मैं दर्द दबाकर हंसता हूँ
आखों में भरकर के आंसू ,
लेकर किरमिचें टूटे सपनों के दिल में;
सजाता रहता हूँ मुस्कानें
सूखे, मुरझाये अधरों पर,
पर सूख के लिए तरसता हूँ
मैं दर्द दबाकर हंसता हूँ।
छायी रहती हैं धून्धेन दिल पर
हरपल विकट उदासी की,
उग आयीं हैं लहलह फसल
जीवन में सत्यानाशी की;
ठहाकों की गर्जन लेकर
व्यंग्य बनकर बरसता हूँ
मैं दर्द दबाकर हंसता हूँ
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
न दैन्यम न पलायनम
यकीनन आप यकीन नहीं करेंगे,
मैं एक पत्थरदिल इंसान हूँ;
हाँ यह एक अलग बात है की
मेरा दिल अनगढ़ नहीं है,
लगातार वक्त इस पर
अपने छेनी-हथौरे चलाता रहा है
बेरहमी से।
कई बार मैंने महसूस किया है
की जैसे मैं नदी की धारा में फंसा
पत्थर हूँ
देश, काल और परिस्थिति कुछ भी
मेरे नियंत्रण में नहीं है,
और मैं लुढ़कता-पुढ़कता चला
जा रहा हूँ अपनी नियति की ओर;
मेरी यात्रा जारी है सुख-दुःख के दोनों तीरों
के बीच,
परन्तु कभी-कभी मैंने सुखद स्थितियों को
हाथों से नहीं जाने देने की कोशिश भी की है;
पकड़ना चाहा है जमीन को चिमटकर;
भले ही तेज धारा ने धकेल दिया हो आगे करके विवश,
तो क्या मैं हार गया हूँ युद्ध,
नही! कदापि नहीं! लड़ना भी अपने-आपमें कम नहीं है;
फ़िर मैंने तो घनघोर युद्ध किया है
अथक और अनंत,
आज तीरों की शैय्या पर भले ही
जिंदगी ने लिटा दिया हो मुझे,
मैंने इस बदलती दुनिया के एक छोटे
से हिस्से को ही सही,
अपने अनुसार बदलने की जिद
नहीं छोड़ी है;
क्योंकि अभी भी मेरी सांसें
रुकी नहीं हैं, चल रही हैं.
मैं एक पत्थरदिल इंसान हूँ;
हाँ यह एक अलग बात है की
मेरा दिल अनगढ़ नहीं है,
लगातार वक्त इस पर
अपने छेनी-हथौरे चलाता रहा है
बेरहमी से।
कई बार मैंने महसूस किया है
की जैसे मैं नदी की धारा में फंसा
पत्थर हूँ
देश, काल और परिस्थिति कुछ भी
मेरे नियंत्रण में नहीं है,
और मैं लुढ़कता-पुढ़कता चला
जा रहा हूँ अपनी नियति की ओर;
मेरी यात्रा जारी है सुख-दुःख के दोनों तीरों
के बीच,
परन्तु कभी-कभी मैंने सुखद स्थितियों को
हाथों से नहीं जाने देने की कोशिश भी की है;
पकड़ना चाहा है जमीन को चिमटकर;
भले ही तेज धारा ने धकेल दिया हो आगे करके विवश,
तो क्या मैं हार गया हूँ युद्ध,
नही! कदापि नहीं! लड़ना भी अपने-आपमें कम नहीं है;
फ़िर मैंने तो घनघोर युद्ध किया है
अथक और अनंत,
आज तीरों की शैय्या पर भले ही
जिंदगी ने लिटा दिया हो मुझे,
मैंने इस बदलती दुनिया के एक छोटे
से हिस्से को ही सही,
अपने अनुसार बदलने की जिद
नहीं छोड़ी है;
क्योंकि अभी भी मेरी सांसें
रुकी नहीं हैं, चल रही हैं.
