बुधवार, 3 अगस्त 2022

विकल्पहीनता से बाहर आता बिहार

मित्रों, इंकलाबी शायर दुष्यंत कुमार ने आज से कई दशक पहले भारतीय लोकतंत्र के लिए कितनी सटीक और हर युग में सामायिक कविता लिखी थी कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए। न हो क़मीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए। ख़ुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही, कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए। वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए। तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शाइर की, ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए। जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए। मित्रों, भारत में नेता का मतलब है सपनों का सौदागर. नेता सपने बेचते हैं, वादे बेचते हैं और हम उनकी बातों में आकर बार-बार उनको चुनते रहते हैं. नीतीश कुमार जब मुख्यमंत्री बने और जब बिहार में सरकार चलानी शुरू की तभी हमने उनसे कहा था कि आप एक अतिवाद को छोड़ कर दूसरे अतिवाद की तरफ जा रहे हैं. लालू-राबड़ी राज में जहाँ प्रशासनिक अधिकारियों की कोई कीमत नहीं रह गई थी नीतीश राज में जनता की कोई कीमत नहीं रह गई है. लालू राज में जहाँ अपराधी जनता को लूट रहे थे नीतीश राज में अधिकारी जनता को लूट रहे हैं. बिहार जल रहा है और नीतीश जी चैन की बंशी बजा रहे हैं. या तो वे लाचार हैं और कुछ कर नहीं पा रहे हैं या फिर उनको इस घनघोर अफसरशाही में मजा आ रहा है. उन्होंने कदाचित मूकदर्शक बिहार की जनता को मूर्खदर्शक समझ लिया है. मित्रों, जब नीतीश जी के क्षेत्र हरनौत के सोनू नामक बच्चे ने नीतीशजी के सामने बिहार के सरकारी स्कूलों की पोल खोल कर रख दी तब लगा था कि अब कम-से-कम बिहार में शिक्षा की स्थिति तो सुधरेगी लेकिन सावन आते ही सारी सख्ती बरसात के पानी में बह गई. सोडावाटर का जोश ठंडा पड़ गया. अब फिर से मास्टर-मास्टरनी स्कूल से गायब हैं या लेटलतीफ हैं. हेडमास्टर सख्ती करे तो उसे पीटा जाता है. जब बिहार की राजधानी पटना के विक्रम के स्कूल की हालत ऐसी है जहाँ तीन मास्टरनी मिलकर उम्रदराज हेड मास्टरनी को कमरा बंद करके पीटती हैं तो दूर-दराज के क्षेत्रों की तो बात ही छोडिए. खुद मेरे गाँव राघोपुर प्रखंड के जुड़ावनपुर बरारी में स्थित मध्य विद्यालय जुड़ावनपुर रामपुर बरारी करारी में शिक्षकों ने पीपा पुल खुलते ही भांज लगा लिया है. पहले दूरवासी जमींदार होते थे अब दूरवासी शिक्षक हैं. सबके सब अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हाजीपुर-पटना में रहने लगे हैं. किसी दिन कोई शिक्षक स्कूल जाता है तो किसी दिन कोई. बस स्कूल का ताला खुल जाना चाहिए. बीच में जब सोनू मीडिया की सुर्ख़ियों में था तब शिक्षकों के लिए स्कूल से निर्धारित समय-सीमा के भीतर अपनी ताजी तस्वीर व्हाटस ऐप पर भेजना अनिवार्य कर दिया गया था लेकिन अब सब माफ़ है. मैं समझता हूँ कि बिहार में शिक्षा की हालत चाहे वो प्राथमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा इतनी बुरी अनपढ़ राबड़ी के समय भी नहीं थी जितनी नीतीश के