सोमवार, 5 जुलाई 2010
विरोध प्रकट करने के अहिंसक तरीके
आज केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य-वृद्धि के खिलाफ विपक्ष ने भारत बंद का आयोजन किया.एकबारगी पूरे देश का जनजीवन ठप्प पड़ गया.महाराष्ट्र से सरकारी बसों के साथ तोड़-फोड़ की खबरें भी आईं.कुछ लोगों ने बंद से देश को हुए आर्थिक नुकसान का अनुमान भी लगाया कि देश को इससे लगभग १३ हजार करोड़ का नुकसान हुआ.कई जगहों पर बंद में एम्बुलेंस के फंसे होने की भी ख़बरें भी टेलीविजन पर देखी गईं.बंद से सबसे ज्यादा नुकसान होता है दिहाड़ी मजदूरों को और एक दिन के लिए उनका चूल्हा ठंडा पड़ जाने का खतरा पैदा हो जाता है.गांधी ने भी स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कई बार भारत बंद का आह्वान किया था.लेकिन तब बंद स्वतःस्फूर्त होता था,जनता के साथ कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती थी.लेकिन आज स्थितियां अलग हैं.बंद के दौरान हिंसा साधारण बात है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि विपक्ष के पास सरकारी नीतियों के प्रति विरोध प्रकट करने के बंद के अलावा और क्या-क्या विकल्प हैं?धरना-प्रदर्शन में लोगों की भागीदारी प्राप्त करना आज की भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में कठिन है.साथ-ही हमारे नेता इतने आरामतलब हो गए हैं कि गर्मी-सर्दी को सहन करना उनके वश की बात ही नहीं है.यही बात गांधीजी के सबसे मारक सत्याग्रही हथियार अनशन के साथ भी लागू होती है.कौन जान का जोखिम ले?हो सकता है सरकार झुके ही नहीं.घेराव में पुलिस के डंडे खाने पड़ सकते हैं.गांधी जब भी यात्रा पर निकले पैदल निकले और जनता के बीच रुकते हुए यात्रा पूरी करते थे.लेकिन हमारे वर्तमान नेता जब भी यात्रा पर निकलते हैं तो वातानुकूलित वाहन में और जनता के बीच नहीं ठहर कर वातानुकूलित कमरे में ठहरते हैं,फ़िर कैसे उनकी यात्रा का असर हो? सबसे बड़ी बात तो यह है कि नेताओं के साथ-साथ जनता की वरीयता-सूची में भी देश और देशहित का स्थान नीचे से पहले नंबर पर आता है.किसी भी मुद्दे पर नेतृत्व प्रदान करना नेताओं का काम है और नेताजी ठहरे आरामतलब.विरोध प्रकट करने के बांकी शांतिपूर्ण तरीकों में नेताजी के कोमल शरीर को कष्ट होगा जबकि उनका काम खुद कष्ट सहना नहीं बल्कि दूसरों को कष्ट देना है.और बंद के दौरान भी कष्ट सिर्फ दूसरों को होता है नेताओं को नहीं.वे या तो घर में बंद रहते हैं यह फ़िर थाने में कूलर और पंखे की हवा खा रहे होते हैं.
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