शनिवार, 21 मार्च 2015

बिहार की पूरी तस्वीर क्या है नीतीश जी?

मित्रों,बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गजब के वाकपटु हैं और शोमैन भी। पूरे बिहार में इस समय मैट्रिक की परीक्षा में इस कदर जमकर कदाचार हो रहा है कि इसे परीक्षा कहना इस शब्द का ही अपमान होगा। बल्कि यह तो स्वेच्छा है और इसमें कदाचारियों की मदद कर रहे हैं पुलिस,शिक्षक आदि अर्थात् पूरे सरकारी तंत्र ने परीक्षा को कमाई का साधन बना लिया है। वैसे तो यह हर साल का भ्रष्टोत्सव है लेकिन इस बार मीडिया ज्यादा जागरूक है वरना कदाचार के खिलाफ तो हमने अपने अखबार में पिछले साल भी मैट्रिक और इंटर की परीक्षा में जमकर लिखा था।
मित्रों,नीतीश जी अपने महान असत्यवादी़-पाखंडवादी श्रीमुख से फरमाते हैं कि इस परीक्षा के दौरान मीडिया बिहार की अधूरी तस्वीर पेश कर रही है तो क्या नीतीशजी बताएंगे कि फिर बिहार की पूरी तस्वीर क्या है? मीडिया द्वारा जहाँ पूरे राज्य के लगभग प्रत्येक जिले और प्रत्येक केंद्र पर कदाचार की खबरें दी गई थीं वहीं उनको पूरे बिहार में सिर्फ चार केंद्रों पर ही कदाचार नजर आया। रद्द तो पूरी परीक्षा होना चाहिए थी लेकिन उनको तो सिर्फ वही दिखता है जो वह देखना चाहते हैं। जाने भी दीजिए वे बेचारे तो सावन के अंधे हैं इसलिए उनको सिर्फ हरियाली ही नजर आती है। हम बताते हैं बिहार की पूरी तस्वीर क्योंकि नीतीश बाबू के कुशासन से रोजाना पाला तो हमारा पड़ता है। नीतीश बाबू का क्या उनको तो सिर्फ पैसा चाहिए फिर वो किसी भी तरह से आए।
मित्रों,बिहार की मुकम्मल तस्वीर तो यह है कि पूरे बिहार में कहीं भी सरकार नाम की चीज ही नहीं है। आप कहेंगे कैसे? तो हम एक उदाहरण द्वारा आपको बताते हैं। अभी कुछ दिन पहले हमने यह खबर लगाई थी कि बिहार की पुलिस कानून के अनुसार नहीं बल्कि अपनी मनमर्जी के अनुसार काम करती है। खैर तब हमने बताया था कि हाजीपुर के सदर थाना में जब हम ठगी की एफआईआर करने गए तब क्या हुआ। अब आगे सुनिये कि उसके बाद क्या हुआ। उसके बाद थाना ने एफआईआर दर्ज करने में 5 दिन लगा दिया। हमने थानेदार को कई-कई बार फोन किया,एसपी को फोन किया लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया। सवाल उठता है कि सरकार ने इनको सरकारी फोन क्यों दिया है जबकि इनको बिना पैसे लिए कोई काम करना ही नहीं है।
मित्रों,हद तो हो गई कल जब पीड़ित सुरेश बाबू एफआईआर लेने थाना पहुँचे तो थाने के मुंशी ने उनसे एफआईआर की कॉपी देने के लिए 500 रु. के रिश्वत की मांग कर दी। मैंने उनसे कहा मुंशी से बात करवाईए तो मुंशी फोन पर नहीं आया और गालियाँ बकने लगा। फिर मैंने थानेदार को फोन लगाया तो उसने कहा कि वो थाने पर नहीं है लॉ एंड ऑर्डर संभाल रहा है। सुनकर हँसी आई कि जब बिहार में लॉ को संभालनेवाले खुद ही ऑर्डर में नहीं हैं तो वे लॉ एंड ऑर्डर क्या संभालेंगे। फिर हमने एसपी वैशाली को फोन किया तो उन्होंने कहा कि आप लिखित निवेदन दे दीजिए हम जाँच करवा लेंगे और फोन काट दिया। अब आप ही बताईए कि जब एफआईआर की कॉपी लेनी है तो इसमें जाँच क्या होगी और जाँच से निकलकर क्या आएगा? क्या एसपी दूध के धुले हैं जो दूध का दूध और पानी का पानी कर देंगे।
