिया?
मित्रों,आजकल कई महीनों से दिन-रात विभिन्न टीवी चैनलों पर हनुमान चालीसा युक्त जन्तर का विज्ञापन प्रसारित किया जा रहा है। लोगों का विश्वास जीतने के लिए कई टीवी और फिल्मी कलाकारों से कहलवाया जाता है कि इस जन्तर (यंत्र) को पहनते ही उनके अच्छे दिन आ गए। यहाँ तक कि इस षड्यंत्र में भारत कुमार मनोज कुमार,भजन सम्राट अनूप जलोटा और मशहूर संगीतकार रवीन्द्र जैन को भी शामिल कर लिया गया है।
मित्रों,यह तो सही है कि हनुमान चालीसा इस दुनिया का सबसे शक्तिशाली मंत्र है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम उसका जन्तर बनाकर गले में धारण कर लें। हनुमान तो महाभक्त हैं। महात्यागी हैं। उनको तो लेना-देना है सिर्फ राम से और राम के नाम को जपने से। उनको क्या लेना-देना सोने और चांदी से? वास्तव में करणीय तो शुद्ध अंतर्मन से हनुमान जी और राम जी की भक्ति है। फिर भी आप दुःख का भागीदार होने से बच नहीं पाएंगे क्योंकि सुख और दुःख तो रथ के पहिये के दो हिस्सों के समान हैं जो बारी-बारी से हमारे सामने आते रहते हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि कर्म करो भाग्य के पीछे मत भागो क्योंकि तुम्हारा कर्मफल तुम्हें प्राप्त होकर ही रहेगा और उसी से तुम्हारा भाग्य भी बनेगा फिर कैसे इस सोने का पानी चढ़ा यंत्र पहन लेने से जीवन में सिर्फ और सिर्फ अच्छे परिणाम ही आने लगेंगे?
मित्रों,यथार्थ तो यही है कि चाहे हम इस यंत्र को धारण करें या नहीं हमारे जीवन पर कोई फर्क नहीं आनेवाला लेकिन अगर हम इन ठगों जिसके मुखिया कोई बाबा मंगलनाथ हैं की बातों में आ जाते हैं तो ये ठग जरूर मालामाल हो जाएंगे और आपको बेवजह अपनी मेहनत की कमाई का एक मोटा हिस्सा खो देना पड़ेगा। हममें से बहुत-से लोग ऐसे होंगे जो कर्म के बदले भाग्य के पीछे भागकर अपना बहुत सारा धन और समय बर्बाद कर चुके हैं। मेरी ऐसे मित्रों को सलाह है कि वे जो कुछ भी काम कर रहे हैं उसमें अटूट विश्वास रखें और लगातार अथक परिश्रम करते रहें आपको आपके कर्म का फल जरूर मिलेगा। सुख भी मिलेगा और दुःख भी मिलेगा। कभी-कभी तो दुःख भी सुख में लिपटकर मिलता है जिसका हमें पता ही नहीं चल पाता है। इसी तरह कभी-कभी सुख भी दुःख में लिपटा रहता है और हम बेवजह परेशान हुए रहते हैं। भगवान पर विश्वास रखें और उससे कहीं ज्यादा खुद पर यकीन रखें और जीवन में जो कुछ भी मिलता है उसे सहर्ष स्वीकार करते चलें। मन को शुद्ध करें तो भगवान खुद ही आकर उसमें बस जाएंगे और फिर आपको परमसुख अर्थात् उनकी निर्बाध भक्ति पाप्त होगी वो भी जन्म-जन्मांतर तक।
मित्रों,ऐसा नहीं है कि मैं आपको कोरे उपदेश दिए जा रहा हूँ। सच्चाई तो यह है कि मैं खुद भी इन दिनों बेहद कठिन संघर्ष के दिनों का सामना कर रहा हूँ। मेरी शादी 12 जून,2011 को ही हो चुकी है लेकिन आज भी मैं अपनी पत्नी से अलग रह रहा हूँ और पिछले दो-ढाई सालों से खुद अपने हाथों से भोजन बनाने सहित घर के सारे काम कर रहा हूँ और अपनी वेबसाईट हाजीपुर टाईम्स का अकेले संचालन भी कर रहा हूँ जबकि विवाह से पहले मैंने कभी चाय तक नहीं बनाई थी। मैं अपने माता-पिता की शिव-पार्वती भाव से अपने हाथों से सेवा कर रहा हूँ और खुश हूँ। मेरा विवाह होते ही मेरे अधिकतर सगे-संबंधियों का मेरे प्रति व्यवहार बदल गया। यहाँ तक कि माँ भी बदल गई लेकिन मैं घबराया नहीं और पूरी दृढ़ता के साथ हालात का सामना कर रहा हूँ। मुझे खुद में और ईश्वर में अटूट विश्वास में विश्वास है इसलिए मैंने तो हनुमान चालीसा यंत्र नहीं मंगवाया। दोस्तों,हारिए न हिम्मत बिसारिए न हरिनाम।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

क्या एयरटेल मनी दूसरी जेवीजी बनने जा रही है?

