बजट पेश होने से पहले पूरे भारत में उम्मीद की अन्तर्वर्ती धारा बह रही थी.लोगों को आशा थी कि वित्त मंत्री महंगाई से जली हुई और इस जले पर नमक हर दफ्तर में सुविधाशुल्क देने को विवश जनता को राहत देने के लिए कोई-न-कोई कदम उठाने की घोषणा अवश्य करेंगे.लेकिन इन विषयों की चर्चा तो दूर बजट में इस बात का कोई संकेत तक नहीं था कि सरकार इन समस्याओं को गंभीर मानती भी है.जबकि बजट से पहले आई आर्थिक समीक्षा में महंगाई और भ्रष्टाचार का उड़ते-उड़ते ही सही जिक्र किया गया था.ऐसा क्यों हुआ और सरकार की नीयत क्या है यह तो बेहतर तरीके से सरकार में शामिल लोग ही बता सकते हैं;हम तो सरकार के भीतर की हलचल को बस अनुमानों के आईने में ही देख सकते हैं.
इस बार के बजट में आम नागरिकों को आयकर में प्रतिमाह १७१ रूपये की नियत छूट दी गई है और बदले में सर्विस टैक्स के रूप में प्रति माह हजारों रूपयों का बोझ लाद दिया गया है.इतना ही नहीं वित्त मंत्री इस साल मुद्रास्फीति के कम-से-कम ८.५ प्रतिशत होने का अनुमान भी लगा रहे हैं यानि आम जनता अपनी कुल कमाई में से कम-से-कम ८.५ प्रतिशत के क्षरण के लिए भी तैयार रहे.शायद इसी स्थिति को छटांक लेना और छटाँक नहीं देना और महंगाई में आटा गीला होना कहते हैं.
ऐसा भी नहीं है कि वित्त मंत्री महंगाई के वास्तविक कारणों से पूरी तरह से नावाकिफ हों.अगर ऐसा होता तो उनके बजट भाषण में द्वितीय हरित क्रांति का जिक्र तक नहीं होता.हमारे वित्त मंत्री द्वितीय हरित क्रांति को साकार होते हुए देखना तो चाहते हैं लेकिन उन्हें इसके लिए कोई जल्दीबाजी भी नहीं है.तभी तो उन्होंने बजट में इस अवश्यम्भावी क्रांति के लिए मात्र ४०० करोड़ रूपया निर्धारित किया है.पूरा पूर्वोत्तर,जहाँ पर यह कथित क्रांति होनी है;पिछले दो वर्षों से घोर अनावृष्टि का सामना कर रहा है.क्षेत्र में पीने के पानी की भी कमी हो रही है लेकिन सरकार यहाँ की जनता को हरित क्रांति का दिवास्वप्न दिखा रही है.जनमोहिनी-मनमोहिनी सरकार मात्र ४०० करोड़ रूपये में पूरे पूर्वोत्तर भारत की कृषि में क्रांति कर देना चाहती है.शायद उसका फूंक मारकर पहाड़ उड़ा देने के करतब में गंभीर विश्वास है.हालाँकि धर्मनिरपेक्ष प्रणव ने रामचरितमानस की चाहत फूंकी उड़ावन पहाड़ू पंक्ति पढ़ी है या नहीं मैं यकीं के साथ नहीं कह सकता.वर्तमान जलवायविक स्थितियों में जब तक क्षेत्र की सभी नदियों को एक-दूसरे से जोड़ नहीं दिया जाता;हरित क्रांति तो दूर की कौड़ी है ही,क्षेत्र में वर्तमान खाद्यान्न उत्पादन स्तर को बरक़रार रख पाना भी संभव नहीं है.जाहिर है कि वित्त मंत्री अगर इस तथाकथित क्रांति के प्रति सचमुच गंभीर होते तो बजट में इसके लिए कई लाख करोड़ रूपये का प्रावधान करते न कि सिर्फ ४०० करोड़ रूपये का.
मित्रों,हम जानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत इस समय दयनीय है.बजट बनाते समय एक तरफ जहाँ वित्त मंत्री को देश में उच्च विकास दर को बनाए रखना था तो वहीँ दूसरी और उनके सामने मुद्रास्फीति को भी ८.५ प्रतिशत के स्तर पर स्थिर रखने की चुनौती थी.हालाँकि मुद्रास्फीति की यह दर भी वर्तमान परिस्थितियों में जनता को कष्ट ही देगी;इसमें संदेह नहीं.वित्त मंत्री अगर साहस दिखाते तो १९२९ की महामंदी के समय जिस तरह फ्रैंकलिन डिलानो रूजवेल्ट ने अमेरिका में न्यू डील की घोषणा की थी,वैसी ही कोई वजनदार योजना की घोषणा करते.इससे बेरोजगारी भी दूर होती और देश को दीर्घकालिक लाभ भी होता.हो सकता है कि इससे मुद्रास्फीति कुछ और ज्यादा हो जाती लेकिन जनता की जेब में ज्यादा पैसा तो आता ही;देश के समक्ष सदियों से मुंह बाए खड़ी भुखमरी और मूल्य वृद्धि की स्थायी समस्या का भी स्थायी समाधान हो जाता.
