मंगलवार, 12 जुलाई 2022
भारत श्रीलंका नहीं है विघ्नसंतोषियों
मित्रों, भारत के भारत विरोधी इन दिनों श्रीलंका की परिस्थितियों की तुलना भारत से कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वो दिन दूर नहीं जब भारत में भी श्रीलंका जैसे हालात हो जाएँगे? इस संदर्भ में मुझे एक प्रंसंग याद आ रहा है. मैंने कहीं पढ़ा था कि सोलोमन द्वीप के आदिवासियों के बीच एक विचित्र परंपरा प्रचलित है. जब भी उन्हें किसी वृक्ष को काटना होता है तो वे वृक्ष को घेरकर खड़े हो जाते हैं. उसे घंटों तक शाप देते हैं, बुरा-भला कहते हैं, कोसते रहते हैं. नकारात्मक बातें करते हैं और उसकी असमय मृत्यु की कामना करते हैं. माना जाता है कि इससे वृक्ष की सकारात्मक ऊर्जा पर नकारात्मक ऊर्जा हावी होने लगती है. जो 30 दिन के अंदर-अंदर अपना प्रभाव दिखाती है. हरे-भरे वृक्ष की टहनियां सूखने लगती हैं और वृक्ष की असमय मृत्यु भी हो जाती है, जिसके बाद आदिवासी समाज उस वृक्ष को काट देता है. इस परंपरा का वैज्ञानिक आधार क्या है, ये पता नहीं है लेकिन ये परंपरा अच्छी नहीं हो सकती.
मित्रों, देश के नामी चेहरों इतिहासकार रामचंद्र गुहा, सीनियर वकील प्रशांत भूषण और बैंकर उदय कोटक जैसे लोगों को इस परंपरा में शामिल होने से बचना चाहिए.दिल्ली, मुंबई से भी कम जनसँख्या वाले श्रीलंका (Sri Lanka Crisis) में जारी संकट के बीच गुहा जैसे लोगों ने भारत जैसे विशालकाय देश के दुर्दिन की भविष्यवाणी तो शुरू कर दी है, लेकिन इस भविष्यवाणी का आधार क्या है, ये किसी भी विद्वान ने नहीं बताया है. पोथी और बहीखाता लिखने वाले विद्वानों ने ट्वीट करके या बयान देकर इतनी संक्षिप्त बातें की है कि उनकी चेतावनी भी उनकी चाह लगने लगी है. देखने से ऐसा लगता है कि देश को कोसने वाले गुट का विस्तार हो रहा है, जिसमें आदर्श चेहरे भी शामिल हो रहे हैं. मित्रों, गुहा-भूषण-कोटक ने भारत के दुर्दिन के विश्लेषण की जगह भविष्यवाणी ही क्यों की? श्रीलंका घोर आर्थिक संकट में फंसा है, जिसकी वजह से पूरी सरकार को सत्ता छोड़कर भागना पड़ा है. जो कुर्सी से चिपके रहने का हठ करके बैठे थे, उन्हें भी जनविद्रोह के आगे झुकना पड़ा है. इन्हीं परिस्थितियों में भारत के तीन विद्वानों की ओर से चेतावनी आई है कि भारत भी श्रीलंका की ही राह पर आगे बढ़ रहा है. यानी बहुत जल्द भारत की अर्थव्यवस्था ढह जाएगी, देश बर्बाद हो जाएगा, जनता सड़कों पर आ जाएगी. इतिहासकार रामचंद्र गुहा, सीनियर वकील प्रशांत भूषण और बैंकर उदय कोटक ने भारत सरकार को श्रीलंका संकट से सबक लेने की नसीहत क्यों दी है, अब ये भी समझ लेते हैं.