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। दोस्तों आपको याद होगा कि आज से करीब 20 साल पहले बिहार में कारोबार करनेवाली कई नन बैंकिंग कंपनियाँ गरीब बिहारियों की अरबों रुपये की धनराशि लेकर कैसे फरार हो गई थी। कुछ ऐसा ही डर अब बिहार के लोगों के मन में एयरटेल मनी को लेकर बैठने लगा है। 27 अगस्त को हाजीपुर टाईम्स से टेलीफोनिक बातचीत में एयरटेल मनी के हाजीपुर और छपरा के प्रमुख राकेश कुमार ने बताया था कि अगले 4 दिनों में कंपनी उपभोक्ताओं के पैसों को रिटेलरों के अकाउंट में डाल देगी लेकिन दुर्भाग्यवश अबतक भी ऐसा नहीं किया गया है।

इस बारे में जब कंपनी के बिहार प्रभारी मनीष से 9631949898 पर संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि राकेश कुमार ने जो कुछ भी कहा है वह पूरी तरह से गलत है। दरअसल कंपनी ने एयरटेल मनी से बिजली बिल अदा करनेवाले उपभोक्ताओं का विवरण विद्युत बोर्ड को भेज दिया है। उन्होंने आज के बारे में आश्वासन दिया कि वे बिजली बोर्ड से बात करके बताएंगे कि इस बारे में कहाँ तक प्रगति हुई है लेकिन आज जब हमने उनसे संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि वे स्वयं हमसे थोड़ी देर में संपर्क करेंगे। कई घंटे तक जब उनका फोन नहीं आया तो हमने ही उनको फोन किया लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राकेश की तरह मनीष भी झूठ बोल रहे हैं? क्या एयरटेल मनी उनके पैसे पचा जाएगी? विदित हो कि बिहार के जिन उपभोक्ताओं ने सरकार द्वारा एयरटेल मनी से बिजली बिल जमा करने की सुविधा का उपयोग किया है उनके बिजली बिल से वह राशि कई महीने बाद भी घटाई नहीं गई है जिससे वे खासे परेशान हैं।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 7 सितंबर 2014

लव,इस्लाम और जेहाद!

7 सितंबर,2014,हाजीपुर टाईम्स,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,जैसा कि आप जानते हैं कि सभी सामी धर्मों (मेरा मतलब यहूदी,इसाई और इस्लाम से है) में भगवान से प्रेम करने की सख्त मनाही है। उनके मतानुसार ईश्वर कड़क पिता की तरह जो अपनी संतानों पर दया और कृपा करता है उनसे प्रेम नहीं करता इसलिए उसकी ईबादत की जा सकती है,उससे विनती की जा सकती है लेकिन प्रेम नहीं किया जा सकता। इस्लामिक ईश्वर तो इतना ज्यादा कड़क है कि वह संगीत और चित्रकला को भी पसंद नहीं करता। वह खुदा कहता है कि सूअर,कुत्ते और बिल्लियों को छोड़कर सारे जानवर भक्षणीय हैं और महिलाओं को गुलामों की तरह रहना और रखना चाहिए। ससुर बहू के साथ बलात्कार करता है और खुदा कहता है बहू अब उसकी पत्नी और अपने ही पति की माँ हो गई यानि दरिंदे को सजा देने के बदले खुदा ईनाम देता है।
मित्रों,निश्चित रूप से यही कारण था कि मंसूर बिन हल्लाज नामक आरंभिक सूफी को सऊदी अरब में जिंदा आग में झोंक दिया गया था क्योंकि वो खुदा से प्रेम करने की बातें करता था। बाद में सूफी संतों का सिलसिला ही चल पड़ा जो खुदा से प्रेम भी करते थे लेकिन यह सूफी-मत कभी इस्लाम की मुख्यधारा नहीं बन पाया। इतना ही नहीं अभी भी कई सूफी संत अपने मुस्लिम समाज से डरते थे इसलिए सूफी कवियों ने अपने काव्यों-महाकाव्यों में नायिकाओं में खुदा के गुणों को आरोपति जरूर कर दिया और स्वयं नायक बनकर उससे प्रेम भी किया लेकिन वे सीधे-सीधे यह कहने का साहस नहीं जुटा पाए कि सीधे-सीधे खुदा से प्रेम करो। कुछ सूफी संत तो ऐसे भी थे जो कहलाते तो सूफी थे लेकिन थे कट्टरपंथी। नक्शबंदी और सुहरावर्दी जैसे कट्टरपंथी सिलसिलों के संत सल्तनत काल और मुगल काल में दरबारों के कृपापात्र भी बन बैठे और शासकों को हिन्दुओं पर कहर ढाने के लिए उकसाया।
