यूँ तो भारत की सरकार ९० से पहले अपने को समाजवादी कहती थी. हलाँकि सही मायने में वह पूंजीवादी थी ही नहीं. परन्तु १९९० के बाद जी तरह देश में विनिवेश और निजीकरण का दौर सुरु हुआ है, उससे तो आम आदमी हाशिये पर ही चला गया है। मैं निजी संपत्ति के होने का विरोधी नहीं हूँ। लेकिन जब ९० प्रतिशत पूँजी कुछ लोगों के हाथों में चली जाए, तब बांकी बचे १० प्रतिशत को तो जीविका चलाने के लिए उनके पास जाना ही परेगा। और विकल्प भी क्या बचता है। फिर वह पूंजीपति गरीबों को यह ताना भी दे सकता है की maइन तो आपको बुलाया नहीं था।
उदहारण के लिए मीडिया को ही लीजिये। आज लगभग सभी मीडिया हाउस पर बड़े-बड़े उद्योगपतियों का कब्जा है। नए-नए संस्करण खोलने के लिए तो उनके पास पैसे हैं। लेकिन कर्मी वर्षों से नौकरी स्थाई किए जाने का इंतजार कर रहे हैं। उनका वेतन बढ़ने की बात हो, तो मंदी आ जाती है.