मित्रों, बैंकर उदय कोटक ने ट्वीट करके कहा है कि- रूस यूक्रेन के बीच जंग चल रही है और ये मुश्किल ही होता जा रहा है. देशों की असल परीक्षा अब है. न्यायपालिका, रेग्युलेटरी अथॉरिटीज, पुलिस, सरकार, संसद जैसी संस्थाओं की ताकत मायने रखेगी. वो ही करना होगा जो सही है. लोकलुभावन नहीं. एक जलता लंका हम सबको बताता है कि क्या नहीं करना चाहिए. एक दौर में बैंकर उदय कोटक केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थक रहे हैं. उन्होंने अपने ट्वीट में सरकार का कहीं नाम भी नहीं लिया है, लेकिन भावनाएं पढ़ने वाले मान रहे हैं कि बैंकर ने परोक्ष रूप से मोदी सरकार को नसीहत दी है, जिसके भविष्य का आकलन करने पर वो सहज परिस्थितियां नहीं पा रहे हैं.
मित्रों, इसी तरह के एक कार्यक्रम में मीडिया से बात करते हुए इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने श्रीलंका के हालातों को भारत के लिए चेतावनी करार दिया और कहा कि- ‘श्रीलंका एशिया का सबसे समृद्ध देश हो सकता था. उनके यहां साक्षरता, स्वास्थ्य सेवाएं, लिंगानुपात की दरें ऊंची थीं. लेकिन सिंहला और बौद्ध बहुसंख्यकों की वजह ये देश बर्बाद हो गया.’ उन्होंने ये भी कहा कि अगर एक धर्म और एक भाषा को महत्व दिया गया तो भारत का हाल भी श्रीलंका जैसा होगा. दरअसल रामचंद्र गुहा ने देश के इतिहास पर अनेक मोटे-मोटे ग्रंथ लिखे हैं, लेकिन उनकी ये वन लाइनर एक पहेली है. किसी से भी पूछा जाए तो वो श्रीलंका में संकट के कई स्पष्ट कारण गिना सकता है, लेकिन धर्म और भाषा का श्रीलंका के मौजूदा संकट पर क्या प्रभाव है, ये समझने के लिए इतिहास के विद्वान का विस्तृत विचार समझना होगा, जो फिलहाल अनुपलब्ध है.
मित्रों, वकील प्रशांत भूषण ने तो हद कर दी है. उन्होंने कुछ अखबारों की कटिंग्स को ट्विटर पर शेयर कर भारत और श्रीलंका के हालातों की तुलना की है. उन्होंने लिखा है कि- श्रीलंका के सत्ताधारियों ने बीते कुछ सालों में जो किया और भारत के सत्ताधारी जो आज कर रहे हैं, उनमें आपको कुछ समानता दिख रही है? क्या भारत में इसके परिणाम भी वैसे ही होंगे? जैसे आज श्रीलंका के हालात हैं? उन्होंने आगे लिखा है कि- गौरतलब है कि श्रीलंका में हालात लगातार बदतर होते जा रहे हैं और अर्थव्यवस्था इतनी कमजोर हो चली है कि विदेशी मुद्रा भंडार घटकर केवल 50 अरब डॉलर तक आ गया है. वहीं, श्रीलंका का दूसरे देशों से लिया कर्ज़ भी बढ़कर 51 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है. दरअसल प्रशांत भूषण एक वरिष्ठ वकील हैं और उन्होंने कई बड़े केस लड़े हैं, केस की फाइलें तैयार की हैं. अन्ना आंदोलन से उनकी छवि और निखरी. परंतु ऐसे विद्वान ने भी विदेशी मुद्रा भंडार के संकट पर आधी अधूरी बात कही है. अपने ट्वीट में वजन डालने के लिए बेसिरपैर के तथ्यों को घुसाया है, तर्क से परहेज किया है.
