रविवार, 29 जुलाई 2018

सुशासन की सड़ांध मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड

मित्रों, मैंने काफी पहले ६ मार्च,२०१४ को ही अपने एक आलेख मेरी सरकार खो गई है हुजूर के द्वारा घोषणा कर दी थी कि बिहार में सरकार नाम की चीज नहीं रह गई है.
मित्रों, जब किसी राज्य में सरकार नाम की चीज ही नहीं रहे और राजदंड का किसी को भय ही नहीं रहे तो फिर उस राज्य में क्या-क्या हो सकता है आप दूर बैठे लोग इसका अंदाजा नहीं लगा सकते। हमने तो बिहार में इसे प्रत्यक्ष भोगा है और भोग रहे हैं. अगर हम नीतीश कुमार के २००५ से २०१० तक के शासन को निकाल दें तो पिछले २३ सालों से बिहार में सरकार है ही नहीं. जिसको जो मन में आए करे, खून-तून-बलात्कार सब माफ़. बस आपके पास पैसा और रसूख होना चाहिए.
मित्रों, कहने का मतलब यह कि बिहार में बहुत पहले से मेड़ खेत को खाने में लगा है, बहुत पहले से नैतिकता सिर्फ एक शब्द बनकर मृत्युशैय्या पर है, बहुत पहले से सीएम के लेकर चपरासी तक हर शाख पे उल्लू बैठा है लेकिन अब तो सुशासन के गड्ढे में गंदगी इतनी बढ़ गई है कि सड़ांध के मारे साँस तक लेना मुश्किल है.
मित्रों, अभी कुछ महीने पहले ही बिहार में अपनी तरह के एक अनोखे घोटाले का सृजन हुआ था नाम था सृजन घोटाला. आपने ऐसा कहीं नहीं देखा होगा कि सरकारी पैसे को किसी के निजी खाते में डाल दिया जाए और ऐसा दशकों तक होता रहे. जब मुख्यमंत्री-मंत्री-अधिकारी सबके-सब ऐय्याश और भ्रष्ट होंगे और दिन-रात ऐय्याशी में डूबे होंगे तो कुछ भी देखने को मिल सकता है, आश्चर्य कैसा?
मित्रों, तथापि अभी सुशासनी कालीन के नीचे छिपी जो गंदगी मुजफ्फरपुर में अनावृत हुई है उसने पूरी दुनिया के जनमानस को जैसे हिलाकर रख दिया है.  नाबालिग व अनाथ बच्चियों के लिए सरकारी अनुदान पर एनजीओ द्वारा संचालित बालिका गृह को कोठे में बदल दिया गया. न केवल एनजीओ सेवा संकल्प समिति के संचालक ब्रजेश ठाकुर ने बल्कि बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के पति चंदेश्वर वर्मा ने बच्चियों के मुँह में कपड़े ठूँसकर जब चाहा बलात्कार किया. अब तक मेडिकल जाँच में बालिका गृह में रह रहीं ४२ में से ३४ बच्चियों के साथ लगातार बलात्कार होने की पुष्टि हो चुकी है। इतना ही नहीं बाहर के लोग भी आकर यहाँ अपनी काम-पिपासा शांत करते थे और बच्चियों को इसके लिए बाहर भी भेजा जाता था।
मित्रों, मामला तो फिर भी दब जाता जैसे आज तक सुशासन बाबू दबाते आ रहे हैं लेकिन भला हो बिहार महिला आयोग की अध्यक्षा दिलमणि मिश्र का जिन्होंने बिना किसी दबाव में आए अपने कर्तव्यों को अंजाम दिया और दे रही हैं।
मित्रों, जब नीतीश ने दोबारा भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई तो मुझे लगा था कि दो-दो ईंजनों के चलते बिहार का तीव्र विकास होगा लेकिन ऐसा कुछ होता अब तक तो दिख नहीं रहा अलबत्ता बिहार दोगुनी गति से जरूर घनघोर अराजकता की ओर अग्रसर हो गया है. पता नहीं कब तक दिलमणि मिश्र को महिला आयोग में बनाए रखा जाता है. फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि वो जब तक इस कुर्सी पर हैं अबलाओं को न्याय मिलने की उम्मीद जिंदा है जिस दिन उनको हटा दिया जाएगा मामले का पटाक्षेप हो जाएगा. वैसे मेरा मानना तो यह है कि इन बच्चियों को व्यवस्था किसी भी तरह न्याय दे ही नहीं सकती. उन्होंने जो भोगा है उसे अब उनके मानसपटल से मिटाया ही नहीं जा सकता. सोंचने वाली बात तो यह भी है कि जब बिहार में बालिका गृह की ऐसी दशा है तो वहाँ की जेलों और थानों की हाजतों में बंद महिलाओं के साथ अधिकारी-कर्मचारी और नेता क्या कुछ नहीं करते होंगे? वैसे उन दरिंदों को जिनका नाम अभी तक इस मामले में आया है क्या सजा दी जाए? अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं तो यही कहूंगा कि बीच चोराहे पर इनको फांसी दी जाए। साथ ही बिहार का मुख्यमंत्री बदला जाए और किसी योग्य व्यक्ति को यह पद दिया जाए क्योंकि नीतीश कुमार अब न केवल महाबेकार हो चुके हैं बल्कि बिहार के लिए अतिशय हानिकारक भी साबित होने लगे हैं।