मित्रों,शायद मैंने कुछ ज्यादा ही उटपटांग तुलना कर दी है.मुझे क्रांतिकारी रूजवेल्ट की घोर यथास्थितिवादी और मजबूर मनमोहन सिंह या प्रणव मुखर्जी से तुलना नहीं करनी चाहिए थी.लेकिन जब कोई ४०० करोड़ रूपये में ही भारत जैसे विशाल देश में हरित क्रांति कराने लगे तो इतिहास के पन्नों को पलटना ही पड़ता है.प्रणव मुखर्जी बड़े भारत के बहुत बड़े नेता हैं.इसलिए वे अगर गलती भी करते हैं तो बहुत बड़ी ही करते हैं.शायद बहुत बड़ा करने के चक्कर में ही वे खाद्य तेल,सब्जियां,मोटे अनाज और डेयरी उत्पादों के उत्पादन को बढ़ावा देनेवाली पाँच अतिमहत्वकांक्षी परियोजनाओं को मात्र ३००-३०० करोड़ रूपये दे गए.हद तो उन्होंने ४०० करोड़ रूपये में हरित क्रांति करके ही कर दी थी अब बारी बेहद करने की थी.मित्रों,कोई भी वित्त मंत्री जब किसी योजना के लिए राशि का आवंटन करता है तो उसके पीछे कोई-न-कोई तर्क होता है,तथ्य होता है.दादा के पास तर्क नहीं है;कुतर्क है.वे कहते हैं कि उन्होंने इन ५ योजनाओं के लिए ३००-३०० करोड़ रूपये इसलिए दिए हैं क्योंकि उनका शुभ अंक ३ है.दादा,अगर तीन के गुणांक में ही राशि देना चाहते थे तो उन्हें कम-से-कम ३०००-३००० करोड़ रूपये देने चाहिए थे.३००-३०० रूपये में क्या होगा और क्या नहीं होगा पता नहीं लेकिन लक्ष्य तो पूरा नहीं ही होगा.वैसे दादा ने शायद इस संभावित आलोचना से बचने के लिए ही इन क्षेत्रों में उत्पादन वृद्धि के लिए कोई लक्ष्य रखा ही नहीं है.मित्रों,जिस तरह प्रश्न-पत्र में सिर्फ कठिन प्रश्न ही नहीं होते क्योंकि इससे परीक्षार्थी के आत्महत्या कर लेने की सम्भावना बढ़ जाती है उसी तरह इस बजट में भी सिर्फ जुबान को जलाकर रख देने वाली मिर्च ही नहीं है कुछ मिठाइयाँ भी है लेकिन किंचित.बुनियादी ढांचा को दुरुस्त करने और सामाजिक क्षेत्र के लिए आबंटन में भारी वृद्धि की गयी हैं;लेकिन सच्चाई यह भी है कि चूंकि यह आवंटन पहले से काफी कम था सिर्फ इसलिए वृद्धि जोरदार दिखाई दे रही है.
कुल मिलकर उद्गम से मुहाने तक यह बजट बेसुरा है और खटराग में निबद्ध है.यह बजट दिशाहीन होने की अंतिम परिणति तक दिशाहीन है और इसमें की गयी सारी घोषणाएं समय की मांग के विपरीत है.अगर सरकार को जनता व जनाकांक्षा की रंचमात्र भी चिंता होती तो वह बजट में महंगाई और भ्रष्टाचार को कम करने और मिटाने को प्रमुखता देती.अगर उसके पास इसके लिए धन की कमी थी तो वह विदेशों से कालेधन को वापस लाने की घोषणा करती न कि धनाभाव और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल के दाम बढ़ने का रोना रोती और न ही जनता खड़ी होती अपने उजड़े हुए घर की दहलीज पर ठगी-सी,अन्यमनस्क.हमें उम्मीद थी कि २०११-१२ का बजट अच्छा है या बुरा;यह अनिवार्यतः एक अनिर्णायक विवाद का विषय होगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं;बल्कि यह बजट तो बजट के औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा गया.लगता है कि सरकार ने यह सोंचकर यह बजट पेश किया है कि चूंकि ऐसा होता ही रहा है तो हम भी ऐसा कर ही लेते हैं.वास्तव में यह बजट है ही नहीं बल्कि इसे पेश करके करके एक भ्रष्ट और निकम्मी सरकार द्वारा अपनी बेगारी को टाला गया है.
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