मित्रों,हमने तिरहुत रेंज के आईजी को फोन किया तो पहले तो मैसेज आया कि हम अभी मीटिंग में हैं और बाद में फोन करने पर कहा गया कि रांग नंबर है और फोन काट दिया गया। फिर हम और ऊपर चढ़े और डीजीपी को फोन किया। फोन डीजीपी ने नहीं उनके रीडर ने उठाया और कहा कि शाम में फोन करिए और वो भी लैंड लाईन पर। इसके बाद और ऊपर चढ़ने की हमारी हिम्मत ही नहीं रही क्योंकि हम समझ चुके थे कि जिस राज्य में तबादले ने उद्योग का रूप ले रखा हो वहाँ और ऊपर जाने से कोई फायदा नहीं है। फिर माननीय मुख्यमंत्री को तो सबकुछ ठीकठाक नजर आ ही रहा है। ऊपर से उन्होंने मीडिया को अपना मोबाईल नंबर भी नहीं दिया है तो उनका लैंडलाईन फोन तो अधिकारी उठाएंगे। पहले यह पूछकर तोलेंगे कि कितना बड़ा आदमी बोल रहा है तब मुख्यमंत्री को फोन देंगे और हम तो ठहरे छोटे पत्रकार तो हमारी तो उनसे किसी भी कीमत पर बात ही नहीं होने दी जाएगी या फिर नीतीश जी हमने बात करेंगे ही नहीं।
मित्रों,तो यह है हमारे बिहार की मुकम्मल तस्वीर। एफआईआर के आवेदन के समय मुंशी ने खुद ही हमसे कहा था कि प्रार्थी का फोन नंबर भी डाल दीजिएगा। तो फिर कायदे से उनको एफआईआर हो जाने के बाद खुद ही फोन करके प्रार्थी को बुलाना चाहिए था और एफआईआर की कॉपी दे देनी चाहिए थी। लेकिन उनको कानून-कायदे से क्या मतलब? उनको तो बस पैसे से मतलब है। कदाचित घूस लेना ही उनकी ड्यूटी है।
मित्रों,आज जब हमने अभी सदर थाने के थानेदार को फोन लगाया तो उसने मेरा नाम सुनते ही फोन काट दिया। अब आप ही बताईए कि अंग्रेजों की पुलिस और सुशासन की पुलिस में क्या अंतर है? तब भी दरोगा (दारोगा) को रोकर या गाकर घूस देनी ही पड़ती थी और आज भी देनी ही पड़ती है। तब तो बड़े अफसर तुरंत कदम उठाते थे। आज कोई कदम नहीं उठाते।
मित्रों,अंत में मैं क्षमा चाहूँगा कि मैं आपको बिहार के वर्तमान शासन-प्रशासन की सिर्फ एक बानगी ही दिखा पाया क्योंकि पूरी कथा लिखूंगा तो परती परिकथा से भी मोटी किताब लिख जाएगी। बाँकी सुशासन की कुछ पोल तो पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी खोल ही रहे हैं कि कैसे बिहार में लागत से कई गुना ज्यादा का एस्टीमेट बनता है और कैसे उसका कुछ हिस्सा मुख्यमंत्री को भी दिया जाता है। संक्षेप में बस यही समझ लीजिए कि नीतीश बाबू के शासन और दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) के शासन में कोई अंतर नहीं है। हुआ यूँ था कि फिरोजशाह तुगलक के पास एक सैनिक गया यह शिकायत लेकर कि उससे वेतन के ऐवज में रिश्वत मांगी जा रही है तो फिरोजशाह तुगलक ने उसको अपने पास से पैसे देकर कहा कि तो दे दो क्योंकि मैं भी देता हूँ। यहाँ तो नीतीश जी 500 रु. भी देने से रहे क्योंकि नेता लोग तो सिर्फ लेना जानते हैं। मैं सुशासन बाबू को खुली चुनौती देता हूँ कि अगर वे सचमुच इस राज्य के शासन-प्रशासन के मुखिया हैं तो मेरे संबंधी सुरेश बाबू जो विकलांग भी हैं को बिना पैसे दिए एफआईआर की कॉपी दिलवा दें। थाने से उनको फोन करवाएँ और बुलाकर बाईज्जत उनको एफआईआर की कॉपी दिलवाएँ। अन्यथा खुलेआम कह दें कि यह काम मेरे बस का नहीं है क्योंकि यह मेरा काम नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक समस्या है ठीक उसी तरह जैसे परसों उनके शिक्षा मंत्री ने नकल को लेकर कहा था।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

सोमवार, 16 मार्च 2015

इकलौते वारिस से लावारिस तक

मित्रों,जब मैंने होश संभाला तो खुद को बड़ी दीदी सुनीता जो अब बक्सर के छतनवार गांव के जनार्दन सिंह की पत्नी और बंटी और छोटू की माँ है की गोद में पाया। वह मारती भी थी तो दुलारती भी थी। फिर मेरी नानी धन्ना कुंवर की तो जैसे जान ही मुझमें बसती थी। मेरे मामा नहीं थे और चचेरे मामा मेरी नानी को काफी मारते-पीटते थे इसलिए मेरा पूरा परिवार मेरे जन्म के पाँच साल पहले से ही मेरे ननिहाल जो महनार रोड रेलवे स्टेशन के नजदीक जगन्नाथपुर गांव में था में रहता था। खुद मेरा जन्म भी ननिहाल में ही हुआ। मैं पूरे गांव का लाडला था और बला का शरारती। मैंने बचपन में सांड की सवारी भी गांठी है तो आम-अमरूद चुराकर भी खाया है। कई बार तो पेड़ के मालिक की आँखों के आगे भी। मुझे याद है कि 1991 में जब मेरी तबियत काफी खराब हो गई थी तो लगभग पूरा जगन्नाथपुर और छिटपुट रूप से चमरहरा तक के सैंकड़ों लोग कई दिनों तक पीएमसीएच से हिले तक नहीं थे। जगन्नाथपुर के प्रत्येक परिवार ने मेरी जान के ऐवज में काली माता को बकरा चढ़ाने की मन्नत मान दी थी। यद्यपि पूरी तरह से शाकाहारी होने के कारण मैंने आज तक एक भी बकरे की बलि नहीं दी है।
मित्रों,अपने पूरे स्कूली जीवन में मैंने कभी बाहर का चाट-पकौड़ा नहीं खाया। जब भी बड़ी दीदी पैसे देती मैं शाम में उनको ही लौटाकर दे देता। जब मैं मैट्रिक में था तभी मैंने साइकिल चलाना सीखा। फिर तो घर का सारा काम मेरे ही जिम्मे आ गया। मुझे याद है कि चाहे 1989 में हुआ मेरी बड़ी दीदी का दुरागमन हो या फिर नानी का श्राद्ध मैंने दो-दो हफ्तों तक एक पांव पर खड़े रहकर सारा भार उठाया। इसी बीच सन 93 में मैंने पॉलिटेक्निक की प्रतियोगिता परीक्षा पास की और मेरा नामांकन दरभंगा पॉलिटेक्निक में सिविल इंजीनियरिंग में हुआ। इसी बीच पूर्णिया पॉलिटेक्निक में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में सीट खाली हुई। उस समय बिहार में सिविल इंजीनियरों को नौकरी नहीं मिलती थी इसलिए पिताजी ने मेरा स्थानान्तरण पूर्णिया पॉलिटेक्निक में करवा दिया। तब तक मेरी छोटी दीदी की उम्र काफी हो चुकी थी। उस समय उनकी उम्र की कोई भी लड़की मेरे गांव या ननिहाल में क्वांरी नहीं थी। तब तक 1991 में नानी का देहांत हो चुका था और हमलोग महनार बाजार में किराये के मकान में रहने लगे थे। हमलोग की आर्थिक स्थिति पिताजी विष्णुपद सिंह जी के राम प्रसाद सिंह महाविद्यालय,चकेयाज में रीडर होने के बावजूद इतनी खराब थी कि उनको हर महीने खर्चा चलाने के लिए कभी कॉलेज में अपने जूनियरों से कभी लाईब्रेरियन चाचा से कर्ज लेना पड़ता था और उनके घर जाकर पैसे लाने की शर्मिंदगी भी मुझे ही उठानी पड़ती। इसी बीच मेरे ननिहाल में मेरी हमउम्र एक लड़की की शादी के दौरान मेरे चचेरे मामा सत्येन्द्र सिंह द्वारा एक ऐसी टिप्पणी कर दी गई जो मेरे दिल-दिमाग को चीर गई। उन्होंने कहा कि बहन को तुम ही अपने घर बिठा लोगे क्या,शादी क्यों नहीं करते? गुस्सा तो बहुत आया लेकिन खून के घूंट पीकर रह गया।
मित्रों,तब मेरे छोटे नाना के बेटों ने नानी के खेतों पर जबरन कब्जा कर लिया था और खेत की फसल भी नहीं देते थे। नानी मरने से पहले जमीन माँ के नाम पर कर गई थी। जमीन में से कुछ जगन्नाथपुर में था तो कुछ कटिहार में। मेरे नाना रामगुलाम सिंह जिनकी मौत मेरे जन्म से पहले ही हो चुकी थी अपने गांव के सबसे दबंग और समृद्ध किसान थे। मैं भीतर-ही-भीतर गुस्से से जल रहा था। फिर मैंने कटिहार वाली जमीन पर आना-जाना शुरू किया। न खाने का ठौर रहता और न रहने का। कभी भी खा लेता,कहीं भी सो लेता। फुलवड़िया जहां कि नानी का कामत था के ही एक दुसाध लड़के से मेरी दाँतकटी दोस्ती हो गई। मेरा मित्र राजकुमार मुझे अपने सगों से भी ज्यादा मानता था। उसकी,उसके मामा,बंदा,विष्णु और लालबाबू,जगन्नाथपुर के ही कमतिया सीतेश मामा,उपेंद्र मामा और रामजी मामा की सहायता से दो साल के अथक परिश्रम के बाद मैंने जमीन पर कब्जा कर लिया। इस दौरान मुझे गांव की गंदी राजनीति में भी उतरना पड़ा।
