हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,इन दिनों भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह को विदाई देने का सिलसिला जारी है। अगले एक-दो दिनों में ही
मनमोहन सिंह इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे। मनमोहन भले ही कोई इतिहास बना नहीं सके लेकिन फिर भी वे इतिहास का हिस्सा तो बन ही गए हैं। चाहे उनका शासन जैसा भी रहा
हो,हमारे लिए वो अच्छी यादें हों या बुरी यादें लेकिन हम चाहकर भी उनको
भुला नहीं पाएंगे। वैसे भी बुरी यादों को भुलाना कहीं ज्यादा कठित होता है।
जितना भुलाना चाहो वे उतनी ही ज्यादा याद आती हैं। याद तो बहुत आएंगे
मनमोहन मगर सवाल उठता है कि किस रूप में और किस-किस रूप में?
मित्रों,संजय बारू की किताब के प्रकाशित होने के बाद अब इस तथ्य में कोई संदेह नहीं रहा कि मनमोहन एक दुर्घटनात्मक प्रधानमंत्री थे। मनमोहन राजनीति में अर्थव्यवस्था के कारीगर मात्र बनकर आए थे लेकिन उनको बनना पड़ा प्रधानमंत्री। पड़ा इसलिए क्योंकि वे उन्होंने बनना चाहा नहीं था मगर बने। हमने शतरंज के खेल में प्यादा को वजीर तक बनते देखा है मगर मनमोहन ऐसे वजीर थे जो शुरू से अंत तक प्यादा ही बने रहे। या तो उनको वजीर बनना ही नहीं था या फिर उनको वजीर बनना आता ही नहीं था।
मित्रों,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मंत्री तो थे मगर मंत्रियों के प्रधान नहीं थे। उन्होंने अपना हानि-लाभ,जीवन-मरण,यश-अपयश सबकुछ सोनिया परिवार के हाथों में सौंप दिया था। मनमोहन समर्पण की पराकाष्ठा थे। तुभ्यदीयं गोविंदं तुभ्यमेव समर्पयामि। यहाँ तक कि उन्होंने अपने आराध्य को देश भी समर्पित कर दिया। हे माता तुमने ही मुझे प्रधानमंत्री बनाया है। मैं तो एक छोटा-सा बालक हूँ और उस पर निर्बल भी इसलिए तुम्हीं संभालो इस राज-पाठ को। मैं कुछ भी नहीं जानता,न देश को और न ही देशहित को। मैं तो केवल तुमको जानता हूँ। मेरे लिए तो सबकुछ तुम-ही-तुम हो। आरंभ भी,मध्य भी और मेरा अंत भी।
मित्रों,सवाल उठता है कि क्या मनमोहन सिंह निरपराध हैं और भोले हैं? मेरे हिसाब से तो नहीं। वे इन दोनों में से कुछ भी नहीं हैं। वो इसलिए क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी किया या होने दिया जानबूझकर किया और होने दिया। मनमोहन सिंह ने जानबूझकर अपार संभावनाओं की भूमि भारत का 10 साल बर्बाद किया। दस साल तक सबकुछ जानते हुए भी भारत में वह सब होने दिया जिसने भारत की गाड़ी को 21वीं सदी के अतिमहत्त्वपूर्ण पहले दशक में रिवर्स गियर में चला दिया। निरपराध और भोले तो वे तब होते जब उनको कुछ भी पता नहीं होता या फिर वे महामूर्ख होते। परंतु दुर्भाग्यवश इन दोनों संभावनाओं के लिए मनमोहन के संदर्भ में कहीं कोई स्थान नहीं है।
मित्रों,मनमोहन जा नहीं रहे,बिल्कुल भी स्वेच्छा से नहीं जा रहे वरन् उनको जनता ने धक्का देकर निकाल दिया है। हमने बहुत प्रतीक्षा की,बहुत इंतजार किया कि अब शायद उनका जमीर जागे और मनमोहन इस्तीफा दे दें। मगर भारत में लगातार दुःखद घटनाएँ घटती रहीं,मनमोहन हर मोर्चे पर विफल होते गए परन्तु स्वेच्छा से पद-त्याग नहीं किया। उनका जमीर या तो मर गया था या फिर उनके पास जमीर नामक कोई चीज थी ही नहीं। वे एक नौकरशाह थे और नौकरी उनके खून में थी इसलिए वे मालिक होकर भी नौकर ही बने रहे और नौकरी ही करते रहे। चूँकि मनमोहन प्रधानमंत्री पद से अपने सुखद और प्रतीष्ठापूर्ण अंत को सुनिश्चित नहीं कर सके और उन्होंने देश को सिवाय बर्बादी के कुछ नहीं दिया इसलिए हम वाहेगुरू से यह कामना करते हैं कि वे आधुनिक युग के इस स्वनिर्मित धृतराष्ट्र को उसके बचे-खुचे बुढ़ापे में उसके गर्हित कर्मों या अकर्मों के लिए