मित्रों,इस समय शारदीय नवरात्र चल रहा है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार त्रेता युग में श्रीराम ने भी शक्ति की अराधना की थी और अंततः आदिमाता भगवती के आशीर्वाद से विजयादशमी के दिन विद्वान परन्तु जनपीड़क रावण का वध कर मानवता का उद्धार किया था। निराला से पहले भी संस्कृत और बंगला भाषा के कई कवियों ने इस प्रसंग पर काव्यों की रचना की है परन्तु जो प्रासंगिकता,बिंबात्मकता,भावोत्पादकता और प्रतीकात्मकता निरालारचित 'राम की शक्ति पूजा' में पाई जाती है अन्यत्र अप्राप्य है। निराला के राम भगवान राम नहीं हैं बल्कि मानव राम हैं,पुरूषोत्तम राम हैं। वास्तव में निराला के राम राम हैं ही नहीं बल्कि स्वयं निराला हैं,अपने समय में गरीब,दानी,प्रताड़ित,पराजित और इन सबके परिणामस्वरूप विक्षिप्त सत्य के प्रतीक रहे निराला।
मित्रों,कविता 'राम की शक्ति पूजा' में वर्तमान को धारण करने की अद्भुत क्षमता है। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है इसकी प्रासंगिकता घटने के बदले बढ़ती ही जा रही है। कविता के आरंभ में अपने ही रक्त से सने श्रीराम की पराजित सेना के चुपचाप,सिर झुकाए शिविरों में लौटने का वर्णन है। चारों तरफ अमावस्या का अंधेरा,पराजय का सन्नाटा है। आकाश अंधकार उगल रहा है,हवा का चलना रूका हुआ है,पृष्ठभूमि में स्थित समुद्र गर्जन कर रहा है,पहाड़ ध्यानस्थ है और मशाल जल रही है। यह परिवेश किसी हद तक राम की मनोदशा को प्रतिबिंबित करता है,जो संशय और निराशा से ग्रस्त है। सारी परिस्थितियाँ उनके प्रतिकूल हैं,बस उनकी बुद्धि (मशाल) ने अभी तक उनका साथ नहीं छोड़ा है और वह प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करती हुई अभी भी जागृत है।
मित्रों,स्थितप्रज्ञ राम को भी उनके मन में उत्पन्न संशय बार-बार हिला दे रहा है। रह-रहकर उनके प्राणों में बुराई और अधर्म की साक्षात मूर्ति रावण की जीत का भय जाग उठता है। इन क्षणों में राम को शक्ति की वह भयानक मूर्ति याद आती है जो उन्होंने आज के युद्ध में देखी थी। राम ने रावण को मारने के लिए असंख्य दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया,लेकिन वे सारे-के-सारे बुझते और क्षणभर में शक्ति के शरीर में समाते चले गए जैसे उन्हें परमधाम मिल गया हो। राम ने अपनी स्मृति में यह जो दृश्य देखा तो अतुल बलशाली होते हुए भी वे अपनी जीत के प्रति शंकालु हो उठे और उन्हें लगा कि शायद वे अब अपनी प्रिया सीता को छुड़ा ही नहीं पाएंगे-
"धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका।"
मित्रों,राम परेशान हैं यह सोंचकर कि 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति है'। ऐसे में अन्याय और अधर्म के साक्षात प्रतीक रावण को कैसे पराजित किया जाए-
"लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
रावण अधर्मरत भी अपना,मैं हुआ अपर
यह रहा शक्ति का खेल समर,शंकर,शंकर!"