मित्रों,तब तक पिताजी गुड्डी दीदी जो मुझसे पाँच साल बड़ी थी के लिए वर की तलाश करने में जुट गए थे। उधर जगन्नाथपुर की जमीन पर माँ द्वारा दायर टाईटल सूट खुल गया था और जमकर पैसे खा रहा था। कई बार के प्रयास के बाद मैंने तीन बीघा जमीन के लिए ग्राहक को खोजा और माँ को रजिस्ट्री के लिए बुलाया। इस तरह किसी तरह से दीदी की शादी हो गई। दीदी की पुछरिया में मिठाई भेजने के लिए हमलोगों के पास पैसे नहीं थे उस पर हमलोगों पर लाखों का कर्ज हो गया था। मैं वर पक्ष द्वारा शादी में लाए गए मिठाई के टोकरों को ही पुछरिया में लेकर गया था। इस बीच मैं यह भी भूल गया कि मैं पॉलिटेक्निक में भी पढ़ता हूँ। उस पर पप्पू यादव के समर्थक छात्रों के साथ जिनका पॉलिटेक्निक पर कब्जा था हमारा टंटा हो गया। शादी के बाद हमारी आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि मुझे पढ़ाई छोड़कर घर बैठना पड़ा और मैं इंजीनियर बनते-बनते रह गया। संतोष इस बात का था कि दीदी की शादी एक सरकारी अफसर के साथ हुई थी। जीजाजी राकेश कुमार जी इस समय भारत सरकार के MSOPI मंत्रालय में क्लास वन अधिकारी हैं और दिल्ली के सरोजनीनगर में रहते हैं।
मित्रों,फिर मैंने घर पर रहकर ही इतिहास विषय लेकर स्नातक किया और आईएएस की तैयारी के लिए दिल्ली चला गया। मगर ईश्वर की मर्जी के आगे किसकी चलती है। वर्ष 2003 में आईएएस की मुख्य परीक्षा देते समय ही मुझे डेंगू हो गया और मैं आईएएस बनते-बनते रह गया। फिर मैंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के नोएडा कैंपस से एमजे किया। इस दौरान अपने सहपाठी मित्रों के प्यार की बदौलत अपनी कक्षा का प्रतिनिधि भी रहा और इस दौरान विश्वविद्यालय की हालत में कई सुधार भी करवाये। धीरे-धीरे मेरी ताकत इतनी ज्यादा हो गई थी कि विभागाध्यक्ष अरूण भगत कहते कि मैंने नहीं सोंचा था कि आप इतने शक्तिशाली हो जाएंगे कि कैंपस को आपके इशारों पर चलना और चलाना पड़ेगा। मैं और मेरे मित्र ही तब यह फैसला करते कि किसको किस अखबार या चैनल में नौकरी करने के लिए भेजा जाएगा।
मित्रों,इसी दौरान मैं दैनिक जागरण,नोएडा में इंटर्न करने लगा और इस बात की पूरी संभावना थी कि वहीं मेरी नौकरी भी लग जाती। तब तक मेरी छोटी बहन जो मुझसे ढाई साल छोटी थी की उम्र 30 को पार करने लगी थी और मेरे माँ-पिताजी उसकी शादी को लेकर काफी चिंतित थे। इसी बीच एक दिन मेरी माँ ने मुझे फोन कर कहा कि बहन की शादी नहीं करोगे क्या? पिताजी से तो अब दौड़-धूप होती नहीं। मेरे पिताजी वर्ष 2003 में ही कॉलेज की नौकरी से सेवानिवृत्त हो चुके थे। माँ का फोन जाते ही मैं अपार संभावनाओं के शहर दिल्ली को छोड़कर हाजीपुर आ गया और नाम के लिए पटना,हिंदुस्तान में तीन हजार की नौकरी कर ली। फिर कई स्थानों पर वरतुहारी की मगर अंत में शादी पक्की हुई बिहार के ही मधेपुरा निवासी और उस समय आईबीएन7 में प्रोड्यूशर की नौकरी कर रहे नीरज कुमार सिंह से। उस समय नीरज को 18 हजार रुपये वेतन के रूप में मिलते थे। उसने गाजियाबाद के इंदिरापुरम में एक फ्लैट भी खरीद रखा था। वरतुहारी के सिलसिले कई बार तो मुझे लगातार दो-दो रातों तक जगकर सफर करना पड़ा।