सोमवार, 23 जुलाई 2018

गोतस्करी के लिए दोषी कौन?

मित्रों, हम सभी जानते हैं कि हिन्दुओं के जीवन में गायों का क्या स्थान है? हमारे जनजीवन के बहुत सारे महत्वपूर्ण शब्द गौ से बने हैं यथा-गोत्र, ग्राम या गाँव, ग्वाला, गोस्वामी, गंवार, गोष्ठी, गोधुली, गौरी, गोरस, गोधूम, गौना, गोप, गोपिका, गोपाल आदि. गायों की रक्षा की जानी चाहिए और निश्चित रूप से की जानी चाहिए लेकिन कैसे? क्या हमें तलवार लेकर सडकों पर उतर आना चाहिए?
मित्रों, आपमें से बहुतों के पास गायें होंगी. मैं आपसे पूछता हूँ कि आप गायों को किस रूप में देखते हैं. क्या आप उनको माता मानते हैं या फिर धनार्जन का स्रोत मात्र समझते हैं? गायों के प्रति हमारी सोंच में पिछले कुछ दशकों में निश्चित रूप से फर्क आया है. अब हम गायों को माता नहीं मानते बल्कि धनोपार्जन के साधनों में से एक मानते हैं. गायों के बच्चे मर जाएँ तो जबरन सूई चुभोकर दूध दूहते हैं भले ही इससे गायों को कितना ही दर्द क्यों न हो या गायों के स्वास्थ्य पर दूरगामी प्रभाव ही क्यों न पड़े. गायें अगर दूध देना बंद कर दें तो मुझे नहीं लगता कि हम एक दिन भी उसे अपने खूंटे पर रखेंगे और हम उनको छोड़ देंगे भटकने के लिए, तिल-तिल कर मरने के लिए. भला ये कैसी गोभक्ति है? कई पशुपालक पटना जैसे शहरों में प्रत्येक दोपहर में दुधारू गायों को भी सड़कों पर छोड़ देते हैं जूठन और अपशिष्ट खाने के लिए. उनसे पूछिए कि यह कैसी गोसेवा है? इनमें से कई गायें तो पोलीथिन खाकर मर भी जाती हैं.
मित्रों, जब गाय बच्चा देती है तो हम भगवान से मनाते रहते हैं कि बाछी हो बछड़ा नहीं हो क्योंकि अब खेती ट्रैक्टर से होती है बैलों से नहीं. फिर भी अगर बछड़ा हो ही गया तो एक-दो साल अपने पास रखकर हांक देते हैं. क्या हम फिर पता लगाते हैं कि उनका क्या हुआ? वे कसाइयों के हाथों पड़ गए या किसी ने उनको जहर तो नहीं दे दिया? देश के बहुत सारे ईलाकों में किसान इन छुट्टा सांडों से बेहद परेशान हैं क्योंकि वे उनकी सारी फसलें चट कर जाते हैं. पालना है तो इन नर शिशुओं को भी पालिए अन्यथा गौपालन ही छोड़ दीजिए. हमने अपने बचपन में देखा है कि जब तक बैलों से खेती होती थी यही बैल महादेव के रूप में पूजित थे और आज यही बैल नोएडा-गाजियाबाद-दिल्ली के चौक-चौराहों पर जमा रहते हैं और अक्सर इनके पैरों से होकर कोई-न-कोई वाहन गुजर जाता है और फिर ये बेचारे रिसते घावों और सड़ते अंगों की अंतहीन पीड़ा झेलने को विवश होते हैं. कभी आपने इनकी आँखों से लगातार बहते हुए आंसुओं को देखा है,समझा है?