मित्रों,आप ही बताईए कि जिस धर्म में ईश्वर से लव या प्रेम करने की ही मनाही हो उसके बंदे किस प्रकार आपस में या दूसरे धर्म के लोगों के साथ प्रेम कर सकते हैं? सदियों पहले अरब देश में लैला-मजनू ने प्रेम किया था लेकिन मुस्लिम समाज ने उनको गले से नहीं लगाया बल्कि उनके प्रेम को गुनाह मानते हुए उनको सजा दी,तंग किया और अंततः वे जीते-जी एक नहीं हो पाए।
मित्रों,प्रेम और युद्ध में सबकुछ जायज होता है यह कहावत सामी धर्मों में ही अनुकरणीय हो सकता है क्योंकि वे ही ऐसे हैं जो मानते हैं कि प्रेम भी युद्ध होता है और उसमें भी तमाम दाँव-पेंच आजमाए जा सकते हैं। प्रेम का असली मतलब पता हो तब न! प्रेम का असली मतलब तो भारत को पता है। भारत में तो कबीर और सूर कहते हैं कि ईश्वर से प्रेम करना ही चाहिए और प्रेम करना ही ईश्वर की ईबादत का सर्वश्रेष्ठ तरीका है। प्रेम ही ईश्वर है और प्रेम में ही ईश्वर का निवास होता है इसलिए जिसने प्रेम को जान लिया उसने ही ईश्वर को जाना। प्रेम में छल और धोखे का कोई स्थान नहीं होता। प्रेम सर्वदा शुद्ध होता है जहाँ उसमें छल की मिलावट हुई कि प्रेम प्रेम नहीं रह जाता लेकिन हम देख रहे हैं कि इन दिनों सनातन धर्मी भी प्रेम में धोखा करने लगे हैं। जबर्दस्ती एकतरफा प्रेम करने लगे हैं और अपनी प्रेमिकाओं को शारीरिक-मानसिक नुकसान पहुँचाने से भी गुरेज नहीं करते। कई बार तो लड़की को सुनसान स्थान पर बुलाकर अपने ईष्ट-मित्रों के साथ मिल कर सामूहिक बलात्कार भी कर डालते हैं। अब ऐसे प्रेम को प्रेम कैसे कहा जा सकता है वह तो शुद्ध वासना हुई।
मित्रों,इन दिनों भारत में कई मुस्लिम युवकों ने एक अजीबोगरीब जेहाद छेड़ रखा है-लव जेहाद। मीडिया के सामने कई मुस्लिम युवकों ने स्वीकार किया है कि वे हिन्दू नाम रखकर फेसबुक और ट्विटर पर या फिर सीधे-सीधे परिचय में हिन्दू लड़कियों के साथ फ्लर्ट करते हैं और अपने जाल में फँसाते हैं और उनको घरों से भगा ले जाते हैं। फिर उस पर धर्म-परिवर्तन के लिए दबाव डालते हैं और सामूहिक बलात्कार जैसा अमानुषिक अत्याचार करते हैं।
मित्रों,प्रेम तो सिर्फ त्याग करना जानता है फिर प्रेम जिहाद या धर्मयुद्ध का हिस्सा कैसे हो सकता है? एक वास्तविक प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ अनाचार-अत्याचार कैसे कर सकता है? जाहिर है कि कानून को ऐसे धोखेबाज वासनापूजकों के साथ सख्ती के साथ पेश आना चाहिए। साथ ही हिन्दुओं को चाहिए कि वे लव-जेहाद के प्रति अपनी बहन-बेटियों को सचेत करें जिससे कि वे गलत लोगों के प्रेमजाल में नहीं फँसे फिर वो चाहे लड़का हिंदू हो या मुसलमान। यह परम-पवित्र भारतभूमि है जहाँ सनातन काल से ही महिलाओं की पूजा होती रही है न कि अरब देश जहाँ पर सदियों से महिलाओं की मंडी लगती है जैसी मंडी अभी ISIS लगा रहा है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शनिवार, 6 सितंबर 2014

य़ा खुदा अपने बंदों से यजीदियों की रक्षा कर!