मित्रों,शादी में हमने दिल खोलकर खर्च किया फिर भी शादी के तत्काल बाद से ही मेरी छोटी बहन हमसे पैसे मांगने लगी। नीरज ने न जाने क्यों चुल्हा,टीवी वगैरह को गांव भेज दिया। हमने मोह में आकर पैसे दे दिए। मगर जब यह सिलसिला बन गया और हर महीने की बात हो गई तब मैंने विरोध करना शुरू कर दिया क्योंकि हम खुद ही पिछले 20 सालों से बेघर थे। फिर मेरी शादी हुई और शादी के दौरान किसी ने मेरी ससुराल में नीरज के साथ अभद्र मजाक कर दिया। जब मैं अपनी पत्नी को विदा करवा कर अपने घर पहुँचा तो देखा कि मेरी छोटी बहन रूबी मशीन गन की गोलियों की तरह अपनी भाभी को गालियाँ दिए जा रही थी और मेरी माँ उसे रोक भी नहीं रही थी। जब सारे संबंधी अपने-अपने घर चले गए तब मेरी माँ का रवैया भी धीरे-धीरे बदलने लगा। मेरी बहनों और भांजे-भांजियों के बहकावे का असर यह हुआ कि मेरी माँ अपनी बहू को देखना ही नहीं चाहती थी।
मित्रों,इसी बीच मेरी पत्नी सात महीने का गर्भ लेकर अपने मायके चली गई जहाँ कि 23 मार्च,2012 को मेरे बेटे ने जन्म लिया। चूँकि 23 मार्च भगत सिंह का शहीद दिवस था इसलिए हमने उसका नाम भगत सिंह ही रख दिया। बाद में जब-जब मैं मेरी पत्नी को अपने पास लाता मेरी माँ और मेरी भांजी ब्यूटी जिसकी शादी गमहर के सुनील से हुई है और जिसको मैंने बचपन में अपार स्नेह दिया था उसको इतना तंग करती कि मैं उकता कर उसको मायके रख आता। इस बार जब 6 दिसंबर,2014 को वो मेरे पास रहने आई तो माँ ने मेरे घर को रणक्षेत्र में बदल कर रख दिया। वो हमलोगों पर 1 रुपया भी खर्च करना नहीं चाहती थी और सबकुछ अपनी बेटियों और उनके बाल-बच्चों को दे देना चाहती थी। जब उसने देखा कि मेरी पत्नी इस बार मायके नहीं जा रही तो उसने अलग डेरा ले लिया और हमें अपने हाल पर छोड़कर पिताजी के साथ चली गई। मेरी बड़ी दीदी की प्रतिक्रिया थी कि सबकुछ उसका है वो चाहे तो लुटा-पुटा दे,मेरी मंझली बहन ने मेरी पत्नी से कहा कि तुमको उसके सारे सितम को हँसकर सह लेने चाहिए थे जबकि उसने खुद अपनी उस सास की कभी सेवा नहीं की जो दरअसल उसके पति की चाची थी और अपने तीन-तीन बेरोजगार दामादों को दरकिनार करके उसके पति को अपने पति की मौत के बाद अनुकंपा की नौकरी दे दी थी और छोटी बहन रूबी या छोटे बहनोई नीरज जो इस समय आज तक में 61 हजार रुपये का वेतन प्राप्त कर रहा है का तो कहना ही क्या उनका तो वश चले तो मेरे माता-पिता से सारी जमीन-जायदाद भी लिखवा लें।
मित्रों,आज मेरे पास मेरे बच्चे को पढ़ाने तो क्या खिलाने तक के पैसे नहीं हैं। मैं पूरी तरह से बर्बाद होकर जब जिंदगी के पिछले पन्नों पर नजर डालता हूँ तो सोंचता हूँ कि मुझसे गलती कहाँ हुई? क्या अपने परिवार के मान और सुख के लिए दो-दो बार त्याग करके मैंने गलती की? क्या मेरा भगवान शिव वाला जीवन-दर्शन गलत था कि स्वयं विष पीकर जगत को अमरत्त्व दो? क्या मैंने पिछले चार सालों से अपने माता-पिता को अपने हाथों खाना बनाकर,खिलाकर और 24 घंटे सेवा करके गलती की? पता नहीं मुझसे कहाँ गलती हुई जिसकी सजा मुझको मिली? कभी माखनलाल के नोएडा परिसर में पढ़ाई के दौरान वहाँ के क्लर्क देवदत्त शर्मा ने मुझे कहा था कि आप बड़े सीधे हैं कदम-कदम पर छले जाएंगे मगर क्या किसी इकलौते बेटे के साथ कोई माँ-बाप छल करता है क्या? क्या कोई अपने कथित इकलौते वारिस को लावारिस बनाकर भाग जाता है क्या? जबतक तंगी थी तब तक तो साथ रखा और अब जब 50 हजार का पेंशन मिलने लगा तब छोड़ दिया? माँ,मम्मी और मम्मी जी कहनेवाले दामाद क्या मिल गए माई कहनेवाले और शिव-पार्वती भाव से सेवा करनेवाले को लात मार दिया? यह सही है कि मेरे अंदर अब भी इतना जीवट है कि मैं अपनी जिंदगी को फिर से सजा-संवार लूंगा लेकिन सबकी खुशी में अपनी खुशी समझते-समझते संघर्ष के सबसे जरुरतमंद क्षणों में खुद ही तन्हा रह जाने का दंश तो अब जीवनभर मेरे मन को डँसता रहेगा।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