मित्रों, अब हम विचार करते हैं कि आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी भारत को कोसने वालों की लिस्ट के ही क्यों माने जाते हैं? रघुराम राजन का नाम भारतीय ब्यूरोक्रेसी में रॉकी रॉकस्टार की तरह लिया जाता है. वो 4 सितंबर, 2013 को भारतीय रिजर्व बैंक के 23वें गवर्नर बने. उनका गांधी जी की फोटो वाले नोटों पर नाम छपता रहा है. तमाम उठापटक के बीच 4 सितंबर, 2016 को उन्होंने गवर्नर का पद छोड़ दिया. इसके बाद से रघुराम राजन ने एक अलग ही इकॉनमिस्ट की छवि बनाई. पद छोड़ने के बाद वो एक नए इंडिकेटर पर व्याख्यान देने लगे हैं. भारत की अर्थव्यवस्था पर धार्मिक भेदभाव, नस्लीय भेदभाव (जिसका अर्थशास्त्री ने कोई आधार नहीं दिया है) के प्रभावों का वर्णन किया है. हाल ही में शिकागो को बूथ स्कूल ऑफ बिजनेस में प्रोफेसर रघुनाथ राजन ने एक व्याख्यान दिया और कहा कि- अगर भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि अल्पसंख्यक विरोधी बनती है, तो भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इंडियन प्रोडक्ट के मामले में कई तरह के नुकसानों का सामना कर सकता है. इसके साथ ही भारत में निवेश करने वाले विदेशी निवेशक भी इस बात को लेकर प्रतिक्रिया दे सकते हैं. मित्रों, इतने बड़े अनर्थशास्त्री विद्वान के ऐसे तर्क सुनकर देश की सवा अरब आबादी के दिमाग की नसें फट जानी चाहिए. दरअसल सरकार को चलाने के लिए कई सलाहकार होते हैं. लेकिन क्या कोई सलाहकार ऐसा भी होगा? जिसने सरकार को सलाह दी होगी कि चीन से सामान खरीदने के लिए अपने देश के उद्योगों पर ताला लगा दो, अन्यथा वो लद्दाख और अरुणाचल में देश की जमीन हड़प लेगा. क्या कोई ऐसा सलाहकार भी होगा, जो सरकारों को सलाह देता होगा कि दंगे होते रहने दो. सिर फूटते रहने दो. क्योंकि शासन-प्रशासन की सख्ती से देश बर्बाद हो जाता है. यहां तक कि अगर कश्मीर में पंडितों की हत्या हो रही हो, उनकी बहू-बेटियों से बलात्कार हो रहा हो, उन्हें घाटी से निकाला जा रहा हो, तो भी सरकार को मौन साध लेना चाहिए. ताकि इंडियन प्रोडक्ट दुनिया में बिकता रहे, दुनिया का भारत में पूंजी निवेश होता रहे. अगर ये सच है तो ऐसे सलाहकारों या अर्थशास्त्रियों के विचारों का एक्सरे होना चाहिए. अगर किसी ने आरबीआई गवर्नर जैसे महत्वपूर्ण पद की कुर्सी छोड़ दी हो, तो अपना ज्ञान और ध्यान भी भारत की समस्याओं से हटा लेना चाहिए. वैसे विद्वानों का कांटा कहां पर अटका हुआ है, ये कभी सार्वजनिक नहीं हो पाता. कई अर्थशास्त्रियों के IMF, WB से लेकर जाने कहां-कहां तक तार जुड़े होते हैं. न जाने उनका क्या एजेंडा होता है या फिर स्वार्थ हो सकता है?
मित्रों, कुल मिलाकर बात अर्थव्यवस्था तक पहुंचती है. जिसका मतलब होता है रूपया. जिस रुपये से देश चलता है और दुनिया चलती है. IMF या WB जैसी संस्थाएं लोन देने के लिए घात लगाए बैठी रहती हैं और जिस देश को लोन देती हैं, उसकी अर्थव्यवस्था को निचोड़ लेती हैं. चीन इस मामले में सर्वाधिक कुख्यात है. जिसने श्रीलंका को मौजूदा संकट में धकेला है. बाकी संस्थाओं ने श्रीलंका को पहले ही निचोड़ लिया था. सिंधुजा सिंह ने अपने लेख में भारत और श्रीलंका की स्थितियों का विस्तृत विश्लेषण किया है. उन्होंने याद दिलाया है कि साल 2008 में द ग्रेट रेसेसन आया था. जिसमें यूरोजोन के चार देश PIGS बर्बाद हो गए. पूर्तगाल, आयरलैंड, मिस्र (ग्रीस) और स्पेन. इसकी वजह थी यहां की सरकारों के पॉपुलिस्ट फैसले. इन चारों देशों के शासकों की कोशिश थी कि वो किसी भी तरह से सत्ता में बने रहें. इसके लिए उन्होंने लोकलुभावन फैसले किए, जनता तक सामान और सेवाएं पहुंचाना जारी रखने के लिए भारी भरकम कर्ज लिए. उन्हें उम्मीद थी कि सबकुछ सामान्य हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हालत ये हो गई कि 2011 तक चारों देशों को बैंकरप्ट घोषित करना पड़ा. जिसने यूरोजोन डेट क्राइसिस (Eurozone debt crisis) को जन्म दिया. कुछ यही हाल श्रीलंका का हुआ. श्रीलंका की सरकार ने खर्च में किस तरह दरियादिली दिखाई, ये भी समझिए. 1- चीन से कर्ज लेकर मताला राजपक्षा इंटरनेशनल एयरपोर्ट बनाया, जो दुनिया का अब तक का सबसे वीरान एयरपोर्ट है. 2- चीन से हंबनटोटा पोर्ट के लिए 1.1 बिलियन डॉलर की डील की, लेकिन ये कर्ज श्रीलंका नहीं चुका सका और चीन को हंबनटोटा पोर्ट को 99 साल की लीज पर सौंप देना पड़ा. 3- 2014 में महिंदा राजपक्षे ने चीन के साथ मिलकर कोलंबो पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट शुरू किया, जिसे 2017 तक पूरा होना था, लेकिन 2015 में नई सरकार बनने के बाद ये प्रोजेक्ट रद्द कर दिया गया. इससे श्रीलंका की जनता को खुशी हुई और ये ही त्रासदी की वजह भी बनी. चीन कर्ज में फंसाने के लिए कुख्यात है. उसने हिंद महासागर में अपनी उपस्थिती दर्ज कराने के लिए एक चाल चली थी, जिस चाल के कामयाब होने के बाद श्रीलंका के हालात से उसने विरक्ति दिखानी शुरू कर दी है.
मित्रों,अंतरराष्ट्रीय या घरेलू संबंधों में कोई भी स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, सिर्फ स्वार्थ ही स्थायी होता है. श्रीलंका ने इसे ना समझने की भूल की, जबकि भारत ने चीन से उचित दूरी बनाकर रखी. चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की साजिश को भारत ने भांप लिया था और इस प्रोजेक्ट से दूरी बना ली. इसके बाद भारत ने चीन को डोकलाम से लेकर गलवान तक आंखें नीची कर लेने को मजबूर कर दिया. नतीजा ये है कि अब बदलते वर्ल्ड ऑर्डर में दुनिया को चीन का विकल्प भारत में दिख रहा है. यह भी भारत सरकार की सफलता है. इसे कार्यकालों से नहीं तौला जा सकता. लेकिन ये स्वीकार करना चाहिए कि खुद से ज्यादा ताकतवर देश से टकराकर भारत ने एक परिपाटी तोड़ी है. सीमा की तथाकथित सुरक्षा के लिए चीन को असीमित व्यापार की छूट देने और एक तरह से धनादोहन की लिबर्टी देने से रोका गया है. श्रीलंका से उलट 2008 की क्राइसिस में भारत ने IMF से लोन न लेने का सही फैसला किया था. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष किसी देश को मुफ्त में कर्ज नहीं देता, बल्कि इसका भारी ब्याज वसूलता है, नीतियों में परिवर्तन कराता है. यहां तक कि कर्ज लेने वाले देश की इकॉनमी भी तबाह कर देता है. श्रीलंका ने हर संभव जगह से कर्ज लिया. लेकिन पहले कोरोना और बाद में रूस-यूक्रेन युद्ध ने श्रीलंका की इकॉनमी चौपट कर दी, चाय, मसाले का कारोबार चौपट हो गया. टूरिज्म ठप पड़ गया. तो उसके लिए कर्ज चुकाना भी मुश्किल हो गया. श्रीलंका का महात्वाकांक्षी होना गलत नहीं था, लेकिन एक परिवार के लिए देश और जनता को दांव पर लगा देना गलत था, जो दो दशक तक लगातार किया गया. सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि तात्कालिक लाभ के लिए २०१८ में करों में भारी कटौती की गई और उसकी भरपाई कर्ज लेकर की गई. जो लोग कह रहे थे कि तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में कमी होने पर भारत सरकार क्यों पेट्रोल के दाम कम नहीं कर रही है उनको श्रीलंका की हालत देखकर भारत सरकार के निर्णयों की प्रशंसा कर चाहिए. साथ ही अगर हम २००६ से २०१३ के मध्य मनमोहन सरकार के समय से भारत की अर्थव्यवस्था की तुलना करें तो स्थिति बेहतर है ख़राब नहीं. उस कालखंड में भारत ने कुल २७० अरब डॉलर का विदेशी कर्ज लिया जबकि मोदी के समय सिर्फ १६० अरब डॉलर लिया गया, उस समय भारत सरकार के कर्ज और जीडीपी का अनुपात ६४ प्रतिशत था मोदी के समय ६२ रहा, उस समय विदेशी कर्ज जीडीपी अनुपात २४ प्रतिशत था मोदी के समय १९ प्रतिशत रहा, उस समय मुद्रास्फीति १०.४ थी मोदी के सात साल में ७.०४ रही. साथ ही 2013 में 270 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था जो अब 604 अरब डॉलर है. मतलब यह कि आंकड़े तो बता रहे हैं कि हालात मनमोहन सिंह के समय से अच्छे हैं. फिर जब मनमोहन सिंह के समय भारत श्रीलंका नहीं बना तो अब कैसे बन जाएगा?
मित्रों, कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है- किसी भी देश को अपनी अर्थव्यवस्था चलाने के लिए उद्योग खोलने चाहिए. भारत ने भी आत्मनिर्भर भारत का मिशन शुरू किया है. देखने से लगता है कि ये सही दिशा में उठाया गया कदम है. अगर भारत का आत्मनिर्भर होना सही ना हो तो हमें कंप्यूटर क्रांति लाने वालों से पूछना चाहिए कि आज तक देश अपने लैपटॉप, मोबाइल पर भरोसा क्यों नहीं कर सका? जय जवान-जय किसान का नारा देने वालों से पूछना चाहिए कि अगर वो किसानों के पांव पूजते रहे तो देश में किसान हाशिये पर क्यों चलते चले गए? अगर जवानों की जयकार करते रहे तो एक हथगोला तक विदेशों से ही क्यों आता रहा? प्रश्न कई हैं? लेकिन यहां मूल बात गुहा-कोटक-भूषण की टिप्पणियों की है, जिन्हें भारत का भविष्य श्रीलंका जैसा दिख रहा है. इन तीनों के अलावा रघुराम राजन भी जाने-माने विद्वान हैं. ये देश की थाती हैं, जिनकी बातें सुनी जानी चाहिए, उन्हें नीतियों में शामिल किया जाना चाहिए. लेकिन मोटे-मोटे ग्रंथ लिखने वाले इतिहासकार जब वन लाइनर टिप्पणी कर रहे हों, लंबा-चौड़ा बहीखाता तैयार करने वाले बैंकर जब ट्वीट कर रहे हों, कोर्ट के लिए हजारों पन्नों का केस तैयार करने वाले वकील ने चंद लाइनों में एक ट्वीट पर विचार व्यक्त किया हो, तो उनका मंतव्य समझना मुश्किल ही नहीं असंभव हैं. इन्हें एक तार्किक थ्योरी देनी चाहिए, जो देश को पच सके, जिससे देश को लाभ हो सके. अन्यथा अपनी नीयत को संदिग्ध बनाने से कोई लाभ नहीं है. ऐसी टिप्पणियां अपने ही वृक्ष को कोसने, शाप देने से ज्यादा कुछ साबित नहीं होंगी.
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