हमारे गांवों में एक कहावत है कि हर बहे से खर खाए बकरी अँचार खाए अर्थात जो बैल हल में जुते उसके हिस्से घास-भूसा और जो बकरी बैठी-बैठी में-में करती रहे उसके भोजन में स्वादिष्ट अचार.खैर,बैलों द्वारा खेती तो बंद हो गयी लेकिन इस कहावत में जो व्यंग्य छिपा हुआ था आज भी अपनी जगह सत्य है और सिर्फ गांवों ही नहीं बल्कि शहरों के लिए भी उतना ही सत्य है.अब समाचारों की दुनिया को ही लें कोल्हू के बैल की तरह;खासतौर पर निचले स्तर के मीडियाकर्मी दिन-रात खटते रहते हैं और महीने के अंत में जब पैसा हाथ में आता है तो इतना भी नहीं होता कि जिससे उनका और उनके परिवार का १० दिन का खर्च भी निकल सके.ऐसा भी नहीं है कि उनकी नियोक्ता मीडिया कम्पनियाँ ऐसा मजबूरी में करती हैं बल्कि अगर हम उनकी सालाना बैलेंस शीट को देखें तो पाएँगे कि वे तो हर साल भारी लाभ में होती हैं.हाँ,यह बात अलग है कि अकूत धन के ढेर पर बैठा उसका मालिक पूरे लाभ को अकेले ही हजम कर जाना चाहता है और चाहता क्या है वह बाजाप्ता ऐसा कर भी रहा है.इस तरह भारतीय मीडिया उद्योग में कमाएगा लंगोटीवाला और खाएगा धोतीवाला वाली कहावत बड़े ही मजे में चरितार्थ हो रही है.
मित्रों,हमारे पूर्वज राजनीतिज्ञों ने,जिनमें से अधिकतर कभी-न-कभी पत्रकार भी रह चुके थे;आनेवाले समय में हृदयहीन पूँजी के हाथों पत्रकारों की संभावित दुर्गति को अपनी दूरदृष्टि के माध्यम से साफ-साफ देख लिया था और इसलिए उन्होंने प्रेस अधिनियम द्वारा उनके हितों की रक्षा करने की कोशिश की.हालाँकि,आश्चर्यजनक रूप से इलेक्ट्रोनिक और वेब मीडिया कर्मी अभी भी इस सुरक्षा छतरी से बाहर हैं.क्यों बाहर हैं शायद सरकार को पता हो लेकिन जो इसके दायरे में आते हैं उन समाचारपत्र कर्मचारियों को भी दुर्भाग्यवश इस अति महत्वपूर्ण कानून का फायदा नहीं मिल पा रहा है.उन्हें इसके दायरे से बाहर करने के लिए कई तरह के सादे प्रपत्रों पर नियुक्ति के समय ही हस्ताक्षर करवा लिया जाता है और फिर मिल जाती है प्रबंधन को छूट उनकी रोटी के साथ खुलकर खेलने की.यानि सरकार जब तक पेड़ पर चढ़ने को तैयार होती है तब तक मीडिया कंपनियों के मालिक पात-पात को गिन आते हैं.भारत का ऐसा कोई भी कानून नहीं जिसमें कुछ-न-कुछ लूप होल्स नहीं हो,कमियाँ न हों फिर पूंजीपतियों के पास तो हमेशा उनके साथ नाभिनालबद्ध दुनिया के सबसे बेहतरीन दिमाग भी होते हैं;हर जोड़ का तोड़ निकालने के लिए.
मित्रों,सभी पत्रकार व गैर पत्रकार समाचार-पत्र कर्मियों के लिए मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को आए एक साल होने को है लेकिन कोई भी समाचार-पत्र या समाचार एजेंसी प्रबंधन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही;ऊपर से वे मजीठिया की सिफारिशों का विरोध भी कर रहे हैं.उनमें से कुछ तो कथित न्याय की आशा में न्यायालय भी पहुँच गए परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें राहत देने से मना कर दिया और सब कुछ सरकार पर छोड़ दिया.
