मित्रों, एक जमाना था कि प्रधानमंत्री भी सीबीआई के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करते थे. याद आता है मुझे वो जमाना जब लालूजी जनता दल के अध्यक्ष हुआ करते थे. उन दिनों देश के प्रधानमंत्री थे देवगौड़ा. लालू जी चारा घोटाले में फंस गए. उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात के समय माँगा. जब वे मिले तो देवगौड़ा ने स्पष्ट रूप से कह दिया आई कैन नॉट डू अनिथिंग. बाद में गुजराल ने भी अपने प्रधानमंत्रित्व काल में यह कहकर कुछ भी करने से मना कर दिया कि यह प्रधानमंत्री की गरिमा के खिलाफ होगा. और इस प्रकार किंग मेकर लालूजी को दिल्ली में अपनी सरकार होने के बावजूद जेल जाना पड़ा।
मित्रों, बाद में जब मनमोहन की सरकार आई तो उसने भी ब्याज दर कम करने के मामले में आरबीआई से कुछ भी कहने से मना कर दिया. लेकिन न जाने क्यों मोदी सरकार को किसी भी संस्था की स्वायत्तता मंजूर ही नहीं है. पहले नोटबंदी के समय भाईयों एवं बहनों करके आरबीआई की स्वायत्तता को खतरे में डाला और अब सीबीआई में हस्तक्षेप करके उसकी स्वायत्तता को भी समाप्त कर रहे हैं. वैसे मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि पहले भी सीबीआई का दुरुपयोग हुआ है अन्यथा माया, मुलायम, टाइटलर, साधू यादव, पप्पू यादव आदि आज आजादी के साथ राज भोग नहीं रहे होते.
मित्रों, मैं कहता हूँ कि इन दिनों भी सीबीआई में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा. वो तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी नहीं चल रहा लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से रात के पौने दो बजे सीबीआई के निदेशक को हटाया गया उसे किसी भी तरह से यथोचित नहीं ठहराया जा सकता. कदाचित यही काम दिन के उजाले में भी किया जा सकता था. अब बात निकली है तो स्वाभाविक तौर पर दूर तलक जाएगी और जा भी रही है. जितने मुंह उतनी बातें.
मित्रों, मैं अपने पिछले कई आलेखों में इस बात का जिक्र कर चुका हूँ कि मेरी नजरों में सीबीआई जो मनमोहन के समय पिंजरे का तोता थी इस सरकार के समय वो मरा हुआ तोता हो गई है. हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि लोग मानने लगे हैं कि किसी मामले को दबाना है तो सीबीआई को दे दो. स्वाभाविक है कि ऐसे में रिश्वतखोरी भी हो रही होगी और पैसों का लेन-देन भी. मुझे नहीं लगता कि इन रिश्वतखोरी में सिर्फ खाकी ही अपनी मुट्ठी गरम कर रही होगी और खादी के हाथ कुछ नहीं आता होगा. मतलब कि कुछ-न-कुछ तो ऐसा गड़बड़झाला जरूर हो रहा है जिसके कारण बाज से तोता बना यह पक्षी बिलकुल ही मरे के समान व्यवहार कर रहा है. सवाल उठता है कि किसकी शह पर नंबर दो अस्थाना नंबर एक अलोक वर्मा के आदेशों की लगातार अवहेलना कर रहे थे? क्या उनको ऐसा करने का अधिकार भी था? किसके कहने पर सीवीसी ने वर्मा के खिलाफ पक्षपात किया? आखिर अस्थाना इतना शक्तिशाली क्यों है? क्योंकि वो गुजरात कैडर का है और प्रधान सेवक जी की सेवा में रह चुका है?