 6 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,कहते हैं कि इस्लाम शांति का मजहब है लेकिन विडंबना यह है कि जबसे धरती पर इस्लाम का आगमन हुआ है हिंसा बढ़ी ही है। तैमूरलंग,चंगेज खाँ,महमूद गजनबी,बलबन,अलाउद्दीन खिलजी,औरंगजेब,नादिरशाह,अहमद शाह अब्दाली,ओसामा बिन लादेन,सद्दाम हुसैन जैसे सैंकड़ों ऐसे इस्लाम के बंदे अब तक हो चुके हैं जिनके लिए इंसानी चीखों,मानवीय दर्द और वेदनाओं-संवेदनाओं का कोई मतलब नहीं था। इन लोगों ने एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार को धारण किया और गिरफ्त में आए निरीह मर्दों और औरतों से बस इतना ही पूछा कि यह चाहिए या वह और आज ISIS भी कुर्दों,शियाओं और यजीदियों से यही प्रश्न व उसी प्रकार से पूछ रहा है। मैं नहीं जानना चाहता कि कुरान और हदीस में दूसरे मजहबों के प्रति हिंसा और असहिष्णुता बरतने के बारे में क्या कहा गया है लेकिन मैं यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि ISIS आज इस्लाम के नाम पर यजीदियों के साथ जो कुछ भी कर रहा है दरअसल शैतानियत वही है।
मित्रों,मेरे मतानुसार इंसानों साथ शैतानों जैसा व्यवहार करना ही शैतान को पूजना है। धर्म और विश्वास व्यक्तिगत बातें हैं और इस वर्तमान दुनिया में किसी को भी इस बात का हक नहीं है कि वो किसी और को अपना धर्म मानने के लिए बाध्य करे। पूरी दुनिया में मात्र ईराक और सीरिया में मात्र 5 लाख की संख्या में शेष बचे यजीदियों को अगर इस समय बचाया नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब वे इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे। ISIS आतंकी आज यजीदी पुरुषों की सामूहिक हत्या कर रहे हैं और ISIS चीफ बगदादी का आदेश है कि 35 वर्ष से कम उम्र की सारी यजीदी महिलाओं को बंदी बना लिया जाए। इन बंदी महिलाओं को ISIS आतंकी पहले तो इस्लाम कबूलने को कहते हैं और कबूल लेने पर चंद डॉलर में अपने लड़ाकों के हाथों बेच देते हैं और जो यजीदी महिलाएँ ऐसा करने से मना कर दे रही हैं उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है और ऐसा करते हुए यह नहीं देखा जाता कि लड़की 5 साल की है या 7 साल की है या 14 साल की। क्या इस्लाम में महिलाओं को बेचने और उनके साथ सामूहिक बलात्कार करना धार्मिक कृत्य है? अगर नहीं तो फिर ISIS की क्रूरता के खिलाफ दुनियाभर के उन मुसलमानों का खून क्यों नहीं खौल रहा है जो एक कार्टून को लेकर पूरी दुनिया की सड़कों पर उतर आते हैं? क्या इस मामले में वे मौनम् स्वीकृति लक्षणम् पर अमल नहीं कर रहे हैं?
