मित्रों, जब इस समय पूरी दुनिया को कोरोना से लड़ना पड़ रहा है हम
भारतीयों को दुर्भाग्यवश कोरोना के साथ-साथ धर्मांध जेहादियों से भी लड़ना
पड़ रहा है. जगह-जगह पूरे भारत में स्वास्थ्यकर्मियों और पुलिसकर्मियों पर
हमले हो रहे हैं. जो लोग बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपनी जान दांव पर
लगाकर सबकी जान बचाने में लगे हैं उनके ऊपर पुष्पवृष्टि करने के बदले पथराव
किया जा रहा है.
मित्रों, अभी-अभी दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष श्री जफरुल इस्लाम खान का एक ट्विट काफी वायरल हो रहा है जिसमें उन्होंने जाकिर नाईक नामक घृणास्पद व्यक्ति को महान बताते हुए आरोप लगाया है कि तबलीगी जमातियों को छोड़ा नहीं जा रहा है अर्थात कैदी बना लिया गया है. मैं पूछता हूँ कि जब जमाती पागल कुत्ते की तरह व्यवहार कर रहे थे तब श्री खान कहाँ थे? क्या श्री खान की नज़रों में सिर्फ मुसलमान ही मानव हैं और क्या सिर्फ उनका ही मानवाधिकार होता है? क्या दिन-रात मानवता की सेवा में लगे पुलिसकर्मी और स्वास्थ्यकर्मी उनकी नज़र में मानव नहीं हैं? मैं श्री खान से पूछना चाहता हूँ कि उनके कृत्यों को देखते हुए क्या उनको खुला छोड़ना देश और समाज के लिए खतरनाक नहीं होगा? क्या इन जमातियों की मानसिक हालत ठीक है?
मित्रों, इतना ही नहीं श्री खान भारतवर्ष को अरब देशों का नाम लेकर धमकी दे रहे हैं कि जब अरब देशों तक यह समाचार पहुंचेगा कि जमातियों को कैद कर लिया गया है तब भारत में सैलाब आ जाएगा. वाह खान साहब रहना-खाना भारत में और भक्ति अरब देशों की. अरब देशों ने तो खुद ही तब्लिगियों पर पाबन्दी लगा रखी है फिर वे क्यों भारत से उलझेंगे? और अगर उलझ भी गए तो भारत का क्या बिगाड़ लेंगे? इस समय तो तेल के गिरते दाम ने खुद उनका ही दम निकाला हुआ है.
मित्रों, सवाल उठता है कि श्री खान जैसे पढ़े-लिखे लोग कैसे धर्मांध और जेहादी हो सकते हैं? सांप के तो सिर्फ एक या दो दांतों में जहर होता है इनके तो दिमाग में ही जहर है. उस पर भारत के धर्मनिरपेक्षतावादी नेता इनको लगातार तुष्टीकरण का दूध पिला रहे हैं. जबकि सच्चाई तो यह है कि पयःपानं हि भुजन्गानाम केवलं विषवर्द्धनम. तुष्टीकरण से याद आया कि जर्मनी में हिटलर ने आज से ठीक सौ साल पहले राजनीति में प्रवेश किया था. आरम्भ में हिटलर ने साम्यवादियों को कुचलना शुरू किया और तब इंग्लैण्ड और फ़्रांस ने उसकी खूब मदद की और तभी इस तुष्टीकरण का अत्यंत घृणित स्वरुप देखने को मिला. लेकिन जब हिटलर ने इंग्लैंड और फ़्रांस के मित्र देशों पर भी हमला करना और उनको अधिकृत करना शुरू कर दिया तब तुष्टीकरण करनेवाले मित्र राष्ट्रों के होश उड़ गए और अंततः द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते दुनिया और मानवता को भारी नुकसान उठाना पड़ा.