मित्रों,राम के नेत्रों से इस समय चुपचाप अश्रुधारा बह रही थी। वे उदास थे परन्तु पराजित नहीं थे और बार-बार उनकी भुजाएँ फड़क उठती थीं-"हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त"। राम का एक मन और था जो अभी तक भी चैतन्य था-
"वह एक और मन रहा,राम का जो न थका
जो नहीं जानता दैन्य नहीं जानता विनय।"
तभी जांबवान राम को शक्ति पूजा के लिए प्रेरित करते हैं। वे राम को शक्ति की मौलिक कल्पना करने के लिए कहते हैं-"शक्ति की करो मौलिक कल्पना,आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।" राम सिंहभाव से शक्ति की आराधना करते हैं और शक्ति अर्थात् भगवती दुर्गा से विजय होने का वरदान प्राप्त करते हैं। यहाँ निराला ने राम की मौलिक कल्पना में सिंह अर्थात् शक्तिवान को देवी के जनरंजन-चरण-कमल-तल दिखाया है अर्थात् उनके मतानुसार शक्ति का प्रयोग हमेशा जनहित में ही होना चाहिए।
मित्रों,प्रत्येक युग की तरह वर्तमान भारत में भी धर्म-अधर्म का युद्ध अनवरत चल रहा है। आज के भारत में भी शक्ति अधर्म की तरफ है और आज के भारत में भी सत्यवादी और ईमानदार लोग शर्मिंदा,पराजित और निराश हैं। आज के भारत में अन्ना हजारे,किरण बेदी,अरविन्द केजरीवाल और अशोक खेमका जैसे लोग धर्म व राम के प्रतीक और हमारे भ्रष्ट राजनेता यथा-मनमोहन सिंह,सोनिया गांधी,नितिन गडकरी,सलमान खुर्शीद,दिग्विजय सिंह आदि अधर्म व रावण के प्रतीक माने जा सकते हैं। आज के भारत में नेतारूपी रावण सत्ता के अहंकार में जन-गण-मन के नायक राम को सड़क पर भटकनेवाला साधारण मानव समझने की भूल कर रहा है और दंभपूर्वक चीख-चीखकर कह रहा है कि वह सड़कछाप लोगों अथवा नाली के कीड़ों के प्रश्नों के उत्तर नहीं देगा।
मित्रों,कभी त्रेता के रावण ने भी राम को तुच्छ व निर्बल तपस्वी समझ लेने की गलती की थी। वही भूल आज का रावण भी कर रहा है लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या आज का राम कभी इतनी शक्ति अर्जित कर पाएगा कि वह रावण (अधर्म व भ्रष्टाचार) का समूल नाश कर सके? क्या उसमें रावण द्वारा शक्ति की की जा रही अराधना का उत्तर अपेक्षाकृत दृढ़ अराधना से देने की ताकत है,क्षमता है? आज का रावण भी अत्यंत मायावी है और वह निश्चय ही साम-दाम-दंड-भेद चारों युक्तियों का दुरूपयोग करेगा। वह कभी झूठे आरोप लगाएगा तो कभी सांप्रदायिक और जातीय कार्ड खेलेगा। अव देखना है कि हमारे राम के तरकश में क्या ऐसे तीर मौजूद हैं जो रावण के इन विषबुझे तीरों को काट सकें। प्रत्येक युग का युगधर्म तो यही कहता है कि सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं। तो क्या निकट-भविष्य में हमारे राम की जीत होनेवाली है और क्या निकट-भविष्य में राम-राज्य एक मिथक मात्र नहीं रह जानेवाला है या एक बार फिर रावणी शक्तियों की ही जीत होगी,भारतमाता का उद्धार नहीं हो सकेगा और रावण-राज ही चलता रहेगा? हमारा वर्तमान और भविष्य सबकुछ राम की अराधना पर निर्भर करता है और निर्भर करता है इस बात पर भी कि हमारे राम में कितनी मानसिक दृढ़ता है,कितनी संघर्षशीलता है और कितना पराक्रम है। त्रेता में तो वानर-भालुओं ने राम की तन-मन-धन से सहायता की थी क्या इस कलियुग में राम आम जनता की सेना बना पाएंगे और क्या खोज पाएंगे और प्राप्त कर पाएंगे हनुमान,सुग्रीव,अंगद जैसे निष्ठावान सेनानायकों की सेवा को? मैं इस समय वर्तमान में लिख रहा हूँ और चूँकि समय का पहिया गोल है इसलिए भविष्य हमेशा की तरह मेरी दृष्टि से ओझल है। मैं तो बस इतना ही देख पा रहा हूँ कि मेरे आज के भारत का राम भारत के आम आदमी की शक्ति की मौलिक कल्पना करने और फिर उसके आधार पर शक्ति की दृढ़ अराधना करने में लीन है-
या आमजनता सर्वनेताषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नमः।
मित्रों,कविता 'राम की शक्ति पूजा' में वर्तमान को धारण करने की अद्भुत क्षमता है। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है इसकी प्रासंगिकता घटने के बदले बढ़ती ही जा रही है। कविता के आरंभ में अपने ही रक्त से सने श्रीराम की पराजित सेना के चुपचाप,सिर झुकाए शिविरों में लौटने का वर्णन है। चारों तरफ अमावस्या का अंधेरा,पराजय का सन्नाटा है। आकाश अंधकार उगल रहा है,हवा का चलना रूका हुआ है,पृष्ठभूमि में स्थित समुद्र गर्जन कर रहा है,पहाड़ ध्यानस्थ है और मशाल जल रही है। यह परिवेश किसी हद तक राम की मनोदशा को प्रतिबिंबित करता है,जो संशय और निराशा से ग्रस्त है। सारी परिस्थितियाँ उनके प्रतिकूल हैं,बस उनकी बुद्धि (मशाल) ने अभी तक उनका साथ नहीं छोड़ा है और वह प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करती हुई अभी भी जागृत है।
मित्रों,स्थितप्रज्ञ राम को भी उनके मन में उत्पन्न संशय बार-बार हिला दे रहा है। रह-रहकर उनके प्राणों में बुराई और अधर्म की साक्षात मूर्ति रावण की जीत का भय जाग उठता है। इन क्षणों में राम को शक्ति की वह भयानक मूर्ति याद आती है जो उन्होंने आज के युद्ध में देखी थी। राम ने रावण को मारने के लिए असंख्य दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया,लेकिन वे सारे-के-सारे बुझते और क्षणभर में शक्ति के शरीर में समाते चले गए जैसे उन्हें परमधाम मिल गया हो। राम ने अपनी स्मृति में यह जो दृश्य देखा तो अतुल बलशाली होते हुए भी वे अपनी जीत के प्रति शंकालु हो उठे और उन्हें लगा कि शायद वे अब अपनी प्रिया सीता को छुड़ा ही नहीं पाएंगे-
"धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका।"
मित्रों,राम परेशान हैं यह सोंचकर कि 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति है'। ऐसे में अन्याय और अधर्म के साक्षात प्रतीक रावण को कैसे पराजित किया जाए-
"लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
रावण अधर्मरत भी अपना,मैं हुआ अपर
यह रहा शक्ति का खेल समर,शंकर,शंकर!"