समय है. आखिर बिहार की जनता ने उनको स्थिति में सुधार लाने के लिए मुख्यमत्री बनाया था या बिगाड़ने और बर्बाद कर देने के लिए? मित्रों, राजस्व और भूमि सुधार विभाग के कामकाज को भी नीतीश सुधार नहीं पा रहे हैं. अभी इसी एक अगस्त को पटना के ही संपतचक सीओ कार्यालय में एक महिला रेखा देवी ने आत्मदाह करने का प्रयास किया। उसकी १५ धुर जमीन की दाखिल-ख़ारिज के लिए सीओ २ लाख रूपये की रिश्वत मांग रहा है. बिहार सरकार को यह समझना होगा कि जनता को इस बात से मतलब नहीं है कि आपने कितने सीओ को निलंबित किया, बर्खास्त किया या कितने पर जुर्माना लगाया बल्कि बिहार की जनता को तो तभी तसल्ली मिलेगी जब उसकी जमीन की दाखिल-ख़ारिज बिहार रिश्वत लिए होने लगेगी. मित्रों, बिहार में ऐसा कोई सरकारी काम नहीं जिसमें रिश्वत नहीं ली जाती. बिना रिश्वत दिए न तो राशन कार्ड बनता है और न ही १० प्रतिशत कमीशन दिए बिना प्रधानमंत्री आवास योजना का पैसा मिलता है. मनरेगा तो भ्रष्टाचार की गंगा है जिसमें ठेकेदारों के लिए ३५ प्रतिशत कमीशन फिक्स है. औद्योगिक ऋण में अनुदान की राशि घूस में चली जाती है जिससे लाभुकों को अनुदान का लाभ ही नहीं मिल पाता. हर घर नल का जल घर से कहीं ज्यादा सडकों पर बह रहा है. बिहार पुलिस से तो चम्बल के डाकू अच्छे. नीतीश जी जैसे शाहे बेखबर के गृह मंत्री होने से बिहार के पुलिस अधिकारियों को जैसे जनता को लूटने की खुली छूट मिल गई है. जनता के नौकर अफसर खुद को भगवान समझने लगे हैं. सबकुछ खुलेआम हो रहा है, सबको पता है लेकिन नीतीश जी को कुछ भी पता नहीं है. एक रंजीत रजक मांझी जी का खास था एक रंजीत कुमार सिंह नीतीश जी की नाक का बाल है. व्यक्ति बदल गए लेकिन किरदार नहीं बदला इसलिए शायद बिहार नहीं बदला. मित्रों, बिहार बदलता भी तो कैसे बिहारियों के पास विकल्प ही नहीं था. नीतीश को हटाकर लालू के उस लाल को तो मुख्यमंत्री बना नहीं सकते जो लिखी हुई हिंदी भी नहीं पढ पाता लेकिन चारा-घोटाले के पैसे के दम पर कैम्ब्रिज का दौरा करता है. फिर लालू के लाल को गद्दी सौंपने का मतलब होता बिहार को फिर से जातिवाद और यादववाद की आग में झोंक देना. यह स्थिति तो नीतीश के जंगलराज से भी बुरी स्थिति होगी. मित्रों, यह हमारे बिहार और हमारा सौभाग्य है कि अब हमारे समक्ष एक सशक्त और सक्षम विकल्प उपलब्ध है और वह विकल्प हैं प्रशांत किशोर जो हर तरह से बिहार के मुख्यमंत्री बनने के लायक हैं. प्रशांत जी के पास जोश भी है और होश भी है. योजना निर्माण के तो वो महारथी हैं. जब उनके नेतृत्व में बिहार में सरकार बनेगी तब बिहार को असली डबल ईंजन वाली सरकार मिलेगी. वर्तमान में तो सिर्फ मोदी जी की केंद्र सरकार का ईंजन चालू है नीतीश जी की सरकार का ईंजन तो कई वर्ष पहले से ही बंद है. आखिर कब तक हम बिहार के लिए बोझ बन चुके नीतीश जी को ढोते रहेंगे? आखिर कब तक? आन्दोलन की भूमि बिहार से फिर एक बार बिहार को बदलने और बचाने के लिए आन्दोलन खड़ा करना होगा जिसके लिए बेदाग छविवाले प्रशांत जी पहल कर चुके हैं. अगर बिहार को बचाना है प्रशांत किशोर को लाना है.

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