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
बाघ की खाल
तो हर प्रतियोगिता परिक्षा देने के बाद,
नौकरी खोजता हुआ पहुँच गया विचित्र शहर में,
जहाँ हर घर की अलगनी पर सूख रहे व्याघ्रचर्म,
मैं हुआ हतप्रभ की यह कैसा सहर है,
जहाँ के लोगों को अपनी ही चमरी पर नहीं है विश्वास,
यह अभिनय प्रवीण लोगों का तो सहर नहीं है,
एक कार्यालय में संपर्क कराने पर,
मझे भी मिल गयी नौकरी,
भार दिया गया मुझे सच को झूठ
और झूठ को सच में बदलने का;
इससे पहले मैंने मिटटी तेल को पेट्रोल में,
पानी को रसोई गैस में;
कंकर को गेहूं में बदलने
जैसे दंधे देखे-सुने थे;
अजनबी था यह नया काम मेरे लिए,
आरम्भ में मुझे मेरे सहकर्मी बहुत-ही अच्छे लगे,
हमेशा हंसकर बात करनेवाले,
तपाक से मिलनेवाले;
सबने पहन रखे थे व्याघ्रचर्म,
बहुत करा था वहाँ का ड्रेस-कोड;
कुछ दिन बाद एक साथी से इस ड्रेस का राज
पूछने पर उसने बताया,
की यह हमें आम आदमी से अलग तो करता
ही है;
यह दिखाता है की हम,
किसी से नहीं डरते,
न ही सौदेबाजी करते हैं;
साथ ही छिप जाती हैं इसके पीछे,
कर्मियों की बाहर से ही दिख जानेवाली हड्डियां;
और वे कुपोषित की जगह तंदरुस्त दिखाते हैं,
और सबसे बरी बात की,
किसी की खाल गिरगिट जैसी रंग बदलेवाली है;
तो किसी की मगरमच्छ जैसी मोटी,
किसी की भेरिये या गीदर या लोमारी जैसी;
यह खाल सब कुछ छिपा जाती
है अपने भीतर.
वहाँ हँसाने-मुस्कुराने पर थी रोक,
था डर की कहीं लोग यह न
समझ लें की हम कामचोर हैं,
और गंभीरता से काम नहीं करते;
इसलिए एक उदासी चहरे पर ओढे रखना
नौकरी बचाए रखने की अनिवार्य शर्त थी,
साथ की चमचई की अतिरिक्त योग्यता
का अपना अलग ही महत्व था.
सब कुछ सही-सही चल रहा था,
सिर्फ़ पगार बहुत कम थी;
और लोग थे जैसा की
मुझे संदेह था अति
अभिनय कुशल,
इतने की बोल्लीवूद तो क्या
होल्लेय्वूद्वाले भी शरमा जाएँ;
इतना ही नहीं वे अच्छे राजनीतिज्ञ भी थे,
हर आदमी अपने-आपमें एक मुकम्मल गुट था;
दिन-रात राजनीति की दांव-पेंच झेलता,
मैंने पाया एक दिन की मैं
बाहर कर दिया गया हूँ;
क्योंकि मैं न तो गुट ही बना ही पाया,
और न ही नियमानुसार गंभीर
रहकर काम ही कर सका;
चमचई तो जैसे मेरे खून
में ही नहीं था,
सबसे बुरी और बरी बात तो यह थी
की मैं नहीं पहना करता था
बाघ की खाल;
मुझे भरोसा था अपने
आदमजात की खाल पर.
अब आप पूछेंगे भिया उस
सहर का नाम भी तो बता दीजिये,
तो भिया मेरा नाम जाहिर न कराने की शर्त पर
मैं बता रहा हूँ;
उस सहर का नाम है........
पत्रकारिता और वह बाघ
की खाल है जनसेवा का ढोंग.