मित्रों,राम के नेत्रों से इस समय चुपचाप अश्रुधारा बह रही थी। वे उदास थे परन्तु पराजित नहीं थे और बार-बार उनकी भुजाएँ फड़क उठती थीं-"हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त"। राम का एक मन और था जो अभी तक भी चैतन्य था-
"वह एक और मन रहा,राम का जो न थका
जो नहीं जानता दैन्य नहीं जानता विनय।"
तभी जांबवान राम को शक्ति पूजा के लिए प्रेरित करते हैं। वे राम को शक्ति की मौलिक कल्पना करने के लिए कहते हैं-"शक्ति की करो मौलिक कल्पना,आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।" राम सिंहभाव से शक्ति की आराधना करते हैं और शक्ति अर्थात् भगवती दुर्गा से विजय होने का वरदान प्राप्त करते हैं। यहाँ निराला ने राम की मौलिक कल्पना में सिंह अर्थात् शक्तिवान को देवी के जनरंजन-चरण-कमल-तल दिखाया है अर्थात् उनके मतानुसार शक्ति का प्रयोग हमेशा जनहित में ही होना चाहिए।
मित्रों,प्रत्येक युग की तरह वर्तमान भारत में भी धर्म-अधर्म का युद्ध अनवरत चल रहा है। आज के भारत में भी शक्ति अधर्म की तरफ है और आज के भारत में भी सत्यवादी और ईमानदार लोग शर्मिंदा,पराजित और निराश हैं। आज के भारत में अन्ना हजारे,किरण बेदी,अरविन्द केजरीवाल और अशोक खेमका जैसे लोग धर्म व राम के प्रतीक और हमारे भ्रष्ट राजनेता यथा-मनमोहन सिंह,सोनिया गांधी,नितिन गडकरी,सलमान खुर्शीद,दिग्विजय सिंह आदि अधर्म व रावण के प्रतीक माने जा सकते हैं। आज के भारत में नेतारूपी रावण सत्ता के अहंकार में जन-गण-मन के नायक राम को सड़क पर भटकनेवाला साधारण मानव समझने की भूल कर रहा है और दंभपूर्वक चीख-चीखकर कह रहा है कि वह सड़कछाप लोगों अथवा नाली के कीड़ों के प्रश्नों के उत्तर नहीं देगा।
मित्रों,कभी त्रेता के रावण ने भी राम को तुच्छ व निर्बल तपस्वी समझ लेने की गलती की थी। वही भूल आज का रावण भी कर रहा है लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या आज का राम कभी इतनी शक्ति अर्जित कर पाएगा कि वह रावण (अधर्म व भ्रष्टाचार) का समूल नाश कर सके? क्या उसमें रावण द्वारा शक्ति की की जा रही अराधना का उत्तर अपेक्षाकृत दृढ़ अराधना से देने की ताकत है,क्षमता है? आज का रावण भी अत्यंत मायावी है और वह निश्चय ही साम-दाम-दंड-भेद चारों युक्तियों का दुरूपयोग करेगा। वह कभी झूठे आरोप लगाएगा तो कभी सांप्रदायिक और जातीय कार्ड खेलेगा। अव देखना है कि हमारे राम के तरकश में क्या ऐसे तीर मौजूद हैं जो रावण के इन विषबुझे तीरों को काट सकें। प्रत्येक युग का युगधर्म तो यही कहता है कि सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं। तो क्या निकट-भविष्य में हमारे राम की जीत होनेवाली है और क्या निकट-भविष्य में राम-राज्य एक मिथक मात्र नहीं रह जानेवाला है या एक बार फिर रावणी शक्तियों की ही जीत होगी,भारतमाता का उद्धार नहीं हो सकेगा और रावण-राज ही चलता रहेगा? हमारा वर्तमान और भविष्य सबकुछ राम की अराधना पर निर्भर करता है और निर्भर करता है इस बात पर भी कि हमारे राम में कितनी मानसिक दृढ़ता है,कितनी संघर्षशीलता है और कितना पराक्रम है। त्रेता में तो वानर-भालुओं ने राम की तन-मन-धन से सहायता की थी क्या इस कलियुग में राम आम जनता की सेना बना पाएंगे और क्या खोज पाएंगे और प्राप्त कर पाएंगे हनुमान,सुग्रीव,अंगद जैसे निष्ठावान सेनानायकों की सेवा को? मैं इस समय वर्तमान में लिख रहा हूँ और चूँकि समय का पहिया गोल है इसलिए भविष्य हमेशा की तरह मेरी दृष्टि से ओझल है। मैं तो बस इतना ही देख पा रहा हूँ कि मेरे आज के भारत का राम भारत के आम आदमी की शक्ति की मौलिक कल्पना करने और फिर उसके आधार पर शक्ति की दृढ़ अराधना करने में लीन है-
या आमजनता सर्वनेताषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै नमो नमः।
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