कानून नहीं थानेदारों की मर्जी से चलते हैं बिहार के थाने

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बिहार की महान पुलिस की महानता का वर्णन कदाचित शेष भी अपने हजारों मुखों से भी नहीं कर सकते। शायद बिहार पुलिस की इसी महानता का माहात्म्य है कि कोई भी व्यक्ति किसी आपराधिक घटना के बाद पुलिस के पास जाने की हिम्मत ही नहीं करता है। फिर जब बात वैशाली पुलिस की हो तब तो कहना ही क्या! इनकी कर्महीनता को कह सकना तो कदाचित नहीं बल्कि निश्चित रूप से हजारों शेष भगवानों के वश में भी नहीं है।
मित्रों,हुआ यूँ कि मेरे दोस्त रंजन के ससुर जी सुरेश प्रसाद सिंह,वल्द श्री रामदेव सिंह,सा. गुरमिया,पो. थाथन बुजुर्ग,थाना सदर हाजीपुर ने 10 मार्च,2015 को दोपहर के 1 बजकर 12 मिनट पर सदर थाना हाजीपुर स्थित एक्सिस बैंक के एटीएम से महज 1000 रु. निकाले। चूँकि उनको पैसा निकालना नहीं आता था इसलिए एक अनजान युवक द्वारा मदद की पेशकश करने पर वे मदद लेने से मना नहीं कर सके। पैसा निकालने के दौरान युवक ने लिंक फेल हो जाने का बहाना किया। फिर अपना एटीएम डालकर पैसा निकालने का नाटक किया और पैसे निकाल कर चला गया। थोड़ी देर बाद जब श्री सिंह ने 1000 रु. निकाला तो उनके तो होश ही उड़ गए क्योंकि जमा राशि में से 16000 रु. निकल चुके थे।
मित्रों,कल होते ही श्री सिंह जो लगभग 60 साल के हैं स्टेट बैंक जहाँ उनका उक्त खाता था पहुँचे और पासबुक अपडेट करवाया तब पता चला कि उनको चकमा देकर उस नितांत परोपकारी युवक ने चार बार में 16000 रु. निकाल लिए थे। बेचारे ने अपने दामाद को फोन किया और दामाद ने हमको। हमने कहा कि कल यानि दिनांक 12 मार्च को भेज देना। फिर उनको लेकर सदर थाने में पहुँचा जहाँ मेरा काफी ठंडा स्वागत करते हुए एक आवेदन लिखने को कहा गया। फिर आवेदन में कई गलतियाँ निकाली गईं। फिर से आवेदन लिखकर कमियों को दूर कर देने के बाद थाने के महान मुंशी ने मुझसे फिर से आवेदन लिखवाया और उसके बाद एक बार फिर से। उसके बाद कहा गया कि इंस्पेक्टर साहब से अनुमति ले लीजिए।
मित्रों,पता नहीं कि कानून इस बारे में क्या कहता है? क्या एफआईआर दर्ज करने के लिए इंस्पेक्टर की ईजाजत जरूरी होती है या नहीं? फिर भी मैं इंस्पेक्टर साहब के पास पहुँचा और अपना परिचय देते हुए वाकये से उनको अवगत करवाया। इंस्पेक्टर साहब ने मुंशी को बुलाया और एफआईआर दर्ज कर लेने का आदेश दिया। उसके बाद जब मैं मुंशीजी के पास बैठा हुआ था तभी एक पुलिस अधिकारी ने मुझे एफआईआर दर्ज नहीं करवाने की अनमोल सलाह दी क्योंकि उनके मतानुसार पैसा ऊपर होगा ही नहीं। तब मैंने उनसे कहा कि आपलोग एफआईआर दर्ज करने से मना कैसे कर सकते हैं जबकि पीड़ित ऐसा करना चाहता है। फिर मैं मुंशी जी को कल आने की बात कहकर अपने अखबार के दफ्तर में आ गया। आज जब थाने में गया तो बताया गया कि बड़ाबाबू छापा मारने में इतना व्यस्त हैं कि उनसे मामले के बारे में बात ही नहीं हो पाई और इसलिए एफआईआर दर्ज नहीं हो पाया है।
मित्रों,तो यह है सुशासन बाबू के सुशासन में हाजीपुर की पुलिस का रवैया। अब पता नहीं कब तक एफआईआर दर्ज किया जाएगा या फिर दर्ज किया जाएगा भी कि नहीं। अब आप ही बताईए कि जब एक पत्रकार के साथ पुलिस का व्यवहार ऐसा है तो वो आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार करती होगी?
