मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

देर आयद मगर दुरूस्त नहीं आयद


मित्रों, किसी महान लेटलतीफ भारतीय ने कभी अपनी लेटलतीफी के बचाव में शायद यह महान मुहावरा गढ़ा होगा-देर आयद दुरूस्त आयद। लेटलतीफी हम भारतीयों के खून में जो है। बाद में भारतीय रेल ने इसे किंचित संशोधन के साथ अपना लिया-दुर्घटना से देर भली। लेकिन कोई जरूरी नहीं कि विलंबित ताल में निबद्ध हरेक रचना महान ही हो। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि खिचड़ी बनने में काफी देर लग जाए और फिर भी खिचड़ी अधपकी हो या फिर जल गई हो। अब कांग्रेस पार्टी द्बारा केंद्रीय मंत्रीमंडल में किए गए बदलाव को ही लीजिए जिसके लिए काफी समय से लोगों की आँखें 10 जनपथ पर लगी हुई थीं। बदलाव हुआ जरूर है लेकिन वैसा नहीं जैसी कि उम्मीद की जा रही थी। बल्कि इस परिवर्तन के बहाने कुछ ऐसे भी कदम उठाए गए हैं जो जनता की आशाओं के नितांत विपरीत हैं। उदाहरण के लिए मलाईदार और अतिघोटाला संभावित मंत्रालय में काबिज होते हुए भी अब तक सीएजी की नजर में ईमानदार रहे जयपाल रेड्डी को पदावनत कर विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय में भेज दिया गया है। जिस तरह सोमवार को रेड्डी ने अपना नया कार्यभार नहीं संभाला उससे तो यही कयास लगाया जा रहा है कि इसके पीछे हो-न-हो उद्योगपति मुकेश अंबानी का हाथ है।
                मित्रों, जहाँ एक तरफ जयपाल रेड्डी को उनकी ईमानदारी के लिए दंडित किया गया है वहीं "दाग अच्छे हैं" की अपनी पुरानी नीति पर चलते हुए असहाय विकलांगों का पैसा खा जानेवाले सलमान खुर्शीद को पुरस्कृत करते हुए अतिमहत्त्वपूर्ण विदेश मंत्रालय की बागडोर सौंप दी गई है। इतना ही नहीं आईपीएल की कालेधन की बहती गंगा में हाथ धोने के बदले जमकर स्नान करने के आरोपी शशि थरुर को भी फिर से मंत्री बना दिया गया है। अभी कुछ ही दिन पहले कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा अध्यक्ष से मिलीभगत कर राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में अभूतपूर्व कौशल का प्रदर्शन करने के आरोपी सुरेश कलमाड़ी और 2-जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में घोटालों का विश्व कीर्तिमान स्थापित करनेवाले ए. राजा को अतिमहत्त्वपूर्ण संसदीय समितियों का सदस्य बनवाकर भी कांग्रेस नेतृत्व ने यही संकेत दिया था कि उसका "दाग अच्छे हैं" की नीति में अभी भी अटूट निष्ठा है। अब जहाँ नेतृत्व की नीति ही उल्टी गंगा बहाने की हो वहाँ आसानी से यह समझा जा सकता है कि नए आनेवाले मंत्रियों से नेतृत्व की क्या अपेक्षाएं हैं और नेतृत्व ने उनको किस प्रकार से या किस प्रकार के काम करने के निर्देश दिए होंगे।
                  मित्रों, काफी समय पहले महनार में अजंता सर्कस लगा था। तभी एक नए हाथी को सर्कस में शामिल किया गया। जोर-शोर से लाउडस्पीकरों से प्रचार किया गया कि सर्कस में लाया गया हाथी कमाल का है इसलिए यह कमाल के करतब भी दिखाएगा, जैसे-यह फुटबॉल खेलेगा,सूंड से बल्ला पकड़कर क्रिकेट खेलेगा,गेंदबाजी भी करेगा,बाबा रामदेव की तरह योगासन भी करेगा इत्यादि। सर्कस देखने के लिए घोषित तिथि को लोगों की भारी भीड़ उमड़ पड़ी। बैठे हुए लोगों से कई गुणा ज्यादा संख्या ऐसे दर्शकों की थी जो खड़े थे। फिर बेकरारी भरा वह पल भी आया जब उक्त हाथी को प्रदर्शन के लिए उपस्थित किया गया। सामने एक फुटबॉल रखा गया जिसे हाथी को किक करना था। हाथी आया और चुपचाप खड़ा हो गया। प्रशिक्षक ने कई-कई बार बार-बार आवाज लगाई लेकिन हाथी अपनी जगह से हिला ही नहीं। ईधर दर्शकों का धैर्य भी जवाब देने लगा था। वे अपना गुस्सा बेजान कुर्सियों पर उतारने लगे। अंत में जब अंकुश से हाथी के मस्तक पर प्रहार किया गया तो उसने अपने पिछले पैरों को मोड़ लिया और पहले तो पटाखा छूटने की-सी धमाकेदार ध्वनि उत्पन्न करनेवाला गैस-विसर्जन किया और फिर बैठ गया। और तभी हमारे राज्य वैशाली जिले में एक नई कहावत ने जन्म लिया-हाथी अयलन (आया) हाथी,हाथी पदलक (पादा) पोएं। रविवार को कांग्रेसरूपी हाथी (बतौर खुर्शीद साहब) द्वारा केंद्र सरकार में किया गया विस्तार और हेर-फेर भी कुछ ऐसी ही घटना है। इस करतब के द्वारा सिर्फ वोट-बैंक को साधने और बेईमानों को प्रोत्साहित करने और ईमानदारों को दंडित करने की ईमानदार कोशिश की गई है। जहां तक युवाओं को ज्यादा संख्या में सरकार में शामिल करने और जिम्मेदारी का काम सौंपने का सवाल है तो सरकार और पार्टी की रसातल में जा चुकी साख को फिर से आसमान की बुलंदियों तक उठाने के लिए मंत्रियों का सिर्फ युवा होना ही काफी नहीं हो सकता बल्कि सबसे बड़ी शर्त तो ईमानदारी होती है जो कि नेतृत्व को चाहिए ही नहीं।

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

अथ श्री हाथी-चींटी कथा

मित्रों,हाथी और चींटी से संबंधित बहुत-से चुटकुले आपने पढ़े होंगे और पाया होगा कि उन सबमें चीटियों का उनके छोटे आकार और बलहीनता के लिए मजाक उड़ाया गया है। मगर हम ऐसा करते समय भूल जाते हैं कि चीटियाँ शायद दुनिया की सबसे मेहनती और अनुशासित जीव हैं। यह अपने शारीरिक भार से कई गुणा ज्यादा वजन भी मजे में उठा लेती हैं। लेकिन किसी हाथी को चीटियों के गुणों से या उसके जीने-मरने से क्या लेना-देना? हाथी तो जब भी चलेगा तो इस बात से बेफिक्र होकर ही कि उसके पाँव के नीचे कोई छोटा जीव-जंतु न आ जाए। तभी तो केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी जिसे केंद्रीय कानून मंत्री हाथी की उपमा देते हैं ने जान-बूझकर आम-आदमी को यानि चीटियों को कुचल-कुचलकर चलना शुरू कर दिया है। यह हाथी दरअसल आदमखोर हो गया है और शाकाहारी तो बिल्कुल भी नहीं रह गया है।
                    मित्रों,यह सही है कि इस हाथी में इन दिनों अपार बल है। वह पागल भी हो गया है और इसलिए अपने देश को ही उजाड़ने लगा है,तहस-नहस करने लगा है। बलवान हो भी क्यों नहीं उसके पास सलमान खुर्शीद जैसे ऑक्सफोर्ड रिटर्न जो हैं। मुश्किल यह है कि ऑक्सफोर्ड इंगलैंड में है और वहाँ के जंगलों में हाथी होता नहीं इसलिए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन के नाती खुर्शीद साहब को हाथी के बारे में पढ़ाया भी नहीं गया होगा। वहाँ के पाठ्यक्रम में तो भेड़ियों के बारे में जानकारी देनेवाले पाठ ही होंगे जो वहाँ के जंगलों में पाए जाते हैं। अगर ऑक्सफोर्ड में हाथी के बारे में पढ़ाया जाता तो खुर्शीद साहब ऐसा बयान हरगिज नहीं देते कि हाथी का चींटी क्या बिगाड़ लेगी? तब उनको यह पता होता कि अगर हाथी की सूंड में चींटी घुस जाए तो हाथी की मौत हो जाती है। इस अवस्था में पहले तो हाथी पागल होकर आत्मविनाशक हो जाता है,अपना ही नुकसान करने लगता है और अंत में मर जाता है।
                       मित्रों,मैं अपने एक आलेख "बालकृष्ण की गिरफ्तारी के निहितार्थ" में काफी पहले केंद्र सरकार को हाथी और आमआदमी को चींटी से संबोधित कर चुका हूँ। अपने उस आलेख में भी मैंने यह बताया था कि एक अकेली चींटी भी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो इत्ती-सी जीव उसकी जान भी ले सकती है। अगर मेरे उस आलेख को खुर्शीद साहब ने पढ़ा होता तो वे इस तरह का बचकाना बयान नहीं देते लेकिन वे क्यों मुझे पढ़ने लगे? जब उनके लिए आज के भारत का सबसे बड़ा यूथ आईकॉन बन चुका अरविंद केजरीवाल ही चींटी के समान है तो मैं तो शायद उनके लिए जीवाणु होऊंगा जिसे नंगी आँखों से देखा भी नहीं जा सकता।
                        मित्रों, सलमान खुर्शीद अपने जमाने में किस स्तर के विद्यार्थी रहे होंगे पता नहीं लेकिन इन दिनों साहब कभी राजनीतिज्ञों का इतिहास नहीं पढ़ते हैं यह तय है। आश्चर्य है कि वे हमसे काफी बड़े हैं फिर भी भारतीय राजनीति में कब,क्या और क्यों हुआ उनको पता नहीं है? हमने खुद ही नंगी आँखों से लालू-कल्याण के सूरज को राजनीति के आसमान पर चढ़ते और फिर उतरते देखा है। मुझसे कुछ साल बड़े मेरे भाइयों-बहनों ने इसी कांग्रेसी हाथी पर सवार इंदिरा गांधी को पहले तो जेल भेजते हुए और फिर जेल जाते भी देखा है। मैंने खुद 80 के चुनाव में "पूड़ी-कचौड़ी तेल में,इंदिरा गांधी जेल में" के नारों से आकाश को गुंजायमान होते हुए देखा है। लोकतंत्र में जनता कब किसे उठाकर रद्दी की टोकरी में फेंक दे,कब चींटी को हाथी और हाथी को चींटी बना दे कोई नहीं जानता। फिर भी अगर सलमान खुर्शीद अपने और अपने भाग्य के ऊपर इतरा रहे हैं तो इसे उनका बचपना ही मानना और समझना पड़ेगा। कहा भी गया है-
भीलन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बाण।
पुरूष बली नहिं होत है समय होत बलवान।।
                                   मित्रों,आलेख के प्रारंभ में ही मैंने इस बात का जिक्र किया है कि भ्रष्टाचार शास्त्र के परम् विद्वान और हेराफेरी के जानेमाने विशेषज्ञ खुर्शीद साहब के अनुसार कांग्रेस पार्टी एक हाथी है और चूँकि खुर्शीद साहब भी कांग्रेस में हैं तो प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर वे इस हाथी का कौन-सा भाग हैं? खैर ऑक्सफोर्ड से पढ़ाई करने के कारण हो सकता है कि उनको हाथी का भूगोल पता नहीं होगा। कोई बात नहीं उनको पता नहीं है तो क्या हुआ हमें तो पता है और अच्छी तरह पता है। जनाब खुर्शीद साहब कांग्रेसरूपी हाथी का खानेवाले दाँत,पेट,आँत,दिल,दिमाग,सूंड,पूँछ तो हो सकते नहीं क्योंकि यह सब तो सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार का कोई लायक-नालायक सदस्य ही हो सकता है। इन दिनों पूँछ पर राबर्ट बाड्रा का दावा सबसे मजबूत लगता है जिस पर हथौड़ा पड़ते ही इन दिनों हाथी पागल-जैसा हो गया है। बचे दिखाने के दाँत तो यह ओहदा सबको पता है कि इन दिनों माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास है। सबसे अंत में तो हाथी की लीद ही बचती है जो जनाब खुर्शीद साहब हो सकते हैं। वैसे इस लीद में भी कई आश्चर्यजनक गुण और विशेषताएँ पाई जाती हैं जिन पर फिर कभी किसी अन्य सुअवसर पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

