सोमवार, 17 अप्रैल 2023
अतीक के आतंक का अंत
मित्रों, यह धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष कोई आज का नहीं है बल्कि हमेशा से है. कहते हैं कि सतयुग में भगवान स्वयं आकर धर्म की जीत सुनिश्चित करते थे फिर त्रेता में उन्होंने रामावतार लिया और अपने अवतार के हाथों से धर्म की संस्थापना की. इसके बाद द्वापर में भगवान ने महाभारत में भाग नहीं लिया बल्कि सारथी बनकर धर्म की जीत को सुनिश्चित किया. अब जबकि कलियुग है भगवान ने सारथी बनना भी छोड़ दिया है और कर्मफल के आधार पर आतातियों का अंत करते हैं. मतलब कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा.
मित्रों, हमारा तो यही मानना है अब कोई कथित आसमानी किताब चाहे कुछ भी कहती हो. अब परसों रात में मारे गए अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को ही ले लीजिए जिनका आतंक इतना ज्यादा था कि जज तक उसके डर से थर-थर कांपते थे. और उस आधुनिक युग के रावण को तीन छोटे-छोटे बच्चों ने मार डाला. कहते हैं कि चाहे कितना भी बड़ा गुंडा या राक्षस क्यों न हो सबका एक-न-एक दिन अंत निश्चित है. जिस तरह अतीक ने सैकड़ों लाशों की सीढी बनाकर फर्श से अर्श तक का सफ़र तय किया था वैसे ही उससे भी बड़ा डॉन बनने की महत्वाकांक्षा रखनेवाले तीन युवाओं ने उसे मौत के घाट उतार दिया. एक बार फिर से कर्मफल का सिद्धांत सत्य साबित हुआ.
मित्रों, अब चाहे वह लोग कितनी भी छाती पीटें जो अतीक की मदद से चुनाव जीतते थे अतीक तो जिन्दा होने से रहा. इस हत्याकांड में पुलिस प्रशासन की क्या भूमिका थी या कोई भूमिका थी ही नहीं लेकिन यह पुलिस-प्रशासन की चूक तो है ही और अतीक और अशरफ की सुरक्षा में लगे कर्मियों और पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई भी हो रही है.
मित्रों, अंत में समस्त भूमंडलवासियों से यह कहना चाहूंगा कि सत्कर्म पर चलिए और किसी कमजोर पर जुल्म मत ढाहिए. हो सकता है कि आप इंसानों की अदालत से बच जाएं लेकिन भगवान की अदालत जो सबसे बड़ी अदालत है से नहीं बच पाएंगे और उसकी लाठी बेआवाज होती है.
बुधवार, 12 अप्रैल 2023
मनीष कश्यप, नीतीश कुमार और रामनवमी का त्योहार
मित्रों, कई साल पहले मैंने किसी कवि की एक रचना पढ़ी थी जिसका भाव कुछ इस प्रकार था-
भारत में प्रत्येक मतदान के समय
हम बकरियां यानि जनता अपने लिए सुयोग्य कसाई का चुनाव करते हैं.
हर चुनाव के बाद जनता को लगता है कि इस बार भी उसे ठगा गया है.
जिनको समझा था शरीफ जालिम निकले,
इंसाफ के खूनी ही मुंसिफ और हाकिम निकले;
जिन्होंने वादा किया था इंसाफ दिलाने का,
वक्त आया तो वही चोर और कातिल निकले.
मित्रों, यकीं नहीं होता कि बिहार को पिछले 33 सालों से बर्बाद और तबाह करनेवाले लोग बिहार आंदोलन की उपज हैं. उस बिहार आंदोलन की जो भारत में लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर चलाया गया था. जिन नेताओं ने अपने बच्चों के नाम तक कुख्यात मीसा कानून के नाम पर रखे थे क्या विडंबना है कि आज उनके बच्चे अपनी और अपनी सरकार की आलोचना में एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं हैं. आप ही बताईए आखिर मनीष कश्यप का कसूर क्या था? यही न कि उसने आधुनिक युग के रावणों को सच का आईना दिखाने की कोशिश की, यही न कि उसने भारत के संविधान पर भरोसा किया जो भारत के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. हो सकता है मनीष की भाषा आक्रामक हो लेकिन उसकी रिपोर्ट झूठ नहीं है उन्होंने उसी को चोर कहा है जो कोर्ट में चोर साबित हो चुके हैं. रही बात तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों की प्रताड़ना की तो अगर गरीबों के आंसुओं को अभिव्यक्ति देनेवाली रिपोर्टें झूठी हैं भी तो कार्रवाई बिहार के उन सारे मीडिया संस्थानों के खिलाफ भी होनी चाहिए जिनमें तमिलनाडु की रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी और जिन मीडिया संस्थानों ने सरकार के डर से अचानक तमिलनाडु की रिपोर्ट छापनी बंद कर दी. सवाल है कि क्या बिहार में लोकतंत्र है? क्या मनीष की गिरफ़्तारी लोकतंत्र की हत्या नहीं है. अब उन पत्रकारों को क्या कहें जिनको सांप सूंघ गया है. आपातकाल के समय पत्रकारों के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए लाल कृष्ण आडवानी ने कहा था कि सरकार ने तो उनको सिर्फ झुकने के लिए कहा था लेकिन वो तो रेंगने लगे. क्या बिहार के पत्रकार भी ठीक उसी तरह से नहीं डर गए हैं जैसे कक्षा के एक बच्चे की पिटाई से पूरी कक्षा के बच्चे डर जाते हैं?
मित्रों, अब हम बात करेंगे रामनवमी के त्योहार के दौरान बिहार में रामजी की झांकी पर हुए पथराव और दो हिंदुओं की हत्या पर. यह कितना निराशाजनक है कि हम हिंदू अब बिहार में अपना त्योहार तक नहीं मना सकते. धीरे-धीरे पूरा भारत कश्मीर बनता जा रहा है. सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो सबके सब मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे हुए हैं. हिन्दुओं के जुलूसों पर पत्थरबाजी करनेवाली मस्जिदों और मजारों को ढाहने के बजाए नेतागण ईफ्तार पार्टी देने में मशगुल हैं. सबसे दुखद पहलू तो यह है कि रामनवमी की हिंसा में मारे भी हिंदू गये और गिरफ्तारी भी हिंदुओं की हो रही है. लगता है जैसे नीतीश कुमार ने बिहार में उस सोनिया कानून को लागू कर दिया है जो अगर यूपीए सरकार के समय लागू हो जाता तो चाहे दंगे एकतरफा तौर पर मुसलमान करते और एकतरफा तौर पर भले ही हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार किया जाता, दंगों के लिए दोषी हिन्दू ही माने जाते और जेल भी हिन्दू ही जाते. जाहिर है जब तक हिन्दू बंटा हुआ है तब तक कटता रहेगा.
जिनका कुर्सी धरम है,
जिनका कुर्सी ईमान है;
वो न होंगे हिन्दुओं के,
भले ही उनका हिन्दू नाम है.
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