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि तुष्टिकरण किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता अलबत्ता उसे बढ़ा जरूर सकता है. हम दिन-रात ऊं द्यौ शांति, अंतरिक्ष शांति पढ़ रहे हैं. पढना भी चाहिए लेकिन क्या सामनेवाले के मन में भी यही भाव हैं? हमने तो नफरत करना सीखा ही नहीं और सिर्फ प्रेम के ढाई अक्षर जानते हैं लेकिन क्या सामनेवाले ने भी प्रेम का ढाई आखर पढ़ा है या उसके मन में सिर्फ नफरत का जहर है. नफरत एकतरफा हो सकती है प्रेम तो एकतरफ़ा हो ही नहीं सकता. ऐसा नहीं है कि उनमें प्रेम करनेवाले बिलकुल हुए ही न हों-दरिया साहब, रहीम, रसखान, यारी साहब, खुसरो, ताज, नज़ीर, कारे खान, करीम बख्श, इन्शा, बाजिंद, बुल्लेशाह, आदिल, मक़सूद, मौजदीन, वाहिद, दीन दरवेश, अफ़सोस, काजिम, खालस, वहजन, लतीफ़ हुसैन, मंसूर, यकरंग, कायम, फरहत, काजी अशरफ महमूद, आलम, तालिबशाह, महबूब, नफीस खलीली, सैयद कासिम अली और निजामुद्दीन औलिया जैसे अनगिनत ऐसे प्रेमी हुए हैं जो कबीर की तरह दिन-रात गाते फिरते थे
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या?
इन मुस्लिम राम-कृष्ण के भक्तों के लिए एक समय श्री भारतेंदु हरिशचंद्र जी ने कहा था कि- ‘इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्दुन वारिये.’
मित्रों, सवाल उठता है कि जिस निजामुद्दीन औलिया ने पूरी दुनिया को खालिस इश्क का सन्देश दिया आज उनकी ही दरगाह पर तबलीग का आयोजन कर नफरत की शिक्षा दी जाती है? इश्क यानि प्रेम भगवान द्वारा प्राणिमात्र को प्रदत्त सबसे अमूल्य धन है फिर हम शैतान के सबसे बड़े अवगुण नफरत को क्यों गले लगा रहे हैं? आखिर क्या मिल जाएगा खाद्य पदार्थों में थूकने से, पेशाब करने से या लैट्रिन मिला देने से? ऐसा करने वालों को लगता है कि वे ऐसा करके दूसरों का धर्म भ्रष्ट कर देंगे लेकिन धर्म तो खुद इनका भ्रष्ट हो रहा है और बदनाम भी हो रहा है। हम जानते हैं कि मुसलमान हिटलर से नफ़रत करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जो भी समाज सर्वधर्मसमभाव, सहअस्तित्व और सहिष्णुता की नीति पर नहीं चलता वो समाज हिटलरों का समाज है। क्या भारत के मुसलमान सुंदर-सुभूमि भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं जहां कोरोना जैसी विषम परिस्थिति में भी हिंदुओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है? क्या यही इस्लाम है? क्या यह धर्म है? फिर अधर्म क्या है? दूर सीरिया और पाकिस्तान को छोड़िए हमारे बगल के शहर पटना में सन्नी गुप्ता की सिर्फ इसलिए एक मुसलमान ने हत्या कर दी क्योंकि उसने कोरोनावीरों के साथ उनके द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार का विरोध किया था. इतना ही नहीं उसकी शवयात्रा पर मुस्लिमों की भीड़ द्वारा पत्थरबाजी भी की गई जबकि शवयात्रा में शामिल महिलाएँ तक हाथ जोड़कर उनसे ऐसा न करने का निवेदन कर रही थीं. बाद में सन्नी गुप्ता के परिजनों ने मुस्लिमबहुल इलाके में स्थित अपने घर पर यह मकान बिकाऊ है का बोर्ड लगा दिया. क्या यही धर्म है? विश्वास नहीं होता कि यही मुसलमान साल में पूरे एक महीने तक हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिजनों के साथ हुई क्रूरता और अत्याचार की याद में शोक मनाते हैं. तुलसी कहते हैं-परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई. फिर किसी पंथ या मजहब में परोपकार के स्थान पर परपीड़ा कैसे महान पुण्य का करणीय कार्य हो सकता है.