मित्रों, यह कैसा पुण्य है? आज के अर्थप्रधान युग में गोपालन पुण्य नहीं पाप है और इसे हमने और हमारे लालच ने पापकर्म बना दिया है.
मित्रों, कई बार तो इन छुट्टा बछड़ों को हिन्दू ही पकड़ लेते हैं और कसाइयों के हाथों बेच देते हैं. कई बार ग्रामीण पशु हाटों पर हम देखते हैं कि यादव जी, सिंह जी या महतो जी गाय खरीदने आते है ट्रक लेकर. परन्तु उनमें से कई वास्तव में कसाइयों के एजेंट होते हैं और आगे जाकर ट्रक और जानवर कसाइयों को सौंप देते हैं. अब आप ही बताईए कि क्या गोतस्करी के लिए अकेले मुसलमान जिम्मेदार हैं? क्या इसके लिए हम हिन्दू भी दोषी नहीं हैं?
मित्रों, मौका मिलते ही हम गोतस्करों पर हाथ साफ़ करने लगते हैं. कई बार तो उनको जान से भी मार देते हैं लेकिन क्या इससे तस्करी रूक जाएगी? जब तक हम अपनी सोंच नहीं बदलेंगे, गायों को वास्तव में गौमाता नहीं मानेंगे और बछड़ों को अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ना नहीं बंद करेंगे, फिर से बैलों से खेती करना शुरू नहीं करेंगे गौतस्करों को मारने-मात्र से तस्करी रूकनेवाली नहीं है. सोंचिएगा.
मित्रों, हमें एक और बात भेजे में उतार लेनी होगी कि हर मुसलमान गौ तस्कर नहीं होता कुछ गौपालक भी होते हैं. जब मेरे पिताजी पटना कॉलेज में पढ़ते थे तो साठ के दशक में पटना कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे सैयद हसन अस्करी. आप चाहें तो गूगल पर भी उनको सर्च कर सकते हैं. मध्यकालीन भारत के जाने-माने विद्वान. वे विशुद्ध शाकाहारी थे और उन्होंने कई दर्जन गाय पाल रखी थी और पूरा वेतन गायों पर ही खर्च कर डालते थे. गायों से उन्हें बेहद प्यार था. साइकिल से कॉलेज आते भी करियर पर कटहल के पत्ते लेकर आते और रास्ते में जहाँ भी गाय दिख जाए खिलाने लगते. मुझे तो लगता है कि आज के माहौल में वे बेचारे भी कहीं भीड़ का शिकार हो जाते.

