सोमवार, 9 नवंबर 2015

बिहार ने चुना विनाश का पथ,विकासवाद को मारी ठोकर

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बिहार के विधानसभा चुनावों के परिणाम अप्रत्याशित रहे हैं। लोग समझ रहे थे कि 2014 के लोकसभा चुनावों की तरह ही बिहार इन चुनावों में भी विकासवाद को चुनेगा और जातिवादी विनाशवाद को हमेशा के लिए लात मार देगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बिहार में 15 साल बाद एक बार फिर से लुम्पेन राजनीति के प्रतीक लालू प्रसाद यादव की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। ऐसा क्यों हुआ,कैसे हुआ और आगे इसके दुष्परिणाम क्या होंगे?
मित्रों,यह तो 2014 के लोकसभा चुनावों के समय से ही स्पष्ट था कि लालू के साथ 18,नीतीश के साथ 18 और कांग्रेस के साथ 9 प्रतिशत वोट बैंक है। चूँकि तब तीनों अलग-अलग लड़े थे इसलिए उनको हराने में भाजपा को ज्यादा मुश्किल नहीं हुई लेकिन इस बार तीनों एकसाथ थे और पूरी ताकत के साथ एकसाथ थे। उन्होंने इस चुनाव में भी कुल मिलाकर 42 प्रतिशत ही वोट प्राप्त किया है जो उनके द्वारा 2014 के लोकसभा चुनावों में प्राप्त मतों के योग से कम ही है।
मित्रों,दूसरी तरफ भाजपा के पास ऐसा कोई बड़ा वोट बैंक नहीं था जो उसे चुनाव जितवाता। कुल मिलाकर पार्टी की सारी उम्मीदें वोटकटवाओं पर लगी हुई थीं जो फेल हो गए। पार्टी ने यद्यपि अकेले साढ़े 24 प्रतिशत मत प्राप्त किया लेकिन इतने मतों से चुनाव तो नहीं जीते जा सकते। उसके सहयोगी दलों के पास जितनी क्षमता थी उतने मत उन्होंने भी प्राप्त किए लेकिन वह भी नाकाफी था। अंत तक दोनों गठबंधनों के बीच 4 प्रतिशत का भारी अंतर रह गया।
मित्रों,जाहिर है कि बिहार ने एक बार फिर से जातीय समीकरण के दायरे में मतदान किया है और भाजपा के विकासवाद के नारे को ठुकरा दिया है। शुरू से ही भाजपा इस बात को समझ रही थी कि बिहार का रण काफी कठिन है फिर भी उसने कई गलतियाँ कीं। भाजपा ने प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार को नीतीश के पाले में चले जाने दिया। टिकट बाँटा नहीं बेच दिया। सूत्रों के अनुसार हाजीपुर से ही पार्टी टिकट के ऐवज में देव कुमार चौरसिया से 2 करोड़ रुपये मांग रही थी जबकि चौरसिया जदयू के जिलाध्यक्ष हैं। टिकट वितरण में विधानसभा क्षेत्रों के जातीय समीकरणों को भी ध्यान में नहीं रखा गया। रही-सही कसर सहयोगी दलों के साथ और सहयोगी दलों के बीच उभरे विवादों ने पूरी कर दी जिससे बिहार की जनता के बीच गलत संदेश गया। साथ ही भागवत पुराण ने अतिपिछड़ी जातियों के मन में शंका पैदा कर दी। केंद्र सरकार के कामों से गरीबों को अबतक सीधा फायदा नहीं हो पाया है जिससे गरीबों ने महागठबंधन को अपना ज्यादा हमदर्द समझा। बड़ी जाति के लोग भी इसी कारण से उदासीन से रहे। पीएम की रैलियों से जो भी लाभ होता उसको नीतीश-लालू ने रैलियों के तुरंत बाद प्रेसवार्ता करके समाप्त कर दिया। इतना ही नहीं बिहार की जनता खासकर महिलाओं ने इसलिए नीतीश को वोट दिया क्योंकि उनकी सरकार ने बच्चों को साइकिल दी थी,छात्रवृत्ति दी थी और महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत का आरक्षण दिया था। नाराज शिक्षकों को भी वेतनमान देकर सरकार ने अपनी ओर कर लिया जो एक बहुत बड़ा वोटबैंक थे।
मित्रों,कुल मिलाकर बिहार की जनता ने साल 2014 को ही दोहराया है। अंतर इतना ही है कि तब तीनों पार्टियाँ अलग-अलग लड़ी थीं और अब एकसाथ थीं। भाजपा को जहाँ तब 22 प्रतिशत वोट मिले थे इस बार साढ़े 24 प्रतिशत मत मिले। इन चुनावों का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव की बिहार की राजनीति में फिर से वापसी हुई है और वो भी सबसे बड़े दल के रूप में। ऐसे में सवाल उठता है कि अब बिहार का आगे क्या होगा? क्या बिहार का विकास होगा या फिर विनाश होगा? जीतने के बाद भी लालू बैकवॉर्ड-फॉरवॉर्ड ही कर रहे हैं जिससे संदेह और भी बढ़ जाता है कि क्या बिहार एक बार फिर से बर्बादी के मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है? इतिहास तो यही बताता है कि लालू जी का विकास के साथ 36 का रिश्ता है। आखिर बिहारियों ने जो बोया है वही तो काटने को मिलेगा। वैसे नीतीश ने भी बिहार को बनाया कम बर्बाद ही ज्यादा किया है।

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