मित्रों,सामान्य लोक-व्यवहार यह कहता है कि हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए दूसरों से हम जिस तरह के व्यवहार की उम्मीद रखते हैं। आज ISIS के इस्लामिक लड़ाके दूसरे पंथों के अल्पसंख्यक अनुयायियों के साथ जैसा व्यवहार ईराक और सीरिया में कर रहे हैं अगर कल किसी ऐसे देश में जहाँ कि वे अल्पसंख्यक हैं उनके साथ भी वही सब हुआ तो क्या वे इसे ईराक और सीरिया की तरह सामान्य घटना मानकर स्वीकार कर लेंगे? धरती पर रहनेवाला कोई भी व्यक्ति कैसे ऐसा सोंच सकता है कि सिर्फ वही ठीक-ठीक सोंच सकता है और सोंचता है और बाँकी लोग गलत हैं इसलिए बाँकियों को या तो उसकी सोंच को मान लेना चाहिए यानि उसकी तरह ही सोंचना चाहिए या फिर मरने के लिए तैयार रहना चाहिए? महिलाएँ तो ब्रह्मा हैं,सृष्टि करती हैं फिर उनके साथ पशुओं से भी ज्यादा बुरा व्यवहार कोई कैसे कर सकता है? महिला के गर्भ से उत्पन्न होनेवाला कोई भी पुरूष कैसे महिलाओं के साथ शैतानों जैसा,नरपिशाचों जैसा व्यवहार कर सकता है फिर ISIS तो ऐसे नरपिशाचों की सेना ही है। या खुदा मैं जानता हूँ कि तू बहुत दयालु और इंसाफपसंद है। या अल्लाह अपने महाक्रूर बंदों को या तो सद्बुद्धि दे या फिर उनको किसी तरह से रोक नहीं तो वे धरती से इंसानियत का ही नामोनिशान मिटा देंगे और तब पूरी दुनिया पूँछ विहीन पशुओं की दुनिया रह जाएगी। जिस तरह एक बगीचे में तरह-तरह के फूल होते हैं उसी तरह से इस धरती पर तुझे माननेवाले भी तरह-तरह के हैं। हे ईश्वर,अपने बगीचे को तबाह होने से बचा। अब ऐसा केवल तू ही कर सकता है क्योंकि ISIS के आगे पूरी दुनिया के मानव तो लाचार हैं।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

क्या इमरान खान केजरीवाल के पाकिस्तानी संस्करण हैं?

4 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,यह हमारे लिए बड़े ही हर्ष का सबब है कि भारत भले ही अबतक विश्वगुरु नहीं बन पाया हो लेकिन भारत का ही एक लाल अरविंद केजरीवाल इस पद को पाने के अधिकारी बन गए हैं। भारत के पड़ोसी और पुराने पट्टीदार पाकिस्तान में उनको एक चेला मिल गया है जो उनकी तरह नालायक और धरनेबाज है। उनका चेला इन दिनों ठीक उसी तरह से पाकिस्तान में रायता फैला रहा है जिस तरह से कभी केजरीवाल जी भारतीयों के दिलो-दिमाग में फैलाया था।
मित्रों,केजरीवाल अमेरिका को परम प्रिय हैं तो इमरान भी अमेरिका के चहेते हैं,केजरीवाल को फोर्ड फाउंडेशन पैसा देता है तो इमरान को भी पश्चिमी देशों से धनालाभ होता है,केजरीवाल ने प्रतिबंधित क्षेत्र में धरना दिया था तो इमरान भी दे रहे हैं,केजरीवाल ने देशभक्ति के गीत बजाए थे और नारे लगाए थे तो इन दिनों इमरान खान भी लगा रहे हैं,केजरीवाल ने अपनी मांगों के पूरा हुए बगैर धरना समाप्त कर दिया था तो कल इमरान खान भी ऐसा ही करनेवाले हैं,केजरीवाल अराजकतावादी हैं तो इमरान भी हैं और कुछ ज्यादा ही हैं,केजरीवाल ने भारतीय संविधान की खिल्ली उड़ाई तो इमरान भी इन दिनों पाकिस्तानी संविधान (मैं नहीं जानता कि यह पाकिस्तान का दूसरा,तीसरा या कौन-सा संविधान है और इसलिए अपनी अल्पज्ञता पर शर्मिंदा भी हूँ) की ऐसी की तैसी कर रहे हैं,केजरीवाल ने इस्तीफा दिया था तो इमरान ने भी अभी-अभी दिया है,केजरीवाल भारत में कांग्रेस की बी टीम के रूप में देखे गए तो इमरान को भी इन दिनों पाकिस्तान में सेना की बी टीम के रूप में देखा जा रहा है।