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

कांग्रेस के सेल्फ गोल

मित्रों, अभी-२ फुटबाल का महाकुम्भ समाप्त हुआ है. आप तो जानते हैं कि फुटबाल में कभी-२ खिलाडी गलती से अपने ही पाले में गोल मार बैठता है. इन दिनों भारत की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस के नेताओं में भी न जाने किस कारण से सेल्फ गोल यानि आत्मघाती गोल मारने की होड़-सी लगी हुई है. को बड छोट कहत अपराधू. यह प्रवृत्ति सिर्फ छुटभैय्ये नेताओं तक सीमित होती तो फिर भी गनीमत थी लेकिन जब पार्टी का अध्यक्ष भी इस कुकृत्य में सहयोग देने लगे तो न केवल आश्चर्य होता है बल्कि हँसी भी आती है.
मित्रों, सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस ने युद्ध के पूर्व ही हार मार ली है? या फिर भाजपा से कोई गुप्त समझौता कर लिया है कि तुम २०१९ जीत जाओ सिर्फ हमारे राजपरिवार को जेल मत भेजो? वर्ना क्या कारण थे कि ४ सालों में रोबर्ट वाड्रा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई या फिर नेशनल हेराल्ड मामला कछुए की गति से रेंगता रहा? क्यों कांग्रेस के सारे नेता आज भी राम मंदिर की खिलाफ लड़नेवाले पक्षकारों की तरफ से अदालत में पैरवी करते दिख रहे हैं जबकि उनको पता है कि इससे बहुसंख्यक जनता में पार्टी के प्रति नाराजगी बढेगी? मैं नहीं समझता कि चाहे कपिल सिब्बल हों या राजीव धवन बिना पार्टी आलाकमान की अनुमति के ऐसा कर रहे हैं? अगर इसके लिए पार्टी की अनुमति है तो इसका सीधा मतलब है कि आलाकमान ने २०१४ की हार के बाद आई एंटोनी रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दिया है और अगर नहीं है तो फिर धवन और सिब्बल पार्टी में बने हुए क्यों हैं?
मित्रों, पूर्व रक्षा मंत्री एंटोनी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कांग्रेस की हार के लिए जनता के बीच कांग्रेस की हिन्दूविरोधी छवि बन जाना जिम्मेदार था. यह नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मणिशंकर, दिग्विजय, थरूर, सोज, नदीम जैसे नेताओं के अनर्गल प्रलापों के चलते तो पार्टी की वही छवि आज भी बनी हुई है और उस आग में घी देने का काम किया है स्वयं पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी ने यह कहकर कि कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है और वे मंदिरों में जाने के लिए क्षमा मांगते हैं.
मित्रों, सवाल उठता है कि कांग्रेस पर तो १९४७ से पहले जिन्ना की मुस्लिम लीग हिन्दुओं की पार्टी होने का आरोप लगाती थी फिर कांग्रेस स्वयं मुस्लिम लीग बन सकती है? किसी पार्टी की विचारधारा में इतना विरोधाभासी परिवर्तन भला कैसे संभव है? क्या कांग्रेस को पता नहीं है उसकी मुस्लिम-तुष्टिकरण की नीतियाँ उसे २-४ सीटें भी नहीं दिला सकतीं और वो ४४ से ४ पर पहुँच जाएगी? सवाल तो यह भी है कि क्या राहुल गाँधी सचमुच ड्रग्स लेते हैं? अगर नहीं तो इसका अभी तक खंडन क्यों नहीं आया और सुब्रह्मण्यम स्वामी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा क्यों नहीं किया गया? अगर हाँ तो फिर उनको कोई सुझाव देना ही बेकार है. लगे रहो राहुल बबुआ फिर तो लगे रहो अफीम खाकर कांग्रेस के अंतिम संस्कार में. पप्पूजी फिर तो असली गाँधी तुम्ही हो और महात्मा गाँधी के इस अधूरे काम को पूरा करोगे.