नौकरी खोजता हुआ पहुँच गया विचित्र शहर में,
जहाँ हर घर की अलगनी पर सूख रहे व्याघ्रचर्म,
मैं हुआ हतप्रभ की यह कैसा सहर है,
जहाँ के लोगों को अपनी ही चमरी पर नहीं है विश्वास,
यह अभिनय प्रवीण लोगों का तो सहर नहीं है,
एक कार्यालय में संपर्क कराने पर,
मझे भी मिल गयी नौकरी,
भार दिया गया मुझे सच को झूठ
और झूठ को सच में बदलने का;
इससे पहले मैंने मिटटी तेल को पेट्रोल में,
पानी को रसोई गैस में;
कंकर को गेहूं में बदलने
जैसे दंधे देखे-सुने थे;
अजनबी था यह नया काम मेरे लिए,
आरम्भ में मुझे मेरे सहकर्मी बहुत-ही अच्छे लगे,
हमेशा हंसकर बात करनेवाले,
तपाक से मिलनेवाले;
सबने पहन रखे थे व्याघ्रचर्म,
बहुत करा था वहाँ का ड्रेस-कोड;
कुछ दिन बाद एक साथी से इस ड्रेस का राज
पूछने पर उसने बताया,
की यह हमें आम आदमी से अलग तो करता
ही है;
यह दिखाता है की हम,
किसी से नहीं डरते,
न ही सौदेबाजी करते हैं;
साथ ही छिप जाती हैं इसके पीछे,
कर्मियों की बाहर से ही दिख जानेवाली हड्डियां;
और वे कुपोषित की जगह तंदरुस्त दिखाते हैं,
और सबसे बरी बात की,
किसी की खाल गिरगिट जैसी रंग बदलेवाली है;
तो किसी की मगरमच्छ जैसी मोटी,
किसी की भेरिये या गीदर या लोमारी जैसी;
यह खाल सब कुछ छिपा जाती
है अपने भीतर.
वहाँ हँसाने-मुस्कुराने पर थी रोक,
था डर की कहीं लोग यह न
समझ लें की हम कामचोर हैं,
और गंभीरता से काम नहीं करते;
इसलिए एक उदासी चहरे पर ओढे रखना
नौकरी बचाए रखने की अनिवार्य शर्त थी,
साथ की चमचई की अतिरिक्त योग्यता
का अपना अलग ही महत्व था.
सब कुछ सही-सही चल रहा था,
सिर्फ़ पगार बहुत कम थी;
और लोग थे जैसा की
मुझे संदेह था अति
अभिनय कुशल,
इतने की बोल्लीवूद तो क्या
होल्लेय्वूद्वाले भी शरमा जाएँ;
इतना ही नहीं वे अच्छे राजनीतिज्ञ भी थे,
हर आदमी अपने-आपमें एक मुकम्मल गुट था;
दिन-रात राजनीति की दांव-पेंच झेलता,
मैंने पाया एक दिन की मैं
बाहर कर दिया गया हूँ;
क्योंकि मैं न तो गुट ही बना ही पाया,
और न ही नियमानुसार गंभीर
रहकर काम ही कर सका;
चमचई तो जैसे मेरे खून
में ही नहीं था,
सबसे बुरी और बरी बात तो यह थी
की मैं नहीं पहना करता था
बाघ की खाल;
मुझे भरोसा था अपने
आदमजात की खाल पर.
अब आप पूछेंगे भिया उस
सहर का नाम भी तो बता दीजिये,
तो भिया मेरा नाम जाहिर न कराने की शर्त पर
मैं बता रहा हूँ;
उस सहर का नाम है........
पत्रकारिता और वह बाघ
की खाल है जनसेवा का ढोंग.
गुरुवार, 6 अगस्त 2009
सी बी आई
हमारे घरों की रखवाली करता है कुत्ता,
और देश की रखवाली करती हैं सीबीआई जैसी एजेंसियां,
परन्तु जब घर के लोग ही चोर हों तब,
तब ये कुत्ते काटना तो क्या भौंक भी नहीं पाते
बेखौफ होकर,
और चुपचाप दुम हिलाते रह जाते हैं,
जब मेड ही खेत चरने लगे
तो फिर किसान कर भी क्या सकता है ?
असहाय और अशक्त होकर देखने के सिवाय,
फिर कुत्ता तो कुत्ता है आख़िर
अपने मालिक भले ही वो चोर हो के प्रति वफादारी तो दिखायेगा ही.
और देश की रखवाली करती हैं सीबीआई जैसी एजेंसियां,
परन्तु जब घर के लोग ही चोर हों तब,
तब ये कुत्ते काटना तो क्या भौंक भी नहीं पाते
बेखौफ होकर,
और चुपचाप दुम हिलाते रह जाते हैं,
जब मेड ही खेत चरने लगे
तो फिर किसान कर भी क्या सकता है ?
असहाय और अशक्त होकर देखने के सिवाय,
फिर कुत्ता तो कुत्ता है आख़िर
अपने मालिक भले ही वो चोर हो के प्रति वफादारी तो दिखायेगा ही.
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