बुधवार, 16 मार्च 2011

सड़क पर डिग्री क्यों नहीं बाँट देते सुशासन बाबू

pariksha1

मित्रों,अभी-अभी बिहार में मैट्रिक की परीक्षा समाप्त हुई है और इंटरमीडियट की अभी चल ही रही है.कुछ देखा तो कुछ सुना.कुछ अख़बारों ने भी बताया तो कुछ टी.वी.चैनलों ने.परीक्षा-सम्बन्धी गतिविधियों ने कभी सोंचने पर बाध्य किया तो कभी विचारने पर कि परीक्षा की परिभाषा क्या है और नक़ल करके पास होनेवाले बच्चों का भविष्य क्या होगा?
जहाँ तक मैं जानता हूँ और मुझे बचपन में जैसा कि बताया गया है कि पर+ईच्छा=परीक्षा यानि दूसरे की ईच्छानुसार काम करने को परीक्षा कहते हैं.हालाँकि यह परिभाषा सटीक नहीं है फिर भी इससे शब्द के निहितार्थ का तो पता चल ही जाता है.लेकिन बिहार में हर साल मैट्रिक व इंटरमीडियट की परीक्षाओं में होता क्या है?पहले तो परीक्षा का कार्यक्रम घोषित किया जाता है.फिर अख़बारों और रेडियो-टेलीविजन पर घोषणा की जाती है कि परीक्षा की तैयारियां प्रशासन द्वारा पूरी कर ली गयी हैं.इसके बाद सम्बंधित मंत्री और अधिकारियों द्वारा कदाचार रहित परीक्षा के संचालन में सहयोग की अपील प्रकाशित-प्रसारित करने के साथ ही सरकारी कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है.
फिर शुरू होती है परीक्षा.निर्धारित समय पर जब परीक्षार्थी परीक्षास्थल पर पहुँचता है तो उसके साथ राजकीय अतिथियों के सदृश व्यवहार किया जाता है.परीक्षा-भवन में तो किताबें खोलकर या जानबूझकर आँख बचाकर लिखने की छूट दी ही जाती है,बाहर से भी अभिभावकों को जिन्हें बिहार में छडपार्थी कहते हैं;मदद के लिए परीक्षा-भवन में आने दिया जाता है.पुलिस के जवानों और छडपार्थियों के बीच नूरा-कुश्ती चलती रहती है.अगर पुलिस की जगह होमगार्डों की नियुक्ति हुई तो कुछ पैसे दे देने से वे बाधक की जगह सहायक भी बन जाते हैं.ऐसा पुलिसवालों के साथ भी हो सकता है.कभी-कभी डी.एम. आदि अधिकारियों का दौरा भी होता है और तब दिखावे के लिए १०-२० परीक्षार्थियों-छडपार्थियों को गिरफ्तार कर लिया जाता है.प्रायः प्रत्येक वर्ष कुछ विषयों के प्रश्न-पत्र रहस्यमय तरीके से परीक्षा से पहले ही आउट कर दिए जाते हैं और तब सरकार उन विषयों की परीक्षा रद्द कर देती है.हालाँकि ऐसा वर्षों से चलता आ रहा है लेकिन आश्चर्य है कि सरकार अब तक लीकप्रूफ़ व्ययवस्था नहीं कर पाई है.इस तरह येन-केन-प्रकारेण किसी भी तरह से परीक्षा सरकारी भाषा में अगर कहें तो पूरी तरह से कदाचारमुक्त माहौल में संपन्न करा ली जाती है.फिर परिणाम घोषित किए जाते हैं और जिन बच्चे-बच्चियों को अपना नाम और पता लिखने का भी शऊर नहीं होता वे भी ७०-८०% अंक पा जाते हैं.उसके बाद अगर अभिभावक के पास दो नम्बरी पैसा हुआ तो घूस और डोनेशन के बल पर नौकरी भी मिल जाती है.बिहार में ऐसा आज से नहीं बल्कि तब से हो रहा है जब बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी.
मित्रों,इस सम्बन्ध में मुझे दो दशक से भी ज्यादा पुरानी एक घटना याद आ रही है.हुआ यह कि उन दिनों बिहार में समाजवादी सरकार थी और उसमें सबसे ज्यादा रसूखवाले मंत्री हमारे इलाके के ही थे.उन्होंने जबरन अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए औसत से कुछ ज्यादा तेज अपने एक ग्रामीण को दसवीं की परीक्षा में पूरे बिहार में प्रथम करवा दिया.बच्चे को आसानी से पटना के प्रतिष्ठित साईंस कॉलेज में दाखिला भी मिल गया.लेकिन जब भी क्लास होता बच्चू के पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं.डर के मारे उसने एक साल ड्रॉप करने के बाद इंटर की परीक्षा दी.अब आप ही बताएं ऐसा नंबर किस काम का?अगर पैसे और भ्रष्टाचार के बल पर नौकरी मिल भी गयी तो ऐसा व्यक्ति क्या अपने काम को सही तरीके से अंजाम दे पाएगा;नहीं न?
मित्रों,मैं जानता हूँ कि परीक्षाओं में नक़ल और कदाचार के लिए समाज भी दोषी है;लेकिन क्या साथ में सरकार दोषी नहीं है?सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वहन उसी तरह क्यों नहीं कर रही जैसे कभी कल्याण सिंह सरकार ने यू.पी. में किया था?क्या मजबूरी है बिहार सरकार की?अगर वह कदाचार-मुक्त परीक्षा नहीं ले सकती तो बच्चे-बच्चियों को सड़क पर खड़ा करके खुलेआम डिग्री क्यों नहीं बाँट देती?इतनी नौटंकी करने की क्या जरुरत है?इससे जनता का भी करोड़ो बचेगा जो उसे परीक्षा देने-दिलाने में खर्च करने पड़ते हैं.अनिच्छा से परीक्षा लेने की क्या जरुरत है?अभी पिछले साल की ही बात है.स्नातक प्रथम-द्वितीय वर्ष की परीक्षा बी.आर.ए.बिहार विश्वविद्यालय द्वारा ली जा रही थी.मानव संसाधन विभाग के सचिव के.के.पाठक के कड़े रूख के कारण परीक्षार्थियों को हिलने तक की भी अनुमति नहीं थी.अगर एक साधारण अधिकारी इतना बड़ा परिवर्तन करा सकता है तो फिर बिहार सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती?कौन जवाब देगा;सुशासन बाबू उत्तर देंगे क्या?

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