मित्रों,इन दोनों महापुरुषों की करनी और कथनी में इतनी ज्यादा समानता है कि जितनी भाई-भाई में भी नहीं होती। अंतर इतना ही है कि केजरीवाल को राजनीति में आए जुम्मा-जुम्मा दो साल ही हुए हैं जबकि इमरान खान पिछले 18 सालों से राजनीति के क्रिकेट में नाकाम होते चले आ रहे हैं। अर्थात् गुरू बहुत जल्दी गुड़ से चीनी बन गया और चेले को डेढ़ दशक लग गए मगर दोनों ही बहुत जल्दी फिर से चीनी से गुड़ तो गुड़ सीधे मिट्टी बन गए। दोनों ने ही राजनीति को नौटंकी समझा,दोनों ने ही एक-एक प्रांत में सरकार बनाई लेकिन दोनों की कुछ खास नहीं कर सके। दोनों में अंतर बस इतना है कि केजरीवाल पाकिस्तान में लोकप्रिय थे और इमरान भारत में लोकप्रिय नहीं हैं क्योंकि हम तहेदिल से पाकिस्तान का बुरा नहीं चाहते बल्कि चाहते हैं कि पाकिस्तान समृद्ध और शांतिप्रिय बने। सच यह भी है कि जबतक पाकिस्तान शांतिप्रिय नहीं बनेगा समृद्ध भी नहीं हो सकेगा।
मित्रों,इमरान खान पठान हैं और पठान को समझाना हमने सुना है कि बड़ा कठिन होता है फिर भी हम यह हिमाकत करते हुए उनको कहना चाहते हैं कि नकल करनी है तो नरेन्द्र मोदी की करो,पहले प्रदेश में अच्छा काम करो फिर केंद्र पर दावा ठोंको और पाकिस्तान के पीएम बनो। नाकाम नटकिए की नकल करोगे तो फिर आपका भी वही अंजाम होगा जो उन साहेबान का हुआ है-नहीं समझे क्या? भैया उनको तालियों से कहीं ज्यादा तो अबतक थप्पड़ पड़ चुके हैं।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

पूरे तंत्र के सड़ जाने का प्रतीक है रंजीत कोहली उर्फ रकीबुल हसन

2 सितंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,अभी तक हमारे देश में जो भी आपराधिक मामले सामने आ रहे थे सौभाग्यवश उनका संबंध तंत्र के किसी एक या दो हिस्से से होता था। इसलिए अब तक चर्चा राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के सर्वव्यापीकरण तक ही सीमित होती थी लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे देश में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी आपराधिक घटना का आयाम एक साथ समाज.खेल,विधायिका,न्यायपालिका और कार्यपालिका तक विस्तृत हो। तो क्या हमारा संपूर्णता में नैतिक पतन हो गया है या फिर नहीं हुआ है तो क्या होने नहीं जा रहा है? पहले जहाँ रिश्वत में पैसे लिए जाते थे अब पैसों के साथ ही सेक्स का लिया जाना क्या दर्शाता है? क्या हमारा महान भारतीय समाज अब मनुष्य के और भी तीव्र पशुकरण के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो गया है?