बिहार में महिला थानों का औचित्य

मित्रों,बिहार के लोगों की रचनात्मकता का कहना ही क्या? व्याकरण के दृष्टिकोण से जो शब्द रूढ़ हैं उन्हें भी वे अक्सर यौगिक और कभी-कभी तो योगरूढ़ में बदल देते हैं। अब दरोगा (या दारोगा) शब्द को ही लीजिए हमने इसको भी सीधे योगरूढ़ में बदल दिया है। दरोगा अर्थात् द रो के या गा के यानि इस दोपाया (आदमी या जानवर का निर्णय हम आप पर छोड़ते हैं) के शिकंजे में अगर आप आ गए हैं तो आपको कुछ-न-कुछ पैसा देना ही पड़ेगा चाहे खुश होकर दीजिए या रो पीटकर। ये लोग निश्चित रूप से (यहाँ मैं कथित रूप से लिखना गैरजरूरी समझता हूँ) अपने पिता को भी नहीं छोड़ते हैं। उनको भी अगर कभी पुलिस थाने से कोई काम पड़ जाए और उनका बेटा ही क्यों न दरोगा रहे उनको भी पैसा देना ही पड़ेगा। बाप के लिए कोई कैसे नियम को बिगाड़ या तोड़ सकता है-रूल ईज रूल।
                  मित्रों, जब भी आप बिहार के किसी थाने में प्रवेश करेंगे बड़े मोटे अक्षरों में कुछ ईबारतें दीवारों पर लिखी हुई मिलेंगी, जैसे-ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति होती है, क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ इत्यादि। परन्तु ये ईबारतें सिर्फ दिखावे के लिए होती हैं। लिखना जरूरी होता है सो लिख दिया जाता है वैसे कोई इन्हें पढ़ता नहीं। दरोगा जी पढ़ने की जरुरत नहीं समझते और आरोपी य़ा आरोपित पढ़कर क्या करेगा? अगर कभी प्रतिवादस्वरूप किसी ने कह दिया कि हुजूर दीवार पर लिखा तो ऐसा है आपने तो यकीन मानिये उसे सैंकड़ों गालियाँ तो सुनने को मिलेंगी ही हो सकता है कि सरकारी कर्मचारी/अधिकारी पर हाथ उठाने या काम में बाधा डालने के झूठे इल्जाम में तत्काल भीतर भी कर दिया जाए। हो तो यह भी सकता है कि स्पेलिंग मिस्टेक के चलते मुकदमे की धारा ही बदल जाए,जैसे-धारा 107 धारा 307 हो जाए और यहाँ 1 और 3 का फर्क आप भी जानते होंगे।
                मित्रों, कई बार आपने देखा होगा कि पुलिस रेलवे स्टेशन,बस स्टैण्ड आदि स्थानों से चोर,पॉकेटमार को गिरफ्तार करके ले जाती है। आपने कभी पता लगाया है कि उनका क्या होता है और क्या किया जाता है? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बिहार में 99.99 आवर्त प्रतिशत ऐसे चोर-पॉकेटमार थाना पहुँचने से पहले या पहुँचने के फौरन बाद बाईज्जत छोड़ दिए जाते हैं कदाचित इस हिदायत के साथ कि काम सफाई से करो,कैसे पकड़े गए। हमारे राज्य बिहार में यह पुलिस की ही कृपा है कि राज्य में सुशासन में भी इतने अपराध हो रहे हैं। पुलिस नहीं होती तो शायद अपराध कब के बंद हो चुके होते। सच्चाई यह भी है कि लोगों के बीच जितना आतंक निजी गुंडों का नहीं है उससे कई गुणा ज्यादा वे वर्दीवाले गुंडों से डरते हैं। एक बड़ा ही रोचक चुटकुला हमारे बिहार में वर्षों से प्रचलन में है और कदाचित् हमेशा रहेगा। हुआ यूँ कि एकबार मुम्बई से एक मराठी बिहार आया और मुम्बई पुलिस के बारे में किसी बिहारी को बताने लगा कि मुम्बई में तो अपराध होने के 24 घंटे के भीतर ही पुलिस अपराध करनेवालों का पता लगा लेती है, गजब की फास्ट है मुम्बई पुलिस। तब बिहारी ने बिहार पुलिस का महिमामंडन करते हुए सिर ऊँचा करके और मूँछों पर ताव देते हुए कहा कि ये तो कुछ भी नहीं है हमारे यहाँ की पुलिस को तो अपराध होने के 24 घंटे पहले से ही पता होता है कि कहाँ अपनाध होनेवाला है और उसमें कौन-कौन शामिल होनेवाले हैं।
                     मित्रों,न जाने कितनी सरकारें बिहार में आईं और गईं, न जाने कितने एसपी,डीएसपी आए और गए परन्तु बिहार के थानों का न तो स्वभाव ही बदला और न तो सूरत ही। ये थाने आजादी से पहले भी रक्त-चूषक केंद्र थे और आज भी हैं। अब आप कहेंगे कि आपने तो पढ़ा है कि बिहार में तो सुशासन बाबू का सुशासन है। सुशासन है, जरूर है लेकिन अभी तक वह थानों का चक्कर ही लगा रहा है बेचारा थानों में घुसने लायक साहस ही नहीं जुटा पाया है। सुशासन बाबू ने जबसे अफसरों की ताकत में ईजाफा किया है तबसे तो जनता की प्रतिनिधि खादी भी थाने में घुसने से डरती है तो फिर सुशासन कहाँ से लाएगा हिम्मत? वैसे भी राज की बात तो यह भी है कि बिहार में इन दिनों न तो सुशासन बाबू का राज है और न ही कानून का बल्कि अफसरों का राज है। अफसर जो कहें वही कानून है और वे जो करें वही कानून का पालन है। उदाहरण के लिए अगर किसी थाने में थानेदार किसी महिला के साथ बलात्कार कर रहा है तो यह माना जाना चाहिए कि उसने ऐसा करके बलात्कारियों से उक्त महिला की रक्षा की है।
                              मित्रों, पहले से ही पुलिस थाने बिहार की गरीब जनता की आहिस्ता-आहिस्ता खाल उतारने में तन्मयता से लगी हुई थी परन्तु नीतीश जी का दिल तो बहुत बड़ा है और हमेशा मोर एंड मोर मांगता रहता है सो जनाब ने जनता को लूटने के अतिरिक्त केंद्र खोलने की न केवल योजना बनाई बल्कि खोल भी डाले। नहीं समझे क्या? जनाब मेरा मतलब महिला थानों से है। महिलाओं की (कदाचित् पत्नी को छोड़कर) विशेष चिंता करनेवाले नीतीश जी ने पूरे बिहार के प्रत्येक जिले में एक-एक महिला थाना खोला है जहाँ महिलाओं से संबंधित मामले दर्ज किए जाएंगे और उनके प्रति होनेवाले अपराधों पर बाजाप्ता अनुसंधान किया जाएगा। इनके खुलने से बिहार की आम महिलाओं को भले ही कोई फायदा नहीं हुआ हो (यकीनन होगा भी नहीं) इन थानों की महिला थानेदारों के घरों में तो छत तोड़कर श्यामा-लक्ष्मी की बरसात हो रही है। ये महिला थानेदार रिश्वत (अथवा रंगदारी) वसूलने में पुरूष-महिला समानता में बिल्कुल भी यकीन नहीं रखती हैं बल्कि इनका तो मानना है कि कम-से-कम इस मामले में तो स्त्रियों को पुरूषों से श्रेष्ठ होना ही चाहिए।
                            मित्रों, अभी कुछ दिन पहले मेरे दूधवाले ...... सिंह जो हाजीपुर के गंगाब्रिज थाने के सहदुल्लापुर के रहनेवाले हैं ने मुझे दूध देना बंद कर दिया। मुझे बड़ी चिंता हो गई क्योंकि जबसे हम महनार से हाजीपुर आए हैं वही हमें दूध दे रहे हैं। मुझे लगा कि कहीं मर-वर तो नहीं गए बेचारे बीमार तो थे ही। सो एक दिन ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उनके घर पहुँचा तब पता चला कि कुछ दिन पहले भतीजे और उसकी पत्नी से उनकी हल्की-फुल्की हाथापाई हो गई थी और उनका भतीजा सपत्नीक गंगाब्रिज थाने में मुकदमा करने चला गया। गंगाब्रिज थाने ने उसे समझा-बुझाकर लौटा दिया तो उसने जिला महिला थाना में जाकर केस कर दिया। उन्होंने यानि मेरे दूधवाले ने थानेदारनी को पैसे भी दिए हैं परन्तु थानेदारनी फिर भी दो-चार दिन बीचकर दरवाजे पर पुलिस-गाड़ी खड़ा कर देती है और इस प्रकार पूरा परिवार हाड़तोड़ मेहनत करके जो कुछ कमाता है छीन कर ले जाती है, ऊपर से बहुत कर्ज भी हो गया है। उनका भतीजा भी उनकी ही तरह घोर गरीब है और जाहिर है कि उसका हाल भी कोई अहलदा नहीं है। कैसे करूँ-क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा। आप कुछ कर सकते हैं तो बताईये। मैंने सुना और सुनते ही मेरी समझ में भी नहीं आया कि मैं उसके लिए क्या करूँ और कैसे करूँ? आपके पास कोई उपाय हो तो बताईये नहीं तो बेचारे पर जब तक मुकदमा है ऐसे ही सपरिवार खटते-कमाते रहेंगे और भरते रहेंगे गोदान के होरी की तरह। समझ में तो मेरी यह भी नहीं आ रहा है कि क्या इसलिए बिहार में सुशासन बाबू ने महिला थानों की स्थापना की है?