मित्रों, सवाल उठता है कि जिस तरह रात के पौने दो बजे सीबीआई पर सर्जिकल स्ट्राइक किया गया क्या वो शुद्ध मन से किया गया है या फिर उसकी आवश्यकता थी और क्या आगे सीबीआई फिर से अपने वही रुतबा प्राप्त कर पाएगी जो एक समय उसकी थी. मुझे नहीं लगता कि ऐसा होनेवाला है क्योंकि सीबीआई सहित पूरी नौकरशाही की लगाम इन दिनों जिन लोगों के हाथों में है उनका मन साफ़ नहीं है. वे भी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह सिर्फ इसका इस्तेमाल करना चाहते है अपने निजी स्वार्थों के लिए. देशहित, देशहित को तो उन्होंने कब का कचरे के डिब्बे में फेंक दिया है. वैसे जो विकल्प हैं उनसे तो देशहित की उम्मीद करना ही बेवकूफी होगी क्योंकि उनके शब्दकोश में यह शब्द कभी था ही नहीं. निश्चित रूप से मोदी देश की जनता की आखिरी उम्मीद थे लेकिन उन्होंने भी निराश किया है. कम-से-कम सीबीआई के मामले में तो जरूर. हमें तो लगा था कि जब मोदी सत्ता में आएंगे तो सीबीआई को उतना ही शक्तिशाली बनाएँगे जितनी अमेरिका में एफबीआई है परन्तु हुआ इसका उल्टा.
मित्रों, मैं कहता हूँ कि इन दिनों भी सीबीआई में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा. वो तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी नहीं चल रहा लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से रात के पौने दो बजे सीबीआई के निदेशक को हटाया गया उसे किसी भी तरह से यथोचित नहीं ठहराया जा सकता. कदाचित यही काम दिन के उजाले में भी किया जा सकता था. अब बात निकली है तो स्वाभाविक तौर पर दूर तलक जाएगी और जा भी रही है. जितने मुंह उतनी बातें.
मित्रों, मैं अपने पिछले कई आलेखों में इस बात का जिक्र कर चुका हूँ कि मेरी नजरों में सीबीआई जो मनमोहन के समय पिंजरे का तोता थी इस सरकार के समय वो मरा हुआ तोता हो गई है. हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि लोग मानने लगे हैं कि किसी मामले को दबाना है तो सीबीआई को दे दो. स्वाभाविक है कि ऐसे में रिश्वतखोरी भी हो रही होगी और पैसों का लेन-देन भी. मुझे नहीं लगता कि इन रिश्वतखोरी में सिर्फ खाकी ही अपनी मुट्ठी गरम कर रही होगी और खादी के हाथ कुछ नहीं आता होगा. मतलब कि कुछ-न-कुछ तो ऐसा गड़बड़झाला जरूर हो रहा है जिसके कारण बाज से तोता बना यह पक्षी बिलकुल ही मरे के समान व्यवहार कर रहा है. सवाल उठता है कि किसकी शह पर नंबर दो अस्थाना नंबर एक अलोक वर्मा के आदेशों की लगातार अवहेलना कर रहे थे? क्या उनको ऐसा करने का अधिकार भी था? किसके कहने पर सीवीसी ने वर्मा के खिलाफ पक्षपात किया? आखिर अस्थाना इतना शक्तिशाली क्यों है? क्योंकि वो गुजरात कैडर का है और प्रधान सेवक जी की सेवा में रह चुका है?
मित्रों, सवाल उठता है कि जिस तरह रात के पौने दो बजे सीबीआई पर सर्जिकल स्ट्राइक किया गया क्या वो शुद्ध मन से किया गया है या फिर उसकी आवश्यकता थी और क्या आगे सीबीआई फिर से अपने वही रुतबा प्राप्त कर पाएगी जो एक समय उसकी थी. मुझे नहीं लगता कि ऐसा होनेवाला है क्योंकि सीबीआई सहित पूरी नौकरशाही की लगाम इन दिनों जिन लोगों के हाथों में है उनका मन साफ़ नहीं है. वे भी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह सिर्फ इसका इस्तेमाल करना चाहते है अपने निजी स्वार्थों के लिए. देशहित, देशहित को तो उन्होंने कब का कचरे के डिब्बे में फेंक दिया है. वैसे जो विकल्प हैं उनसे तो देशहित की उम्मीद करना ही बेवकूफी होगी क्योंकि उनके शब्दकोश में यह शब्द कभी था ही नहीं. निश्चित रूप से मोदी देश की जनता की आखिरी उम्मीद थे लेकिन उन्होंने भी निराश किया है. कम-से-कम सीबीआई के मामले में तो जरूर. हमें तो लगा था कि जब मोदी सत्ता में आएंगे तो सीबीआई को उतना ही शक्तिशाली बनाएँगे जितनी अमेरिका में एफबीआई है परन्तु हुआ इसका उल्टा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें