मित्रों,अभी कुछ दिनों पहले ही भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की आमदनी के बारे में अखबारों में पढ़ने को मिला। देखकर मेरी आँखें फटी-की-फटी रह गईँ। हर्रे लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा होए। तेल भी नहीं लगता और पूड़ी भी पकती जाती है,पकती जाती है। कहना न होगा आज राजनीति भी एक व्यवसाय है जिसमें शुरू में जनता में विश्वास बनाना पड़ता है और कुछ पैसा अपने पास से भी लगाना पड़ता है। एक बार पार्टी जनता के बीच स्थापित हो गई फिर तो बीसों ऊंगलियाँ घी में और सिर चाशनी की कड़ाही में। पारिवारिक वर्चस्व के चलते आज सारे दल चापलूसी के बेहतरीन अड्डे बन गए हैं। कोई भी नेता अपने पार्टी-नेतृत्व के खिलाफ जुबान ही नहीं खोल पाता। विरोध करते ही उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। क्या इस तानाशाही को लोकतंत्र का नाम दिया जा सकता है? जब पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है तो वे क्या खाकर देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक-संस्कृति को मजबूत करेंगी?
मित्रों,बैठे-बिठाये इतनी आमदनी तो शायद भारत के सबसे बड़े धनकुबेरों को भी नहीं होती होगी जितनी आज हमारे राजनीतिक दलों को हो रही है। आमदनी भरपूर और जिम्मेदारी कुछ भी नहीं। यहाँ तक कि 20000 रूपये से कम प्राप्त चंदे का विवरण देना भी आवश्यक नहीं और इस पर भी वे पूरा और सही विवरण नहीं देती हैं। कोई 10 प्रतिशत आमदनी का विवरण दे रहा है तो कोई 40 प्रतिशत का और कानून और न्यायालय फिर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं,क्यों? जब केजरीवाल अपने दल का आय-व्यय बताने को तैयार हैं तो अन्य पार्टियों को क्या परेशानी है और क्यों है? यह 20000 रूपये वाली सीमा भी सिर्फ जनता को धोखा देने के लिए है। अगर कोई 20000 रूपये की 20000 किस्तों में पैसा दे तो या फिर इस तरह ही चंदे की रकम दर्ज की जाए तो? इसलिए इन दलों के लिए एक-एक पैसे का हिसाब देना अनिवार्य किया जाए। पार्टियाँ बातें तो आम आदमी की करती हैं और काम पूंजीपतियों का करती हैं। उनको बताना ही चाहिए उनके खजाने में पैसा कहाँ से आता है। वे कौन-से लोग हैं जो उनकी पार्टी के फंड में करोड़ों-करोड़ रुपए देते हैं और क्यों देते हैं? इसके बदले में धनपतियों को क्या मिला,पार्टी ने क्या दिया तभी तो सामने आ पाएगा? दोनों मुद्दे एक-दूसरे से अंतर्गुंथित हैं। करोड़ों रुपए पार्टी फंड में देनेवाले पूंजीपति ऐसा कोई परोपकार की भावना से नहीं करते हैं बल्कि उनकी कुछ-न-कुछ बदले में पाने की उम्मीद लगी रहती है फिर चाहे लाभार्थी दल सत्ता में हो या विपक्ष में। सत्ता में हुआ तो वह धनपति को सीधे लाभ पहुँचाने की स्थिति में होता है जैसे बाड्रा और हरियाणा सरकार या फिर कोयला आबंटन में टाटा,अंबानी और जिंदल को प्राप्त लाभ का उदाहरण भी हम ले सकते हैं और अगर विपक्ष में हुआ तो फिर मंत्री को सिफारिशी पत्र तो लिख ही सकता है जैसा पिछले दिनों गडकरी ने संचेती के लिए लिखा। इतना ही नहीं कई बार तो धनपति राजनीतिक दलों को पैसा देकर सीधे लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य ही बन जाते हैं जैसे अनिल अंबानी या विजय माल्या। वैसे हमारे कई परंपरागत नेता भी अब उद्योगों और व्यापार में हाथ आजमाने में पीछे नहीं हैं। चाहे वे दिवंगत विलासराव देशमुख हों या शरद पवार हों या फिर कमलनाथ जी हों। जाहिर है ये लोग भी सरकार में रहते हुए सरकार की नीतियों को अपने व्यापार के हितार्थ प्रभावित करते ही होंगे और बदले में पार्टी फंड में अपना अमूल्य योगदान भी करते होंगे।
मित्रों,राजनीतिक दलों के लिए आय के स्रोत के साथ-साथ उन्होंने चंदे से प्राप्त धन का व्यय कहाँ-कहाँ किया यह बताना भी कानूनन जरूरी बनाया जाए। हवाई-यात्रा पर खर्च कर दिया या 8000 रूपये प्रति प्लेट वाला खाना खाया गया या पार्टियों और चुनावों के समय दारू की नदी बहा दी गई या इनका दुरूपयोग वोट खरीदने में किया गया? 'माल महाराज के मिर्जा खेले होली' बहुत दिन चल गया अब नहीं चलने वाला है,किसी भी कीमत पर नहीं। वोट हमारा काम तु्म्हारा आखिर कहाँ का न्याय है?
मित्रों,क्या विडंबना है कि लगभग पूरा देश,पूरा शासन-प्रशासन आरटीआई के दायरे में है और शासन-प्रशासन को चलानेवाले दल ही इसके दायरे में नहीं हैँ। जबकि उनके बारे में जानने का जनता का अधिकार तो और भी ज्यादा है? जनता के लिए य़ह जानना तो और भी ज्यादा जरूरी है कि वे जिन राजनीतिक दलों को वोट दे रहे हैं वे कर क्या रहे हैं? कहीं वे लेन-देन की दुकान तो नहीं बन गए हैं?
मित्रों, जैसा कि हम इस आलेख की शुरुआत में भी अर्ज कर चुके हैं कि आज लोकतंत्र की सबसे महत्त्वपू्र्ण ईकाई राजनीतिक पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है। भाजपा और साम्यवादी दलों को छोड़कर सारे दल पारिवारिक कंपनियों की तरह हैं। पार्टियों का दुकानों में बदल जाना और वो भी खानदानी दुकानों में किसी भी तरह से भारतीय लोकतंत्र की प्रगति की दिशा में स्वस्थ गतिविधि नहीं है। जब जी चाहा पार्टी का संविधान बदल दिया। यह अधिकार उनको दिया ही क्यों गया है और कैसे दिया जा सकता है? इन दलों के हित सिर्फ इनके व्यक्तिगत हित नहीं हैं बल्कि इनसे हमारे देश और प्रदेशों के हित भी प्रभावित होते हैं,जुड़े हुए हैं। हमारे देश में एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जिससे सारे दलों के लिए एक समान नियम हों। जैसे कि पार्टी के पंजीकृत-कार्यकर्ता सीधे पार्टी-पदाधिकारियों का चुनाव करें। जैसे कि कोई व्यक्ति या उसका रक्त-संबंधी लगातार एक या दो बार से ज्यादा एक ही पद को धारण नहीं कर पाए। ऐसी व्यवस्था हमारे यहाँ प्राचीन काल में भी थी। संगम काल में या चोल-शासन में तमिलनाडु में स्थानीय-निकायों में एक ही व्यक्ति या उसका रक्त-संबंधी लगातार दो सालों तक एक ही पद के लिए चुना नहीं जा सकता था। ऐसा नहीं होता था कि खुद पद से हटना पड़े तो भाई,लड़के या पत्नी को बिठा दिया। जब ऐसा प्राचीन काल में हो सकता था तो अब ऐसा क्यों संभव नहीं है?
मित्रों,सिर्फ व्यवस्था बना देने से भी कुछ नहीं होगा यह भी देखना पड़ेगा कि नियमों-उपनियमों का अनुपालन हो भी रहा है कि नहीं। तो इसके लिए या तो चुनाव आयोग को ही अधिकृत कर दिया जाए या ज्यादा अच्छा हो कि किसी पूरी तरह से स्वायत्त-निकाय की स्थापना की जाए जिसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी हो और जिसकी चयन समिति में न तो सरकार का बहुमत हो और न तो अन्य राजनीतिक दलों का ही। इसके साथ ही नियमों-कानूनों का उल्लंघन करने पर पार्टियों के लिए सख्त सजा का भी प्रावधान होना चाहिए। उनकी मान्यता रद्द कर देनी चाहिए और उनके प्रमुख नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।
मित्रों,आर्थिक सुधारों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं ये प्रस्तावित और विलंबित सुधार क्योंकि इन सुधारों पर ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य टिका हुआ है न कि आर्थिक सुधारों पर। दलों के संचालन और नियंत्रण के मामले में पारदर्शिता लाना जरूरी ही नहीं महाजरूरी है क्योंकि ऐसा नहीं होने से ही देश-प्रदेश में भ्रष्टाचार और धनिकतंत्र को बढ़ावा मिलता है। इसके चलते ही राजनीति आज एक गंदी गाली बनकर रह गई है। इस तरह के ऐहतियाती उपायों के बावजूद अगर धनपति चाहें तो पार्टी फंड में पैसा नहीं देकर उसी तरह से पार्टी नेतृत्व को लाभ पहुँचा सकते हैं जैसा कि वाड्रा के मामले में डीएलएफ ने किया फिर भी इससे काफी हद तक राजनीति के क्षेत्र से गंदगी को साफ करने में मदद मिल सकेगी, इसमें सन्देह नहीं। इन उपायों को लागू करने के लिए अगर संविधान में हजारों संशोधन भी करना पड़े,यहाँ तक कि संविधान को ही फिर से लिखना पड़े तो वह भी किया जाए क्योंकि ऐसा किए बिना राह से भटके हुए भारतीय लोकतंत्र को फिर से पटरी पर लाया ही नहीं जा सकता।