दंडित जरूर करे क्योंकि भारत का वर्तमान कानून तो शायद उनको कभी दंडित नहीं कर पाएगा। वैसे आपको बता दूँ कि कल मंगलवार को ही इजरायल के पूर्व प्रधानमंत्री यहूद ओलमर्ट को तेलअवीव की एक अदालत ने भ्रष्टाचार के आरोप में 6 साल की कैद की सजा सुनाई है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों,संजय बारू की किताब के प्रकाशित होने के बाद अब इस तथ्य में कोई संदेह नहीं रहा कि मनमोहन एक दुर्घटनात्मक प्रधानमंत्री थे। मनमोहन राजनीति में अर्थव्यवस्था के कारीगर मात्र बनकर आए थे लेकिन उनको बनना पड़ा प्रधानमंत्री। पड़ा इसलिए क्योंकि वे उन्होंने बनना चाहा नहीं था मगर बने। हमने शतरंज के खेल में प्यादा को वजीर तक बनते देखा है मगर मनमोहन ऐसे वजीर थे जो शुरू से अंत तक प्यादा ही बने रहे। या तो उनको वजीर बनना ही नहीं था या फिर उनको वजीर बनना आता ही नहीं था।
मित्रों,प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मंत्री तो थे मगर मंत्रियों के प्रधान नहीं थे। उन्होंने अपना हानि-लाभ,जीवन-मरण,यश-अपयश सबकुछ सोनिया परिवार के हाथों में सौंप दिया था। मनमोहन समर्पण की पराकाष्ठा थे। तुभ्यदीयं गोविंदं तुभ्यमेव समर्पयामि। यहाँ तक कि उन्होंने अपने आराध्य को देश भी समर्पित कर दिया। हे माता तुमने ही मुझे प्रधानमंत्री बनाया है। मैं तो एक छोटा-सा बालक हूँ और उस पर निर्बल भी इसलिए तुम्हीं संभालो इस राज-पाठ को। मैं कुछ भी नहीं जानता,न देश को और न ही देशहित को। मैं तो केवल तुमको जानता हूँ। मेरे लिए तो सबकुछ तुम-ही-तुम हो। आरंभ भी,मध्य भी और मेरा अंत भी।
मित्रों,सवाल उठता है कि क्या मनमोहन सिंह निरपराध हैं और भोले हैं? मेरे हिसाब से तो नहीं। वे इन दोनों में से कुछ भी नहीं हैं। वो इसलिए क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी किया या होने दिया जानबूझकर किया और होने दिया। मनमोहन सिंह ने जानबूझकर अपार संभावनाओं की भूमि भारत का 10 साल बर्बाद किया। दस साल तक सबकुछ जानते हुए भी भारत में वह सब होने दिया जिसने भारत की गाड़ी को 21वीं सदी के अतिमहत्त्वपूर्ण पहले दशक में रिवर्स गियर में चला दिया। निरपराध और भोले तो वे तब होते जब उनको कुछ भी पता नहीं होता या फिर वे महामूर्ख होते। परंतु दुर्भाग्यवश इन दोनों संभावनाओं के लिए मनमोहन के संदर्भ में कहीं कोई स्थान नहीं है।
मित्रों,मनमोहन जा नहीं रहे,बिल्कुल भी स्वेच्छा से नहीं जा रहे वरन् उनको जनता ने धक्का देकर निकाल दिया है। हमने बहुत प्रतीक्षा की,बहुत इंतजार किया कि अब शायद उनका जमीर जागे और मनमोहन इस्तीफा दे दें। मगर भारत में लगातार दुःखद घटनाएँ घटती रहीं,मनमोहन हर मोर्चे पर विफल होते गए परन्तु स्वेच्छा से पद-त्याग नहीं किया। उनका जमीर या तो मर गया था या फिर उनके पास जमीर नामक कोई चीज थी ही नहीं। वे एक नौकरशाह थे और नौकरी उनके खून में थी इसलिए वे मालिक होकर भी नौकर ही बने रहे और नौकरी ही करते रहे। चूँकि मनमोहन प्रधानमंत्री पद से अपने सुखद और प्रतीष्ठापूर्ण अंत को सुनिश्चित नहीं कर सके और उन्होंने देश को सिवाय बर्बादी के कुछ नहीं दिया इसलिए हम वाहेगुरू से यह कामना करते हैं कि वे आधुनिक युग के इस स्वनिर्मित धृतराष्ट्र को उसके बचे-खुचे बुढ़ापे में उसके गर्हित कर्मों या अकर्मों के लिए दंडित जरूर करे क्योंकि भारत का वर्तमान कानून तो शायद उनको कभी दंडित नहीं कर पाएगा। वैसे आपको बता दूँ कि कल मंगलवार को ही इजरायल के पूर्व प्रधानमंत्री यहूद ओलमर्ट को तेलअवीव की एक अदालत ने भ्रष्टाचार के आरोप में 6 साल की कैद की सजा सुनाई है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
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