मित्रों,सुशासन बाबू से तो कुछ कहना ही बेकार है क्योंकि पिछले दस सालों में हमारे और उनके बीच काफी कहासुनी हो चुकी है लेकिन थानों और पुलिस के हालात में रंचमात्र भी कोई बदलाव नहीं आया है अलबत्ता रिश्वत की दरों में भारी ईजाफा जरूर हो चुका है। इसलिए इस बार मैं सीधे-सीधे भारत के यशस्वी और तेजस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी से निवेदन करुंगा कि हुजूर कुछ करिए और कुछ ऐसा करिए और जल्दी में करिए कि अगले छह महीने-साल भर में पूरे भारत की जनता को एफआईआर दर्ज करवाने के लिए थानों में जाना ही न पड़े यानि वो घर बैठे ऑनलाईन एफआईआर दर्ज करवा सके। तभी जाकर अपने आपको सरकारी दामाद समझनेवाले पुलिसवालों पर लोकसेवक शब्द फबेगा।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

गुरुवार, 12 मार्च 2015

हद कर दी 'आप' ने

मित्रों,पिछले एक महीने का समय दिल्ली वालों के लिए एक के बाद एक हद से गुजरने का रहा है। पहले तो उन्होंने सारी हदों को पार करते हुए एक ऐसी पार्टी को विधानसभा की लगभग सारी-की-सारी सीटें दे दीं जिसका काम काम करना नहीं बल्कि रायता फैलाना भर है। फिर उसके बाद से हद करने की बारी रही है उस पार्टी की जिसके दिल्ली में जीतने के बाद मीडिया के छद्मधर्मनिरपेक्ष हिस्से के कदम जमीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। कोई इसे मोदी के लिए झटका बता रहा था तो कोई मोदी के अंत की शुरूआत।
मित्रों,मगर यह क्या हुआ कि आज जीत के एक महीने के भीतर ही वह पार्टी पार्टी नहीं फाइटिंग क्लब बन गई है। लगातार उसके कर्णधार एक-दूसरे पर आरोपों की बरसात किए जा रहे हैं। सिनेमा हॉल वाले परेशान हैं कि शो खाली क्यों जा रहे हैं। जाए भी क्यों नहीं जब मुफ्त में जबर्दस्त कॉमेडी,सस्पेन्स,थ्रिलर,रिवेन्ज,एक्शन टेलीवीजन और अन्य समाचार माध्यमों पर चौबीसों घंटे उपलब्ध है तो कोई क्यों जाए सिनेमा देखकर व्यर्थ में पैसा बर्बाद करने? मेरी सिनेमा हॉलवालों को मुफ्त में सलाह है कि वे केंद्र सरकार से मांग करें कि आप पार्टी पर मनोरंजन कर लगाया जाए। अगर उनकी मांगें नहीं मानी गई तो निकट-भविष्य में हो सकता है कि बॉलीवुड का नामोनिशान ही नहीं रहे।
मित्रों,आज अगर आप पार्टी की स्थिति को देखते हुए कोई अपनी मूर्खता पर रो रहा होगा तो वो होगी दिल्ली की जनता। उनसे किए गए 70 वादों पर तो अब आप पार्टी के लोग बात भी नहीं कर रहे,वादों को पूरा क्या खाक करेंगे। हाँ एक बात को लेकर दिल्ली की जनता जरूर संतोष कर सकती है कि सरकार बनाने के तुरंत बाद से ही आप पार्टी के नेतागण उनका भरपुर मनोरंजन कर रहे हैं। जहाँ तक मोदी जी के पूर्णकालिक व स्थायी विरोधी मीडिया के मित्रों का सवाल है तो वे लोग इस समय खेती-किसानी,फिल्मों और क्रिकेट से संबंधित कार्यक्रमों का चौबीसों घंटे प्रसारण कर सकते हैं,समाचार तो दिखा नहीं सकते क्योंकि फिर तो उनको अपने महानायक के दोगलेपन को भी दिखाना होगा।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

रविवार, 8 मार्च 2015

सावधान,नरेंद्र मोदी जी,कश्मीर कहीं आपको बर्बाद न कर दे?