मित्रों,इस प्रकार इस समय जो वस्तु-स्थिति है वो यह है कि मीडिया कंपनियों के मालिक किसी भी स्थिति में अपने कर्मचारियों को मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन बढाकर अपने मुनाफे को कम करने को तैयार नहीं हैं और वे इसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं.क्या वे भारतवर्ष के सारे कानूनों से परे हैं?संविधान में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा.अभी कुछ भी दिन पहले मैंने bhadas4media पर यह समाचार देखा कि दैनिक जागरण,कानपुर ने अपने कर्मचारियों से जबरन एक प्रपत्र पर हस्ताक्षर भी करवा लिया है.उस कथित प्रपत्र पर यह लिखा हुआ है कि ''मैं जागरण की सेवाओं से संतुष्ट हूं और जागरण मेरे और मेरे परिवार के हितों की पूरी तरह सुरक्षा कर रहा है. मुझे मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप कोई वेतनमान नहीं चाहिए.''अब आप ही बताईए बेचारे दस्तखत नहीं करें तो करें क्या?ऐसा नहीं करने पर उन्हें बिना कोई कारण बताए बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाएगा और यह तो आप भी जानते हैं कि तुलसीदास के ज़माने से ही ''तुलसी बुझाई एक राम घनश्याम ही ते,आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की''.हो सकता है कि ऐसे मीडियाकर्मियों के पेट पर लात मारने का हस्ताक्षर अभियान गुप्त रूप से अन्य मीडिया कंपनियों में भी चलाया जा रहा हो.
मित्रों,जाहिर है समाज के दबे,कुचलों और पीड़ितों को न्याय दिलानेवाले मीडियाकर्मी खुद ही अन्याय के सबसे बड़े शिकार हैं.अगर उन्होंने पूर्वोक्त प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिया तो फिर वे मजीठिया आयोग की सिफारिशों से कथित रूप से अपनी मर्जी से पूरी तरह से वंचित रह जाएँगे.अब यह भारत सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस आयोग की सिफारिशों को लागू कराने की दिशा में किस हद तक जाती है.कुछ इसी तरह की स्थिति १९८९ में भी बनी थी.तब भी मीडिया कम्पनियाँ बछावत आयोग की सिफारिशों को लागू करने में नानुकूर कर रही थीं लेकिन तब स्व.राजीव गाँधी की सरकार ने सख्ती बरतते हुए उन्हें बछावत आयोग की सभी सिफारिशों को लागू करने के लिए बाध्य कर दिया था.परन्तु आज स्थिति बिलकुल उलट है.आज केंद्र में अब तक की सबसे भ्रष्ट और कमजोर-कामचोर सरकार सत्ता में है.उस पर नीम पर करेला यह कि यह सरकार बाजार को ही भगवान मानते हुए सबकुछ बाजार के हवाले कर देने की सख्त हिमायती भी है.उस करेले पर चिरैता यह कि सरकार कथित कार्पोरेट संस्कृति की भी अंधसमर्थक है.फिर भी अगर सरकार ने सोडा वाटर के नशे (जोश) में आकर सख्ती बरती और मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो भी गईं तब भी लगभग सारे कर्मियों के पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला क्योंकि तब तक वे बिना कोई विरोध किए एकतरफा संधि-प्रपत्र या और भी स्पष्ट रूप से कहें तो आत्मसमर्पण-पत्र अथवा सुसाईडल नोट पर हस्ताक्षर कर चुके होंगे.इसलिए अगर सरकार इस वेतन-आयोग की सिफारिशों को लागू करवाना ही चाहती है और सही मायने में लागू करवाना चाहती है तो फिर उसे मीडिया कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान का तोड़ भी निकालना पड़ेगा.
मित्रों,हमारे पूर्वज राजनीतिज्ञों ने,जिनमें से अधिकतर कभी-न-कभी पत्रकार भी रह चुके थे;आनेवाले समय में हृदयहीन पूँजी के हाथों पत्रकारों की संभावित दुर्गति को अपनी दूरदृष्टि के माध्यम से साफ-साफ देख लिया था और इसलिए उन्होंने प्रेस अधिनियम द्वारा उनके हितों की रक्षा करने की कोशिश की.हालाँकि,आश्चर्यजनक रूप से इलेक्ट्रोनिक और वेब मीडिया कर्मी अभी भी इस सुरक्षा छतरी से बाहर हैं.क्यों बाहर हैं शायद सरकार को पता हो लेकिन जो इसके दायरे में आते हैं उन समाचारपत्र कर्मचारियों को भी दुर्भाग्यवश इस अति महत्वपूर्ण कानून का फायदा नहीं मिल पा रहा है.उन्हें इसके दायरे से बाहर करने के लिए कई तरह के सादे प्रपत्रों पर नियुक्ति के समय ही हस्ताक्षर करवा लिया जाता है और फिर मिल जाती है प्रबंधन को छूट उनकी रोटी के साथ खुलकर खेलने की.यानि सरकार जब तक पेड़ पर चढ़ने को तैयार होती है तब तक मीडिया कंपनियों के मालिक पात-पात को गिन आते हैं.भारत का ऐसा कोई भी कानून नहीं जिसमें कुछ-न-कुछ लूप होल्स नहीं हो,कमियाँ न हों फिर पूंजीपतियों के पास तो हमेशा उनके साथ नाभिनालबद्ध दुनिया के सबसे बेहतरीन दिमाग भी होते हैं;हर जोड़ का तोड़ निकालने के लिए.
मित्रों,सभी पत्रकार व गैर पत्रकार समाचार-पत्र कर्मियों के लिए मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को आए एक साल होने को है लेकिन कोई भी समाचार-पत्र या समाचार एजेंसी प्रबंधन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही;ऊपर से वे मजीठिया की सिफारिशों का विरोध भी कर रहे हैं.उनमें से कुछ तो कथित न्याय की आशा में न्यायालय भी पहुँच गए परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें राहत देने से मना कर दिया और सब कुछ सरकार पर छोड़ दिया.
मित्रों,इस प्रकार इस समय जो वस्तु-स्थिति है वो यह है कि मीडिया कंपनियों के मालिक किसी भी स्थिति में अपने कर्मचारियों को मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन बढाकर अपने मुनाफे को कम करने को तैयार नहीं हैं और वे इसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं.क्या वे भारतवर्ष के सारे कानूनों से परे हैं?संविधान में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा.अभी कुछ भी दिन पहले मैंने bhadas4media पर यह समाचार देखा कि दैनिक जागरण,कानपुर ने अपने कर्मचारियों से जबरन एक प्रपत्र पर हस्ताक्षर भी करवा लिया है.उस कथित प्रपत्र पर यह लिखा हुआ है कि ''मैं जागरण की सेवाओं से संतुष्ट हूं और जागरण मेरे और मेरे परिवार के हितों की पूरी तरह सुरक्षा कर रहा है. मुझे मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप कोई वेतनमान नहीं चाहिए.''अब आप ही बताईए बेचारे दस्तखत नहीं करें तो करें क्या?ऐसा नहीं करने पर उन्हें बिना कोई कारण बताए बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाएगा और यह तो आप भी जानते हैं कि तुलसीदास के ज़माने से ही ''तुलसी बुझाई एक राम घनश्याम ही ते,आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की''.हो सकता है कि ऐसे मीडियाकर्मियों के पेट पर लात मारने का हस्ताक्षर अभियान गुप्त रूप से अन्य मीडिया कंपनियों में भी चलाया जा रहा हो.
मित्रों,जाहिर है समाज के दबे,कुचलों और पीड़ितों को न्याय दिलानेवाले मीडियाकर्मी खुद ही अन्याय के सबसे बड़े शिकार हैं.अगर उन्होंने पूर्वोक्त प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिया तो फिर वे मजीठिया आयोग की सिफारिशों से कथित रूप से अपनी मर्जी से पूरी तरह से वंचित रह जाएँगे.अब यह भारत सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस आयोग की सिफारिशों को लागू कराने की दिशा में किस हद तक जाती है.कुछ इसी तरह की स्थिति १९८९ में भी बनी थी.तब भी मीडिया कम्पनियाँ बछावत आयोग की सिफारिशों को लागू करने में नानुकूर कर रही थीं लेकिन तब स्व.राजीव गाँधी की सरकार ने सख्ती बरतते हुए उन्हें बछावत आयोग की सभी सिफारिशों को लागू करने के लिए बाध्य कर दिया था.परन्तु आज स्थिति बिलकुल उलट है.आज केंद्र में अब तक की सबसे भ्रष्ट और कमजोर-कामचोर सरकार सत्ता में है.उस पर नीम पर करेला यह कि यह सरकार बाजार को ही भगवान मानते हुए सबकुछ बाजार के हवाले कर देने की सख्त हिमायती भी है.उस करेले पर चिरैता यह कि सरकार कथित कार्पोरेट संस्कृति की भी अंधसमर्थक है.फिर भी अगर सरकार ने सोडा वाटर के नशे (जोश) में आकर सख्ती बरती और मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो भी गईं तब भी लगभग सारे कर्मियों के पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला क्योंकि तब तक वे बिना कोई विरोध किए एकतरफा संधि-प्रपत्र या और भी स्पष्ट रूप से कहें तो आत्मसमर्पण-पत्र अथवा सुसाईडल नोट पर हस्ताक्षर कर चुके होंगे.इसलिए अगर सरकार इस वेतन-आयोग की सिफारिशों को लागू करवाना ही चाहती है और सही मायने में लागू करवाना चाहती है तो फिर उसे मीडिया कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान का तोड़ भी निकालना पड़ेगा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें