मित्रों, गीता कहती है जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। अर्थात पैदा हुए की जरूर मृत्यु होती है और मरे हुए का जरूर जन्म होता है. अटल जी भी हमारी तरह जीव थे, मानव थे इसलिए उनका मरना भी तय था. यह सही है कि आज देश में शोक की जबरदस्त लहर है लेकिन मैं समझता हूँ कि वे पिछले कई सालों से जिस तरह का कष्ट भोग रहे थे और जिस तरह की बीमारी से ग्रस्त थे उनका चले जाना ही ठीक था. हमारे देहात में कहा जाता है कि चलते-फिरते मौत आ जाए तो सबसे अच्छा. फिर हमें कैसे अच्छा लगता कि हमारा प्रिय, हमारा आदर्श शारीरिक यातना भोगे. वैसे मैं समझता हूँ अटल जी की बीमारी उनके लिए वरदान भी थी क्योंकि अगर वे आज स्वस्थ होते तो आज के राजनैतिक हालात और राजनैतिक संस्कृति से उनको अपार मानसिक पीड़ा होती जिससे वे रोजाना मर रहे होते. कम-से-कम अपने शव पर फूल चढाने आए स्वामी अग्निवेश की पिटाई से उनतको मरणान्तक पीड़ा जरूर होती.
मित्रों, वैसे मेरा मानना है कि अटल फिर आएँगे, फिर से जन्म लेंगे वादा जो किया है मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? और भारत में ही जन्म लेंगे क्योंकि यही वह धरती है जहाँ जन्म लेने को देवता भी लालायित रहते हैं इसलिए उदास नहीं होईए. वैसे सच पूछिए तो उदास तो मैं भी हूँ, मेरी ऑंखें बार-बार भर आ रही हैं, मेरी लेखनी भी रो रही है हाथ बार-बार रूक जा रहे हैं लिखते-लिखते लेकिन नियति के आगे आप-हम सब बेबस हैं. कुछ कर नहीं सकते. कोई कुछ नहीं कर सकता. विश्वास नहीं होता कि जिनका भाषण सुनने के लिए हमने कई बार मीलों रेल और बस यात्रा की. जिनका प्रत्यक्ष भाषण सुनते हुए मन कभी नहीं थका और लगातार-उत्तरोत्तर लालची होता गया कि कुछ मिनट और यह स्वर कानों में पड़ता रहे, कुछ देर और, कुछ देर और, जिनको सामने देखकर सर गर्वोन्नत हो जाता था कि हमने उनको अपनी नंगी आँखों से देखा है वह मधुर छवि वही मधुर छवि हास्यम मधुरम, वाक्यम मधुरम, दृश्यम मधुरम अब हमारे आगे से जा चुकी है, दूर बहुत दूर.
मित्रों, मेरे पास उनके साथ निकाली गयी कोई तस्वीर नहीं है. मेरी उनसे कभी मुलाकात भी नहीं हुई लेकिन फिर भी हमेशा बालपन से ही मेरे मन में उनके प्रति स्वतःस्फूर्त श्रद्धा रही, प्रेम रहा, वो भी अनंत. मैं कल्पना करता कि क्या मैं उनकी शैली में भाषण कर सकता हूँ यद्यपि मैं जानता था कि उनके जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता और न ही उनकी तरह वक्तृता कर सकता है. उनके भाषणों को सुनना मेरी दीवानगी थी. हम कई दिन पहले से इंतजार करते कि आज वो बोलनेवाले हैं. उनको जुमले नहीं आते थे न ही उनको अपने ऊपर कोई अभिमान था. वे सवालों से डरते नहीं थे बल्कि उनका मजा लेते. कोई काम उनसे नहीं होता तो जनता से सीधे माफ़ी मांग लेते कि हमने नहीं हुआ, कभी बहाना नहीं बनाया, उनका शरीर क्रमशः जवान और बूढा जरूर हुआ लेकिन उनका दिल हमेशा एक बच्चे का रहा, सीधा और सच्चा. किसी की बडाई करनी है तो करनी है और किसी की आलोचना करनी है तो करनी है लेकिन मर्यादा का बिना उल्लंघन किए, मीठे शब्दों में.
मित्रों, मुझे याद है कि जब वे २००४ में चुनाव हारे थे तब हमने दो दिनों तक खाना नहीं खाया था लेकिन आज मैं खाना खाऊंगा क्योंकि वो मरा नहीं है मुक्त हुआ है एक ऐसी लाईलाज बीमारी की यातना से जिसमें आदमी जिंदा लाश बनकर रह जाता है. अभी कुछ दिन पहले महनार में जब मैं प्रसिद्ध साहित्यकार प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन से मिलने गया था जो इसी बीमारी से ग्रस्त थे और अपनी सुध-बुध खो बैठे थे तब मैंने उनके लिए भी ईश्वर से यही प्रार्थना की थी कि हे प्रभु इस महामानव को मुक्त कर दे. यद्यपि मुझे लगता है कि ईश्वर तो अटल जी को वर्षों पहले ही अपने पास बुला लेना चाहता था लेकिन यह करोड़ों देशवासियों का अटल प्यार ही था जो भगवान को भी बार-बार सोंचने पर मजबूर कर देता था और हाथ रोक लेने को बाध्य कर देता था. अटल तुम अपनी तरह के अकेले थे न कोई तेरे जैसा हुआ है न होगा, अलविदा मेरे बालकृष्ण....
मित्रों, अंत में मैं जयपुर निवासी शिव कुमार पारिक का आभार प्रकट करना चाहूँगा जिन्होंने १९५७ से अंतिम साँस तक हमारे प्रिय नेता की छाया की तरह साथ रहकर पूर्ण निस्स्वार्थ भाव से सेवा की.
मित्रों, वैसे मेरा मानना है कि अटल फिर आएँगे, फिर से जन्म लेंगे वादा जो किया है मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? और भारत में ही जन्म लेंगे क्योंकि यही वह धरती है जहाँ जन्म लेने को देवता भी लालायित रहते हैं इसलिए उदास नहीं होईए. वैसे सच पूछिए तो उदास तो मैं भी हूँ, मेरी ऑंखें बार-बार भर आ रही हैं, मेरी लेखनी भी रो रही है हाथ बार-बार रूक जा रहे हैं लिखते-लिखते लेकिन नियति के आगे आप-हम सब बेबस हैं. कुछ कर नहीं सकते. कोई कुछ नहीं कर सकता. विश्वास नहीं होता कि जिनका भाषण सुनने के लिए हमने कई बार मीलों रेल और बस यात्रा की. जिनका प्रत्यक्ष भाषण सुनते हुए मन कभी नहीं थका और लगातार-उत्तरोत्तर लालची होता गया कि कुछ मिनट और यह स्वर कानों में पड़ता रहे, कुछ देर और, कुछ देर और, जिनको सामने देखकर सर गर्वोन्नत हो जाता था कि हमने उनको अपनी नंगी आँखों से देखा है वह मधुर छवि वही मधुर छवि हास्यम मधुरम, वाक्यम मधुरम, दृश्यम मधुरम अब हमारे आगे से जा चुकी है, दूर बहुत दूर.
मित्रों, मेरे पास उनके साथ निकाली गयी कोई तस्वीर नहीं है. मेरी उनसे कभी मुलाकात भी नहीं हुई लेकिन फिर भी हमेशा बालपन से ही मेरे मन में उनके प्रति स्वतःस्फूर्त श्रद्धा रही, प्रेम रहा, वो भी अनंत. मैं कल्पना करता कि क्या मैं उनकी शैली में भाषण कर सकता हूँ यद्यपि मैं जानता था कि उनके जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता और न ही उनकी तरह वक्तृता कर सकता है. उनके भाषणों को सुनना मेरी दीवानगी थी. हम कई दिन पहले से इंतजार करते कि आज वो बोलनेवाले हैं. उनको जुमले नहीं आते थे न ही उनको अपने ऊपर कोई अभिमान था. वे सवालों से डरते नहीं थे बल्कि उनका मजा लेते. कोई काम उनसे नहीं होता तो जनता से सीधे माफ़ी मांग लेते कि हमने नहीं हुआ, कभी बहाना नहीं बनाया, उनका शरीर क्रमशः जवान और बूढा जरूर हुआ लेकिन उनका दिल हमेशा एक बच्चे का रहा, सीधा और सच्चा. किसी की बडाई करनी है तो करनी है और किसी की आलोचना करनी है तो करनी है लेकिन मर्यादा का बिना उल्लंघन किए, मीठे शब्दों में.
मित्रों, मुझे याद है कि जब वे २००४ में चुनाव हारे थे तब हमने दो दिनों तक खाना नहीं खाया था लेकिन आज मैं खाना खाऊंगा क्योंकि वो मरा नहीं है मुक्त हुआ है एक ऐसी लाईलाज बीमारी की यातना से जिसमें आदमी जिंदा लाश बनकर रह जाता है. अभी कुछ दिन पहले महनार में जब मैं प्रसिद्ध साहित्यकार प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन से मिलने गया था जो इसी बीमारी से ग्रस्त थे और अपनी सुध-बुध खो बैठे थे तब मैंने उनके लिए भी ईश्वर से यही प्रार्थना की थी कि हे प्रभु इस महामानव को मुक्त कर दे. यद्यपि मुझे लगता है कि ईश्वर तो अटल जी को वर्षों पहले ही अपने पास बुला लेना चाहता था लेकिन यह करोड़ों देशवासियों का अटल प्यार ही था जो भगवान को भी बार-बार सोंचने पर मजबूर कर देता था और हाथ रोक लेने को बाध्य कर देता था. अटल तुम अपनी तरह के अकेले थे न कोई तेरे जैसा हुआ है न होगा, अलविदा मेरे बालकृष्ण....
मित्रों, अंत में मैं जयपुर निवासी शिव कुमार पारिक का आभार प्रकट करना चाहूँगा जिन्होंने १९५७ से अंतिम साँस तक हमारे प्रिय नेता की छाया की तरह साथ रहकर पूर्ण निस्स्वार्थ भाव से सेवा की.
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