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

मोदी जी को गुमशुदा आंकड़ों की तलाश

मित्रों, पिछले दिनों हमारे माननीय प्रधानसेवक जी ने दो महत्वपूर्ण बयान दिए हैं वैसे भी बेचारे शोले की बसंती की तरह बहुत कम बोलते हैं. पहले में उन्होंने कहा है कि किसी को दिखे या न दिखे देश बदल रहा है. तो पिछले दिनों हुआ ये कि एक स्कूल में परीक्षा में एक बच्चे ने सादी कॉपी जमा कर दी. जब उसे शून्य अंक प्राप्त हुए तो जा पहुंचा शिक्षक के पास तमतमाया हुआ और बोला कि किसी को दिखे या न दिखे मैंने तो कॉपी में न केवल सारे प्रश्नों के उत्तर दिए हैं बल्कि सही उत्तर दिए हैं. टीचर ने कहा वो कैसे तो उसने कहा कि पीएम भी तो यही कह और कर रहे हैं.
मित्रों, पिछले दिनों हमारे माननीय प्रधानसेवक जी ने अपना दूसरा बयान एक साक्षात्कार के दौरान दिया और कहा कि देश में पिछले ४ सालों में भारी संख्या में रोजगार गठन हुआ है लेकिन दुर्भाग्यवश उनके पास आंकड़े नहीं हैं. कदाचित उनका आशय इस बात से था कि वे खो गए हैं और मिल नहीं रहे हैं. गजब! हम तो समझे थे कि यह सरकार ही आंकड़ों और आंकड़ेबाजों की सरकार है और यह सरकार खुद ही आंकड़ों की तलाश में है. हमने वर्षों पहले तेजाब फिल्म में एक गाना देखा था-खो गया ये जहाँ, खो गया आसमाँ, खो गई हैं सारी मंजिलें, खो गया है रस्ता. लेकिन मैं ठहरा भावुक व्यक्ति. यूं तो मैं कॉलेज से छुट्टी नहीं लेता आखिर मोदीसमर्थक जो हूँ. जब मोदी जी छुट्टी नहीं ले रहे तो मैं कैसे ले सकता हूँ लेकिन लेने जा रहा हूँ क्योंकि मुझसे मोदी जी दुःख देखा नहीं जा रहा इसलिए मैं अगले हफ्ते बिहार जा रहा हूँ रोजगार के गुमशुदा आंकड़ों को तलाशने. वैसे मैं सुशासन बाबू को लाख-लाख धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने भयंकर बेरोजगारी के दौर में बिहार के युवाओं को शराब की तस्करी के रूप में अच्छा रोजगार दे दिया है.
मित्रों, अभी-अभी सरकार ने फसलों के कथित न्यूनतम समर्थन मूल्य को ड्योढ़ा कर दिया है. कथित इसलिए क्योंकि वो वास्तव में अधिकतम विक्रय मूल्य है न्यूनतम नहीं. क्योंकि किसानों से उस दाम पर कोई फसल खरीदेगा ही नहीं तो वो दाम तो उनको मिलने से रहे.
मित्रों, इस सम्बन्ध में मुझे अपने बचपन का एक खेल याद आ रहा है. जिसमें दो बच्चे दोनों हाथों को ऊपर उठाए और पकडे खड़े हो जाते थे और हम ट्रेन की तरह आगे-पीछे खड़े होकर उनके दरवाजानुमा हाथों के बीच से गुजरते. तब हम उनसे कहते कि सिमरिया (बेगुसराय में है) पुल जाने दो. वो कहते दाम कौन देगा तो आगेवाला यह कहते हुए आगे निकल जाता कि पीछेवाला लड़का और इस तरह जो सबसे पीछे होता वो फंस जाता. तो मोदी जी से पहले भी कितनी सरकारें आईं और चली गईं और हम हैं कि उस पीछे आनेवाली सरकार का इंतजार ही कर रहे हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य को वास्तव में धरातल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य साबित करके दिखाए. मैं समझता हूँ कि ऐसा वही प्रधानमंत्री कर पाएगा जिसके पास वास्तव में ५६ ईंच का सीना होगा न कि ५६ ईंच की जुबान.