मित्रों,बैठे-बिठाये इतनी आमदनी तो शायद भारत के सबसे बड़े धनकुबेरों को भी नहीं होती होगी जितनी आज हमारे राजनीतिक दलों को हो रही है। आमदनी भरपूर और जिम्मेदारी कुछ भी नहीं। यहाँ तक कि 20000 रूपये से कम प्राप्त चंदे का विवरण देना भी आवश्यक नहीं और इस पर भी वे पूरा और सही विवरण नहीं देती हैं। कोई 10 प्रतिशत आमदनी का विवरण दे रहा है तो कोई 40 प्रतिशत का और कानून और न्यायालय फिर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं,क्यों? जब केजरीवाल अपने दल का आय-व्यय बताने को तैयार हैं तो अन्य पार्टियों को क्या परेशानी है और क्यों है? यह 20000 रूपये वाली सीमा भी सिर्फ जनता को धोखा देने के लिए है। अगर कोई 20000 रूपये की 20000 किस्तों में पैसा दे तो या फिर इस तरह ही चंदे की रकम दर्ज की जाए तो? इसलिए इन दलों के लिए एक-एक पैसे का हिसाब देना अनिवार्य किया जाए। पार्टियाँ बातें तो आम आदमी की करती हैं और काम पूंजीपतियों का करती हैं। उनको बताना ही चाहिए उनके खजाने में पैसा कहाँ से आता है। वे कौन-से लोग हैं जो उनकी पार्टी के फंड में करोड़ों-करोड़ रुपए देते हैं और क्यों देते हैं? इसके बदले में धनपतियों को क्या मिला,पार्टी ने क्या दिया तभी तो सामने आ पाएगा? दोनों मुद्दे एक-दूसरे से अंतर्गुंथित हैं। करोड़ों रुपए पार्टी फंड में देनेवाले पूंजीपति ऐसा कोई परोपकार की भावना से नहीं करते हैं बल्कि उनकी कुछ-न-कुछ बदले में पाने की उम्मीद लगी रहती है फिर चाहे लाभार्थी दल सत्ता में हो या विपक्ष में। सत्ता में हुआ तो वह धनपति को सीधे लाभ पहुँचाने की स्थिति में होता है जैसे बाड्रा और हरियाणा सरकार या फिर कोयला आबंटन में टाटा,अंबानी और जिंदल को प्राप्त लाभ का उदाहरण भी हम ले सकते हैं और अगर विपक्ष में हुआ तो फिर मंत्री को सिफारिशी पत्र तो लिख ही सकता है जैसा पिछले दिनों गडकरी ने संचेती के लिए लिखा। इतना ही नहीं कई बार तो धनपति राजनीतिक दलों को पैसा देकर सीधे लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य ही बन जाते हैं जैसे अनिल अंबानी या विजय माल्या। वैसे हमारे कई परंपरागत नेता भी अब उद्योगों और व्यापार में हाथ आजमाने में पीछे नहीं हैं। चाहे वे दिवंगत विलासराव देशमुख हों या शरद पवार हों या फिर कमलनाथ जी हों। जाहिर है ये लोग भी सरकार में रहते हुए सरकार की नीतियों को अपने व्यापार के हितार्थ प्रभावित करते ही होंगे और बदले में पार्टी फंड में अपना अमूल्य योगदान भी करते होंगे।
मित्रों,राजनीतिक दलों के लिए आय के स्रोत के साथ-साथ उन्होंने चंदे से प्राप्त धन का व्यय कहाँ-कहाँ किया यह बताना भी कानूनन जरूरी बनाया जाए। हवाई-यात्रा पर खर्च कर दिया या 8000 रूपये प्रति प्लेट वाला खाना खाया गया या पार्टियों और चुनावों के समय दारू की नदी बहा दी गई या इनका दुरूपयोग वोट खरीदने में किया गया? 'माल महाराज के मिर्जा खेले होली' बहुत दिन चल गया अब नहीं चलने वाला है,किसी भी कीमत पर नहीं। वोट हमारा काम तु्म्हारा आखिर कहाँ का न्याय है?
मित्रों,क्या विडंबना है कि लगभग पूरा देश,पूरा शासन-प्रशासन आरटीआई के दायरे में है और शासन-प्रशासन को चलानेवाले दल ही इसके दायरे में नहीं हैँ। जबकि उनके बारे में जानने का जनता का अधिकार तो और भी ज्यादा है? जनता के लिए य़ह जानना तो और भी ज्यादा जरूरी है कि वे जिन राजनीतिक दलों को वोट दे रहे हैं वे कर क्या रहे हैं? कहीं वे लेन-देन की दुकान तो नहीं बन गए हैं?
मित्रों, जैसा कि हम इस आलेख की शुरुआत में भी अर्ज कर चुके हैं कि आज लोकतंत्र की सबसे महत्त्वपू्र्ण ईकाई राजनीतिक पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है। भाजपा और साम्यवादी दलों को छोड़कर सारे दल पारिवारिक कंपनियों की तरह हैं। पार्टियों का दुकानों में बदल जाना और वो भी खानदानी दुकानों में किसी भी तरह से भारतीय लोकतंत्र की प्रगति की दिशा में स्वस्थ गतिविधि नहीं है। जब जी चाहा पार्टी का संविधान बदल दिया। यह अधिकार उनको दिया ही क्यों गया है और कैसे दिया जा सकता है? इन दलों के हित सिर्फ इनके व्यक्तिगत हित नहीं हैं बल्कि इनसे हमारे देश और प्रदेशों के हित भी प्रभावित होते हैं,जुड़े हुए हैं। हमारे देश में एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जिससे सारे दलों के लिए एक समान नियम हों। जैसे कि पार्टी के पंजीकृत-कार्यकर्ता सीधे पार्टी-पदाधिकारियों का चुनाव करें। जैसे कि कोई व्यक्ति या उसका रक्त-संबंधी लगातार एक या दो बार से ज्यादा एक ही पद को धारण नहीं कर पाए। ऐसी व्यवस्था हमारे यहाँ प्राचीन काल में भी थी। संगम काल में या चोल-शासन में तमिलनाडु में स्थानीय-निकायों में एक ही व्यक्ति या उसका रक्त-संबंधी लगातार दो सालों तक एक ही पद के लिए चुना नहीं जा सकता था। ऐसा नहीं होता था कि खुद पद से हटना पड़े तो भाई,लड़के या पत्नी को बिठा दिया। जब ऐसा प्राचीन काल में हो सकता था तो अब ऐसा क्यों संभव नहीं है?
मित्रों,सिर्फ व्यवस्था बना देने से भी कुछ नहीं होगा यह भी देखना पड़ेगा कि नियमों-उपनियमों का अनुपालन हो भी रहा है कि नहीं। तो इसके लिए या तो चुनाव आयोग को ही अधिकृत कर दिया जाए या ज्यादा अच्छा हो कि किसी पूरी तरह से स्वायत्त-निकाय की स्थापना की जाए जिसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी हो और जिसकी चयन समिति में न तो सरकार का बहुमत हो और न तो अन्य राजनीतिक दलों का ही। इसके साथ ही नियमों-कानूनों का उल्लंघन करने पर पार्टियों के लिए सख्त सजा का भी प्रावधान होना चाहिए। उनकी मान्यता रद्द कर देनी चाहिए और उनके प्रमुख नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।
मित्रों,आर्थिक सुधारों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं ये प्रस्तावित और विलंबित सुधार क्योंकि इन सुधारों पर ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य टिका हुआ है न कि आर्थिक सुधारों पर। दलों के संचालन और नियंत्रण के मामले में पारदर्शिता लाना जरूरी ही नहीं महाजरूरी है क्योंकि ऐसा नहीं होने से ही देश-प्रदेश में भ्रष्टाचार और धनिकतंत्र को बढ़ावा मिलता है। इसके चलते ही राजनीति आज एक गंदी गाली बनकर रह गई है। इस तरह के ऐहतियाती उपायों के बावजूद अगर धनपति चाहें तो पार्टी फंड में पैसा नहीं देकर उसी तरह से पार्टी नेतृत्व को लाभ पहुँचा सकते हैं जैसा कि वाड्रा के मामले में डीएलएफ ने किया फिर भी इससे काफी हद तक राजनीति के क्षेत्र से गंदगी को साफ करने में मदद मिल सकेगी, इसमें सन्देह नहीं। इन उपायों को लागू करने के लिए अगर संविधान में हजारों संशोधन भी करना पड़े,यहाँ तक कि संविधान को ही फिर से लिखना पड़े तो वह भी किया जाए क्योंकि ऐसा किए बिना राह से भटके हुए भारतीय लोकतंत्र को फिर से पटरी पर लाया ही नहीं जा सकता।
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