मित्रों,यह कितने आश्चर्य का विषय है कि एक अदने-से शातिर युवक ने पैसे और सेक्स के दम पर मात्र चार-पाँच सालों में इतना लंबा-चौड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया जितना बनाने में ईमानदार व्यक्ति की कई पीढ़ियाँ खप जातीं! उसके घर पर राजनीतिज्ञों की परेड लगती है,पुलिस अधिकारी उसकी कृपा पाने के लिए तरसते हैं,जज उससे पूछ कर फैसला लिखते और करते हैं और राजपूत समाज की एक विश्वप्रसिद्ध बेटी का बाप बिना गहराई से खानदान की जाँच-पड़ताल किए सिर्फ उसके रुतबे को देखकर अपनी बेटी की शादी उसके साथ कर देता है। समाज और तंत्र के सबसे निचले स्तर से सबसे ऊपरी स्तर तक पतन-ही-पतन।
मित्रों,हमने तो सुना था कि सबहिं नचावत राम गोसाईं मगर यह कैसा युग आ गया है कि सबहिं नचावत रंजीत कोहली उर्फ रकीबुल हसन? कल्पना की जा सकती है कि रकीबुल के नजदीकी जज किस तरह न्याय करते होंगे,उसके नजदीकी पुलिस अधिकारी किस प्रकार से पुलिसिया जाँच को सही परिणति तक पहुँचाते होंगे और उसके इशारों पर नाचनेवाले मंत्री किस तरह से झारखंड में सुशासन यानि गुड गवर्नेंस की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहे होंगे! यहाँ रकीबुल के तीव्र उत्थान के लिए हमारा समाज भी कम दोषी नहीं है जो आज धर्म और ईमानदारी पर चलनेवालों को नहीं बल्कि धनवानों को पूजने लगा है और उनको ही अपना आदर्श मानने लगा है। जिस समाज के लिए साधन की पवित्रता आज बेमानी हो चुकी है और सबको सिर्फ और सिर्फ पैसा और शारीरिक सुख चाहिए वह समाज अंत में वहीं तो पहुँचेगा जहाँ उसको रंजीत कोहली उर्फ रकीबुल ने पहुँचाया है। मैं नहीं जानता कि तारा शाहदेव के पिता को इस होनहार लड़के के बारे में किसने बताया था लेकिन उनको लड़के के गोत्र और खानदान के बारे में विस्तार से पता तो लगाना ही चाहिए था। फिर जिन लड़कियों का इस्तेमाल रंजीत उर्फ रकीबुल अफसरों के आगे परोसने में करता था वह भी तो आखिर किसी की बेटी होंगी। कदाचित् ऐसी बेटी जो मैडोना और सनी लियोन को अपना आदर्श मानती हैं और जिनके लिए नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है। जिनके मन में एकसाथ सिर्फ पैसों और वासना की भूख है।
मित्रों,आखिर हमारा भारतीय समाज किस मार्ग पर जा रहा है? क्या इस मार्ग पर चलकर हम भारत को विश्वगुरु बनाएंगे? क्या प्राचीन काल से पूरी दुनिया में भारत का सम्मान इन्हीं घोर प्रवृत्तिवादी प्रवृत्तियों को लेकर रहा है? क्या भारत की ऋषि-मुनियों की संतानों को पश्चिम के चिर-असभ्य समाज की आँखें बंद कर नकल करनी चाहिए? कभी स्वामी विवेकानंद ने सत्कर्म और अकर्म की परिभाषा देते हुए कहा था कि जो कर्म हमें ईश्वर के निकट ले जाए वह कर्त्तव्य है और जो ईश्वर से दूर ले जाए वह अकर्त्तव्य है। मैं मानता हूँ कि प्रत्येक भारतीय को भारत के उस महान सपूत द्वारा दी गई कसौटी पर अपने कर्मों को कसना चाहिए और तदनुसार अपने आपमें सुधार लाना चाहिए। वैसे आप क्या मानते हैं? जबकि हमारे आदर्श ही बदल गए हैं तो फिर कोई क्यों कर कसे खुद को स्वामी विवेकानंद की कसौटी पर और क्यों चले उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर हम जैसे कुछ दीवानों और पागलों को छोड़कर???
मित्रों,ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज आज बंद गली के आखिर में आकर फँस गया हो। अपने कई-कई आलेखों में हमने भारतीय समाज के नैतिक उत्थान के मार्ग बताए हैं। हमने बार-बार कहा है कि हमें अपने बच्चों को संस्कृत और संस्कृति की शिक्षा देनी होगी,इस्लाम का भारतीयकरण करना होगा लेकिन जब अभिभावक ही पैसों और तीव्र भोगवाद के पीछे अंधी दौड़ लगाने में लगे हों तो फिर उनसे हमारे सुझावों के अनुपालन की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है? जब बिहार जैसे महान राज्य का मुख्यमंत्री कहता है कि मेरे विवाहित बेटे ने एक विवाहित महिला पुलिस अधिकारी के साथ विवाहेतर शारीरिक संबंध स्थापित करके कोई अपराध नहीं किया है तो फिर बेटा क्या कुछ गलत नहीं करेगा क्योंकि तब तो कोई भी गलत काम गलत है ही नहीं?

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)