बुधवार, 21 जुलाई 2010
बिना सुविधा-शुल्क के काम न होई
जवाहरलाल नेहरु ने १९५२ में २ अक्तूबर के दिन देश में सामुदायिक विकास केंद्र खोलने की योजना का शुभारम्भ किया.इसके तहत पूरे देश में कुछेक गांवों को मिलाकर प्रखंड बनाये गए और निकटवर्ती शहरों में प्रखंड कार्यालय खोले गए.उद्देश्य था विकास की रौशनी को गांवों तक आसानी से पहुँचाना.लेकिन योजना के ६ठे साल में ही नेहरु समझ गए थे कि उनसे इस मामले में गलती हो गई है और ये कार्यालय विकास की जगह भ्रष्टाचार के केंद्र बन गए हैं.इन्हीं प्रखंड कार्यालयों के हाथों में होता है जमीन का ब्यौरा.कोई भी व्यक्ति जब जमीन खरीदता है तो उसके लिए जरूरी होता है कि रसीद उसके नाम पर कटे.यह रसीद कई स्थानों पर काम आती हैं.बिना रसीद के आप न तो आय प्रमाण पत्र बनवा सकते हैं और न ही आवासीय प्रमाण पत्र.लेकिन रसीद तभी आपके नाम पर कट सकती है जब आपके नाम दाखिल ख़ारिज हो जाए और दाखिल ख़ारिज तभी हो सकता है जब आप सुविधा-शुल्क दें.अगर सुविधा-शुल्क नहीं देंगे तो अंचलाधिकारी किसी-न-किसी बहाने आपकी अर्जी को अटका देगा.वह बहाना रजिस्ट्री में उचित कर नहीं देने से लेकर जमीन पर आपका कब्ज़ा नहीं होना कुछ भी हो सकता है.और अगर एक बार अर्जी अटक गई तो न जाने फ़िर कब मंजूरी मिले.कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि कर्मचारी उधार पर काम करवा देते हैं,ज्यादातर मामलों में पैसा मिल भी जाता है.लेकिन अगर पार्टी ने किसी कारण से पैसा नहीं दिया तो उनको अपनी जेब से अधिकारी को पैसा देना पड़ता है.उनकों अधिकारी की नज़र में अपनी साख ख़राब होने का खतरा जो होता है.अभी मेरे ही जिले वैशाली के पातेपुर प्रखंड में एक दिलचस्प वाकया सामने आया.अंचलाधिकारी पहले किरानी थे हाल ही में नीतीश सरकार के तुगलकी फरमान द्वारा किरानियों को मिली सामूहिक प्रोन्नति ने उन्हें अचानक अधिकारी बना दिया.सो उनकी आदत बिगड़ी हुई है.पहले बिना पैसा लिए वे कोई काम करते ही नहीं थे.अब हर किसी को जल्दीबाजी तो होती नहीं और कुछ लोग हमारी तरह लड़ाकू प्रवृत्ति के भी होते हैं मन में ठान लिया कि चाहे काम में जितना समय लग जाए घूस तो नहीं ही देंगे.अधिकारी ने आवेदनों की गिनती की तो पाया कि पैसे कम हैं.बिना पैसे वाले सारे आवेदनों को आलमारी में बंद कर ताला लगा दिया.लड़ाकू पहुँच गए डी.एम. के दरबार में.डी.एम. ने अंचलाधिकारी को आवश्यक निर्देश भी दिए लेकिन अधिकारी नहीं माना.आज भी लोग अंचल कार्यालय के चक्कर काट रहे हैं.दाखिल ख़ारिज में घूस की दर भी अलग-अलग होती है जैसा मुवक्किल वैसा पैसा लेकिन देना सबको पड़ता है नहीं तो फ़िर आवेदन के आलमारी में बंद हो जाने का खतरा तो सर पर मंडराता ही रहता है.मुसीबत दाखिल ख़ारिज तक आकर ही समाप्त हो जाए ऐसा भी नहीं है इसके बाद रसीद कटवाने के लिए भी आपको महीनों कर्मचारी की परिक्रमा करनी पड़ सकती है.कभी फ़ुरसत नहीं होने का बहाना तो कभी रसीद समाप्त रहने का.५-१० रूपये के लिए कर्मचारी क्यों अपना समय जाया करे उतनी देर में तो वो कई दाखिल ख़ारिज आवेदनों को तैयार कर सकता है.अब तक तो आप समझ गए होंगे कि दो मिनट में सिर्फ मैगी ही नहीं पकती बल्कि १०००-५०० रूपये भी कमाए जा सकते है बशर्ते आप बिहार में अंचल में कर्मचारी हों और दाखिल ख़ारिज का फॉर्म भर रहे हों..
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