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

सोनिया ने हमें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया



मित्रों,हमने ऐसी कभी सपने में भी नहीं सोंचा था कि देश में कभी ऐसी पार्टी की सरकार भी आएगी जो उसे वोट देने और नहीं देनेवाले राज्यों के बीच इस कदर भेदभाव रखेगी। लेकिन वो कहते हैं न कि तेरे मन कछु और है कर्ता के कछु और। कभी-कभी आपका सोंचा हुआ नहीं भी होता है। इटली की बेटी और इंडिया की मदर सोनिया गांधी ने एक झटके में यह घोषणा करके कि कांग्रेस शासित राज्यों में रहनेवालों को साल में सिर्फ 9 सिलेंडर और नहीं रहनेवालों को सिर्फ 6 सिलेंडर दिए जाएंगे हमें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया। क्या हम गैर कांग्रेसी सरकार वाले राज्य के लोग कम खाते हैं या आगे से कम खाएंगे? क्या उनको भारत के संविधान ने समानता का अधिकार नहीं दिया है? क्या गैर कांग्रेसी सरकारों वाले राज्यों में गरीब नहीं रहते सिर्फ अमीर ही रहते हैं? क्या इन राज्यों में महंगाई का असर नहीं पड़ रहा है? या वे आदमी नहीं जानवर हैं जो किसी तरह भी जी लेंगे?
               मित्रों,कल को कोई विधायक या एमपी क्या यह देखकर अपने क्षेत्र के लोगों की मदद करेगा कि उन्होंने उसे वोट दिया था कि नहीं? अगर वह सचमुच ऐसा करता भी है तो क्या वह लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांतों के प्रतिकूल नहीं होगा? लोकतंत्र का तो मतलब ही होता है अपने से अलग राय रखनेवालों की राय का भी सम्मान करना। तो क्या सोनिया जी को लोकतंत्र का मौलिक ज्ञान भी नहीं है? परन्तु ऐसा कैसे संभव है वह तो विदेश में ही जन्मी और पढ़ी है? या वे उन राज्यों के निवासियों को दंडित करना चाहती हैं जिन्होंने उनकी महाभ्रष्ट पार्टी को पहली बार में समझ लिया और वोट नहीं दिया। पूरे देश की जनता पहले से ही बेतहाशा महंगाई से परेशान है। आज जीना काफी कठिन और मरना काफी आसान हो गया है। जनसाधारण की थाली से बारी-बारी से दाल-दूध-सब्जी गायब हो चुकी है और अब उसके रसोईघर से गैस-सिलेंडर को भी गायब किया जा रहा है? सरकार कहती है कि 2 महीने में 1 सिलेंडर खर्च करो। कैसे हो सकेगा ऐसा? ऐसा हो पाना तो तभी संभव है जब हम महीने में 15 दिन तक उपवास रखें या फिर एक महीना बीच करके चांद्रयण व्रत रखें। भैया अपनी तो आप जानिए हमसे तो व्रत-उपवास कभी हुआ नहीं। कभी जन्माष्टमी के दिन उपवास रखा भी तो दोपहर होते-होते जान निकलने लगी और भोजन कर लिया। हाँ,इतना जरूर हो सकता है कि हम अपने बजट का पुनर्निधारण करें और खाद्य-सामग्री की मात्रा कम और भी कम कर दें जिससे सिलेंडर पर होनेवाले अतिरिक्त खर्च की यथासंभव भरपाई हो सके। गुणवत्ता से समझौता करने की हमें तो आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि वह तो हम पहले ही कर चुके हैं।
                    मित्रों,हालाँकि हमें इस कारण से उन लोगों से थोड़ा ज्यादा कष्ट दिया जा रहा है जो कांग्रेसशासित राज्यों के निवासी हैं परन्तु हमें इस बात के लिए कोई खेद बिल्कुल भी नहीं है कि हमने पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट नहीं दिया था। बल्कि हमें खुद पर और पूरे बिहार की जनता पर गर्व है कि हम उन राज्यों में से एक हैं जहाँ के निवासियों ने सबसे पहले कांग्रेस के देशबेचवा (देश को बेचनेवाला) और देशखौका (देश को खानेवाला) चरित्र को समझ लिया था। हम यह गारंटी भी अभी से देते हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बिहार से एक भी सीट नहीं मिलनेवाली है। लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार को अभी से ही दूसरे किसी राज्य में ठिकाना ढूंढ़ लेना चाहिए। साथ ही मैं अन्य राज्यों के लोगों से भी निवेदन करता हूँ कि अभी से ही कांग्रेस को हमेशा के लिए उखाड़ फेंकने का मन बना लीजिए नहीं तो एक बार और अगर यह डकैत पार्टी सत्ता में आ गई तो हमारे साथ-साथ आप भी सिलेंडर तो क्या थाली तक खरीदने के लायक भी नहीं रह जाएंगे।

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

राम की शक्ति पूजा और वर्तमान भारत

मित्रों,इस समय शारदीय नवरात्र चल रहा है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार त्रेता युग में श्रीराम ने भी शक्ति की अराधना की थी और अंततः आदिमाता भगवती के आशीर्वाद से विजयादशमी के दिन विद्वान परन्तु जनपीड़क रावण का वध कर मानवता का उद्धार किया था। निराला से पहले भी संस्कृत और बंगला भाषा के कई कवियों ने इस प्रसंग पर काव्यों की रचना की है परन्तु जो प्रासंगिकता,बिंबात्मकता,भावोत्पादकता और प्रतीकात्मकता निरालारचित 'राम की शक्ति पूजा' में पाई जाती है अन्यत्र अप्राप्य है। निराला के राम भगवान राम नहीं हैं बल्कि मानव राम हैं,पुरूषोत्तम राम हैं। वास्तव में निराला के राम राम हैं ही नहीं बल्कि स्वयं निराला हैं,अपने समय में गरीब,दानी,प्रताड़ित,पराजित और इन सबके परिणामस्वरूप विक्षिप्त सत्य के प्रतीक रहे निराला।
           मित्रों,कविता 'राम की शक्ति पूजा' में वर्तमान को धारण करने की अद्भुत क्षमता है। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है इसकी प्रासंगिकता घटने के बदले बढ़ती ही जा रही है। कविता के आरंभ में अपने ही रक्त से सने श्रीराम की पराजित सेना के चुपचाप,सिर झुकाए शिविरों में लौटने का वर्णन है। चारों तरफ अमावस्या का अंधेरा,पराजय का सन्नाटा है। आकाश अंधकार उगल रहा है,हवा का चलना रूका हुआ है,पृष्ठभूमि में स्थित समुद्र गर्जन कर रहा है,पहाड़ ध्यानस्थ है और मशाल जल रही है। यह परिवेश किसी हद तक राम की मनोदशा को प्रतिबिंबित करता है,जो संशय और निराशा से ग्रस्त है। सारी परिस्थितियाँ उनके प्रतिकूल हैं,बस उनकी बुद्धि (मशाल) ने अभी तक उनका साथ नहीं छोड़ा है और वह प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करती हुई अभी भी जागृत है।
                             मित्रों,स्थितप्रज्ञ राम को भी उनके मन में उत्पन्न संशय बार-बार हिला दे रहा है। रह-रहकर उनके प्राणों में बुराई और अधर्म की साक्षात मूर्ति रावण की जीत का भय जाग उठता है। इन क्षणों में राम को शक्ति की वह भयानक मूर्ति याद आती है जो उन्होंने आज के युद्ध में देखी थी। राम ने रावण को मारने के लिए असंख्य दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया,लेकिन वे सारे-के-सारे बुझते और क्षणभर में शक्ति के शरीर में समाते चले गए जैसे उन्हें परमधाम मिल गया हो। राम ने अपनी स्मृति में यह जो दृश्य देखा तो अतुल बलशाली होते हुए भी वे अपनी जीत के प्रति शंकालु हो उठे और उन्हें लगा कि शायद वे अब अपनी प्रिया सीता को छुड़ा ही नहीं पाएंगे-
"धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका।"
                                      मित्रों,राम परेशान हैं यह सोंचकर कि 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति है'। ऐसे में अन्याय और अधर्म के साक्षात प्रतीक रावण को कैसे पराजित किया जाए-
"लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
रावण अधर्मरत भी अपना,मैं हुआ अपर
यह रहा शक्ति का खेल समर,शंकर,शंकर!"
                               मित्रों,राम के नेत्रों से इस समय चुपचाप अश्रुधारा बह रही थी। वे उदास थे परन्तु पराजित नहीं थे और बार-बार उनकी भुजाएँ फड़क उठती थीं-"हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त"। राम का एक मन और था जो अभी तक भी चैतन्य था-
"वह एक और मन रहा,राम का जो न थका
जो नहीं जानता दैन्य नहीं जानता विनय।"
तभी जांबवान राम को शक्ति पूजा के लिए प्रेरित करते हैं। वे राम को शक्ति की मौलिक कल्पना करने के लिए कहते हैं-"शक्ति की करो मौलिक कल्पना,आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।" राम सिंहभाव से शक्ति की आराधना करते हैं और शक्ति अर्थात् भगवती दुर्गा से विजय होने का वरदान प्राप्त करते हैं। यहाँ निराला ने राम की मौलिक कल्पना में सिंह अर्थात् शक्तिवान को देवी के जनरंजन-चरण-कमल-तल दिखाया है अर्थात् उनके मतानुसार शक्ति का प्रयोग हमेशा जनहित में ही होना चाहिए।
                        मित्रों,प्रत्येक युग की तरह वर्तमान भारत में भी धर्म-अधर्म का युद्ध अनवरत चल रहा है। आज के भारत में भी शक्ति अधर्म की तरफ है और आज के भारत में भी सत्यवादी और ईमानदार लोग शर्मिंदा,पराजित और निराश हैं। आज के भारत में अन्ना हजारे,किरण बेदी,अरविन्द केजरीवाल और अशोक खेमका जैसे लोग धर्म व राम के प्रतीक और हमारे भ्रष्ट राजनेता यथा-मनमोहन सिंह,सोनिया गांधी,नितिन गडकरी,सलमान खुर्शीद,दिग्विजय सिंह आदि अधर्म व रावण के प्रतीक माने जा सकते हैं। आज के भारत में नेतारूपी रावण सत्ता के अहंकार में जन-गण-मन के नायक राम को सड़क पर भटकनेवाला साधारण मानव समझने की भूल कर रहा है और दंभपूर्वक चीख-चीखकर कह रहा है कि वह सड़कछाप लोगों अथवा नाली के कीड़ों के प्रश्नों के उत्तर नहीं देगा।
                       मित्रों,कभी त्रेता के रावण ने भी राम को तुच्छ व निर्बल तपस्वी समझ लेने की गलती की थी। वही भूल आज का रावण भी कर रहा है लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या आज का राम कभी इतनी शक्ति अर्जित कर पाएगा कि वह रावण (अधर्म व भ्रष्टाचार) का समूल नाश कर सके? क्या उसमें रावण द्वारा शक्ति की की जा रही अराधना का उत्तर अपेक्षाकृत दृढ़ अराधना से देने की ताकत है,क्षमता है? आज का रावण भी अत्यंत मायावी है और वह निश्चय ही साम-दाम-दंड-भेद चारों युक्तियों का दुरूपयोग करेगा। वह कभी झूठे आरोप लगाएगा तो कभी सांप्रदायिक और जातीय कार्ड खेलेगा। अव देखना है कि हमारे राम के तरकश में क्या ऐसे तीर मौजूद हैं जो रावण के इन विषबुझे तीरों को काट सकें। प्रत्येक युग का युगधर्म तो यही कहता है कि सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं। तो क्या निकट-भविष्य में हमारे राम की जीत होनेवाली है और क्या निकट-भविष्य में राम-राज्य एक मिथक मात्र नहीं रह जानेवाला है या एक बार फिर रावणी शक्तियों की ही जीत होगी,भारतमाता का उद्धार नहीं हो सकेगा और रावण-राज ही चलता रहेगा? हमारा वर्तमान और भविष्य सबकुछ राम की अराधना पर निर्भर करता है और निर्भर करता है इस बात पर भी कि हमारे राम में कितनी मानसिक दृढ़ता है,कितनी संघर्षशीलता है और कितना पराक्रम है। त्रेता में तो वानर-भालुओं ने राम की तन-मन-धन से सहायता की थी क्या इस कलियुग में राम आम जनता की सेना बना पाएंगे और क्या खोज पाएंगे और प्राप्त कर पाएंगे हनुमान,सुग्रीव,अंगद जैसे निष्ठावान सेनानायकों की सेवा को? मैं इस समय वर्तमान में लिख रहा हूँ और चूँकि समय का पहिया गोल है इसलिए भविष्य हमेशा की तरह मेरी दृष्टि से ओझल है। मैं तो बस इतना ही देख पा रहा हूँ कि मेरे आज के भारत का राम भारत के आम आदमी की शक्ति की मौलिक कल्पना करने और फिर उसके आधार पर शक्ति की दृढ़ अराधना करने में लीन है-
या आमजनता सर्वनेताषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नमः।

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

बिहार में रावण राज


मित्रों,कई दशक गुजर गए। हमने महनार के गंगा टॉकिज में एक फिल्म देखी थी। कथित रूप से वह फिल्म 'सी' ग्रेड की थी परन्तु मुझे बहुत अच्छी लगी थी। उसमें मिथुन चक्रवर्ती हीरो थे और खलनायक थे आदित्य पंचोली। फिल्म मानव-अंगों चोरी और तस्करी की सच्ची घटना पर आधारित थी। फिल्म का नाम फिल्म की कहानी को पूर्णतया प्रतिबिंबित करता था। फिल्म का नाम था रावण राज।
              मित्रों,इन दिनों बिहार राज्य के 483 किलोमीटर लंबे और 345 किलोमीटर चौड़े विशालकाय रंगमंच पर वही फिल्म मंचित हो रही है। इस बार खलनायक डॉक्टर सिर्फ अभिनय नहीं कर रहे बल्कि वास्तव में मानव अंगों की चोरी कर रहे हैं। इस सजीव फिल्म में गुर्दे नहीं निकाले जा रहे हैं बल्कि निकाले जा रहे हैं गर्भाशय। पिछले कुछ सालों में बिहार में एक साथ हजारों विवाहित-अविवाहित महिलाओं के शरीर से बिनावजह गर्भाशय को काटकर हटा दिया गया है। जैसे हरेक घटना या अपराध की एक वजह होती है इस घिनौने और मानवता के नाम कलंक का भी एक कारण है। कारण यह है कि इन दिनों भारत की केंद्र सरकार ने देश के गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना चला रखी है जिसके तहत बीपीएल परिवारों के सदस्यों द्वारा बीमा कम्पनी द्वारा सूचीबद्ध अस्पतालों में भर्ती होकर ईलाज कराने पर सालाना ३०,००० रूपये तक का ईलाज का खर्च बीमा कम्पनी द्वारा अस्पतालों को भुगतान किया जाता है। साथ ही लाभुकों को अस्पताल तक आने जाने के लिए प्रति बार १०० रूपये एवं अधिकतम सालाना १,००० रूपये का भुगतान अस्पताल द्वारा किया जाता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अधीन निबंधित लाभुकों के मुखिया सहित पाँच सदस्यों का सालाना ३०,००० रूपये का मुफ्त में स्वास्थ्य बीमा किया जाता है। यह योजना केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित है, बीमा की ७५ प्रतिशत राशि का भुगतान केन्द्र सरकार द्वारा एवं २५ प्रतिशत राशि का भुगतान राज्य सरकार द्वारा किया जाता है।
                  मित्रों, बिहार तो हमेशा से जुगाड़ुओं की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है। सो धरती के भूतपूर्व भगवानों बिहारी डॉक्टरों ने यहाँ भी लगा-भिड़ा दिया जुगाड़। कोई विवाहित-अविवाहित महिला जब भी जैसे ही उनके पास बीमार होकर ईलाज करवाने आई चाहे उसका रोग कुछ भी हो सिर में दर्द हो,पेट खराब हो,पेट में दर्द हो या फिर सर्दी-जुकाम ही क्यों न हो उन्होंने बस उसका एक ही ईलाज किया कि ऑपरेशन करके उनका गर्भाशय निकाल दिया। बार-बार छोटा-छोटा ईलाज करके क्यों पैसा बनाया जाए? एक ही बार सर्जरी की और सालभर की अधिकतम बीमा की राशि 30000 रुपया बना लिया। अधिकतर बीपीएल परिवारों के सदस्य ठहरे अनपढ़ उस पर डॉक्टर पर संदेह भी जल्दी कोई नहीं करता। डॉक्टर ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा यह सोंचकर ऑपरेशन करवा लिया जबकि इसकी जरुरत थी ही नहीं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कई अविवाहित लड़कियों का जीवन ही हमेशा के लिए निरर्थक हो गया और कई विवाहित और बालबच्चेदार महिलाएँ हमेशा के लिए बीमार। कई बार तो महिलाओं और उनके परिजनों को यह बताया भी नहीं गया कि उनका गर्भाशय निकाला जा रहा है और चुपके-से ऑपरेशन कर दिया गया। यह क्रम अभी भी रूका नहीं है बदस्तूर जारी है।
                मित्रों, रावण राज फिल्म में तो राम और अच्छाई के प्रतीक मिथुन ने दुनिया के इस सबसे घृणित व्यवसाय को बंद करवाया था और फिल्म के अंत में जल्लाद डॉक्टर को "ऑन द स्पॉट" मृत्युदंड देकर उसके किए की सजा दी थी। परन्तु बिहार में रावण राज नामक जीवंत फिल्म का तो अभी कोई अंत ही नहीं दिख रहा। फिल्म बहुत लंबी हो चुकी है,दर्शक सह भोक्ता सह बिहार की जनता अब उबने और व्याकुल होने लगी है हीरो (मुख्यमंत्री नीतीश कुमार) की मौजूदगी में कुर्सियाँ तोड़ने और उस पर उछालने लगी है, उसको चप्पल दिखाकर उत्तेजित भी कर रही है लेकिन हीरो है कि उसे ताव ही नहीं आ रहा। उल्टे वह अपने शुभचिंतक व चाहनेवाले दर्शकों अर्थात् जनता पर ही नाराज हो जा रहा है। फिल्म में तो सिर्फ एक ही रावण था यहाँ तो हजारों रावण हैं। इन रावणों के खिलाफ़ किसी स्वतंत्र जाँच एजेंसी (हालाँकि यह तो अपने देश में रही नहीं) या किसी न्यायिक आयोग से जाँच होनी चाहिए थी। इंसाफ के तकाजे से पीड़ितों को मुआवजा भी मिलना चाहिए था। इसके साथ ही रावणों को उनके किए की सजा भी मिलनी चाहिए थी मगर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा। हो रही है तो सिर्फ लीपापोती। माफ करना मेरे गरीब, मजलूम दोस्तों अभी आपको न जाने कितने समय तक बिहार में रावण राज फिल्म देखनी पड़ेगी। अपना राम शायद रावण से मिल गया है।

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

क्या शादीशुदा औरतें बलात्कारियों से सुरक्षित होती हैं?


मित्रों,हरियाणा के खाप-पंचायतवाले और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री मान्यवर ओमप्रकाश चौटाला इन दिनों एक सर्वथा नए राग 'राग बालविवाह' का आलाप लेने में लगे हैं। इन लोगों को न जाने क्यों आजकल ऐसा लग रहा है कि अगर राज्य के दलित अपनी बेटियों का कम उम्र में विवाह कर दें तो वहाँ के जाट युवक उनका बलात्कार करना बंद कर देंगे,उनको अपनी माँ-बहन जैसी मानते हुए सम्मान देने लगेंगे और उनकी तरफ पलटकर देखना तो दूर उनके घरों की तरफ मुँह करके सोयेंगे भी नहीं। उनकी नजरों में सारे बलात्कारों और यौनापराधों का एक ही रामवाण ईलाज है कि दलित व अन्य लड़कियों का बालविवाह कर दिया जाए।
        मित्रों,बीमारी कुछ और है और ईलाज इन जाटों द्वारा कुछ और ही सुझाया जा रहा है। ये इस बात पर विचार नहीं कर रहे कि लगभग सारे मामलों में दलित लड़कियों के साथ ही दुष्कर्म की घटनाएँ क्यों घट रही हैं? क्या जाटों की लड़कियाँ नहीं होतीं या क्या वे उनकी शादी छुटपन में ही कर देते हैं? अगर जाटों के घर में भी लड़कियाँ जन्म ले रही हैं और उनकी शादी भी उनके जवान होने के बाद ही होती है तो फिर जाट युवक उनका बलात्कार क्यों नहीं करते? कहीं-न-कहीं ऐसा नहीं होने के पीछे दलितों के बराबरी के ख्याल को कुचल डालने की मानसिकता काम कर रही है। कुछ जाट सोंचते हैं कि दलितों की बहू-बेटियों के साथ बलात्कार कर दो जिससे उनके अन्दर हीनभावना घर कर जाए। चूँकि वहाँ के जाट काफी शक्तिशाली और संगठित हैं इसलिए दलित प्रतिकार में कुछ कर नहीं पाते और कई बार तो लज्जावश सपरिवार आत्महत्या भी कर लेते हैं। यहाँ तक कि वहाँ की सरकार चाहे वो काँग्रेस की हो या चौटाला की खाप-पंचायतों से डरती हैं और इनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं करतीं।
                         मित्रों,ताजा मामले में पीड़ित परिवार के जले पर नमक छिड़कने का काम किया है कांग्रेस अध्यक्षा कथित त्यागमूर्ति,करूणायतन सोनिया गांधी ने यह कहकर कि बलात्कार कहाँ नहीं हो रहा है? उनके अनुसार यह तो एक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्या है। संवेदनहीनता की हद है यह। इसलिए शायद दलित साहित्यालोचक भोगे हुए यथार्थ को देखे हुए यथार्थ से ज्यादा प्रामाणिक और महत्त्वपूर्ण मानते हैं। यही बात कुछ अलग अंदाज में जब बाबा रामदेव ने कह दी है तो पूरा कांग्रेस और उसकी पिट्ठू मीडिया आसमान को सिर पे उठाए जा रहा है। बाबा के बयान के विवाद में बलात्कार का मूल मुद्दा पृष्ठभूमि में चला गया है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था क्योंकि बाबा ने कुछ भी गलत नहीं कहा है। कुछ ऐसा ही बयान कभी कांग्रेस की वरिष्ठ नेता रीता बहुगुणा जोशी ने मायावती के लिए दिया था। तब तो कांग्रेस ने उनका बचाव किया था। क्या बाबा के बयान पर इसलिए हंगामा नहीं बरपा हुआ है क्योंकि सोनिया मायावती की तरह दलित न होकर प्रतिष्ठित नेहरू परिवार की बहू हैं?
                              मित्रों,वैसे सोनिया जी का कथन भी पूर्णतः असत्य नहीं है। सत्य है कि भारत में इस समय सर्वत्र बलात्कार की घटनाएँ घट रही हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर मामलों में बलात्कारी अपने रक्तसंबंधी ही होते हैं या फिर पास-पड़ोस के लोग होते हैं। लेकिन हरियाणा में तो जाति-विशेष की लड़कियों के साथ जाति-विशेष के लोग लक्ष्य करके ऐसी जघन्य घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। साथ ही हरियाणा में ऐसी घटनाओं की बारंबारता भी अन्य प्रदेशों से काफी ज्यादा है। अमूमन हर दो दिन पर एक दलित लड़की जाटों की कामुकता की शिकार हो रही हैं और कई बार तो शादीशुदा दलित महिलाओं को भी हवस का शिकार बनाया जाता है। इसलिए खाप-पंचायतों या चौटाला का फरमान या सुझाव एकदम वाहियात और हास्यास्पद है।
             मित्रों,अब इस बात पर विचार करते हैं कि ऐसी घटनाओं को रोका कैसे जाए? ऐसी घटनाओं को या तो समाज रोक सकता है या फिर सरकार। हम जानते हैं कि भारत में सबसे कम स्त्री-पुरुष अनुपात हरियाणा में ही है और उसमें भी जाटों में है। परिणामस्वरूप बहुत-से जाट लड़कों की शादी नहीं हो पाती और वे यौन-कुंठा के शिकार हो जाते हैं। फिर मौका मिलते ही दलित लड़कियों पर टूट पड़ते हैं। सबसे पहले तो वहाँ की खापों को भ्रूण-हत्या को रोकना होगा। यह काम सिर्फ वे ही कर सकते हैं सरकार से यह नहीं होगा। सरकार इस संबंध में जागरूकता जरूर पैदा कर सकती है। दूसरी बात बलात्कारियों के लिए सीधे मृत्युदंड की व्यवस्था की जाए और यह काम कर सकती है हमारी संसद। तीसरी बात बलात्कार के मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो और पीड़ितों को प्रशासन पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराए। चौथी बात कि केंद्र-सरकार सरकार-विरोधी वेबसाईटों पर रोक लगाने के बदले पौर्न-साईटों को प्रतिबंधित करे। आज भी इंटरनेट पर हजारों पौर्न-साईट मौजूद हैं जिनको देखकर कोई भी बहक सकता है। पाँचवीं बात कि हमें अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालने चाहिए। इसके लिए खुद हमें उदाहरण बनना पड़ेगा। इसके साथ ही विद्यालयी-पाठ्यक्रम में भी नैतिक शिक्षा को पर्याप्त स्थान दिया जाना चाहिए।
                   मित्रों,इस प्रकार अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कम उम्र में दलित या अन्य लड़कियों की शादी कर देने से बलात्कार तो रूकेगा या कम होगा नहीं उल्टे उनकी जान पर बन आएगी और उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा। बलात्कारी उम्र या वैवाहिक-स्थिति देखकर बलात्कार नहीं करते बल्कि कई बार तो वे अपनी हवश अपनी माँ की उम्र की अधेड़ महिलाओं का भी बलात्कार कर पूरी करते हैं। इसलिए खाप-पंचायतों और चौटाला सरीखे नेताओं को बेसिरपैर की बातें नहीं करते हुए इस आलेख में बताए गए उन सुझावों पर विचार और अमल करना चाहिए जो तार्किक तो हैं ही सार्थक और सर्वहितकारी भी हैं।

बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

राजनीतिक पार्टी संबंधी कानूनों में हो सुधार

मित्रों,अभी कुछ दिनों पहले ही भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की आमदनी के बारे में अखबारों में पढ़ने को मिला। देखकर मेरी आँखें फटी-की-फटी रह गईँ। हर्रे लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा होए। तेल भी नहीं लगता और पूड़ी भी पकती जाती है,पकती जाती है। कहना न होगा आज राजनीति भी एक व्यवसाय है जिसमें शुरू में जनता में विश्वास बनाना पड़ता है और कुछ पैसा अपने पास से भी लगाना पड़ता है। एक बार पार्टी जनता के बीच स्थापित हो गई फिर तो बीसों ऊंगलियाँ घी में और सिर चाशनी की कड़ाही में। पारिवारिक वर्चस्व के चलते आज सारे दल चापलूसी के बेहतरीन अड्डे बन गए हैं। कोई भी नेता अपने पार्टी-नेतृत्व के खिलाफ जुबान ही नहीं खोल पाता। विरोध करते ही उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। क्या इस तानाशाही को लोकतंत्र का नाम दिया जा सकता है? जब पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है तो वे क्या खाकर देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक-संस्कृति को मजबूत करेंगी?
मित्रों,बैठे-बिठाये इतनी आमदनी तो शायद भारत के सबसे बड़े धनकुबेरों को भी नहीं होती होगी जितनी आज हमारे राजनीतिक दलों को हो रही है। आमदनी भरपूर और जिम्मेदारी कुछ भी नहीं। यहाँ तक कि 20000 रूपये से कम प्राप्त चंदे का विवरण देना भी आवश्यक नहीं और इस पर भी वे पूरा और सही विवरण नहीं देती हैं। कोई 10 प्रतिशत आमदनी का विवरण दे रहा है तो कोई 40 प्रतिशत का और कानून और न्यायालय फिर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं,क्यों? जब केजरीवाल अपने दल का आय-व्यय बताने को तैयार हैं तो अन्य पार्टियों को क्या परेशानी है और क्यों है? यह 20000 रूपये वाली सीमा भी सिर्फ जनता को धोखा देने के लिए है। अगर कोई 20000 रूपये की 20000 किस्तों में पैसा दे तो या फिर इस तरह ही चंदे की रकम दर्ज की जाए तो? इसलिए इन दलों के लिए एक-एक पैसे का हिसाब देना अनिवार्य किया जाए। पार्टियाँ बातें तो आम आदमी की करती हैं और काम पूंजीपतियों का करती हैं। उनको बताना ही चाहिए उनके खजाने में पैसा कहाँ से आता है। वे कौन-से लोग हैं जो उनकी पार्टी के फंड में करोड़ों-करोड़ रुपए देते हैं और क्यों देते हैं? इसके बदले में धनपतियों को क्या मिला,पार्टी ने क्या दिया तभी तो सामने आ पाएगा? दोनों मुद्दे एक-दूसरे से अंतर्गुंथित हैं। करोड़ों रुपए पार्टी फंड में देनेवाले पूंजीपति ऐसा कोई परोपकार की भावना से नहीं करते हैं बल्कि उनकी कुछ-न-कुछ बदले में पाने की उम्मीद लगी रहती है फिर चाहे लाभार्थी दल सत्ता में हो या विपक्ष में। सत्ता में हुआ तो वह धनपति को सीधे लाभ पहुँचाने की स्थिति में होता है जैसे बाड्रा और हरियाणा सरकार या फिर कोयला आबंटन में टाटा,अंबानी और जिंदल को प्राप्त लाभ का उदाहरण भी हम ले सकते हैं और अगर विपक्ष में हुआ तो फिर मंत्री को सिफारिशी पत्र तो लिख ही सकता है जैसा पिछले दिनों गडकरी ने संचेती के लिए लिखा। इतना ही नहीं कई बार तो धनपति राजनीतिक दलों को पैसा देकर सीधे लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य ही बन जाते हैं जैसे अनिल अंबानी या विजय माल्या। वैसे हमारे कई परंपरागत नेता भी अब उद्योगों और व्यापार में हाथ आजमाने में पीछे नहीं हैं। चाहे वे दिवंगत विलासराव देशमुख हों या शरद पवार हों या फिर कमलनाथ जी हों। जाहिर है ये लोग भी सरकार में रहते हुए सरकार की नीतियों को अपने व्यापार के हितार्थ प्रभावित करते ही होंगे और बदले में पार्टी फंड में अपना अमूल्य योगदान भी करते होंगे।
         मित्रों,राजनीतिक दलों के लिए आय के स्रोत के साथ-साथ उन्होंने चंदे से प्राप्त धन का व्यय कहाँ-कहाँ किया यह बताना भी कानूनन जरूरी बनाया जाए। हवाई-यात्रा पर खर्च कर दिया या 8000 रूपये प्रति प्लेट वाला खाना खाया गया या पार्टियों और चुनावों के समय दारू की नदी बहा दी गई या इनका दुरूपयोग वोट खरीदने में किया गया? 'माल महाराज के मिर्जा खेले होली' बहुत दिन चल गया अब नहीं चलने वाला है,किसी भी कीमत पर नहीं। वोट हमारा काम तु्म्हारा आखिर कहाँ का न्याय है?
          मित्रों,क्या विडंबना है कि लगभग पूरा देश,पूरा शासन-प्रशासन आरटीआई के दायरे में है और शासन-प्रशासन को चलानेवाले दल ही इसके दायरे में नहीं हैँ। जबकि उनके बारे में जानने का जनता का अधिकार तो और भी ज्यादा है? जनता के लिए य़ह जानना तो और भी ज्यादा जरूरी है कि वे जिन राजनीतिक दलों को वोट दे रहे हैं वे कर क्या रहे हैं? कहीं वे लेन-देन की दुकान तो नहीं बन गए हैं?
           मित्रों, जैसा कि हम इस आलेख की शुरुआत में भी अर्ज कर चुके हैं कि आज लोकतंत्र की सबसे महत्त्वपू्र्ण ईकाई राजनीतिक पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है। भाजपा और साम्यवादी दलों को छोड़कर सारे दल पारिवारिक कंपनियों की तरह हैं। पार्टियों का दुकानों में बदल जाना और वो भी खानदानी दुकानों में किसी भी तरह से भारतीय लोकतंत्र की प्रगति की दिशा में स्वस्थ गतिविधि नहीं है। जब जी चाहा पार्टी का संविधान बदल दिया। यह अधिकार उनको दिया ही क्यों गया है और कैसे दिया जा सकता है? इन दलों के हित सिर्फ इनके व्यक्तिगत हित नहीं हैं बल्कि इनसे हमारे देश और प्रदेशों के हित भी प्रभावित होते हैं,जुड़े हुए हैं। हमारे देश में एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जिससे सारे दलों के लिए एक समान नियम हों। जैसे कि पार्टी के पंजीकृत-कार्यकर्ता सीधे पार्टी-पदाधिकारियों का चुनाव करें। जैसे कि कोई व्यक्ति या उसका रक्त-संबंधी लगातार एक या दो बार से ज्यादा एक ही पद को धारण नहीं कर पाए। ऐसी व्यवस्था हमारे यहाँ प्राचीन काल में भी थी। संगम काल में या चोल-शासन में तमिलनाडु में स्थानीय-निकायों में एक ही व्यक्ति या उसका रक्त-संबंधी लगातार दो सालों तक एक ही पद के लिए चुना नहीं जा सकता था। ऐसा नहीं होता था कि खुद पद से हटना पड़े तो भाई,लड़के या पत्नी को बिठा दिया। जब ऐसा प्राचीन काल में हो सकता था तो अब ऐसा क्यों संभव नहीं है?
मित्रों,सिर्फ व्यवस्था बना देने से भी कुछ नहीं होगा यह भी देखना पड़ेगा कि नियमों-उपनियमों का अनुपालन हो भी रहा है कि नहीं। तो इसके लिए या तो चुनाव आयोग को ही अधिकृत कर दिया जाए या ज्यादा अच्छा हो कि किसी पूरी तरह से स्वायत्त-निकाय की स्थापना की जाए जिसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी हो और जिसकी चयन समिति में न तो सरकार का बहुमत हो और न तो अन्य राजनीतिक दलों का ही। इसके साथ ही नियमों-कानूनों का उल्लंघन करने पर पार्टियों के लिए सख्त सजा का भी प्रावधान होना चाहिए। उनकी मान्यता रद्द कर देनी चाहिए और उनके प्रमुख नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।
मित्रों,आर्थिक सुधारों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं ये प्रस्तावित और विलंबित सुधार क्योंकि इन सुधारों पर ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य टिका हुआ है न कि आर्थिक सुधारों पर। दलों के संचालन और नियंत्रण के मामले में पारदर्शिता लाना जरूरी ही नहीं महाजरूरी है क्योंकि ऐसा नहीं होने से ही देश-प्रदेश में भ्रष्टाचार और धनिकतंत्र को बढ़ावा मिलता है। इसके चलते ही राजनीति आज एक गंदी गाली बनकर रह गई है। इस तरह के ऐहतियाती उपायों के बावजूद अगर धनपति चाहें तो पार्टी फंड में पैसा नहीं देकर उसी तरह से पार्टी नेतृत्व को लाभ पहुँचा सकते हैं जैसा कि वाड्रा के मामले में डीएलएफ ने किया फिर भी इससे काफी हद तक राजनीति के क्षेत्र से गंदगी को साफ करने में मदद मिल सकेगी, इसमें सन्देह नहीं। इन उपायों को लागू करने के लिए अगर संविधान में हजारों संशोधन भी करना पड़े,यहाँ तक कि संविधान को ही फिर से लिखना पड़े तो वह भी किया जाए क्योंकि ऐसा किए बिना राह से भटके हुए भारतीय लोकतंत्र को फिर से पटरी पर लाया ही नहीं जा सकता।

सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

गूंगी जनता, बहरे हाकिम और अरविन्द केजरीवाल

मित्रों,ज्यादा दिन नहीं हुए जब अरविंद केजरीवाल ने टीम अन्ना की घोषित नीति के विपरीत एक नए राजनीतिक दल के गठन की घोषणा की थी और मैंने उन्हें बाँकी नेताओं जैसा धोखेबाज और सत्तालोलुप मानकर उनका सख्त विरोध और आलोचना की थी। बाद में जब मैंने खुद को अरविंद के स्थान पर रखकर उनके समक्ष उपस्थित विकल्पों पर विचार किया तो लगा कि अरविंद के सामने और कोई विकल्प था ही नहीं। आखिर वे कब तक यूँ ही अनशन पर अनशन किए जाते जबकि देश का कोई भी राजनीतिक दल उनकी मांगों पर कान तक देने को तैयार नहीं था। वैसे भी अगर किसी गंदे तालाब को साफ करना है तो हमें उसमें उतरना तो पड़ेगा ही। अब जबकि अरविन्द राजनीति के अखाड़े में उतर ही चुके हैं तो क्यों नहीं हमें उनका समर्थन करना चाहिए? हम सिर्फ देश की भलाई चाहते हैं और मुझे नहीं लगता है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में हमारे समक्ष उनसे अच्छा कोई विकल्प है भी। हमें उनका साथ देना चाहिए तो क्यों देना चाहिए? हमें अरविन्द केजरीवाद का साथ इसलिए देना चाहिए क्योंकि सिर्फ कोरे नारे नहीं हैं उसकी झोली में। उसके पास भारत के नवनिर्माण का पूरा खाका है जो अन्य दलों के पास नहीं है.उनके अलावा ऐसा कोई दल या नेता नहीं जो समग्रता में यथास्थिति को बदलने का वादा भी करता हो और माद्दा भी रखता हो। उनके अलावा ऐसा कोई दल या नेता नहीं जो जनता के दुःख को अपना दुःख समझे और उसके लिए आंदोलन करे,लड़े। आज का सत्ता पक्ष तो आर्थिक-सुधारों के नाम पर देश को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथों बेच ही रहा है आज का विपक्ष भी मतिभ्रष्ट और पथभ्रष्ट है। आज का विपक्ष अनशन नहीं करता,धरने पर नहीं बैठता.एसी से बाहर आते ही उसके नेताओं को गर्मी लगती है इसलिए वह सिर्फ पूर्णवातानुकूलित संसद में हंगामा करता है और टीवी पर बयान देता है.भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था पर उसकी नीतियाँ बिल्कुल वही हैं जो सत्ता पक्ष की हैं। आज देश के साम्यवादी चिथड़ा ओढ़कर घी पी रहे हैं। हर कंपनी में यूनियन लीडर प्रबंधन से मिले हुए हैं और इस तरह मजदूरों के हितों का सौदा किया जा रहा है। आम आदमी परेशान है कि वह किसे वोट दे? बाँकी सबके सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। हमें क्यों यकीन करना चाहिए अरविंद केजरीवाल पर क्योंकि हमारे सामने और कोई विकल्प ही नहीं है? क्योंकि अगर हम सचमुच देश का और आम आदमी का भला चाहते हैं तो हमारे सामने विकल्पहीनता की स्थिति है। क्योंकि बाँकी जो भी विकल्प हैं उनको हम पहले भी आजमा चुके हैं। हमें अरविन्द केजरीवाद का साथ क्यों देना चाहिए क्योंकि वह सिर्फ बातें नहीं बनाता उस पर अमल भी करता है,लड़ता भी है,वह जेल जाने से नहीं डरता,वह डॉइंग रूम राजनीति नहीं करता। क्योंकि बाँकी दल भ्रष्टाचार के दलदल हैं और अरविंद की पार्टी नए विचारों,नई सोंच और नई ताज़गी से ओतप्रोत है। अगर उसको उद्देश्य प्राप्ति में आधी सफलता भी मिल जाए तो वह अपने आपमें किसी क्रांति से कम नहीं होगी। हमें अरविन्द केजरीवाद का साथ क्यों देना चाहिए क्योंकि बाँकी दल देश को बेचने में लगे हैं और अरविंद ने अब तक ऐसा नहीं किया है। क्योंकि अरविन्द सिर्फ दिखावे के लिए दलित लीलावती या कलावती की झोपड़ी में नहीं जाते हैं बल्कि वे जाते हैं उसका दुःख बाँटने और उसकी लड़ाई लड़ने,उसके घर की कटी हुई बिजली को जोड़कर जेल जाने। क्योंकि अरविन्द न तो नेता लगते हैं और न ही अभिनेता की तरह व्यवहार करते हैं बल्कि वे हमें अपने बीच के लगते हैं,अपने बीच से लगते हैं।
                             मित्रों,हमें अरविन्द केजरीवाद का साथ क्यों देना चाहिए क्योंकि बाँकी दलों के पास आम आदमी और गरीबों के लिए योजनाएँ तो हैं लेकिन उस भ्रष्टाचाररूपी कालियानाग को नाथने का जज्बा नहीं है जो कि खजाने से निकले 1 रुपये का 90 पैसा गड़प कर जाता है.हमें अरविन्द केजरीवाद का साथ क्यों देना चाहिए क्योंकि जहीं बाँकी सारे दलों और नेताओं की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है और अरविंद का ध्यान आज भी इस देश की व्यवस्था को बदलने पर है.क्योंकि वह जाति-पाति और धर्म-मज़हब की नहीं बल्कि एक आम हिंदुस्तानी की बात कर रहा है.कब तक हम चुके हुए और आजमाए हुए,भ्रष्ट सिद्ध हो चुके प्यादों पर दाँव लगाते रहेंगे और क्यों?क्यों??? हम कब तक यथास्थितिवादी दलों और नेताओं को अपना मत-दान करते रहेंगे और क्यों? हो सकता है कि अरविन्द भी भविष्य में भ्रष्ट निकले लेकिन हो तो इसका उल्टा भी सकता है और तब अपने बिगड़े हुए भविष्य के लिए कौन दोषी होगा?  हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हम जैसा होते हैं हमें सरकार और शासन भी वैसा ही मिलता है-यू गेट द गवर्नमेंट यू डिजर्व। इसलिए आइए और अरविंद का साथ दीजिए,उनका हौसला बढ़ाईए और हर तरह से उनका हाथ मजबूत करिए। जय हिंद।।।

शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

भारतीय लोकतंत्र को गाली जनवितरण प्रणाली

मित्रों,उस समय हम सिर्फ 8-9 साल के थे और अपने ननिहाल जगन्नाथपुर में रहते थे। यहाँ मैं यह भी बता दूँ कि भारत के पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री श्री रघुवंश प्रसाद सिंह का गाँव शाहपुर इस गाँव की चौहद्दी में आता है और दोनों गाँव एक ही पंचायत गोरीगामा के अंतर्गत आते हैं। मैं तब अक्सर जनवितरण प्रणाली की दुकान जाया करता था। दुकानदार थे हरपुर फटिकवारा के अशोक कुमार सिंह। वे सिर्फ होली-दीवाली में ही तेल-चीनी बाँटते थे और कुछेक को छोड़कर किसी भी ग्राहक को पूरा सामान नहीं देते थे। विरोध करने पर कहते कि जहाँ भी आवेदन या शिकायत करनी हो शौक से करिए मैं तो इसी तरह से तेल-चीनी बाटूंगा। इतना ही नहीं वे कभी-कभी वे ग्राहकों के साथ गाली-गलौज भी कर डालते थे। बाद में जब मेरा परिवार महनार बाजार में रहने लगा तब मुझे यह देखकर और जानकर घोर आश्चर्य हुआ कि वहाँ के जनवितरण प्रणाली दुकानदार तो हर महीने किरासन तेल बाँटते हैं। तभी मैंने यह भी जाना कि कोटा का सामान हर महीने आता है न कि सिर्फ पर्व-त्योहारों में। तब तक एपीएल के लिए चीनी का वितरण भारत सरकार ने बंद कर दिया था।
              मित्रों,शहरों में तब की तरह आज भी जनवितरण प्रणाली के दुकानदार प्रत्येक महीने वस्तुओं का वितरण करते हैं और गाँवों में भी आज भी हालत बिल्कुल भी नहीं बदली है। पूरे बिहार में शायद ही किसी गाँव का कोई ऐसा जनवितरण प्रणाली का दुकानदार होगा जो प्रत्येक माह वस्तुओं का वितरण करता होगा। साल में छह महीने भी वितरण हो जाए तो ग्राहक डीलर को सद्बुद्धि देने के लिए भगवान को धन्यवाद कहना नहीं भूलता। क्या विडंबना है कि जहाँ हर माह वितरण की सख्त जरूरत है वहाँ पर वितरण नहीं किया जाता और जहाँ कम आवश्यकता है वहाँ प्रत्येक माह वितरण किया जाता है।
              मित्रों, इसी बीच एक समय वह भी आया जब शहरों के डीलरों की माली हालत काफी बिगड़ गई थी। महीनेभर का काम और कमीशन बहुत कम और वितरण ही प्रत्येक माह करना है। जॉब फुलटाईम का और आमदनी मामूली। उस समय सिवाय किरासन के और कुछ उनको वितरित करने के लिए दिया भी नहीं जाता था। महनार के डीलर जयकिशुन महतो गवाह हैं कि उस समय मैं अक्सर अपना तेल उनको ही दे दिया करता था। वैसे तब असर तो ग्रामीण डीलरों पर भी पड़ा था लेकिन अपेक्षाकृत काफी कम क्योंकि वे तब और भी ज्यादा महीने के किरासन की कालाबाजारी करने लगे थे। फिर आई केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई की सरकार और अन्त्योदय योजना के द्वारा बीपीएल-एपीएल परिवारों तक अनाज पहुँचाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई जनवितरण प्रणाली के दुकानदारों को। फिर तो खासकर ग्रामीण डीलरों की पौ बारह ही हो गई। जब जी चाहा सामान बाँटा और जब जी चाहा बेच दिया। धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की असीम अनुकंपा से बीपीएल परिवारों की संख्या भी बढ़ती गई और अंत में स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि गाँवों में गरीबों से ज्यादा अमीर बीपीएल हो गए यानि गरीब हो गए। कोई-कोई तो सारा गाँव ही बीपीएल हो गया चाहे किसी की आमदनी हर माह लाखों में ही क्यों न हो। परिणाम यह हुआ कि वितरण के लिए आबंटित अनाज और चीनी-किरासन मात्रा में भी विस्फोटक वृद्धि होती गई और वृद्धि होती गई तद् नुसार ग्रामीण डीलरों की आमदनी में भी।
                       मित्रों,इसी बीच वर्ष 2001 ई. में बिहार में पंचायती राज लागू हो गया और इसके चलते इस भ्रष्टाचार से प्राप्त मुनाफे के कई नए हिस्सेदार ही पैदा हो गए। पहले जहाँ सिर्फ आपूर्ति निरीक्षक या बीडीओ को ही चढ़ावा चढ़ाना पड़ता था अब मुखिया,पंचायत-सचिव, पंचायत समिति सदस्य भी हिस्सेदार बनने लगे। लेकिन तेल पिलावन,गेहूँ-चावल-चीनी बेचावन का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। हमारे पैतृक गाँव जुड़ावनपुर बरारी की वयोवृद्धा डीलर और मेरी पड़ोसन रामसखी कुँवर के पुत्र सुरेश मिश्र आज भी साल में बमुश्किल 4 महीने ही वस्तुओं का वितरण करते हैं जबकि पूरे बिहार में कोटा के सामान की कालाबाजारी रोकने के लिए कूपन प्रणाली लागू कर दी गई है। प्रावधान यह है कि ग्राहक जितने महीने की सामग्री प्राप्त करेगा उतने ही कूपन डीलर को देगा लेकिन होता यह है कि डीलर एक महीने का सामान देकर ग्राहक से कई महीने का कूपन ले लेता है। शिकायत भी की जाती है,जाँच भी होती है,कभी-कभी डीलर निलंबित भी किए जाते हैं। परन्तु ऐसा बहुत-ही कम मामलों में होता है। अधिकतर मामलों में तो आपूर्ति-निरीक्षक पैसे लेकर तत्काल डीलर के पक्ष में रिपोर्ट दे देता है। जहाँ तक मुझे पता है खुद मेरे पड़ोसी डीलर रामसखी कुँवर (सुरेश मिश्र) के खिलाफ भी पिछले दिनों 2 बार जाँच हो चुकी है और ग्रामीणों के मौके पर मुखर आरोप लगाने के बावजूद उसे निलंबित तक नहीं किया गया। निलंबित डीलरों से भी कुछ रिश्वत प्राप्त करने के बाद उनकी अनुज्ञप्ति पुनः बहाल कर दी जाती है और एक बार फिर से कालाबाजारी का खुल्लमखुल्ला खेल शु्रू हो जाता है। किरासन तेल या तो सीधे पेट्रोल पंप वाले मिलावट के लिए खरीद लेते हैं या फिर किसी बिचौलिये के हाथों बेच दिया जाता है। गेहूँ पहुँच जाता है आटा-कंपनियों या स्थानीय आटा-मिल मालिकों के पास और चावल अगर घटिया हुआ तो बाँट दिया जाता है और अगर उत्तम श्रेणी का हुआ तो डीलर खुद ही अपने खाने के लिए रख लेता है या फिर किराना दुकानदार के हाथों या आटा मिल-मालिकों के हाथों (वे इसे गेहूँ के साथ पीस डालते हैं और ग्राहक परेशान रहता है कि रोटी अच्छी बन क्यों नहीं रही) बाजार-मूल्य से काफी कम कीमत पर बेच देता है और फिर भी दोनों ही पक्ष सरकारी सब्सिडी की कृपा से भारी मुनाफे में रहते हैं।
                        मित्रों,इन दिनों बिहार के गाँवों में कूपन को लेकर भी काफी दाँव-पेंच लगाए जा रहे हैं। कूपन-वितरण के समय कई बार मुखिया-समर्थक गुंडा-तत्त्व दूसरे ग्राहकों के कूपन लूट लेते हैं या येन केन प्रकारेण प्राप्त कर लेते हैं और फिर सालभर उसके बल पर दारू-मछली उड़ाते हैं। वास्तविक उपभोक्ता अपना कूपन वापस पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाता है और अंततः मन मारकर बैठ जाता है। ऐसा खुद मेरे परिवार के साथ भी जुड़ावनपुर बरारी में पिछले सालों में कई बार हो चुका है। इस साल भी कूपन तो मिल गया है लेकिन यह पता नहीं चल पा रहा है कि वर्तमान में हमारा कोटा किस डीलर के पास है। हमारी जानकारी के बिना और बिना हमारी सम्मति के मेरा कोटा बदल कैसे गया और कैसे बदल दिया गया आश्चर्य का विषय है।
                             मित्रों,पिछले कई वर्षों से मैं सुन रहा हूँ और सिर्फ सुन रहा हूँ कि अब जनवितरण प्रणाली के माध्यम से दी जानेवाली सब्सिडी की राशि सीधे उपभोक्ताओं के खाते में जमा कर दी जाएगी। इस बीच मैंने कई डीलरों को करोड़पति बनते और कई गरीबों को भूख से तड़पते भी देखा है। बिहार और केंद्र की सरकार को चाहिए कि या तो वह जनवितरण प्रणाली की सब्सिडी की राशि को सीधे नागरिकों के खाते में जमा करने की योजना को युद्धस्तर पर अभियान चलाकर शीघ्रातिशीघ्र लागू करे या फिर गरीबों का सच्चा हमदर्द और भ्रष्टाचार का वास्तविक शत्रु बनने या दिखने का झूठा नाटक करना बंद कर दे। ऐसी भ्रष्ट वितरण प्रणाली को बनाकर-बचाकर रखने या इस तरह की दिखाऊ सब्सिडी देते रहने का कोई मतलब नहीं है जिसके लाभ का 12 आना प्रत्येक माह सीधे डीलरों और अन्य भ्रष्टाचारियों की जेब में पहुँच जाए। सरकार चाहे राशन-कार्ड पर सब्सिडी वाले सामानों का वितरण कराए या कूपन के माध्यम से उसके सामने हर बार एक ही चिर अनुत्तरित प्रश्न खड़ा होनेवाला है-हू विल गार्ड द गार्ड?

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

सुप्रीम कोर्ट के मत की गलत व्याख्या

मित्रों,जबसे सुप्रीम कोर्ट ने भारत के प्राकृतिक संसाधनों के आर्थिक उपयोग के संबंध में अपना मत दिया है भारत की केंद्र सरकार के मंत्रियों के कदम जमीन पर पड़ ही नहीं रहे हैं और वे लगातार इसकी गलत और दुर्भावनापूर्ण व्याख्या कर रहे हैं। कदाचित् कहीं-न-कहीं उनके मन में यह गलतफहमी घर कर गई है कि अब वे प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना और ईच्छित आबंटन करके जितनी चाहे उतनी रिश्वत खा सकते हैं और फिर उस रकम को ठिकाने लगाने के लिए विदेशी बैंकों में थोक के भाव में खाते खोल सकते हैं।
               मित्रों,सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में केंद्र सरकार को कतई घोटाले करने की छूट नहीं दी है। उसने तो राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत मांगे गए परामर्श के उत्तर में बस इतना कहा है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के कई संभावित तरीके हो सकते हैं जिसमें से नीलामी भी एक है। सरकार चाहे तो जनहित में इनमें से कोई भी तरीका अपना सकती है। सरकार चाहे तो पहले आओ पहले पाओ की नीति (2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला) भी अपना सकती है और चाहे तो चयन समिति बनाकर (कोयला-खान आबंटन घोटाला) भी अपना सकती है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहा है कि पहले आओ पहले पाओ की नीति के तहत अपने मित्रों और सगे-संबंधियों को पहले से ही अधिसूचना की सूचना दे दो और 10-15 मिनट में ही उनके बीच संसाधन आबंटित भी कर दो जैसा कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं कहा है कि कोल-गेट की तरह एक ऐसी चयन समिति का गठन कर दो जो सिर्फ दिखावे के लिए हो और फिर अपनों और अपने लोगों के नाम पर जितना चाहे आबंटन करवा लो।
                  मित्रों,अगर सुप्रीम कोर्ट को ऐसा मानना होता तो वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले की सुनवाई को अपने इस मत से अलग नहीं कर देता और वह यह नहीं कहता कि उसके इस मत का इस महाघोटाले की सुनवाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा। मैं नहीं समझता कि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कहना कहीं से भी गलत है कि आबंटन के कई तरीके हो सकते हैं। निश्चित रूप से हो सकते हैं। तरीका चाहे नीलामी का हो या कोई और असल चीज है पारदर्शिता और निष्पक्षता। माना कि नीलामी ही की जाती है और बोली के मामले में गोपनीयता और निष्पक्षता नहीं बरती जाती है तो फिर ऐसी नीलामी का क्या मतलब रह जाएगा?
                    मित्रों,नीतियाँ बनाना और लागू करना निश्चित रूप से कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार या एकाधिकार में आता है और आना चाहिए। नीतियाँ चाहे जो भी हों उनका प्रभाव तभी देशहितकारी होगा जब उनको बनाने और लागू करनेवाले लोगों की नीयत साफ हो,उसमें कोई खोट नहीं हो। अपेक्षित सफलता के लिए हमेशा नीतियों के साथ-साथ नीयत का भी स्वच्छ होना आवश्यक होता है। हमारी केंद्र सरकार के मंत्रियों को हमेशा यह बात जेहन में ताजा करके रखनी चाहिए कि जब-जब वे नीतियों के क्रियान्वयन में चूक करेंगे और उन्हें टकसाल या पैसों का पेड़ समझेंगे तब-तब सीएजी उनको टोकेगा क्योंकि उसका काम ही क्रियान्वयन अर्थात् नीयत को देखना है। वे जब-जब धनार्जन के अनुचित तरीके अपनाएंगे और देश के खजाने को भारी नुकसान पहुँचाकर अपनी और अपनों की जेबें भरने का प्रयास करेंगे तब-तब उनको जनता और अदालत के सामने जवाब देना पड़ेगा और तफरी के लिए ही सही जेलयात्रा भी करनी पड़ेगी। इसलिए केंद्र सरकार के महान कुतर्कशास्त्री मंत्रियों को चाहिए कि वे शीघ्रातिशीघ्र अपनी नीयत को ठिकाने पर लाएँ और सुप्रीम कोर्ट के मत को देश के विकास की दिशा में एक अवसर के रूप में लें न कि इसे पैसे का पेड़ या कल्पवृक्ष समझ लें। अब वह समय नहीं रहा कि जब गदहा जलेबी खाता था और मालिक को पता भी नहीं चलता था। अगर नेता लोग 21वीं सदी के धूर्त और चालाक नेता हैं तो आज की जनता भी 21वीं सदी की होशियार जनता है जो न केवल सबकुछ जानती है बल्कि समझती भी है।