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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

कबीर के नाम पर पाखंड का साम्राज्य

इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि आजीवन पाखंडवाद का विरोध करनेवाले मध्यकालीन संत कबीर के नाम पर उनके कथित अनुनायियों ने पाखंड का साम्राज्य चला रखा है.कल मैं एक कबीरपंथी परिवार के श्राद्ध कार्यक्रम में निमंत्रित था.कार्यक्रम में मेरे मोहल्ले में रहनेवाले कबीर मठ के महंथ जी को भी जाना था.वे इसमें मुख्य पुरोहित की भूमिका निभानेवाले थे.हमने सोंचा कि क्यों न उनके ही साथ हो लिया जाए.लेकिन उन्होंने कहा उन्हें अभी कुछ देर होगी.अंत में हमने बस पकड़ ली.जब हम मेजबान के दरवाजे पर पहुंचे तब वहां बीजक पाठ के साथ अग्नि में आहुति दी जा रही थी.बीजक पाठ के दौरान संस्कृत के मन्त्र सुनकर मुझे घोर आश्चर्य हुआ.कम-से-कम इसका संस्कृतवाला अंश तो कबीर का लिखा हुआ नहीं ही हो सकता है क्योकि कबीर अनपढ़ थे और संस्कृत के विरोधी भी.उन्होंने तो स्पष्ट घोषणा की थी कि संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर.करीब दो घन्टे तक कबीर ज्योति स्वाहा किया जाता रहा.क्या कभी कबीर ने कहा था कि उनके मरने के बाद उन्हें भगवान मानकर उनकी पूजा की जाए?वे तो घोर मानवतावादी थे और खुद को भी मानव ही मानते थे.कबीर को मन्त्रों में राम से भी बड़ा बताया जा रहा था.उस कबीर को जो अपने को राम का कुत्ता मानते थे मैं तो कुता राम का मोतिया मेरा नाऊँ, गले राम की जेवड़ी जित खींचे तित जाऊं.क्या यह स्वयं कबीर की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं था? उसके बाद कबीर जी की आरती हुई.उन्हीं कबीर की जिन्होंने भगवान राम की आरती लिखी थी.उस आरती के अंत में उन्होंने खुद रचयिता के रूप में अपने नाम का उल्लेख किया है.पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं तुलसी के पत्र कंठ मल हीरा, हरखि निरखि गावे दस कबीरा.यह आरती हमारे वैशाली जिले में सत्यनारायण की पूजा के बाद गायी जाती है.इस आरती में भी राम कबीर की सेवा में चंवर डुला रहे थे.हवन के बाद निर्गुण भजन गाये गए लेकिन बीच-बीच में फ़िल्मी धुनों के साथ.उसके बाद भोजन का कार्यक्रम शुरू हुआ.महंथजी इस बीच पधार चुके थे.मुझे यह देखकर अचरज हो रहा था कि बूढ़े और बुजुर्ग लोग भी उनका चरण-स्पर्श कर रहे थे.क्या इससे बड़ा भी कोई पाखंड हो सकता है?कबीर ने कभी ब्राह्मणों की चरणवंदना और उन्हें ऊंचा मानने का विरोध किया था-जो तू बामन बामनी का जाया आन बाट मंह क्यूं नहीं आया.क्या एक पाखंड का जवाब दूसरे पाखंड से दिया जाता है?विदाई के समय महंथ जी और उनके शिष्य दोनों को कपड़ों के साथ-साथ क्रमशः १००० और ५०० रूपये दिए गए चरणस्पर्श के साथ और उन्होंने बिना किसी नानुकुर के उन पैसों को अपनी-अपनी जेबों के हवाले कर दिया.यानी उन्होंने इसे अपना अधिकार समझा.तो क्या उन्होंने संन्यास का यह मार्ग पैसा कमाने के लिए अपनाया है?क्या ये संन्यासी वास्तविक संन्यासी हैं और इन पैसों का क्या करते होंगे?इनकी मासिक आमदनी तो ६०-७० हजार रूपये तक हो सकती है.क्या ये अपने घरवालों की आर्थिक मदद नहीं करते होंगे? क्या संन्यास भी व्यवसाय है और क्या कबीर इस व्यवसाय का समर्थन करते?कदापि नहीं.मैं जिस कबीर को जनता हूँ वे इसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करते.मैंने शिष्य महाराज से पूछा कि आप शादी करेंगे या नहीं.आपके गुरु ने तो की नहीं.उन्होंने कहा वे भी शादी नहीं करेंगे.मैंने पूछा क्यों.उनका जवाब था यही परंपरा है.मैंने कहा आप जिन कबीर जी को राम से भी बड़ा बता रहे थे उन्होंने तो दो-दो शादियाँ की थी.उन्होंने फ़िर परंपरा वाली बात दोहराई.मैंने पूछा कि आपके कबीर तो परंपरा विरोधी थे तो आप क्यों नहीं हो सकते?इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं था.मैंने फ़िर पूछा कि कबीर तो मूर्ति पूजा के विरोधी थे फ़िर आपलोग क्यों उनकी मूर्ति बिठाकर पूजा करते हैं? उन्होंने कहा कि उन लोगों के लिए मूर्ति केवल एक माध्यम है भगवान नहीं.मैंने कहा लेकिन कबीर तो निर्गुण थे और मानते थे कि भगवान का कोई रंग-रूप नहीं होता.अब फ़िर से उन्होंने चुप्पी साध ली.कहने का मतलब यह कि कबीरपंथी कबीर के नाम पर जो पाखंडवाद फैला रहे हैं वह तर्क की कसौटी पर किसी भी तरह टिक ही नहीं सकता.आखिर कबीर भी तो तर्कवादी थे परम्परावादी नहीं. तभी तो वे कहते थे-मैं कहता हूँ आंखन देखी तू कहता कागद की लेखी,तेरा मेरा मनुआ कैसे एक होई रे.