मित्रों, इस आलेख का अंत हम महान शायर व भारतमाता के महान बेटे मिर्ज़ा असदुल्लाह खान ग़ालिब की इन पंक्तियों से करना चाहेंगे-
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.
मित्रों, अभी-अभी दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष श्री जफरुल इस्लाम खान का एक ट्विट काफी वायरल हो रहा है जिसमें उन्होंने जाकिर नाईक नामक घृणास्पद व्यक्ति को महान बताते हुए आरोप लगाया है कि तबलीगी जमातियों को छोड़ा नहीं जा रहा है अर्थात कैदी बना लिया गया है. मैं पूछता हूँ कि जब जमाती पागल कुत्ते की तरह व्यवहार कर रहे थे तब श्री खान कहाँ थे? क्या श्री खान की नज़रों में सिर्फ मुसलमान ही मानव हैं और क्या सिर्फ उनका ही मानवाधिकार होता है? क्या दिन-रात मानवता की सेवा में लगे पुलिसकर्मी और स्वास्थ्यकर्मी उनकी नज़र में मानव नहीं हैं? मैं श्री खान से पूछना चाहता हूँ कि उनके कृत्यों को देखते हुए क्या उनको खुला छोड़ना देश और समाज के लिए खतरनाक नहीं होगा? क्या इन जमातियों की मानसिक हालत ठीक है?
मित्रों, इतना ही नहीं श्री खान भारतवर्ष को अरब देशों का नाम लेकर धमकी दे रहे हैं कि जब अरब देशों तक यह समाचार पहुंचेगा कि जमातियों को कैद कर लिया गया है तब भारत में सैलाब आ जाएगा. वाह खान साहब रहना-खाना भारत में और भक्ति अरब देशों की. अरब देशों ने तो खुद ही तब्लिगियों पर पाबन्दी लगा रखी है फिर वे क्यों भारत से उलझेंगे? और अगर उलझ भी गए तो भारत का क्या बिगाड़ लेंगे? इस समय तो तेल के गिरते दाम ने खुद उनका ही दम निकाला हुआ है.
मित्रों, सवाल उठता है कि श्री खान जैसे पढ़े-लिखे लोग कैसे धर्मांध और जेहादी हो सकते हैं? सांप के तो सिर्फ एक या दो दांतों में जहर होता है इनके तो दिमाग में ही जहर है. उस पर भारत के धर्मनिरपेक्षतावादी नेता इनको लगातार तुष्टीकरण का दूध पिला रहे हैं. जबकि सच्चाई तो यह है कि पयःपानं हि भुजन्गानाम केवलं विषवर्द्धनम. तुष्टीकरण से याद आया कि जर्मनी में हिटलर ने आज से ठीक सौ साल पहले राजनीति में प्रवेश किया था. आरम्भ में हिटलर ने साम्यवादियों को कुचलना शुरू किया और तब इंग्लैण्ड और फ़्रांस ने उसकी खूब मदद की और तभी इस तुष्टीकरण का अत्यंत घृणित स्वरुप देखने को मिला. लेकिन जब हिटलर ने इंग्लैंड और फ़्रांस के मित्र देशों पर भी हमला करना और उनको अधिकृत करना शुरू कर दिया तब तुष्टीकरण करनेवाले मित्र राष्ट्रों के होश उड़ गए और अंततः द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते दुनिया और मानवता को भारी नुकसान उठाना पड़ा.