मित्रों,इतिहास गवाह है कि भारत के महानतक शासकों में से एक अकबर ने दीने ईलाही धर्म चलाया था। ब्रिटिश इतिहासकार लेनपुल ने इसे अकबर की मूर्खता का स्मारक बताया है। वजह यह थी कि इस धर्म के चलते अकबर ने एक साथ हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों का समर्थन खो दिया। मुसलमानों ने उसे मुसलमान मानना बंद कर दिया और हिंदुओं में यह भय व्याप्त हो गया कि अकबर इसके बहाने उनका धर्म छीनना चाहता है।
मित्रों, कुछ इसी तरह की मूर्खता इन दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी राजनैतिक पार्टी भाजपा कर रही है। भाजपा और मोदी ने कश्मीर में अलगाववादियों की समर्थक और भारत और भारतीय सेना की सबसे बड़ी दुश्मन पीडीपी के साथ सरकार बनाई है। इस सरकार ने अस्तित्व में आते ही सबसे पहला कदम यह उठाया है कि उसने भारतीय सेना पर पत्थरबाजी करने में सबसे आगे रहनेवाले मशरफ आलम को जेल से रिहा कर दिया है। इससे पहले शपथ-ग्रहण के समय ही मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कश्मीर में शांति का मुख्य श्रेय़ पाकिस्तान और अलगाववादियों को दिया था।
मित्रों,भाजपा अभी भी कह रही है कि कश्मीर में सरकार न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत चलाई जाएगी तो क्या यही है कश्मीर में भाजपा-पीडीपी की संयुक्त सरकार का न्यूनतम साझा कार्यक्रम?? अगर ऐसा है तो फिर भाजपा को कोई अधिकार नहीं है श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना कहने का या फिर उनका नाम भी लेने का? अगर यही भाजपा का राष्ट्रवाद है तो फिर निश्चित रूप से यह भारत की उस बहुसंख्यक जनता के साथ धोखा है जिसने पिछले साल के लोकसभा चुनावों में उसे मत दिया था।
मित्रों,नरेंद्र मोदी और भाजपा को हरगिज यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर हिन्दुओं का उसके प्रति मोहभंग हो गया तो उनकी हैसियत दो कौड़ी की भी नहीं रह जाएगी। रही बात मुसलमानों की तो मैं यह स्टांप पेपर पर लिखकर देने को तैयार हूँ कि उनका मत भाजपा को कभी नहीं मिलेगा। नरेंद्र मोदीजी और अमित शाह जी यह अकबर का जमाना नहीं है कि बिना जनता के विश्वास के भी कोई 50 सालों तक भारत पर शासन करेगा। आज के हिंदुस्तान में 5 साल के शासन को 10 में बदलना ही किसी भी व्यक्ति या दल के लिए टेढ़ी खीर होती है। ऐसा न हो कि साल 2019 आते-आते आपके ऊपर से भी माँ भारती की अनन्य भक्त भारत की बहुसंख्यक राष्ट्रवादी जनता का विश्वास समाप्त हो जाए।
मित्रों, चूँकि ऐसा होना भारत के विकास के लिए काफी अहितकारी सिद्ध होगा इसलिए मेरा नरेंद्र मोदी और अमित शाह से यह करबद्ध प्रार्थना है कि आपलोग कश्मीर के सनकी नेता मुफ्ती की सही रास्ते पर आने का स्पष्ट निर्देश दें और अगर फिर भी वो रास्ते पर नहीं आता है तो उसे बर्खास्त कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाएँ क्योंकि मैं नहीं चाहता कि नरेंद्र मोदी से भारत की जनता इतनी जल्दी नाराज हो जाए और फिर से देश देशद्रोहियों के हाथों में चला जाए। अंत में मैं मोदी जी और शाह जी को मैं भारतीय इतिहास के एक और दृष्टांत की याद दिलाना चाहूंगा। 5 जनवरी,1544 को शेरशाह सूरी और मारवाड़ के शासक मालदेव के बीच जेतारण का युद्ध लड़ा गया था जिसमें तत्कालीन भारत का बादशाह शेरशाह सूरी हारते-हारते बचा था और तब उसने कहा था कि एक मुट्ठी भर बाजरे की कीमत पर मैँ हिन्दुस्तान की सियासत खो बैठता। कहीं आपलोगों का भी वही हाल नहीं हो।
मित्रों,इससे पहले 7 अक्तूबर,2013,दिन सोमवार को मैंने ब्रज की दुनिया पर ब्लॉग लिखकर उस समय नरेंद्र मोदी जी को चेतावनी दी थी कि सावधान मोदीजी यू टर्न लेना मना है जब वे प्रधानमंत्री नहीं थे बल्कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भर थे। लेकिन नरेंद्र मोदी क्यों सुनने लगे हमारी? आखिर मैं एक आर्थिक रूप से निहायत निर्बल,असफल छोटा-सा,सीधा-सादा,देशभक्त पत्रकार जो ठहरा।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)