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि तुष्टिकरण किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता अलबत्ता उसे बढ़ा जरूर सकता है. हम दिन-रात ऊं द्यौ शांति, अंतरिक्ष शांति पढ़ रहे हैं. पढना भी चाहिए लेकिन क्या सामनेवाले के मन में भी यही भाव हैं? हमने तो नफरत करना सीखा ही नहीं और सिर्फ प्रेम के ढाई अक्षर जानते हैं लेकिन क्या सामनेवाले ने भी प्रेम का ढाई आखर पढ़ा है या उसके मन में सिर्फ नफरत का जहर है. नफरत एकतरफा हो सकती है प्रेम तो एकतरफ़ा हो ही नहीं सकता. ऐसा नहीं है कि उनमें प्रेम करनेवाले बिलकुल हुए ही न हों-दरिया साहब, रहीम, रसखान, यारी साहब, खुसरो, ताज, नज़ीर, कारे खान, करीम बख्श, इन्शा, बाजिंद, बुल्लेशाह, आदिल, मक़सूद, मौजदीन, वाहिद, दीन दरवेश, अफ़सोस, काजिम, खालस, वहजन, लतीफ़ हुसैन, मंसूर, यकरंग, कायम, फरहत, काजी अशरफ महमूद, आलम, तालिबशाह, महबूब, नफीस खलीली, सैयद कासिम अली और निजामुद्दीन औलिया जैसे अनगिनत ऐसे प्रेमी हुए हैं जो कबीर की तरह दिन-रात गाते फिरते थे
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या?
इन मुस्लिम राम-कृष्ण के भक्तों के लिए एक समय श्री भारतेंदु हरिशचंद्र जी ने कहा था कि- ‘इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्दुन वारिये.’
मित्रों, सवाल उठता है कि जिस निजामुद्दीन औलिया ने पूरी दुनिया को खालिस इश्क का सन्देश दिया आज उनकी ही दरगाह पर तबलीग का आयोजन कर नफरत की शिक्षा दी जाती है? इश्क यानि प्रेम भगवान द्वारा प्राणिमात्र को प्रदत्त सबसे अमूल्य धन है फिर हम शैतान के सबसे बड़े अवगुण नफरत को क्यों गले लगा रहे हैं? आखिर क्या मिल जाएगा खाद्य पदार्थों में थूकने से, पेशाब करने से या लैट्रिन मिला देने से? ऐसा करने वालों को लगता है कि वे ऐसा करके दूसरों का धर्म भ्रष्ट कर देंगे लेकिन धर्म तो खुद इनका भ्रष्ट हो रहा है और बदनाम भी हो रहा है। हम जानते हैं कि मुसलमान हिटलर से नफ़रत करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जो भी समाज सर्वधर्मसमभाव, सहअस्तित्व और सहिष्णुता की नीति पर नहीं चलता वो समाज हिटलरों का समाज है। क्या भारत के मुसलमान सुंदर-सुभूमि भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं जहां कोरोना जैसी विषम परिस्थिति में भी हिंदुओं के साथ भेदभाव किया जा रहा है? क्या यही इस्लाम है? क्या यह धर्म है? फिर अधर्म क्या है? दूर सीरिया और पाकिस्तान को छोड़िए हमारे बगल के शहर पटना में सन्नी गुप्ता की सिर्फ इसलिए एक मुसलमान ने हत्या कर दी क्योंकि उसने कोरोनावीरों के साथ उनके द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार का विरोध किया था. इतना ही नहीं उसकी शवयात्रा पर मुस्लिमों की भीड़ द्वारा पत्थरबाजी भी की गई जबकि शवयात्रा में शामिल महिलाएँ तक हाथ जोड़कर उनसे ऐसा न करने का निवेदन कर रही थीं. बाद में सन्नी गुप्ता के परिजनों ने मुस्लिमबहुल इलाके में स्थित अपने घर पर यह मकान बिकाऊ है का बोर्ड लगा दिया. क्या यही धर्म है? विश्वास नहीं होता कि यही मुसलमान साल में पूरे एक महीने तक हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिजनों के साथ हुई क्रूरता और अत्याचार की याद में शोक मनाते हैं. तुलसी कहते हैं-परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई. फिर किसी पंथ या मजहब में परोपकार के स्थान पर परपीड़ा कैसे महान पुण्य का करणीय कार्य हो सकता है.
मित्रों, इस आलेख का अंत हम महान शायर व भारतमाता के महान बेटे मिर्ज़ा असदुल्लाह खान ग़ालिब की इन पंक्तियों से करना चाहेंगे-
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.
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